Sunday, March 31, 2019

कान्हा जी से विरक्ति

गौरी रोटी बनाते-बनाते कान्हा नाम का जाप कर रही थी।
अलग से जाप करने का समय कहां निकाल पाती थी बेचारी,
तो बस काम करते-करते ही कान्हा का नाम जप लिया करती थी।
एकाएक धड़ाम से जोरों की आवाज हुई और साथ में एक दर्दनाक चीख।
कलेजा धक से रह गया जब आंगन में दौड़कर‌ झांका।
आठ साल का उसका बेटा चुन्नू चित्त पड़ा था खून से लथपथ। 
मन हुआ दहाड़ मारकर रोये।
परंतु घर में उसके अलावा कोई था नहीं,
तो रोकर भी किसे बुलाती।
फिर चुन्नू को संभालना भी तो था।
दौड़ कर नीचे गई तो देखा चुन्नू आधी बेहोशी में मां-मां की रट लगाए हुए है।
अंदर की ममता ने आंखों से निकलकर अपनी मौजूदगी का अहसास करवाया।
फिर दस दिन पहले करवाये अपेंडिक्स के ऑपरेशन के बावजूद ना जाने कहां से इतनी शक्ति आ गयी,
कि चुन्नू को गोद मे उठाकर पड़ोस के नर्सिंग होम की ओर दौड़ी।
रास्ते भर कान्हा जी को जी भर कर कोसती रही और बड़-बड़ करती रही- हे कान्हा जी ! क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा,
जो मेरे ही बच्चे को तकलीफ दी।
खैर! डॉक्टर साहब मिल गए और समय पर इलाज होने पर चुन्नू बिल्कुल ठीक हो गया।
चोटें गहरी नहीं थी बस ऊपरी थीं,
तो कोई खास परेशानी नहीं हुई।
रात को घर पर जब सब टीवी देख रहे थे,
तब गौरी का मन बेचैन था।
कान्हा जी से विरक्ति होने लगी थी।
एक मां की ममता कान्हा जी को चुनौती दे रही थी।
उसके दिमाग में दिन की सारी घटना चलचित्र की तरह चलने लगी।
कैसे चुन्नू आंगन में गिरा,
कि एकाएक उसकी‌ आत्मा सिहर उठी।
कल ही तो पुराने लोहे के पाइप का टुकड़ा आंगन से हटवाया था,
और वो ठीक उसी जगह था जहां चिंटू गिरा पड़ा था।
अगर कल मिस्त्री न आया होता, तो?
उसका हाथ अब अपने पेट की तरफ गया,
जहां ऑपरेशन के टांके अभी हरे ही थे।
आश्चर्य हुआ कि उसने बीस-बाइस किलो के चुन्नू को उठाया कैसे?
कैसे वो आधा किलोमीटर तक दौड़ती चली गयी?
फूल सा हल्का लग रहा था चुन्नू।
वैसे तो वो कपड़ों की बाल्टी तक छत पर नहीं ले जा पाती थी।
फिर उसे ख्याल आया कि डॉक्टर साहब तो दो बजे तक ही रहते हैं,
पर जब वो पहुंची थी तो साढ़े तीन बज रहे थे।
उसके जाते ही तुरंत इलाज हुआ,
मानो किसी ने डाॅक्टर साहब को रोक रखा था।
उसका कान्हा जी की श्रद्धा में झुक गया।
अब वो सारा खेल समझ चुकी थी।
मन ही मन कान्हा जी से अपने शब्दों के लिए क्षमा मांगी।
टीवी पर प्रवचन आ रहा था,
कान्हा जी कहते हैं-
मैं तुम्हारे आने वाले संकट को रोक नहीं सकता,
लेकिन तुम्हें इतनी शक्ति दे सकता हूँ,
कि तुम आसानी से उन्हें पार कर सको,
और तुम्हारी राह आसान कर सकता हूं।
तुम बस परमार्थ के मार्ग पर चलते रहो ,फिर
कान्हा जी का जाप करते-करते अश्रुओं की धारा रुकने का नाम नहीं ले रही थी .. उसके अंतर में पछतावा और सच्ची तड़फ थी ... उसकी रूह ऊपर चढ़ गई...
गौरी ने अंतर में झांक कर देखा,
कान्हा जी मुस्कुरा रहे थे. !!

