Saturday, April 23, 2016

अत्यधिक लाभ का फल

एक बार पंक्षियों का राजा अपने दल के साथ भोजन की खोज में एक जंगल में गया।

'जाओ और जाकर दाने और बीज ढूंढ़ो। मिले तो बताना। सब मिलकर खाएगें।' राजा ने पंक्षियों को आदेश दिया।
सभी पक्षी दानों की तलाश में उधर निकल पड़े। उड़ते-उड़ते एक चिड़िया उस सड़क पर आ गई जहां से गाड़ियों में लदकर अनाज जाता था। उसने सड़क पर अनाज बिखरा देखा। उसने सोचा कि वह राजा को इस जगह के बारे में नहीं बताएगी। पर किसी और चिड़िया ने इधर आकर यह अनाज देख लिया तो...? ठीक है, बता भी दूंगी लेकिन यहां तक नहीं पहुंचने दूंगी।
वह वापस अपने राजा के पास पहुंच गई। उसने वहां जाकर बताया कि राजमार्ग पर अनाज के ढेरों दाने पड़े हैं। लेकिन वहां खतरा बहुत है।
तब राजा ने कहा कि कोई भी वहां न जाए।
इस तरह सब पक्षियों ने राजा की बात मान ली।
वह चिड़िया चुपचाप अकेली ही राजमार्ग की ओर उड़ चली और जाकर दाने चुगने लगी। अभी कुछ ही देर बीती कि उसने देखा एक गाड़ी तेजी से आ रही थी।
चिड़िया ने सोचा, गाड़ी तो अभी दूर है। क्यों न दो-चार दाने और चुग लूं। देखते-देखते गाड़ी चिड़िया के उपर से गुजर गई और उसके प्राण पखेरू उड़ गए।
उधर शाम को राजा ने देखा कि वह चिड़िया नहीं आई है तो उसने सैनिकों को उसे ढूंढ़ने का आदेश दिया।
वे सब ढूंढ़ते-ढूंढ़ते राजमार्ग पर पहुंच गए। वहां देखा तो वह चिड़िया मरी पड़ी थी।

Friday, April 22, 2016

समझ का फेर

अकबर-बीरबल की नोकझोंक चलती ही रहती थी। बादशाह को हंसी-मजाक से  बड़ा प्रेम था। इसी कारण बात-बात में उनमें और बीरबल में हंसी के प्रसंग छिड़ जाया करते थे।

हंसी-मजाक में अकबर बादशाह क्रोधित भी हो जाते थे, किंतु बीरबल कभी क्रोधित नहीं होते थे। इस बात को मन में विचारकर बादशाह ने बीरबल को क्रोधित करने की नई युक्ति निकाली और बोले- 'बीरबल गाय रांधत।'

उत्तर में बीरबल ने कहा- 'बादशाह शुकर खाए।'

बादशाह की बात से बीरबल तो क्रोधित न हुए, पर बीरबल की बात से बादशाह क्रोधित अवश्य हो गए। वह भड़कर बोले - 'तुम मुझे मजाक के बहाने शुकर खिलाते हो?'

'हुजूर आप भी तो मुझे गाय खिलाते हो।'

बादशाह अपने वाक्य का अर्थ बदलकर बोले- 'हमने तुम्हें रांधते वक्त गाने को कहा था।'

तत्काल बीरबल ने भी प्रत्युत्तर मे कहा - 'आलमपनाह! मैंने भला शूकर खाने को कब कहा?'

'तो फिर.....।'

'मैं तो कह रहा था, बादशाह शुक रखाए अर्थात आपने तोता रखा हुआ है। सिर्फ समझ का ही हेर-फेर है। आप बिना अर्थ समझे अकारण क्रोधित होते हैं।' बादशाह निरूत्तर हो गए।

