Saturday, February 1, 2025

यह मनुष्य का मन ही है जो उसके बंधन या स्वतंत्रता का कारण है

प्राचीन समय की बात है, हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं के बीच एक छोटे से गाँव में अर्जुन नाम का एक युवक रहता था। अर्जुन साधारण परिवार से था, लेकिन उसका मन हमेशा बंधन और स्वतंत्रता के विषय में चिंतन करता रहता था। उसे जीवन के बंधनों से मुक्ति की इच्छा थी, परंतु वह समझ नहीं पाता था कि इन बंधनों से कैसे छुटकारा पाया जाए।

 

अर्जुन को लगता था कि जीवन की कठिनाइयाँ, समाज के नियम, परिवार की जिम्मेदारियाँ, और भौतिक सुख-सुविधाओं की लालसा ने उसे बांध रखा है। वह यह सोचता था कि यदि वह इन सब चीजों से दूर कहीं अकेले चला जाए, तो वह पूरी तरह से स्वतंत्र हो जाएगा। लेकिन उसके मन में यह सवाल हमेशा उठता था कि क्या यह सच में स्वतंत्रता होगी, या सिर्फ भागने का एक तरीका?

 

एक दिन अर्जुन ने गांव के एक वृद्ध साधु के बारे में सुना, जो वर्षों से हिमालय की गुफाओं में तपस्या कर रहा था और ज्ञानी माना जाता था। अर्जुन को लगा कि शायद साधु ही उसे जीवन के बंधनों से मुक्त होने का मार्ग दिखा सकते हैं। उसने तय किया कि वह साधु से मिलने जाएगा और अपनी शंका का समाधान करेगा।

 

अर्जुन कठिन पर्वत यात्रा करते हुए साधु के आश्रम पहुंचा। साधु शांत और सरल जीवन जीते थे, उनकी आँखों में गहरी शांति और आत्मविश्वास था। अर्जुन ने साधु को प्रणाम किया और अपनी समस्या उनके सामने रखी, "गुरुदेव, मैं जीवन के बंधनों से मुक्त होना चाहता हूँ। मुझे लगता है कि यह संसार, इसके नियम और जिम्मेदारियाँ मुझे बांध रही हैं। मैं स्वतंत्र होना चाहता हूँ, पर समझ नहीं पाता कि कैसे।"

 

साधु ने मुस्कराते हुए अर्जुन की बात सुनी और धीरे से कहा, "बेटा, यह संसार तुम्हें तब तक बांध सकता है जब तक तुम्हारा मन बंधा हुआ है। असली बंधन बाहरी नहीं, बल्कि तुम्हारे मन के भीतर है। यह मनुष्य का मन ही है जो उसके बंधन या स्वतंत्रता का कारण है।"

 

अर्जुन को साधु की बात समझ में नहीं आई। उसने पूछा, "गुरुदेव, मैं आपके शब्दों का अर्थ नहीं समझ पा रहा हूँ। कृपया मुझे विस्तार से समझाइए।"

 

साधु ने एक पेड़ के नीचे बैठते हुए अर्जुन को पास बुलाया और कहा, "देखो, यह संसार और इसकी जिम्मेदारियाँ केवल बाहरी दिखावे हैं। असली बंधन तुम्हारे मन में है। जब तक तुम्हारा मन वस्तुओं, भावनाओं और इच्छाओं के बंधन में है, तुम कहीं भी जाओ, तुम बंधे रहोगे। लेकिन यदि तुम अपने मन को नियंत्रण में कर लोगे, तो इस संसार में रहकर भी तुम स्वतंत्र हो जाओगे।"

 

अर्जुन अभी भी असमंजस में था। साधु ने उसे एक उदाहरण देकर समझाया, "मान लो, तुम्हें एक कमरे में बंद कर दिया गया है और कमरे के दरवाजे पर ताला लगा दिया गया है। तुम्हें लगेगा कि तुम बंधन में हो। लेकिन यदि तुम्हारे पास ताले की चाबी हो और तुम कभी भी उस कमरे से बाहर निकल सकते हो, तो क्या तुम बंधे हुए होगे?"

 

अर्जुन ने सिर हिलाते हुए कहा, "नहीं, गुरुदेव, यदि मेरे पास चाबी है, तो मैं बंधा हुआ नहीं हूँ।"

 

साधु ने मुस्कराते हुए कहा, "बिल्कुल सही। इसी प्रकार, जब तक तुम्हारा मन वस्तुओं, रिश्तों, और परिस्थितियों के प्रति आसक्त है, तुम बंधे हुए हो। लेकिन यदि तुम इन चीजों के प्रति अपने मन को नियंत्रित कर लोगे, तो तुम इस संसार में रहते हुए भी स्वतंत्र हो जाओगे। यह मन ही है जो तुम्हें बांधता है, और यही मन तुम्हें मुक्त भी कर सकता है।"

 

अर्जुन की आँखों में एक नई रोशनी चमक उठी। उसने समझ लिया कि बंधन बाहरी नहीं, बल्कि उसके मन के भीतर हैं। अगर वह अपने मन की इच्छाओं, लालसाओं और भय को नियंत्रित कर ले, तो वह इस संसार में रहते हुए भी स्वतंत्र हो सकता है। उसे यह एहसास हुआ कि स्वतंत्रता भागने में नहीं, बल्कि अपने मन को समझने और उसे सही दिशा में लगाने में है।

 

अर्जुन ने साधु से आशीर्वाद लिया और वापस अपने गाँव लौट आया। अब वह पहले जैसा अर्जुन नहीं था। उसने जीवन की चुनौतियों को बंधन के रूप में नहीं, बल्कि एक अवसर के रूप में देखना शुरू किया। उसने समझ लिया था कि "यह मनुष्य का मन ही है जो उसके बंधन या स्वतंत्रता का कारण है"। उसने मन के बंधनों को तोड़कर सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त कर ली थी, और अब वह हर परिस्थिति में शांत और संतुष्ट रहने लगा था।

 

अर्जुन का जीवन अब पूरी तरह बदल चुका था। उसने यह सीख लिया था कि सच्ची स्वतंत्रता बाहर की दुनिया में नहीं, बल्कि अपने मन के भीतर होती है।

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