Wednesday, February 5, 2025

काम वो करें जिससे आपको प्यार हो

 राघव एक छोटे से शहर में रहने वाला साधारण लड़का था। वह अपने परिवार के साथ रहता था और उनके सुख-दुख में हमेशा साथ रहता था। राघव का सपना था कि वह कुछ ऐसा करे जिससे उसका दिल खुश हो और वह अपनी जिंदगी में सच्चा सुकून महसूस कर सके। लेकिन समाज और परिवार के दबाव में उसने अपने दिल की बात को हमेशा दबाया।

राघव के पिता चाहते थे कि वह इंजीनियर बने और परिवार की जिम्मेदारियों को संभाले। राघव ने अपने पिता की बात मानते हुए इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू कर दी। हालांकि वह पढ़ाई में अच्छा था, लेकिन उसका मन पढ़ाई में नहीं लगता था। उसका सच्चा जुनून तो पेंटिंग था। वह बचपन से ही कागज पर रंगों से खेलता था और अपनी कल्पनाओं को चित्रों में बदलता था।

इंजीनियरिंग की पढ़ाई खत्म करने के बाद राघव ने एक बड़ी कंपनी में नौकरी कर ली। सबको लगा कि अब उसकी जिंदगी में सब कुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन राघव अंदर से खुश नहीं था। वह रोज ऑफिस जाता, काम करता, लेकिन उसके चेहरे पर खुशी की झलक नहीं दिखती। उसे लगता था कि वह अपनी जिंदगी के साथ न्याय नहीं कर रहा।

एक दिन, ऑफिस से लौटते वक्त उसने एक सड़क किनारे पेंटिंग बनाते हुए एक कलाकार को देखा। वह उसकी पेंटिंग को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया। उसने सोचा, "अगर यह कलाकार अपने सपने को जी सकता है, तो मैं क्यों नहीं?" उसी दिन राघव ने फैसला किया कि वह अपनी जिंदगी को अपने तरीके से जिएगा और वही करेगा जिससे उसे प्यार हो।

राघव ने अपनी नौकरी छोड़ने का साहसिक फैसला लिया। उसके इस फैसले से परिवार और समाज के लोग नाराज हुए। उन्हें लगा कि राघव पागल हो गया है। लेकिन राघव ने किसी की बातों पर ध्यान नहीं दिया। उसने अपने दिल की सुनी और एक छोटा सा स्टूडियो खोला।

शुरुआत में राघव को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उसके पास पैसे नहीं थे, और लोग उसकी पेंटिंग्स खरीदने में रुचि नहीं दिखा रहे थे। लेकिन उसने हार नहीं मानी। वह दिन-रात मेहनत करता और अपनी कला को निखारता।

धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग लाने लगी। उसकी बनाई हुई पेंटिंग्स को लोग पसंद करने लगे। सोशल मीडिया पर उसकी कला वायरल हो गई, और उसकी पहचान एक प्रतिभाशाली कलाकार के रूप में बनने लगी। उसने अपनी कला के माध्यम से अपने दिल की बात दुनिया तक पहुंचाई।

आज राघव एक सफल कलाकार है। उसकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी देश-विदेश में लगती हैं। उसने अपने सपने को जीने का जो फैसला किया था, उसने उसकी जिंदगी बदल दी।

राघव की कहानी हमें यह सिखाती है कि जिंदगी में वही काम करना चाहिए जिससे हमें खुशी मिले। अगर हम अपने दिल की सुनें और अपने सपने को जीने का साहस दिखाएं, तो कोई भी मुश्किल हमें रोक नहीं सकती।


"काम वो करें जिससे आपको प्यार हो, क्योंकि सच्ची सफलता वहीं है जहां आपका दिल है।"

Monday, February 3, 2025

अगर आप उड़ नहीं सकते तो दौड़िए, अगर दौड़ नहीं सकते तो चलिए और अगर चल भी नहीं सकते तो रेंगिए, जो कुछ भी कीजिए लेकिन आपको सिर्फ आगे ही बढ़ना है

यह कहानी मोहन की है, जो एक छोटे से गाँव में रहता था। मोहन का सपना था कि वह एक दिन एक बड़ा धावक बने और राष्ट्रीय स्तर पर दौड़ में हिस्सा ले। उसका सपना बड़ा था, लेकिन उसकी परिस्थितियाँ बेहद कठिन। उसके पिता किसान थे और घर में आर्थिक तंगी थी। मोहन के पास दौड़ने के लिए न तो सही जूते थे और न ही प्रशिक्षण का कोई साधन।