Monday, April 11, 2016

लालच का फल

एक बार पंक्षियों का राजा अपने दल के साथ भोजन की खोज में एक जंगल में गया।
'जाओ और जाकर दाने और बीज ढूंढ़ो। मिले तो बताना। सब मिलकर खाएगें।' राजा ने पंक्षियों को आदेश दिया।
सभी पक्षी दानों की तलाश में उधर निकल पड़े। उड़ते-उड़ते एक चिड़िया उस सड़क पर आ गई जहां से गाड़ियों में लदकर अनाज जाता था। उसने सड़क पर अनाज बिखरा देखा। उसने सोचा कि वह राजा को इस जगह के बारे में नहीं बताएगी। पर किसी और चिड़िया ने इधर आकर यह अनाज देख लिया तो...? ठीक है, बता भी दूंगी लेकिन यहां तक नहीं पहुंचने दूंगी।
वह वापस अपने राजा के पास पहुंच गई। उसने वहां जाकर बताया कि राजमार्ग पर अनाज के ढेरों दाने पड़े हैं। लेकिन वहां खतरा बहुत है।
तब राजा ने कहा कि कोई भी वहां न जाए।
इस तरह सब पक्षियों ने राजा की बात मान ली।
वह चिड़िया चुपचाप अकेली ही राजमार्ग की ओर उड़ चली और जाकर दाने चुगने लगी। अभी कुछ ही देर बीती कि उसने देखा एक गाड़ी तेजी से आ रही थी।
चिड़िया ने सोचा, गाड़ी तो अभी दूर है। क्यों न दो-चार दाने और चुग लूं। देखते-देखते गाड़ी चिड़िया के उपर से गुजर गई और उसके प्राण पखेरू उड़ गए।
उधर शाम को राजा ने देखा कि वह चिड़िया नहीं आई है तो उसने सैनिकों को उसे ढूंढ़ने का आदेश दिया।
वे सब ढूंढ़ते-ढूंढ़ते राजमार्ग पर पहुंच गए। वहां देखा तो वह चिड़िया मरी पड़ी थी।
राजा ने कहा, 'इसने हम सबको तो मना किया था किंतु लालचवश वह अपने को नहीं रोक पाई और प्राणों से हाथ धो बैठी।'

Thursday, April 7, 2016

कर्त्तव्य के प्रति निष्ठा

संधि का प्रस्ताव असफल होने पर जब क्षीकृष्ण हस्तिनापुर लौट चले, तब, महारथी कर्ण उन्हें सीमा तक विदा करने आए। मार्ग में कर्ण को समझाते हुए क्षीकृष्ण ने कहा - 'कर्ण, तुम सूतपुत्र नहीं हो। तुम तो महाराजा पांडु और देवी कुंती के सबसे बड़े पुत्र हो। यदि दुर्योधन का साथ छोड़कर पांडवों के पक्ष में आ जाओं तो तत्काल तम्हारा राज्याभिषेक कर दिया जाएगा।'
यह सुनकर कर्ण ने उत्तर दिया- 'वासुदेव, मैं जानता हूँ कि मैं माता कुंती का पुत्र हूँ, किन्तु जब सभी लोग सूतपुत्र कहकर मेरा तिरस्कार कर रहे थे, तब केवल दुर्योधन ने मुझे सम्मान दिया। मेरे भरोसे ही उसने पांडवों को चुनौती दी है। क्या अब उसके उपकारों को भूलकर मैं उसके साथ विश्वघात करूं? ऐसा करके क्या मैं अधर्म का भागी नहीं बनूंगा? मैं यह जानता हूँ कि युद्ध में विजय पांडवों की होगी, लेकिन आप मुझे अपने कर्त्तव्य से क्यों विमुख करना चाहते हैं?' कर्त्तव्य के प्रति कर्ण की निष्ठा ने क्षीकृष्ण को निरूत्तर कर दिया।
इस प्रसंग में कर्त्तव्य के प्रति निष्ठा व्यक्ति के चरित्र को दृढ़ता प्रदान करती है और उस दृढ़ता को बड़े-से-बड़ा प्रलोभन भी शिथील नहीं कर पाता, यानि वह चरित्रवान व्यक्ति 'सेलेबिल'  नहीं बन पाता। इसके अतिरिक्त इसमें धर्म के प्रति आस्था और निर्भीकता तथा आत्म सम्मान का परिचय मिलता है, जो चरित्र की विशेषताएं मानी जाती हैं।

