एक दस वर्षीय लड़का प्रतिदिन अपने पिता के साथ पास की पहाड़ी पर सैर करने जाता था। एक दिन लड़के ने कहा, “पिताजी चलिए आज हम दौड़ लगाते हैं, जो पहले चोटी पर लगी उस झंडी को छू लेगा वह दौड़ जीत जाएगा।”
पिताजी तैयार हो गए। दूरी अधिक थी, दोनों ने धीरे-धीरे दौड़ना आरंभ किया।
कुछ देर दौड़ने के बाद ही पिताजी अचानक रुक गए।
“क्या हुआ पापा, आप अचानक रुक क्यों गए, आपने अभी से हार मान ली क्या?”, लड़का मुस्कुराते हुए बोला।
“नहीं-नहीं, मेरे जूते में कुछ कंकड़ पड़ गए हैं, बस उन्ही को निकालने के लिए रुका हूँ”, पिताजी बोले।
लड़का बोला, “अरे, कंकड़ तो मेरे भी जूतों में पड़े हैं, लेकिन यदि मैं रुक गया तो दौड़ हार जाऊँगा…”, और यह कहता हुआ वह तेज़ी से आगे भागा।
पिताजी भी कंकड़ निकाल कर आगे बढे़, लड़का बहुत आगे निकल चुका था, पर अब उसे पाँव में दर्द का अनुभव हो रहा था, और उसकी गति भी घटती जा रही थी। धीरे-धीरे पिताजी भी उसके समीप आने लगे थे।
लड़के के पैरों में कष्ट देख पिताजी पीछे से चिल्लाए, “क्यों नहीं तुम भी अपने जूते में से कंकड़ निकाल लेते?”
“मेरे पास इसके लिए समय नहीं है !”, लड़का बोला और दौड़ता रहा। कुछ ही देर में पिताजी उससे आगे निकल गए।
चुभते कंकडों की कारण लड़के का कष्ट बहुत बढ़ चुका था और अब उससे चला भी नहीं जा रहा था। वह रुकते-रुकते चीखा, “पापा, अब मैं और नहीं दौड़ सकता।”
पिताजी जल्दी से दौड़कर वापस आए और अपने बेटे के जूते खोले, देखा तो पाँव से खून निकल रहा था। वे उसे झटपट घर ले गए और मरहम-पट्टी की।
जब दर्द कुछ कम हो गया तो उन्होंने ने समझाया,” बेटे, मैंने आपसे कहा था न कि पहले अपने कंकडों को निकाल लो और फिर दौड़ो।”
“मैंने सोचा यदि मैं रुका तो दौड़ हार जाऊँगा।” बेटा बोला।
“ऐसा नही है बेटा, यदि हमारे जीवन में कोई समस्या आती है तो हमें उसे यह कह कर टालना नहीं चाहिए कि अभी हमारे पास समय नहीं है। वास्तव में होता क्या है, जब हम किसी समस्या की अनदेखी करते हैं तो वह धीरे-धीरे और बड़ी होती जाती है और अंततः हमें जितनी हानि पहुँचा सकती थी उससे कहीं अधिक हानि पहुँचा देती है। तुम्हें कंकड़ निकालने में अधिक से अधिक एक मिनट का समय लगता पर अब उस एक मिनट के बदले तुम्हें एक सप्ताह तक पीढ़ा सहनी होगी।” पिताजी ने अपनी बात पूरी की।
मित्रों, हमारा जीवन तमाम ऐसे कंकडों से भरा हुआ है, कभी हम अपनी आर्थिक स्थिति को लेकर परेशान होते हैं तो कभी हमारे रिश्तों में कड़वाहट आ जाती है तो कभी हमें अपने साथ काम करने वाले सहकर्मी से समस्या होती है।
आरंभ में ये समस्याएँ छोटी प्रतीत होती हैं और हम इनके बारे में बात करने या इनका समाधान खोजने से बचते हैं, पर धीरे-धीरे इनका रूप बड़ा होता जाता है। जैसे कोई ऋण जिसे हम समय रहते एक हज़ार रुपये देकर चुका सकते थे उसके लिए बाद में 5000 रूपये चाहिए होते हैं… रिश्ते की जिस कड़वाहट को हम ‘खेद है’ कहकर दूर कर सकते थे वह अब टूटने की कगार पर आ जाता है और एक छोटी सी बातचीत से हम अपने सहकर्मी का भ्रम दूर कर सकते थे वह कुछ समय बाद कार्य-स्थल की राजनीति में परिवर्तित हो जाता है।
समस्याओं का समाधान समय रहते कर लेना चाहिए अन्यथा देरी करने पर वे उन कंकडों की तरह आपका भी खून बहा सकती हैं।