सपनों की शुरुआत

मोहन हर सुबह सूरज उगने से पहले उठता और खेतों के बीच कच्ची सड़कों पर दौड़ने निकल जाता। उसके पैर अक्सर पत्थरों और काँटों से घायल हो जाते, लेकिन उसने हार मानना कभी नहीं सीखा। वह खुद से कहता, "अगर मैं उड़ नहीं सकता, तो दौड़ूंगा। अगर दौड़ नहीं सकता, तो चलूंगा। लेकिन रुकूंगा नहीं।"

पहली बाधा

एक दिन मोहन के स्कूल में एक दौड़ प्रतियोगिता का आयोजन हुआ। मोहन ने हिस्सा लिया और पूरे गाँव के सामने दौड़ा। उसके पास न तो जूते थे और न ही सही कपड़े, लेकिन उसकी लगन और मेहनत ने उसे दौड़ का विजेता बना दिया। सभी ने उसकी प्रशंसा की, लेकिन कुछ लोगों ने कहा, "यह तो केवल गाँव की प्रतियोगिता है। बड़े शहरों में ऐसे लड़कों का कोई भविष्य नहीं होता।"

मोहन ने यह सुना और खुद से वादा किया, "मैं यह साबित करूंगा कि मेरी मेहनत मुझे हर जगह ले जा सकती है।"

संघर्ष और चोट

मोहन ने शहर की एक बड़ी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का फैसला किया। लेकिन तैयारी के दौरान एक दिन वह गिर गया और उसके पैर में गहरी चोट लग गई। डॉक्टर ने कहा, "तुम्हें कुछ हफ्तों तक आराम करना होगा। दौड़ने का ख्याल भी मत रखना।"

यह खबर मोहन के लिए दिल तोड़ने वाली थी। लेकिन उसने हार नहीं मानी। वह बिस्तर पर लेटे-लेटे ही व्यायाम करता, अपने पैर को धीरे-धीरे हिलाता और खुद को मानसिक रूप से मजबूत रखता। उसने खुद से कहा, "अगर मैं दौड़ नहीं सकता, तो रेंगूंगा। लेकिन रुकूंगा नहीं।"

वापसी

कुछ हफ्तों बाद, जब उसका पैर ठीक हुआ, तो उसने फिर से अभ्यास शुरू किया। इस बार वह पहले से ज्यादा मेहनत करने लगा। उसने गाँव की सीमाओं को पार करते हुए शहर के प्रशिक्षण केंद्र में दाखिला लिया। शुरुआत में लोग उसका मजाक उड़ाते, क्योंकि उसके पास अच्छे कपड़े और जूते नहीं थे। लेकिन मोहन ने इन बातों को नजरअंदाज किया और सिर्फ अपने लक्ष्य पर ध्यान दिया।

सफलता की ओर

कई महीनों की कड़ी मेहनत और छोटे-मोटे मुकाबले जीतने के बाद मोहन ने राष्ट्रीय प्रतियोगिता के लिए क्वालीफाई किया। यह उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा दिन था। प्रतियोगिता के दिन जब वह दौड़ने के लिए ट्रैक पर खड़ा हुआ, तो उसकी आँखों में आत्मविश्वास और मेहनत की चमक थी।

दौड़ शुरू हुई, और मोहन ने अपनी पूरी ताकत लगा दी। उसने अपने पिछले संघर्षों को याद किया—काँटों से घायल पैर, गिरने के बाद की चोट, और लोगों की ताने। इन सबने उसे और मजबूत बना दिया था। अंत में, मोहन ने दौड़ जीत ली।

प्रेरणा

मोहन ने अपनी जीत को अपने गाँव और उन सभी लोगों को समर्पित किया, जो परिस्थितियों से हार मान लेते हैं। उसने कहा, "अगर मैं उड़ नहीं सकता था, तो मैंने दौड़ना चुना। अगर दौड़ नहीं सका, तो मैंने चलना चुना। और अगर चलने की ताकत भी नहीं थी, तो मैंने रेंगना चुना। लेकिन मैंने कभी रुकने का नाम नहीं लिया। यही मेरे जीवन का मंत्र है।"

सीख

मोहन की कहानी हमें सिखाती है कि जिंदगी में परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी कठिन हों, हमें कभी हार नहीं माननी चाहिए। अगर हम आगे बढ़ने का इरादा कर लें, तो कोई भी बाधा हमें रोक नहीं सकती।

निष्कर्ष

"अगर आप उड़ नहीं सकते तो दौड़िए, अगर दौड़ नहीं सकते तो चलिए और अगर चल भी नहीं सकते तो रेंगिए, जो कुछ भी कीजिए लेकिन आपको सिर्फ आगे ही बढ़ना है।" यही सोच हमें हमारे सपनों तक पहुँचने में मदद करती है। मोहन ने यह साबित कर दिया कि जो लोग अपने इरादों में अडिग होते हैं, वे किसी भी परिस्थिति में जीत हासिल कर सकते हैं।