Wednesday, April 6, 2016

आरक्षण का परिणाम

एक समय की बात है एक चींटी और एक टिड्डा था .
गर्मियों के दिन थे, चींटी दिन भर मेहनत करती और अपने रहने के लिए घर को बनाती, खाने के लिए भोजन भी इकठ्ठा करती जिस से की सर्दियों में उसे खाने पीने की दिक्कत न हो और वो आराम से अपने घर में रह सके !!
जबकि  टिड्डा दिन भर मस्ती करता गाना गाता और  चींटी को बेवकूफ समझता !!
मौसम बदला और सर्दियां आ गयीं !!
 चींटी अपने बनाए मकान में आराम से रहने लगी उसे खाने पीने की कोई दिक्कत नहीं थी परन्तु
 टिड्डे के पास रहने के लिए न घर था और न खाने के लिए खाना !!
वो बहुत परेशान रहने लगा .
दिन तो उसका जैसे तैसे कट जाता परन्तु ठण्ड में रात काटे नहीं कटती !!

एक दिन टिड्डे को उपाय सूझा और उसने एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाई.
सभी  न्यूज़ चैनल वहां पहुँच गए !

 टिड्डे ने कहा कि ये कहाँ का इन्साफ है की एक देश में एक समाज में रहते हुए  चींटियाँ तो आराम से रहें और भर पेट खाना खाएं और और हम टिड्डे ठण्ड में भूखे पेट ठिठुरते रहें ..........?

मिडिया ने मुद्दे को जोर - शोर से उछाला, और जिस से पूरी विश्व बिरादरी के कान खड़े हो गए.... !
बेचारा  टिड्डा सिर्फ इसलिए अच्छे खाने और घर से महरूम रहे की वो गरीब है और जनसँख्या में कम है बल्कि  चीटियाँ बहुसंख्या में हैं और अमीर हैं तो क्या आराम से जीवन जीने का अधिकार उन्हें मिल गया !
बिलकुल नहीं !!
ये  टिड्डे के साथ अन्याय है !
 इस बात पर कुछ समाजसेवी,  चींटी के घर के सामने धरने पर बैठ गए तो कुछ भूख हड़ताल पर,
कुछ ने  टिड्डे के लिए घर की मांग की.
कुछ राजनीतिज्ञों ने इसे पिछड़ों के प्रति अन्याय बताया.

एमनेस्टी इंटरनेशनल ने  टिड्डे के वैधानिक अधिकारों को याद दिलाते हुए भारत सरकार की निंदा की !

सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर
  टिड्डे के समर्थन में बाड़ सी आ गयी, विपक्ष के नेताओं ने भारत बंद का एलान कर दिया. कमुनिस्ट पार्टियों ने समानता के अधिकार के तहत  चींटी पर "कर" लगाने और  टिड्डे को अनुदान की मांग की,

एक नया क़ानून लाया गया "पोटागा" (प्रेवेंशन ऑफ़ टेरेरिज़म अगेंस्ट ग्रासहोपर एक्ट).
  टिड्डे के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर दी गयी.

अंत में पोटागा के अंतर्गत🐜 चींटी पर फाइन लगाया गया उसका घर सरकार ने अधिग्रहीत कर टिड्डे को दे दिया ....!
इस प्रकरण को मीडिया ने पूरा कवर किया और   टिड्डे को इन्साफ दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की  !!
समाजसेवकों ने इसे समाजवाद की स्थापना कहा तो किसी ने न्याय की जीत, कुछ राजनीतिज्ञों ने उक्त शहर का नाम बदलकर  "टिड्डा नगर" कर दिया !
रेल मंत्री ने  "टिड्डा रथ" के नाम से नयी रेल चलवा दी और कुछ नेताओं ने इसे समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन की संज्ञा दी ।।
 चींटी भारत छोड़कर अमेरिका चली गयी और वहां उसने फिर से मेहनत की और एक कंपनी की स्थापना की जिसकी दिन रात
 तरक्की होने लगी तथा अमेरिका के विकास में सहायक सिद्ध हुई !!
चींटियाँ मेहनत करतीं रहीं और टिड्डे खाते रहे ........!
फलस्वरूप धीरे धीरे  चींटियाँ भारत छोड़कर जाने लगीं और  टिड्डे झगड़ते रहे ........!
 एक दिन खबर आई की अतिरिक्त आरक्षण की मांग को लेकर सैंकड़ों  टिड्डे मारे गए.........!