Friday, March 29, 2019

दान का महत्व

एक बार द्रोपदी सुबह तड़के स्नान करने यमुना घाट पर गयी। 

भोर का समय था तभी उसका ध्यान सहज ही एक साधु की ओर गया जिसके शरीर पर मात्र एक लँगोटी थी.

साधु स्नान के पश्चात अपनी दुसरी लँगोटी लेने गया तो वो लँगोटी अचानक हवा के झोके से उड़कर पानी मे चली गयी और बह गयी. 

सँयोगवस साधु ने जो लँगोटी पहनी थी वो भी फटी हुई थी. साधु सोच में पड़ गया कि अब वह अपनी लाज कैसे बचाए थोडी देर में सुर्योदय हो जाएगा और घाट पर भीड़ बढ़ जाएगी. 

साधु तेजी से पानी से बाहर आया और झाड़ी मे छिप गया. 

द्रोपदी यह सारा दृश्य देख अपनी साड़ी जो पहन रखी थी उसमे से आधी फाड़ कर उस साधु के पास गयी और उसे आधी साड़ी देते हुए बोली, 

तात मै आपकी परेशानी समझ गयी इस वस्त्र से अपनी लाज ढँक लीजिए.

साधु ने सकुचाते हुए साड़ी का टुकड़ा ले लिया और आशीष दिया क़ि जिस तरह आज तुमने मेरी लाज बचायी उसी तरह एक दिन भगवान् तुम्हारी लाज बचाएगें. 

और जब भरी सभा मे चीरहरण के समय द्रोपदी की करुण पुकार नारद जी ने भगवान् तक पहुचायी तो भगवान् ने कहा, 

कर्मो के बदले मेरी कृपा बरसती है क्या कोई पुण्य है द्रोपदी के खाते मे ? 

जाँचा परखा गया तो उस दिन साधु को दिया वस्त्र दान हिसाब में मिला जिसका ब्याज भी कई गुणा बढ गया था जिसको चुकता करने भगवान् पहुंच गये द्रोपदी की मदद करने, 

दुस्सासन चीर खीचता गया और हज़ारों गज कपड़ा बढता गया.

इन्सान जैसा कर्म करता है परमात्मा उसे वैसा ही उसे लौटा देता है.!!

Monday, March 25, 2019

हमारे परिधान

तन्वी को सब्जी मण्डी जाना था..
उसने जूट का बैग लिया और सड़क के किनारे सब्जी मण्डी की ओर चल पड़ी...
तभी पीछे से एक ऑटो वाले ने आवाज़ दी : —
'कहाँ जायेंगी माता जी...?''
तन्वी ने ''नहीं भैय्या'' कहा तो ऑटो वाला आगे निकल गया.
अगले दिन 
तन्वी अपनी बिटिया मानवी को स्कूल बस में बैठाकर घर लौट रही थी...
तभी पीछे से एक ऑटो वाले ने आवाज़ दी :—
''बहनजी चन्द्रनगर जाना है क्या...?''
तन्वी ने मना कर दिया...
पास से गुजरते उस ऑटोवाले को देखकर
तन्वी पहचान गयी कि ये कल वाला ही ऑटो वाला था.
आज तन्वी को 
अपनी सहेली के घर जाना था.
वह सड़क किनारे खड़ी होकर ऑटो की प्रतीक्षा
करने लगी.
तभी एक ऑटो आकर रुका :—
''कहाँ जाएंगी मैडम...?'' 
तन्वी ने देखा 
ये वो ही ऑटोवाला है
जो कई बार इधर से गुज़रते हुए उससे पूछता रहता है चलने के लिए..
तन्वी बोली :—
''मधुबन कॉलोनी है ना सिविल लाइन्स में, वहीँ जाना है.. चलोगे...?''
ऑटोवाला मुस्कुराते हुए बोला :— 
''चलेंगें क्यों नहीं मैडम..आ जाइये...!"
ऑटो वाले के ये कहते ही तन्वी ऑटो में बैठ गयी.
ऑटो स्टार्ट होते ही तन्वी ने जिज्ञासावश उस ऑटोवाले से पूछ ही लिया : —
''भैय्या एक बात बताइये...?
दो-तीन दिन पहले 
आप मुझे माताजी कहकर
चलने के लिए पूछ रहे थे,
कल बहनजी और आज मैडम, ऐसा क्यूँ...?''
ऑटोवाला थोड़ा झिझककर शरमाते हुए बोला :—
''जी सच बताऊँ...
आप चाहे जो भी समझेँ 
पर किसी का भी पहनावा हमारी सोच पर असर डालता है.
आप दो-तीन दिन पहले साड़ी में थीं तो एकाएक मन में आदर के भाव जागे,
क्योंकि,
मेरी माँ हमेशा साड़ी ही पहनती है.
इसीलिए मुँह से 
स्वयं ही *"माताजी'"* निकल गया.
कल आप 
सलवार-कुर्ती में थीँ, 
जो मेरी बहन भी पहनती है.
इसीलिए आपके प्रति
*स्नेह का भाव* मन में जागा और
मैंने *''बहनजी''* कहकर आपको आवाज़ दे दी.
आज आप जीन्स-टॉप में हैं, और *इस लिबास में माँ या*
*बहन के भाव तो नहीँ जागते*.
इसीलिए मैंने 
आपको *"मैडम"* कहकर पुकारा.
*कथासार*
हमारे परिधान का न केवल हमारे विचारों पर वरन दूसरे के भावों को भी बहुत प्रभावित करता है.
टीवी, फिल्मों या औरों को देखकर पहनावा ना बदलें, बल्कि विवेक और संस्कृति की ओर भी ध्यान दें.