Sunday, February 2, 2025

अन्याय से कमाया हुआ धन निश्चित रूप से नष्ट हो जाएगा

बहुत समय पहले एक छोटे से गाँव में रघु नाम का एक युवक रहता था। रघु गरीब था, लेकिन वह मेहनती और ईमानदार था। वह खेतों में काम करता और दिन-रात मेहनत कर के अपने परिवार का पेट भरता था। हालांकि, रघु के मन में एक कमी थी – वह जल्दी अमीर बनने के सपने देखा करता था। उसे मेहनत से ज्यादा, पैसा कमाने का आसान रास्ता चाहिए था।

 

एक दिन रघु की मुलाकात एक धनी व्यापारी से हुई। उस व्यापारी का नाम मोहन था, और वह अपनी धूर्तता और बेईमानी के लिए प्रसिद्ध था। मोहन ने गाँव में अपना व्यापार फैला रखा था, लेकिन उसकी दौलत का बड़ा हिस्सा धोखाधड़ी और अन्यायपूर्ण तरीकों से कमाया हुआ था। उसने कई निर्दोष लोगों की जमीन छीन ली थी और गरीब किसानों को धोखा देकर उनसे उनका पैसा हड़प लिया था।

 

रघु मोहन की संपत्ति देखकर उसकी ओर आकर्षित हुआ। उसने सोचा, "अगर मोहन इतना अमीर हो सकता है, तो मैं क्यों नहीं?" वह जल्दी से अमीर बनने की चाहत में मोहन के पास गया और उससे कहा, "मुझे भी अमीर बनना है, मुझे सिखाओ कि तुमने कैसे इतनी दौलत कमाई।"

 

मोहन ने रघु को देखा और मुस्कराते हुए कहा, "धन कमाने का आसान तरीका है – बस अपने मन में दया, ईमानदारी, और न्याय को भूल जाओ। अगर तुम यह कर सकते हो, तो तुम्हें अमीर बनने से कोई नहीं रोक सकता।" रघु ने मोहन की बात मान ली और उसके व्यापार में शामिल हो गया।

 

धीरे-धीरे, रघु ने मोहन से अन्यायपूर्ण तरीके से धन कमाने के गुर सीख लिए। वह गरीब किसानों से धोखाधड़ी करने लगा, उन्हें कम कीमत पर उनकी जमीनें बेचने के लिए मजबूर करता और फिर उस जमीन को ऊंचे दाम पर बेचता। उसने कर्ज देकर लोगों को फंसाया और फिर उनके कर्ज न चुका पाने पर उनकी संपत्ति हड़प ली। इस तरह, रघु जल्दी से अमीर बन गया। उसके पास धन, आलीशान घर और महंगे वस्त्र थे। गाँव के लोग उसकी धनी जीवनशैली को देखकर हैरान थे, लेकिन वे उसकी गलतियों से अनजान नहीं थे।

 

परंतु, रघु को यह समझ में नहीं आ रहा था कि यह अन्याय से कमाया हुआ धन उसे लंबे समय तक सुख नहीं दे पाएगा। उसने अपने अच्छे स्वभाव और ईमानदारी को खो दिया था, और उसके अंदर सिर्फ लालच और अहंकार बचा था।

 

कुछ वर्षों बाद, अचानक एक बड़ा संकट आया। गाँव में बाढ़ आ गई, और रघु की अधिकांश संपत्ति बह गई। उसकी जमीनें बर्बाद हो गईं, और जिन लोगों से उसने अन्यायपूर्ण तरीके से धन कमाया था, वे भी अब उसे छोड़ने लगे थे। धीरे-धीरे, उसका व्यापार ठप हो गया, और उसकी सारी दौलत बर्बाद हो गई। अब वह अकेला और निराश था। उसके पास न धन बचा, न सम्मान।

 

रघु ने सोचा कि आखिर ऐसा क्यों हुआ। उसने मोहन से जाकर पूछा, "मैंने तुम्हारे बताए हुए सारे तरीके अपनाए, फिर भी मेरी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। यह क्यों हुआ?"