ये सब देखकर अमेरिका में बैठी  चींटी ने कहा " इसीलिए शायद भारत आज भी विकासशील देश है"

चिंता का विषय:

जिस देश में लोगो में "पिछड़ा" बनने की होड़ लगी हो वो "देश" आगे कैसे बढेगा...

Tuesday, April 5, 2016

मृत्यु तो जीवन का अभिन्न अंग

एक बहुत ही सिद्ध और सच्चे गुरू थे। सदैव प्रसन्न रहते थे। एक दिन एक शिष्य ने पूछा, 'महाराज आपको कभी अप्रसन्न नहीं देखा, आप कैसे हमेशा प्रश्न्न रह पाते हैं?' संत ने उत्तर दिया, 'मैं अपनी प्रसन्नता से पहले तुम्हारे बारे में कुछ बताना चाहता हूँ।' 'मेरे बारे में!' शिष्य ने आश्चर्य से पूछा। संत ने कहा, 'हाँ, तुम्हारे बारे में। दरअसल तुम आज से एक सप्ताह बाद ही मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे।' यह भविष्यवाणी सुनकर शिष्य सन्न रह गया। उसके मन पर इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और उसी दिन उसके स्वभाव में आर्श्यजनक परिवर्तन आ गया। वह छोटी-छोटी बातों से ऊपर उठ गया। सभी से प्रेमपूर्ण व्यवहार करने लगा, उसके मन में उदारता ने जन्म ले लिया। अचानक एक सप्ताह बाद वह संध्या कर रहा था, उसके मन में मृत्यु की कल्पना थी। तभी वह संत वहाँ आ गए और उन्होनें उससे पूछा, 'कहो, कैसा लग रहा है?' शिष्य ने शांत-भाव से उत्तर दिया, 'महाराज! इस पूरे सप्ताह मुझे किसी पर क्रोध नहीं आया। कड़वा भी नहीं बोला, बल्कि सबके साथ प्रेमपूर्वक रहा। सोचा, क्यों थोड़े से समय के लिए बुराई का टोकरा अपने सिर पर उठाऊं।' संत ने कहा, 'मैं तुम्हारी मृत्यु की भविष्यवाणी इसीलिए की थी कि तुम जान सको कि मृत्यु को याद रखने वाला क्रोध, घृणा व ईष्या आदि के बारे में सोचता भी नहीं और यही मेरे प्रसन्न रहने का कारण है। जाओ प्रसन्न रहो, अभी तुम्हारी काफी आयु शेष है।
मृत्यु तो जीवन का अभिन्न अंग है, इससे डरना क्या? इसे याद रखकर हम भय मुक्त रहना सीखते हैं और तब जीवन में कुछ अच्छाइयों को ग्रहण कर बहुत-सी बुराइयों से दूर रह सकते हैं, जैसे कि हमने इस प्रसंग में देखा है।

जब तक मन में भय रहता है, तब तक आत्मा परिपूर्ण नहीं रह सकती और आप सुखी जीवन की कल्पना नहीं कर सकते। उसकी चिंता-सोच में आप डूबे रहेंगे। आवश्यकता इस बात की है कि आप अपनी सोच में बदलाव लाएं, सकारात्मक नजरिया बनाएं। भय को सम्भलकर चलने की प्रेरणास्वरूप मानें। जो घटना होनी है, उसे टाला नहीं जा सकता- यह प्रकृति का नियम है। अतएव सकारात्मक दृष्टि से आप हर परिस्थिति को खुशी से स्वीकार कर उसी में आनंद की अनुभूती लें। इसी में आपका भयमुक्त जीवन है।

