Sunday, December 10, 2017

एक बेटा ऐसा भी


  • माँ, मुझे कुछ महीने के लिये विदेश जाना पड़ रहा है। तेरे रहने का इन्तजाम मैंने करा दिया है।"*

तक़रीबन  32  साल के , अविवाहित डॉक्टर सुदीप ने देर रात घर में घुसते ही कहा।
         " बेटा, तेरा विदेश जाना ज़रूरी है क्या ?" माँ की आवाज़ में चिन्ता और घबराहट झलक रही थी।
         " माँ, मुझे इंग्लैंड जाकर कुछ रिसर्च करनी है। वैसे भी कुछ ही महीनों की तो बात है।" सुदीप ने कहा।
     " जैसी तेरी इच्छा।" मरी से आवाज़  में माँ बोली।
     और छोड़ आया सुदीप अपनी माँ  'प्रभा देवी'  को पड़ोस वाले शहर में स्थित एक  वृद्धा-आश्रम में।
               वृद्धा-आश्रम में आने पर शुरू-शुरू में हर बुजुर्ग के चेहरे पर जिन्दगी के प्रति हताशा और निराशा साफ झलकती थी। पर प्रभा देवी के चेहरे पर वृद्धा-आश्रम में आने के बावजूद कोई शिकन तक न थी।
               एक दिन आश्रम में बैठे कुछ बुजुर्ग आपस में बात कर रहे थे। उनमें दो-तीन महिलायें भी थीं। उनमें से एक ने कहा, " *डॉक्टर का कोई सगा-सम्बन्धी नहीं था जो अपनी माँ को यहाँ छोड़ गया।"*
तो वहाँ बैठी एक महिला बोली, " प्रभा देवी के पति की मौत जवानी में ही हो गयी थी। तब सुदीप कुल चार साल का था।पति की मौत के बाद, प्रभा देवी और उसके बेटे को रहने और खाने के लाले पड़ गये। तब किसी भी रिश्तेदार ने उनकी मदद नहीं की। प्रभा देवी ने लोगों के कपड़े सिल-सिल कर अपने बेटे को पढ़ाया। बेटा भी पढ़ने में बहुत तेज था, तभी तो वो डॉक्टर बन सका।"
            वृद्धा-आश्रम में करीब  6  महीने गुज़र जाने के बाद एक दिन प्रभा देवी ने आश्रम  के संचालक राम किशन शर्मा जी के ऑफिस के फोन से अपने बेटे के मोबाईल नम्बर पर फोन किया, और कहा, " सुदीप तुम हिंदुस्तान आ गये हो या अभी इंग्लैंड में ही हो ?"
" माँ, अभी तो मैं इंग्लैंड में ही हूँ।" सुदीप का जवाब था।
             
      तीन-तीन, चार-चार महीने के अंतराल पर प्रभा देवी सुदीप को फ़ोन करती उसका एक ही जवाब होता, " मैं अभी वहीं हूँ, जैसे ही अपने देश आऊँगा तुझे बता दूँगा।"
            इस तरह तक़रीबन दो साल गुजर गये। अब तो वृद्धा-आश्रम के लोग भी कहने लगे कि देखो कैसा चालाक बेटा निकला, कितने धोखे से अपनी माँ को यहाँ छोड़ गया। आश्रम के ही किसी बुजुर्ग ने कहा, *" मुझे तो लगता नहीं कि डॉक्टर विदेश-पिदेश गया होगा, वो तो बुढ़िया से छुटकारा पाना चाह रहा था।"*
तभी किसी और बुजुर्ग ने कहा, " मगर वो तो शादी-शुदा भी नहीं था।"
     *" अरे होगी उसकी कोई 'गर्ल-फ्रेण्ड' , जिसने कहा होगा पहले माँ के रहने का अलग इंतजाम करो, तभी मैं तुमसे शादी करुँगी।"*
                दो साल आश्रम में रहने के बाद अब प्रभा देवी को भी अपनी नियति का पता चल गया। बेटे का गम उसे अंदर ही अंदर खाने लगा। वो बुरी तरह टूट गयी।
             दो साल आश्रम में और रहने के बाद एक दिन प्रभा देवी की मौत हो गयी। उसकी मौत पर आश्रम के लोगों ने आश्रम के संचालक शर्मा जी से कहा, " इसकी मौत की खबर इसके बेटे को तो दे दो। हमें तो लगता नहीं कि वो विदेश में होगा, वो होगा यहीं कहीं अपने देश में।"
                              *" इसके बेटे को मैं कैसे खबर करूँ । उसे मरे तो तीन साल हो गये।"* 
       शर्मा जी की यह बात सुन वहाँ पर उपस्थित लोग सनाका खा गये। 
             उनमें से एक बोला, " अगर उसे मरे तीन साल हो गये तो प्रभा देवी से मोबाईल पर कौन बात करता था।"
         " वो मोबाईल तो मेरे पास है, जिसमें उसके बेटे की  रिकॉर्डेड आवाज़ है।"  शर्मा जी बोले।
              "पर ऐसा क्यों ?" किसी ने पूछा।
         तब शर्मा जी बोले कि करीब चार साल पहले जब सुदीप अपनी माँ को यहाँ छोड़ने आया तो उसने मुझसे कहा, " शर्मा जी मुझे  'ब्लड कैंसर'  हो गया है। और डॉक्टर होने के नाते मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि इसकी आखिरी स्टेज में मुझे बहुत तकलीफ होगी। मेरे मुँह से और मसूड़ों आदि से खून भी आयेगा। मेरी यह तकलीफ़ माँ से देखी न जा सकेगी। वो तो जीते जी ही मर जायेगी। *मुझे तो मरना ही है पर मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण मेरे से पहले मेरी माँ मरे।* मेरे मरने के बाद दो कमरे का हमारा छोटा सा 'फ्लेट' और जो भी घर का सामान आदि है वो मैं आश्रम को दान कर दूँगा।"
              यह दास्ताँ सुन वहाँ पर उपस्थित लोगों की आँखें झलझला आयीं।
           प्रभा देवी का अन्तिम संस्कार आश्रम के ही एक हिस्से में कर दिया गया। उनके अन्तिम संस्कार में शर्मा जी ने आश्रम में रहने वाले बुजुर्गों के परिवार वालों को भी बुलाया। 
             *माँ-बेटे की अनमोल और अटूट प्यार की दास्ताँ का ही असर था कि कुछ बेटे अपने बूढ़े माँ/बाप को वापस अपने घर ले गये।*