 

मोहन ने गंभीरता से कहा, "तुम्हें याद रखना चाहिए था कि अन्याय से कमाया हुआ धन कभी स्थायी नहीं होता। मैंने भी यही गलती की थी, और अब मैं भी बर्बाद हो चुका हूँ। अन्याय और धोखाधड़ी से कमाई गई दौलत एक न एक दिन नष्ट हो ही जाती है। धन से बड़ा न्याय है, और जब न्याय की बलि चढ़ती है, तो वह धन भी हमारे पास नहीं टिकता।"

 

रघु को अब अपनी गलती का एहसास हो चुका था। उसे समझ में आया कि उसने जल्द अमीर बनने की चाहत में अपनी ईमानदारी और न्यायप्रियता को खो दिया था, और उसी का परिणाम आज उसे भुगतना पड़ रहा था। उसने अपनी गलतियों का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया।

 

रघु ने अपने बचे हुए जीवन में उन लोगों से माफी मांगी जिनके साथ उसने अन्याय किया था। उसने जितना हो सका, उन लोगों की मदद की और अपनी गलती सुधारने की कोशिश की। उसने अब यह समझ लिया था कि सच्चा धन वही होता है जो ईमानदारी, मेहनत और न्याय के रास्ते से कमाया जाता है।

 

रघु की कहानी गाँव के लोगों के लिए एक सबक बन गई। गाँव के लोग अब यह बात समझ गए थे कि "अन्याय से कमाया हुआ धन निश्चित रूप से नष्ट हो जाएगा।" ईमानदारी और न्याय से कमाया गया धन ही व्यक्ति को सच्चा सुख और शांति दे सकता है, जबकि अन्यायपूर्ण तरीके से कमाया गया धन अंत में केवल विनाश ही लाता है।

Saturday, February 1, 2025

यह मनुष्य का मन ही है जो उसके बंधन या स्वतंत्रता का कारण है

प्राचीन समय की बात है, हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं के बीच एक छोटे से गाँव में अर्जुन नाम का एक युवक रहता था। अर्जुन साधारण परिवार से था, लेकिन उसका मन हमेशा बंधन और स्वतंत्रता के विषय में चिंतन करता रहता था। उसे जीवन के बंधनों से मुक्ति की इच्छा थी, परंतु वह समझ नहीं पाता था कि इन बंधनों से कैसे छुटकारा पाया जाए।

 

अर्जुन को लगता था कि जीवन की कठिनाइयाँ, समाज के नियम, परिवार की जिम्मेदारियाँ, और भौतिक सुख-सुविधाओं की लालसा ने उसे बांध रखा है। वह यह सोचता था कि यदि वह इन सब चीजों से दूर कहीं अकेले चला जाए, तो वह पूरी तरह से स्वतंत्र हो जाएगा। लेकिन उसके मन में यह सवाल हमेशा उठता था कि क्या यह सच में स्वतंत्रता होगी, या सिर्फ भागने का एक तरीका?

 

एक दिन अर्जुन ने गांव के एक वृद्ध साधु के बारे में सुना, जो वर्षों से हिमालय की गुफाओं में तपस्या कर रहा था और ज्ञानी माना जाता था। अर्जुन को लगा कि शायद साधु ही उसे जीवन के बंधनों से मुक्त होने का मार्ग दिखा सकते हैं। उसने तय किया कि वह साधु से मिलने जाएगा और अपनी शंका का समाधान करेगा।

 

अर्जुन कठिन पर्वत यात्रा करते हुए साधु के आश्रम पहुंचा। साधु शांत और सरल जीवन जीते थे, उनकी आँखों में गहरी शांति और आत्मविश्वास था। अर्जुन ने साधु को प्रणाम किया और अपनी समस्या उनके सामने रखी, "गुरुदेव, मैं जीवन के बंधनों से मुक्त होना चाहता हूँ। मुझे लगता है कि यह संसार, इसके नियम और जिम्मेदारियाँ मुझे बांध रही हैं। मैं स्वतंत्र होना चाहता हूँ, पर समझ नहीं पाता कि कैसे।"

 

साधु ने मुस्कराते हुए अर्जुन की बात सुनी और धीरे से कहा, "बेटा, यह संसार तुम्हें तब तक बांध सकता है जब तक तुम्हारा मन बंधा हुआ है। असली बंधन बाहरी नहीं, बल्कि तुम्हारे मन के भीतर है। यह मनुष्य का मन ही है जो उसके बंधन या स्वतंत्रता का कारण है।"

 

अर्जुन को साधु की बात समझ में नहीं आई। उसने पूछा, "गुरुदेव, मैं आपके शब्दों का अर्थ नहीं समझ पा रहा हूँ। कृपया मुझे विस्तार से समझाइए।"

 

साधु ने एक पेड़ के नीचे बैठते हुए अर्जुन को पास बुलाया और कहा, "देखो, यह संसार और इसकी जिम्मेदारियाँ केवल बाहरी दिखावे हैं। असली बंधन तुम्हारे मन में है। जब तक तुम्हारा मन वस्तुओं, भावनाओं और इच्छाओं के बंधन में है, तुम कहीं भी जाओ, तुम बंधे रहोगे। लेकिन यदि तुम अपने मन को नियंत्रण में कर लोगे, तो इस संसार में रहकर भी तुम स्वतंत्र हो जाओगे।"

 

अर्जुन अभी भी असमंजस में था। साधु ने उसे एक उदाहरण देकर समझाया, "मान लो, तुम्हें एक कमरे में बंद कर दिया गया है और कमरे के दरवाजे पर ताला लगा दिया गया है। तुम्हें लगेगा कि तुम बंधन में हो। लेकिन यदि तुम्हारे पास ताले की चाबी हो और तुम कभी भी उस कमरे से बाहर निकल सकते हो, तो क्या तुम बंधे हुए होगे?"