Monday, April 4, 2016

बेसहारा की मदद

ऑफिस से निकल कर शर्माजी ने   स्कूटर स्टार्ट किया ही था कि उन्हें याद आया,  पत्नी ने कहा था,१ दर्ज़न केले लेते  आना।  तभी उन्हें सड़क किनारे बड़े और ताज़ा केले बेचते हुए   एक बीमार सी दिखने वाली बुढ़िया दिख गयी। .
वैसे तो वह फल हमेशा "राम आसरे फ्रूट भण्डार" से   ही लेते थे,  पर आज उन्हें लगा कि क्यों न   बुढ़िया से ही खरीद लूँ ?   उन्होंने बुढ़िया से पूछा, "माई, केले कैसे दिए"  बुढ़िया बोली, बाबूजी बीस रूपये दर्जन,   शर्माजी बोले, माई १५ रूपये दूंगा।  बुढ़िया ने कहा, अट्ठारह रूपये दे देना,   दो पैसे मै भी कमा लूंगी।  शर्मा जी बोले, १५ रूपये लेने हैं तो बोल,   बुझे चेहरे से बुढ़िया ने,"न" मे गर्दन हिला दी।  शर्माजी बिना कुछ कहे चल पड़े और राम आसरे फ्रूट भण्डार पर आकर   केले का भाव पूछा तो वह बोला २४ रूपये दर्जन हैं  बाबूजी, कितने दर्जन दूँ ?   शर्माजी बोले, ५ साल से फल तुमसे ही ले रहा हूँ,   ठीक भाव लगाओ।  तो उसने सामने लगे बोर्ड की ओर इशारा कर दिया।   बोर्ड पर लिखा था- "मोल भाव करने वाले माफ़ करें"   शर्माजी को उसका यह व्यवहार बहुत बुरा लगा,   उन्होंने कुछ  सोचकर स्कूटर को वापस   ऑफिस की ओर मोड़ दिया।  सोचते सोचते वह बुढ़िया के पास पहुँच गए। बुढ़िया ने उन्हें पहचान लिया और बोली,  "बाबूजी केले दे दूँ, पर भाव १८ रूपये से कम नही लगाउंगी।   शर्माजी ने मुस्कराकर कहा,   माई एक  नही दो दर्जन दे दो और भाव की चिंता मत करो।  बुढ़िया का चेहरा ख़ुशी से दमकने लगा।   केले देते हुए बोली। बाबूजी मेरे पास थैली नही है ।   फिर बोली, एक टाइम था जब मेरा आदमी जिन्दा था  तो मेरी भी छोटी सी दुकान थी।   सब्ज़ी, फल सब बिकता था उस पर।   आदमी की बीमारी मे दुकान चली गयी,   आदमी भी नही रहा। अब खाने के भी लाले पड़े हैं।   किसी तरह पेट पाल रही हूँ। कोई औलाद भी नही है  जिसकी ओर मदद के लिए देखूं।   इतना कहते कहते    बुढ़िया रुआंसी हो गयी,   और उसकी आंखों मे आंसू आ गए ।  शर्माजी ने ५० रूपये का नोट बुढ़िया को दिया तो वो बोली "बाबूजी मेरे पास छुट्टे नही हैं।  शर्माजी बोले "माई चिंता मत करो, रख लो,   अब मै तुमसे ही फल खरीदूंगा,
और कल मै तुम्हें ५०० रूपये दूंगा।   धीरे धीरे चुका देना और परसों से बेचने के लिए   मंडी से दूसरे फल भी ले आना।
बुढ़िया कुछ कह पाती उसके पहले ही   शर्माजी घर की ओर रवाना हो गए।   घर पहुंचकर उन्होंने पत्नी से कहा, न जाने क्यों हम हमेशा मुश्किल से   पेट पालने वाले, थड़ी लगा कर सामान बेचने वालों से   मोल भाव करते हैं किन्तु बड़ी दुकानों पर   मुंह मांगे पैसे दे आते हैं।   शायद हमारी मानसिकता ही बिगड़ गयी है।   गुणवत्ता के स्थान पर हम चकाचौंध पर   अधिक ध्यान देने लगे हैं।  अगले दिन शर्माजी ने बुढ़िया को ५०० रूपये देते हुए कहा,   "माई लौटाने की चिंता मत करना।   जो फल खरीदूंगा, उनकी कीमत से ही चुक जाएंगे।  जब शर्माजी ने ऑफिस मे ये किस्सा बताया तो   सबने बुढ़िया से ही फल खरीदना प्रारम्भ कर दिया। तीन महीने बाद ऑफिस के लोगों ने स्टाफ क्लब की ओर से बुढ़िया को एक हाथ ठेला भेंट कर दिया।   बुढ़िया अब बहुत खुश है।   उचित खान पान के कारण उसका स्वास्थ्य भी पहले से बहुत अच्छा है ।   हर दिन शर्माजी और ऑफिस के   दूसरे लोगों को दुआ देती नही थकती।   शर्माजी के मन में भी अपनी बदली सोच और एक असहाय निर्बल महिला की सहायता करने की संतुष्टि का भाव रहता है..!