Sunday, March 24, 2019

दिमाग का उपयोग

गधे ने बाघ से कहा!   घास नीले रंग की होती है ! 
  बाघ ने कहा!   नहीं  घास का रंग हरा है ! 
 दोनों के बीच चर्चा तेज हो गई।  चर्चा विवाद का रूप ले ही रही थी ,  कि किसी ने सुझाया ,  क्योंना जंगल के राजा से निर्णय करवाते ! 
 दोनों ही अपने-अपने तर्को पर दृढ़ता से अड़े थे !    इस विवाद को 

  समाप्त करने के लिए, दोनों जंगल के राजा शेर के पास गए !  

 पशु साम्राज्य के बीच में, सिंहासन पर एक शेर बैठा था !  
  बाघ के कुछ कहने से पहले ही गधा चिल्लाने लगा ! ! 
   महाराज! !    
  घास नीला है ना?  
  शेर ने कहा, 
   'हाँ! 
   घास नीली है। 

गधा बोला !    ये बाघ नहीं मान रहा!    उसे ,  ठीक से इसकी  सजा दी जाए।   
  राजा ने घोषणा की !   
 " बाघ को एक साल की जेल होगी " राजा का फैसला गधे ने सुना , और वह पूरे जंगल में खुशी से झूमता फिरे , कि   
 " बाघ को एक साल की जेल की सजा सुनाई गई " ! ! 

 बाघ शेर के पास गया  और पूछा ! !    
  क्यों महाराज ?    घास हरी है ,  
  क्या यह सही नहीं है?? ?  
  शेर ने कहा !    हाँ!    घास हरी है !  मगर . .  तुम को  सज़ा !   उस मूर्ख , गधे के साथ बहस करने केलिये दी गई हैं ! ! . . .   आप जैसे बहादुर और बुद्धिमान जीव , ने , गधे से बहस की ! ! !  
  और निर्णय कराने ,  
  मेरे पास , चले आये  ! ! ! 

कहानी का सार ! ? ! 
गधों से , बहस ना ,  करें !    गधों के जोर जोर से चोर चोर चिल्लाने से चौकीदार चोर नही हो जाता अपने दिमाग का उपयोग करे 

Saturday, March 2, 2019

शब्दों का प्रयोग

18 दिन के युद्ध ने, द्रोपदी की उम्र को 
80 वर्ष जैसा कर दिया था... शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी !

उसकी आंखे मानो किसी खड्डे में धंस गई थी, उनके नीचे के काले घेरों ने उसके रक्ताभ कपोलों को भी अपनी सीमा में ले लिया था !