 

अर्जुन ने सिर हिलाते हुए कहा, "नहीं, गुरुदेव, यदि मेरे पास चाबी है, तो मैं बंधा हुआ नहीं हूँ।"

 

साधु ने मुस्कराते हुए कहा, "बिल्कुल सही। इसी प्रकार, जब तक तुम्हारा मन वस्तुओं, रिश्तों, और परिस्थितियों के प्रति आसक्त है, तुम बंधे हुए हो। लेकिन यदि तुम इन चीजों के प्रति अपने मन को नियंत्रित कर लोगे, तो तुम इस संसार में रहते हुए भी स्वतंत्र हो जाओगे। यह मन ही है जो तुम्हें बांधता है, और यही मन तुम्हें मुक्त भी कर सकता है।"

 

अर्जुन की आँखों में एक नई रोशनी चमक उठी। उसने समझ लिया कि बंधन बाहरी नहीं, बल्कि उसके मन के भीतर हैं। अगर वह अपने मन की इच्छाओं, लालसाओं और भय को नियंत्रित कर ले, तो वह इस संसार में रहते हुए भी स्वतंत्र हो सकता है। उसे यह एहसास हुआ कि स्वतंत्रता भागने में नहीं, बल्कि अपने मन को समझने और उसे सही दिशा में लगाने में है।

 

अर्जुन ने साधु से आशीर्वाद लिया और वापस अपने गाँव लौट आया। अब वह पहले जैसा अर्जुन नहीं था। उसने जीवन की चुनौतियों को बंधन के रूप में नहीं, बल्कि एक अवसर के रूप में देखना शुरू किया। उसने समझ लिया था कि "यह मनुष्य का मन ही है जो उसके बंधन या स्वतंत्रता का कारण है"। उसने मन के बंधनों को तोड़कर सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त कर ली थी, और अब वह हर परिस्थिति में शांत और संतुष्ट रहने लगा था।

 

अर्जुन का जीवन अब पूरी तरह बदल चुका था। उसने यह सीख लिया था कि सच्ची स्वतंत्रता बाहर की दुनिया में नहीं, बल्कि अपने मन के भीतर होती है।

Thursday, January 23, 2025

अपनी पहचान दुनिया से कराओ

गाँव के छोटे से कोने में रहने वाला एक साधारण लड़का, अर्जुन, जीवन में बड़ा बनने के सपने देखता था। अर्जुन का परिवार आर्थिक रूप से कमजोर था, लेकिन उसके सपने उसकी परिस्थितियों से बड़े थे। वह जानता था कि उसकी पहचान, उसकी मेहनत और लगन से ही बनेगी।

अर्जुन हर सुबह सूरज उगने से पहले उठता और खेतों में काम करने के बाद पास के स्कूल में पढ़ाई करने जाता। स्कूल में उसके पास किताबें कम थीं, लेकिन सीखने का जज़्बा बहुत था। वह टीचर से अतिरिक्त सवाल पूछता और गाँव के पुराने अखबारों को पढ़कर नई-नई जानकारियां जुटाता।

एक दिन, स्कूल में एक प्रतियोगिता का आयोजन हुआ। यह प्रतियोगिता विज्ञान प्रोजेक्ट बनाने की थी। अर्जुन के पास संसाधन नहीं थे, लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। उसने पुराने टिन, प्लास्टिक और तारों का उपयोग करके एक सोलर पैनल का प्रोटोटाइप तैयार किया। गाँव के लोग उसकी मेहनत देखकर हैरान थे।

जब प्रतियोगिता का दिन आया, अर्जुन का प्रोजेक्ट सबका ध्यान खींचने में सफल रहा। जजों ने उसकी तारीफ की और उसे जिले स्तर की प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका दिया। अर्जुन ने वहां भी अपनी मेहनत और लगन से जीत हासिल की।