जीवन मे किसी बेसहारा की मदद करके देखो यारों,

अपनी पूरी जिंदगी मे किये गए सभी कार्यों से

ज्यादा संतोष मिलेगा...!!
 

Sunday, April 3, 2016

लकड़हारे की ईमानदारी

किसी समय एक वृद्ध लकड़हारा नदी के किनारे पेड़ काट रहा था। दुर्भाग्य से उसकी कुल्हाड़ी नदी में गिर गई। बेचारे लकड़हारे ने कुल्हाड़ी की खूब तलाश की, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। उसके पास एक पैसा भी न था, इसलिए वह दूसरी कुल्हाड़ी नहीं खरीद सकता था। असहाय होकर वह फूट-फूट कर रोने लगा।
जल के देवता वरूण ने उसका रूदन सुना। उन्हें लकड़हारे पर दया आ गई। वे लकड़हारे के पास आए और उससे पूछा, ‘तुम इतना फूट-फूट कर क्यों रो रहे हो? 'लकड़हारे ने कहा, ‘मेरी कुल्हाड़ी पानी में गिर, गई और न जाने कहां खो गई है।'
वरूण देवता ने पानी में डुबकी लगाई और एक साने की कुल्हाड़ी लेकर आ गए। वरूण देवता ने पूछा, 'क्या यह तुम्हारी है?' 'नहीं, श्रीमान्!' लकड़हारे ने रोते-रोते उत्तर दिया। देवता ने पानी में छलांग लगाई और अब चांदी की कुल्हाड़ी ले आए। 'क्या यह तुम्हारी है?‘ देवता ने पूछा। ‘मेरी कुल्हाड़ी इतनी सफेद नहीं थी।‘ उसने कहा, ‘वह काले रंग की थी। उसी के सहारे मेरी रोजी चलती थी। मैं अब असहाय हो गया हूं।'
जल के देवता ने तीसरी बार पानी में डुबकी लगाई और इस बार लकड़हारे की कुल्हाड़ी लेकर आए। लकड़हारे की आंखे अपनी कुल्हाड़ी को देख एकदम चमक उठी। वह प्रसन्नता से चिल्ला उठा, 'यह मेरी है, ऐ मेरे देवता।'
वरूण देवता लकड़हारे की ईमानदारी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उसे न केवल लोहे की कुल्हाड़ी दे दी, बल्कि साने और चांदी की कुल्हाड़ियां भी दे दी।

'हुजूर! मेरा हाजमा खराब है

एक बार बादशाह के पास शिकायत पहुंची कि उनका एक मालगुजारी अफसर बहुत गड़बड़ कर रहा है। वह रियाया (प्रजा) से कई गुना ज्यादा माल उगाहता है और ज्यादातर खुद हड़प् कर जाता है। जब अफसर को बुलाकर जांच की गई तो पाया गया कि बहीखातों में बहुत बड़ा घोटाला है। बादशाह ने न केवल उसकी सम्पत्ति जब्त कर ली बल्कि उसे विवश कर दिया कि वह बहीखाते के सारे कागज भी खाए।

प्रजा बादशाह के इस न्याय से बड़ी प्रसन्न हुई। पर बीरबल खुश नहीं हुए। हालांकि उस भ्रष्ट अफसर की जगह उन्हें मालगुजारी अफसर बना दिया गया था। उन्होंने सारा हिसाब-किताब खाखरों पर लिखना शुरू कर दिया। 

फिर एक रोज बादशाह ने सब खाते जांच के लिए मंगवाए तो बीरबल सारे खाखरे लेकर उपस्थित हुए।

बादशाह उन अजीब खाखरों को देखकर चकित हुए तो बीरबल ने स्पष्टीकरण पेश किया - 'हुजूर! मेरा हाजमा खराब है। मैंने सोचा कि क्या पता हिसाब-किताब में गड़बड़ी हो और हुजूर मुझे कागज खाने के लिए विवश करें तो जान से हाथ न धो बैठूं। इसलिए मैंने सारा हिसाब-किताब खाखरों पर लिखा है। यह कागज से जल्दी हज़म हो जाएगा।'