Thursday, December 7, 2017

वक़्त बदलते देर नहीं लगती

बाहर बारिश हो रही थी, और अन्दर क्लास चल रही थी.. तभी टीचर ने बच्चों से पूछा कि  अगर तुम सभी को
100-100 रुपये दिए जाए तो तुम सब क्या क्या खरीदोगे?? किसी ने कहा कि  मैं वीडियो गेम खरीदुंगा.. किसी ने कहा  मैं क्रिकेट का बेट खरीदुंगा.. किसी ने कहा कि मैं अपने लिए प्यारी सी गुड़िया खरीदुंगी.. तो, किसी ने कहा
मैं बहुत सी चॉकलेट्स खरीदुंगी.. एक बच्चा कुछ सोचने में डुबा हुआ था   टीचर ने उससे पुछा कि "तुम क्या सोच रहे हो, तुम क्या खरीदोगे??" बच्चा बोला कि, टीचर जी मेरी माँ को थोड़ा कम दिखाई देता है तो मैं अपनी माँ के लिए एक चश्मा खरीदूंगा.! टीचर ने पूछाः तुम्हारी माँ के लिए  चश्मा तो तुम्हारे पापा भी खरीद सकते है, तुम्हें अपने लिए कुछ नहीं खरीदना?? बच्चे ने जो जवाब दिया उससे टीचर का भी गला भर आया...  बच्चे ने कहा कि  मेरे पापा अब इस दुनिया में नहीं है मेरी माँ लोगों के कपड़े सिलकर  मुझे पढ़ाती है, और कम दिखाई देने की  वजह से वो ठीक से कपड़े नहीं सिल पाती है.. इसीलिए मैं मेरी माँ को चश्मा देना चाहता हुँ, ताकि मैं अच्छे से पढ़ सकूँ बड़ा आदमी बन सकूँ, और
माँ को सारे सुख दे सकूँ.! टीचर:- बेटा तेरी सोच ही तेरी कमाई है। ये 100 रूपये मेरे वादे के अनुसार  और, ये 100 रूपये और उधार दे रहा हूँ। जब कभी कमाओ तो लौटा देना। और, मेरी इच्छा है, तू इतना बड़ा आदमी बने कि तेरे सर पे हाथ फेरते वक्त मैं धन्य हो जाऊं.!

15 वर्ष बाद..........
.
बाहर बारिश हो रही है, और अंदर क्लास चल रही है। अचानक स्कूल के आगे जिला कलेक्टर की बत्ती वाली गाड़ी आकर रूकती है। स्कूल स्टाफ चौकन्ना हो जाता हैं। स्कूल में सन्नाटा छा जाता हैं.! मगर ये क्या ? जिला कलेक्टर एक वृद्ध टीचर के पैरों में गिर जाते हैं, और कहते हैं:- "सर मैं दामोदर दास उर्फ़ झंडू, आपके उधार के 100 रूपये लौटाने आया हूँ" पूरा स्कूल स्टॉफ स्तब्ध.!!! वृद्ध टीचर झुके हुए नौजवान कलेक्टर को उठाकर भुजाओं में कस लेता है, और रो पड़ता हैं.! 
"दोस्तों..
मशहूर हो, मगरूर मत बनना
साधारण हो, कमज़ोर मत बनना
वक़्त बदलते देर नहीं लगती..
शहंशाह को फ़कीर, और फ़क़ीर को 
शहंशाह बनते, देर नही लगती....