धीरे-धीरे उसकी पहचान पूरे राज्य में फैलने लगी। उसके काम को देखकर एक बड़ी यूनिवर्सिटी ने उसे स्कॉलरशिप दी। अर्जुन ने वहां से पढ़ाई पूरी की और एक सफल वैज्ञानिक बन गया। उसने सोलर पैनल की नई तकनीक विकसित की, जिससे ग्रामीण इलाकों में बिजली की समस्या को हल किया जा सके।

अर्जुन की इस सफलता के बाद, उसका गाँव भी बदलने लगा। उसने अपने गाँव में एक स्कूल और एक ट्रेनिंग सेंटर खोला, जहां बच्चों को आधुनिक तकनीक की शिक्षा दी जाने लगी।

अर्जुन ने अपने जीवन से यह साबित कर दिया कि पहचान बनाने के लिए संसाधन नहीं, बल्कि इच्छाशक्ति और मेहनत की ज़रूरत होती है।

आज, अर्जुन का नाम पूरे देश में जाना जाता है। उसके संघर्ष और सफलता की कहानी हर किसी के लिए प्रेरणा बन चुकी है। उसने अपने जीवन से यह संदेश दिया कि परिस्थितियां चाहे कितनी भी कठिन क्यों न हों, अगर आपके इरादे मजबूत हैं तो आप अपनी पहचान पूरी दुनिया में बना सकते हैं।

"सपने देखने का हक हर किसी का है, लेकिन उन्हें पूरा करने के लिए मेहनत करना पड़ता है। अपनी पहचान दुनिया से करवाने का एक ही रास्ता हैलगन, मेहनत और कभी हार न मानने वाला जज्बा।"

 

Tuesday, January 21, 2025

सच्चा पुत्र आज्ञाकारी होता है, सच्चा पिता प्रेम करने वाला होता है, और सच्चा मित्र ईमानदार होता है

गंगा नदी के किनारे बसा एक छोटा-सा गाँव था, जहाँ एक किसान परिवार रहता था। इस परिवार में एक पिता, रामनारायण, और उनका पुत्र, अर्जुन, रहते थे। रामनारायण सरल स्वभाव के व्यक्ति थे और अपनी मेहनत से अपने परिवार की देखभाल करते थे। अर्जुन भी बहुत मेहनती और होनहार था। बचपन से ही उसे सिखाया गया था कि जीवन में सफलता और सुख के लिए सच्चाई, प्रेम, और आज्ञाकारिता आवश्यक हैं।

रामनारायण अपने बेटे से बहुत प्रेम करते थे और उसकी हर इच्छा को पूरा करने की कोशिश करते थे। हालांकि, वह अर्जुन को यह भी सिखाते थे कि जीवन में हर सफलता के लिए मेहनत और अनुशासन जरूरी होता है। अर्जुन एक आज्ञाकारी पुत्र था और अपने पिता के हर निर्देश को बिना किसी सवाल के मानता था। उसने कभी भी अपने पिता की बातों को हल्के में नहीं लिया और हमेशा उनका सम्मान किया।

एक दिन अर्जुन ने अपने पिता से पूछा, "पिताजी, क्या मैं एक अच्छा पुत्र हूँ?"

रामनारायण ने मुस्कराते हुए कहा, "बेटा, सच्चा पुत्र वही होता है जो आज्ञाकारी हो, अपने माता-पिता की बातों का सम्मान करे, और उनके निर्देशों का पालन करे। तुम वही करते हो, इसलिए तुम सच्चे पुत्र हो।"

अर्जुन ने गर्व से अपने पिता के पैरों को छुआ और कहा, "मैं हमेशा आपकी बातें मानूँगा, पिताजी।"

समय बीता और अर्जुन की दोस्ती गाँव के एक अन्य लड़के, भीम, से हो गई। भीम गरीब परिवार से था, परंतु वह ईमानदारी और निष्ठा में सबसे आगे था। अर्जुन और भीम एक-दूसरे के अच्छे मित्र बन गए। उनकी दोस्ती इतनी गहरी थी कि वे एक-दूसरे के बिना कुछ भी नहीं करते थे। भीम हमेशा अर्जुन को सही राह पर चलने के लिए प्रेरित करता था और कभी भी झूठ या छल-कपट का सहारा नहीं लेता था।

एक दिन गाँव में एक बड़ा मेला लगा। अर्जुन और भीम दोनों ने वहाँ जाने का निर्णय किया। मेला गाँव से कुछ दूरी पर था, इसलिए अर्जुन ने अपने पिता से मेले में जाने की अनुमति मांगी। रामनारायण ने थोड़ी चिंता व्यक्त करते हुए कहा, "अर्जुन, मेले में कई तरह की भीड़ और झमेले होते हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम सावधानी से जाओ और समय पर वापस आओ।"

अर्जुन ने वादा किया, "पिताजी, मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा और समय पर वापस आ जाऊँगा।"