श्याम वर्ण और अधिक काला हो गया था... युद्ध से पूर्व प्रतिशोध की ज्वाला ने जलाया था और, युद्ध के उपरांत पश्चाताप की आग तपा रही थी !

ना कुछ समझने की क्षमता बची थी ना सोचने की ।  कुरूक्षेत्र मेें चारों तरफ लाशों के ढेर थे ।  जिनके दाह संस्कार के लिए न लोग उपलब्ध थे न साधन । 

शहर में चारों तरफ विधवाओं का बाहुल्य था..  पुरुष इक्का-दुक्का ही दिखाई पड़ता था अनाथ बच्चे घूमते दिखाई पड़ते थे और, उन सबकी वह महारानी द्रौपदी हस्तिनापुर के महल में निश्चेष्ट बैठी हुई शून्य को ताक रही थी । 

तभी, * श्रीकृष्ण* कक्ष में दाखिल होते है !

द्रौपदी कृष्ण को देखते ही दौड़कर उनसे लिपट जाती है ... कृष्ण उसके सर को सहलाते रहते हैं और रोने देते हैं !
थोड़ी देर में, उसे खुद से अलग करके समीप के पलंग पर बिठा देते हैं । 

*द्रोपती* : यह क्या हो गया *सखा* ??
ऐसा तो मैंने नहीं सोचा था ।

*कृष्ण* : नियति बहुत क्रूर होती है पांचाली..
वह हमारे सोचने के अनुरूप नहीं चलती !
हमारे कर्मों को परिणामों में बदल देती है..
तुम प्रतिशोध लेना चाहती थी और, तुम सफल हुई, द्रौपदी ! 

तुम्हारा प्रतिशोध पूरा हुआ... सिर्फ दुर्योधन और दुशासन ही नहीं, सारे कौरव समाप्त हो गए !
तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए ! 

*द्रोपती*: सखा, तुम मेरे घावों को सहलाने आए हो या, उन पर नमक छिड़कने के लिए ?

*कृष्ण* : नहीं द्रौपदी, मैं तो तुम्हें वास्तविकता से अवगत कराने के लिए आया हूं । 
हमारे कर्मों के परिणाम को हम, दूर तक नहीं देख पाते हैं और जब वे समक्ष होते हैं.. तो, हमारे हाथ मे कुछ नहीं रहता ।

*द्रोपती* : तो क्या, इस युद्ध के लिए पूर्ण रूप से मैं ही उत्तरदाई हूं कृष्ण ? 

*कृष्ण* : नहीं द्रौपदी तुम स्वयं को इतना महत्वपूर्ण मत समझो...
लेकिन, तुम अपने कर्मों में थोड़ी सी भी दूरदर्शिता रखती तो, स्वयं इतना कष्ट कभी नहीं पाती।

*द्रोपती* : मैं क्या कर सकती थी कृष्ण ?

*कृष्ण*:- 👉जब तुम्हारा स्वयंबर हुआ... 
तब तुम कर्ण को अपमानित नहीं करती 
और उसे प्रतियोगिता में भाग लेने का 
एक अवसर देती तो, शायद परिणाम 
कुछ और होते ! 

👉इसके बाद जब कुंती ने तुम्हें पांच पतियों की पत्नी बनने का आदेश दिया...
तब तुम उसे स्वीकार नहीं करती 
तो भी, परिणाम कुछ और होते । 
             और 
उसके बाद तुमने अपने महल में  दुर्योधन को अपमानित किया... वह नहीं करती तो, तुम्हारा चीर हरण नहीं होता... तब भी शायद, परिस्थितियां कुछ और होती । 

हमारे *शब्द* भी हमारे *कर्म* होते हैं द्रोपदी...

और, हमें अपने हर शब्द को बोलने से पहले तोलना बहुत जरूरी होता है... अन्यथा, उसके *दुष्परिणाम* सिर्फ स्वयं को ही नहीं.... अपने पूरे परिवेश को दुखी करते रहते हैं ।

संसार में केवल मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है... जिसका " जहर " उसके " दांतों " में नही,
*"शब्दों " में है...

इसलिए शब्दों का प्रयोग सोच समझकर करिये। 
ऐसे शब्द का प्रयोग करिये... जिससे, किसी की भावना को ठेस ना पहुंचे।