बहुत समय पहले की बात है, एक शक्तिशाली राज्य था जिसका नाम "विजयनगर" था। इस राज्य के राजा थे महाराज विक्रमादित्य, जो अपनी न्यायप्रियता और दूरदर्शी बुद्धि के लिए प्रसिद्ध थे। उनके राज्य में हर कोई सुख-शांति से जीवन जीता था, और राज्य में समृद्धि थी। परंतु, विजयनगर के पड़ोसी राज्य "कौशल" के राजा, महाराज शालिवाहन, उनसे ईर्ष्या करते थे और हमेशा विजयनगर पर आक्रमण करने का अवसर ढूंढते रहते थे।
राजा विक्रमादित्य को यह बात पता थी कि कौशल राज्य उनके राज्य पर हमला करना चाहता है, लेकिन उन्होंने कभी भी शालिवाहन के खिलाफ कोई कड़ा कदम नहीं उठाया। उनके मंत्रियों और सेनापतियों को यह बात अजीब लगती थी कि राजा शालिवाहन के खुले तौर पर शत्रु होते हुए भी महाराज विक्रमादित्य उसे मित्रता की दृष्टि से देखते हैं।
एक दिन राजा के सबसे भरोसेमंद मंत्री, महादेव, ने उनसे कहा, "महाराज, शालिवाहन हमारा शत्रु है। वह हमेशा हमारे राज्य को कमजोर करने की कोशिश में लगा रहता है। आपको उसके खिलाफ तुरंत कड़ा कदम उठाना चाहिए, अन्यथा वह हमें नुकसान पहुंचा सकता है।"
महाराज विक्रमादित्य ने शांत स्वर में उत्तर दिया, "महादेव, शत्रु की दुर्बलता को समझे बिना उस पर हमला करना एक बड़ी मूर्खता होगी। जब तक हमें उसकी कमजोरियों का पूरा ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक हमें उसे मित्रता की दृष्टि से ही देखना चाहिए।"
महादेव को राजा की यह नीति थोड़ी कठिन समझ में आई, लेकिन वे राजा की बुद्धिमत्ता पर सवाल नहीं उठाना चाहते थे। समय बीतता गया और एक दिन शालिवाहन ने एक संदेश भेजा कि वह विजयनगर के साथ मित्रता चाहता है। महाराज विक्रमादित्य ने उस संदेश को स्वीकार किया और शालिवाहन को मित्र मान लिया। यह देखकर राज्य के लोग और मंत्रीगण चकित रह गए, क्योंकि वे जानते थे कि शालिवाहन का उद्देश्य सच्ची मित्रता नहीं, बल्कि धोखे से राज्य को कमजोर करना था।
विक्रमादित्य ने शालिवाहन से मित्रता का हाथ बढ़ाया और दोनों राज्यों के बीच व्यापार और सांस्कृतिक संबंध स्थापित हो गए। यह देखकर कौशल के लोग भी खुश हो गए कि अब उनके राज्य और विजयनगर के बीच कोई संघर्ष नहीं है। लेकिन महाराज विक्रमादित्य की दृष्टि दूर तक थी। उन्होंने अपने गुप्तचरों को कौशल राज्य में भेजा ताकि वे शालिवाहन की सेना और उसकी कमजोरियों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकें।
कुछ महीनों बाद गुप्तचरों ने सूचना दी कि शालिवाहन की सेना अंदर से कमजोर है। उसकी सेना के पास पर्याप्त हथियार और संसाधन नहीं थे, और राजा शालिवाहन केवल बाहर से ताकतवर दिखने की कोशिश कर रहा था। उसकी असली शक्ति उसकी बातें और छलपूर्ण चालें थीं, लेकिन उसके पास कोई ठोस सैन्य ताकत नहीं थी।
यह सुनकर महाराज विक्रमादित्य ने अपने मंत्रियों और सेनापतियों को बुलाया और कहा, "अब समय आ गया है कि हम शालिवाहन की असली दुर्बलता का सामना करें। अब हमें उसे शत्रु के रूप में देखना चाहिए, क्योंकि उसकी कमजोरियाँ हमारे सामने स्पष्ट हो चुकी हैं।"
विक्रमादित्य ने तुरंत अपनी सेना को तैयार किया और कौशल राज्य पर आक्रमण करने का आदेश दिया। जब शालिवाहन को यह खबर मिली, तो वह घबरा गया क्योंकि उसकी सेना और राज्य इस हमले के लिए तैयार नहीं थे। वह राजा विक्रमादित्य की ताकत और रणनीति को समझ नहीं पाया था। उसकी सेना कमजोर थी और कुछ ही समय में विजयनगर की सेना ने कौशल पर विजय प्राप्त कर ली।
महाराज विक्रमादित्य ने शालिवाहन को बंदी बनाया और उससे कहा, "तुम्हारा छल और धोखा तुम्हारी सबसे बड़ी दुर्बलता थी, और जब तक हमें उसकी पूरी जानकारी नहीं मिल गई, तब तक हमने तुम्हें मित्रता की दृष्टि से देखा। अब तुम्हारी दुर्बलता स्पष्ट है, और हमने तुम्हें पराजित कर दिया है।"
शालिवाहन ने सिर झुका कर अपनी हार स्वीकार की और महाराज विक्रमादित्य के सामने अपने छलपूर्ण व्यवहार के लिए क्षमा मांगी। विक्रमादित्य ने उसे क्षमा कर दिया, लेकिन उसे हमेशा के लिए विजयनगर के अधीन रहने का आदेश दिया।
इस घटना के बाद, विजयनगर के सभी लोग और मंत्रीगण महाराज विक्रमादित्य की दूरदर्शिता और बुद्धिमानी की सराहना करने लगे। उन्होंने समझ लिया कि शत्रु को समझने और उसकी दुर्बलता का ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही सही कदम उठाया जाना चाहिए।
"जब तक शत्रु की दुर्बलता का पता न चल जाए, तब तक उसे मित्रता की दृष्टि से रखना चाहिए," यह सीख महाराज विक्रमादित्य की बुद्धिमान नीति का उदाहरण थी, जिसने उन्हें विजयी और सम्मानित राजा बनाया।
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