रामनारायण ने अपने पुत्र के ऊपर विश्वास किया और उसे जाने की अनुमति दे दी। अर्जुन और भीम मेले में पहुंच गए और वहां खूब आनंद लिया। लेकिन जब लौटने का समय आया, तो अर्जुन ने देखा कि मेला समाप्त होने के बावजूद समय का ध्यान नहीं रखा था, और अब वे काफी देर कर चुके थे।

भीम ने अर्जुन से कहा, "अर्जुन, तुम्हें समय पर घर लौटने का वादा किया था, अब देर हो गई है। हमें जल्दी चलना चाहिए, ताकि तुम्हारे पिता नाराज़ न हों।"

अर्जुन ने भीम की बात मानी और दोनों जल्द ही घर की ओर चल पड़े। रास्ते में अर्जुन के मन में डर था कि वह अपने पिता के विश्वास को तोड़ चुका है। जब वे घर पहुंचे, तो अर्जुन ने देखा कि रामनारायण बाहर खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

अर्जुन ने सिर झुका कर कहा, "पिताजी, मुझे माफ कर दीजिए। मैं समय पर नहीं लौट पाया, मैंने आपकी आज्ञा का पालन नहीं किया।"

रामनारायण ने धीरे-से मुस्कराते हुए कहा, "बेटा, मैं जानता हूँ कि तुमने कोई गलत इरादा नहीं रखा था। समय की भूल हो जाती है, लेकिन तुमने अपनी गलती स्वीकार की, यही तुम्हारी सच्चाई और आज्ञाकारिता का प्रमाण है। सच्चे पिता का काम केवल डांटना नहीं होता, वह अपने पुत्र को प्रेम और समझ से सही राह दिखाता है।"

यह सुनकर अर्जुन को अपने पिता के प्रेम और विश्वास की गहराई समझ में आई। उसने अपने पिता से वादा किया कि वह भविष्य में और अधिक ध्यान रखेगा।

भीम, जो यह सब देख रहा था, ने अर्जुन से कहा, "सच्चे मित्र की ईमानदारी यही होती है कि वह अपने दोस्त को सही समय पर सही बात कह सके, चाहे वह कितनी भी कठिन क्यों न हो। अगर मैंने तुम्हें मेला छोड़ने के लिए न कहा होता, तो शायद हम और देर कर देते।"

अर्जुन ने भीम की ओर देखते हुए कहा, "तुम्हारी ईमानदारी ने मुझे मेरी गलती का एहसास कराया, और सच्चे मित्र वही होते हैं जो एक-दूसरे को सच कहने से पीछे नहीं हटते।"

इस प्रकार अर्जुन ने उस दिन सीखा कि सच्चा पुत्र आज्ञाकारी होता है, सच्चा पिता प्रेम करने वाला होता है, और सच्चा मित्र ईमानदार होता है। ये तीनों गुण जीवन में सबसे महत्वपूर्ण होते हैं, और इन्हीं के बल पर रिश्ते मजबूत बनते हैं।--

Monday, January 13, 2025

जब तक शत्रु की दुर्बलता का पता न चल जाए, तब तक उसे मित्रता की दृष्टि से रखना चाहिए

बहुत समय पहले की बात है, एक शक्तिशाली राज्य था जिसका नाम "विजयनगर" था। इस राज्य के राजा थे महाराज विक्रमादित्य, जो अपनी न्यायप्रियता और दूरदर्शी बुद्धि के लिए प्रसिद्ध थे। उनके राज्य में हर कोई सुख-शांति से जीवन जीता था, और राज्य में समृद्धि थी। परंतु, विजयनगर के पड़ोसी राज्य "कौशल" के राजा, महाराज शालिवाहन, उनसे ईर्ष्या करते थे और हमेशा विजयनगर पर आक्रमण करने का अवसर ढूंढते रहते थे।

राजा विक्रमादित्य को यह बात पता थी कि कौशल राज्य उनके राज्य पर हमला करना चाहता है, लेकिन उन्होंने कभी भी शालिवाहन के खिलाफ कोई कड़ा कदम नहीं उठाया। उनके मंत्रियों और सेनापतियों को यह बात अजीब लगती थी कि राजा शालिवाहन के खुले तौर पर शत्रु होते हुए भी महाराज विक्रमादित्य उसे मित्रता की दृष्टि से देखते हैं।

एक दिन राजा के सबसे भरोसेमंद मंत्री, महादेव, ने उनसे कहा, "महाराज, शालिवाहन हमारा शत्रु है। वह हमेशा हमारे राज्य को कमजोर करने की कोशिश में लगा रहता है। आपको उसके खिलाफ तुरंत कड़ा कदम उठाना चाहिए, अन्यथा वह हमें नुकसान पहुंचा सकता है।"