Monday, December 4, 2017

अपना ध्यान

एक महिला रोज मंदिर जाती थी ! एक दिन उस महिला ने पुजारी से कहा अब मैं मंदिर नही आया करूँगी !

इस पर पुजारी ने पूछा -- क्यों ?

तब महिला बोली -- मैं देखती हूँ लोग मंदिर परिसर में अपने फोन से अपने व्यापार की बात करते हैं ! कुछ ने तो मंदिर को ही गपशप करने का स्थान चुन रखा है ! कुछ पूजा कम पाखंड,दिखावा ज्यादा करते हैं !

इस पर पुजारी कुछ देर तक चुप रहे फिर कहा -- सही है ! परंतु अपना अंतिम निर्णय लेने से पहले आप मेरे कहने से कुछ कर सकती हैं 

महिला बोली -आप बताइए क्या करना है ?

पुजारी ने कहा -- एक गिलास पानी भर लीजिए और 2 बार मंदिर परिसर के अंदर परिक्रमा लगाइए शर्त ये है कि गिलास का पानी गिरना नही चाहिये !

महिला बोली -- मैं ऐसा कर सकती हूँ !

 फिर थोड़ी ही देर में उस महिला ने ऐसा कर दिखाया !

उसके बाद मंदिर के पुजारी ने महिला से 3 सवाल पूछे -
1.क्या आपने किसी को फोन पर बात करते देखा !
2.क्या आपने किसी को मंदिर मे गपशप करते देखा !
3.क्या किसी को पाखंड करते देखा !

महिला बोली -- नही मैंने कुछ भी नही देखा  !

फिर पुजारी बोले ---  जब आप परिक्रमा लगा रही थी तो आपका पूरा ध्यान गिलास पर था कि इसमे से पानी न गिर जाए इसलिए आपको कुछ दिखाई नही दिया अब जब भी आप मंदिर आये तो सिर्फ अपना ध्यान परम पिता परमात्मा में ही लगाना फिर आपको कुछ दिखाई ही नही देगा ! सिर्फ भगवान ही सर्ववृत दिखाई देगें ... !!