Friday, April 1, 2016

आदत से लाचार

एक बार एक डाकू गुरु नानक के पास गया और उनके चरणों में गिरकर बोला-'मैं अपने जीवन से परेशान हो गया हूं। जाने कितनों को मैंने लूटकर दुखी किया है। मुझे कोई रास्ता बताइए ताकि मैं इस बुराई से बच सकूं।'
गुरु नानक ने बड़े प्रेम से कहा- 'यदि तुम बुराई करना छोड़ दो तो बुराई से बच जाओगे।' गुरु नानक की बात सुनकर डाकू बोला-'अच्छी बात है, मैं कोशिश करूंगा।' यह कहकर वह वापस चला गया। कुछ दिन बीतने के बाद वह फिर उनके पास लौट आया और बोला-'मैंने बुराई छोड़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन छोड़ नहीं पाया। अपनी आदत से मैं लाचार हूं। मुझे कोई अन्य उपाय बताइए।'
गुरु जी बोले-'अच्छा, ऐसा करो कि तुम्हारे मन में जो भी बात उठे, उसे कर डालो, लेकिन रोज-रोज दूसरे लोगों से कह दो।' डाकू को बड़ी खुशी हुई कि इतने बड़े संत ने जो मन में आए, सो कर डालने की आज्ञा दे दी। अब मैं बेधड़क डाका डालूंगा और दूसरों से कह दूंगा। यह तो बहुत आसान है। वह खुशी-खुशी उनके चरण छूकर घर लौट गया। कुछ दिनों बाद डाकू फिर उनके पास जा पहुंचा। गुरु नानक ने पूछा-'अब तुम्हारा क्या हाल है?'
डाकू बोला-'गुरुजी, आपने मुझे जो उपाय बताया था, मैंने उसे बहुत आसान समझा था, लेकिन वह तो निकला बड़ा मुश्किल। बुरा काम करना जितना मुश्किल है तो उससे कहीं अधिक मुश्किल है- दूसरों के सामने उसे कह पाना। इस काम में बहुत ज्यादा कष्ट होता है।' इतना कहकर डाकू चुप हो गया और फिर बोला-' गुरुजी इसलिए अब दोनों में से मैंने आसान रास्ता चुन लिया है। मैंने डाका डालना ही छोड़ दिया है।' गुरु नानक मुस्करा दिए।

भावना की हवाएे

दो मित्र रेगिस्तान में यात्रा कर रहे थे | सफ़र में किसी मुकाम पर उनका किसी बात पर विवाद हो गया | बात इतनी बढ़ गयी की एक मित्र ने दुसरे मित्र को थप्पड़ मार दिया | थप्पड़ खाने वाले मित्र को बहुत- बुरा लगा, लेकिन बिना कुछ कहे उनसे रेट में लेख, ‘आज मेरे घनिष्ट मित्र ने मुझे थप्पड़ मारा’ वे चलते रहे और एक नखलिस्तान (मरूस्थल के बीच हरित भूमि ) में आ पहुचे,जहां उन्होंने नहाने का फैसला किया | जिस व्यक्ति ने थप्पड़ खया था,नखलिस्तान ने नहाते-नहाते अचानक उसका पैर फिसला गया | वह दलदल से जितना बाहर निकलने की कोशिश करता, उतना ही उस दलदल में समाता जाता |
इस बार थप्पड़ मारने वाले मित्र ने उसे बचा लिया |
जब वह दलदल से सुरक्षित बाहर आ गया, तो उसें इस बार, एक पत्थर पर लिखा- “आज मेरे घनिष्ठ मित्र ने मेरी जान बचाई | ” इस पर उसके मित्र ने पुछा- “जब मैने तुम्हे मारा,तो तुमने उसे रेट पर लिखा और जब बचाया तो इसे पत्थर पर लिखा,ऐसा क्यों?” दुसरे मित्र ने कहा, “जब हमे कोई दुःख देता हैं,तब हमे उसे रेत पर लिखना चाहिए, ताकि शमा भावना की हवाए आकर इस कटु याद को मिटा दें |

वही,जब कोई हमारा भला करे,तब हमे उसे पत्थर पर लिखना चाहिए,ताकि कोई हवा उसे मिटा ना पाए | वह हमेशा के लिए लिखा रहे |