महाराज विक्रमादित्य ने शांत स्वर में उत्तर दिया, "महादेव, शत्रु की दुर्बलता को समझे बिना उस पर हमला करना एक बड़ी मूर्खता होगी। जब तक हमें उसकी कमजोरियों का पूरा ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक हमें उसे मित्रता की दृष्टि से ही देखना चाहिए।"

महादेव को राजा की यह नीति थोड़ी कठिन समझ में आई, लेकिन वे राजा की बुद्धिमत्ता पर सवाल नहीं उठाना चाहते थे। समय बीतता गया और एक दिन शालिवाहन ने एक संदेश भेजा कि वह विजयनगर के साथ मित्रता चाहता है। महाराज विक्रमादित्य ने उस संदेश को स्वीकार किया और शालिवाहन को मित्र मान लिया। यह देखकर राज्य के लोग और मंत्रीगण चकित रह गए, क्योंकि वे जानते थे कि शालिवाहन का उद्देश्य सच्ची मित्रता नहीं, बल्कि धोखे से राज्य को कमजोर करना था।

विक्रमादित्य ने शालिवाहन से मित्रता का हाथ बढ़ाया और दोनों राज्यों के बीच व्यापार और सांस्कृतिक संबंध स्थापित हो गए। यह देखकर कौशल के लोग भी खुश हो गए कि अब उनके राज्य और विजयनगर के बीच कोई संघर्ष नहीं है। लेकिन महाराज विक्रमादित्य की दृष्टि दूर तक थी। उन्होंने अपने गुप्तचरों को कौशल राज्य में भेजा ताकि वे शालिवाहन की सेना और उसकी कमजोरियों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकें।

कुछ महीनों बाद गुप्तचरों ने सूचना दी कि शालिवाहन की सेना अंदर से कमजोर है। उसकी सेना के पास पर्याप्त हथियार और संसाधन नहीं थे, और राजा शालिवाहन केवल बाहर से ताकतवर दिखने की कोशिश कर रहा था। उसकी असली शक्ति उसकी बातें और छलपूर्ण चालें थीं, लेकिन उसके पास कोई ठोस सैन्य ताकत नहीं थी।

यह सुनकर महाराज विक्रमादित्य ने अपने मंत्रियों और सेनापतियों को बुलाया और कहा, "अब समय आ गया है कि हम शालिवाहन की असली दुर्बलता का सामना करें। अब हमें उसे शत्रु के रूप में देखना चाहिए, क्योंकि उसकी कमजोरियाँ हमारे सामने स्पष्ट हो चुकी हैं।"

विक्रमादित्य ने तुरंत अपनी सेना को तैयार किया और कौशल राज्य पर आक्रमण करने का आदेश दिया। जब शालिवाहन को यह खबर मिली, तो वह घबरा गया क्योंकि उसकी सेना और राज्य इस हमले के लिए तैयार नहीं थे। वह राजा विक्रमादित्य की ताकत और रणनीति को समझ नहीं पाया था। उसकी सेना कमजोर थी और कुछ ही समय में विजयनगर की सेना ने कौशल पर विजय प्राप्त कर ली।

महाराज विक्रमादित्य ने शालिवाहन को बंदी बनाया और उससे कहा, "तुम्हारा छल और धोखा तुम्हारी सबसे बड़ी दुर्बलता थी, और जब तक हमें उसकी पूरी जानकारी नहीं मिल गई, तब तक हमने तुम्हें मित्रता की दृष्टि से देखा। अब तुम्हारी दुर्बलता स्पष्ट है, और हमने तुम्हें पराजित कर दिया है।"

शालिवाहन ने सिर झुका कर अपनी हार स्वीकार की और महाराज विक्रमादित्य के सामने अपने छलपूर्ण व्यवहार के लिए क्षमा मांगी। विक्रमादित्य ने उसे क्षमा कर दिया, लेकिन उसे हमेशा के लिए विजयनगर के अधीन रहने का आदेश दिया।

इस घटना के बाद, विजयनगर के सभी लोग और मंत्रीगण महाराज विक्रमादित्य की दूरदर्शिता और बुद्धिमानी की सराहना करने लगे। उन्होंने समझ लिया कि शत्रु को समझने और उसकी दुर्बलता का ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही सही कदम उठाया जाना चाहिए।

"जब तक शत्रु की दुर्बलता का पता न चल जाए, तब तक उसे मित्रता की दृष्टि से रखना चाहिए," यह सीख महाराज विक्रमादित्य की बुद्धिमान नीति का उदाहरण थी, जिसने उन्हें विजयी और सम्मानित राजा बनाया।