Monday, November 27, 2017

सोंच का अंतर

एक बार श्री कृष्ण और अर्जुन भ्रमण पर निकले तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राहमण को भिक्षा मागते देखा....
अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राहमण को स्वर्ण मुद्राओ से भरी एक पोटली दे दी।
जिसे पाकर ब्राहमण प्रसन्नता पूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुन्दर स्वप्न देखता हुआ घर लौट चला।
किन्तु उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था, राह में एक लुटेरे ने उससे वो पोटली छीन ली।
ब्राहमण दुखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया।अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राहमण पर पड़ी तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा।
ब्राहमण ने सारा विवरण अर्जुन को बता दिया, ब्राहमण की व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ गयी अर्जुन ने विचार किया और इस बार उन्होंने ब्राहमण को मूल्यवान एक माणिक दिया।
ब्राहमण उसे लेकर घर पंहुचा उसके घर में एक पुराना घड़ा था जो बहुत समय से प्रयोग नहीं किया गया था,ब्राह्मण ने चोरी होने के भय से माणिक उस घड़े में छुपा दिया।
किन्तु उसका दुर्भाग्य, दिन भर का थका मांदा होने के कारण उसे नींद आ गयी... इस बीच
ब्राहमण की स्त्री नदी में जल लेने चली गयी किन्तु मार्ग में
ही उसका घड़ा टूट गया, उसने सोंचा, घर में जो पुराना घड़ा पड़ा है उसे ले आती हूँ, ऐसा विचार कर वह घर लौटी और उस पुराने घड़े को ले कर
चली गई और जैसे ही उसने घड़े
को नदी में डुबोया वह माणिक भी जल की धारा के साथ बह गया।
ब्राहमण को जब यह बात पता चली तो अपने भाग्य को कोसता हुआ वह फिर भिक्षावृत्ति में लग गया।
अर्जुन और श्री कृष्ण ने जब फिर उसे इस दरिद्र अवस्था में देखा तो जाकर उसका कारण पूंछा।
सारा वृतांत सुनकर अर्जुन को बड़ी हताशा हुई और मन ही मन सोचने लगे इस अभागे ब्राहमण के जीवन में कभी सुख नहीं आ सकता।
अब यहाँ से प्रभु की लीला प्रारंभ हुई।उन्होंने उस ब्राहमण को दो पैसे दान में दिए।
तब अर्जुन ने उनसे पुछा “प्रभु
मेरी दी मुद्राए और माणिक
भी इस अभागे की दरिद्रता नहीं मिटा सके तो इन दो पैसो से
इसका क्या होगा” ?
यह सुनकर प्रभु बस मुस्कुरा भर दिए और अर्जुन से उस
ब्राहमण के पीछे जाने को कहा।
रास्ते में ब्राहमण सोचता हुआ जा रहा था कि "दो पैसो से तो एक व्यक्ति के लिए भी भोजन नहीं आएगा प्रभु ने उसे इतना तुच्छ दान क्यों दिया ? प्रभु की यह कैसी लीला है "?
ऐसा विचार करता हुआ वह
चला जा रहा था उसकी दृष्टि एक मछुवारे पर पड़ी, उसने देखा कि मछुवारे के जाल में एक
मछली फँसी है, और वह छूटने के लिए तड़प रही है ।
ब्राहमण को उस मछली पर दया आ गयी। उसने सोचा"इन दो पैसो से पेट की आग तो बुझेगी नहीं।क्यों? न इस मछली के प्राण ही बचा लिए जाये"।
यह सोचकर उसने दो पैसो में उस मछली का सौदा कर लिया और मछली को अपने कमंडल में डाल लिया। कमंडल में जल भरा और मछली को नदी में छोड़ने चल पड़ा।
तभी मछली के मुख से कुछ निकला।उस निर्धन ब्राह्मण ने देखा ,वह वही माणिक था जो उसने घड़े में छुपाया था।
ब्राहमण प्रसन्नता के मारे चिल्लाने लगा “मिल गया, मिल गया ”..!!!
तभी भाग्यवश वह लुटेरा भी वहाँ से गुजर रहा था जिसने ब्राहमण की मुद्राये लूटी थी।
उसने ब्राह्मण को चिल्लाते हुए सुना “ मिल गया मिल गया ” लुटेरा भयभीत हो गया। उसने सोंचा कि ब्राहमण उसे पहचान गया है और इसीलिए चिल्ला रहा है, अब जाकर राजदरबार में उसकी शिकायत करेगा।
इससे डरकर वह ब्राहमण से रोते हुए क्षमा मांगने लगा। और उससे लूटी हुई सारी मुद्राये भी उसे वापस कर दी।
यह देख अर्जुन प्रभु के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके।
अर्जुन बोले,प्रभु यह कैसी लीला है? जो कार्य थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक नहीं कर सका वह आपके दो पैसो ने कर दिखाया।
श्री कृष्णा ने कहा “अर्जुन यह अपनी सोंच का अंतर है, जब तुमने उस निर्धन को थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक दिया तब उसने मात्र अपने सुख के विषय में सोचा। किन्तु जब मैनें उसको दो पैसे दिए। तब उसने दूसरे के दुःख के विषय में सोचा। इसलिए हे अर्जुन-सत्य तो यह है कि, जब आप दूसरो के दुःख के विषय में सोंचते है, जब आप दूसरे का भला कर रहे होते हैं, तब आप ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं, और तब ईश्वर आपके साथ होते हैं।

Friday, November 24, 2017

आम का पेड़

*एक बच्चे को आम का पेड़ बहुत पसंद था।*

*जब भी फुर्सत मिलती वो आम के पेड के पास पहुच जाता।* 

*पेड के उपर चढ़ता,आम खाता,खेलता और थक जाने पर उसी की छाया मे सो जाता।* 

*उस बच्चे और आम के पेड के बीच एक अनोखा रिश्ता बन गया।*

*बच्चा जैसे-जैसे बडा होता गया वैसे-वैसे उसने पेड के पास आना कम कर दिया।* 

*कुछ समय बाद तो बिल्कुल ही बंद हो गया।*

*आम का पेड उस बालक को याद करके अकेला रोता।*

*एक दिन अचानक पेड ने उस बच्चे को अपनी तरफ आते देखा और पास आने पर कहा,*

*"तू कहां चला गया था? मै रोज तुम्हे याद किया करता था। चलो आज फिर से दोनो खेलते है।"*

*बच्चे ने आम के पेड से कहा,*
*"अब मेरी खेलने की उम्र नही है* 

*मुझे पढना है,लेकिन मेरे पास फीस भरने के पैसे नही है।"*

*पेड ने कहा,* 
*"तू मेरे आम लेकर बाजार मे बेच दे,*
*इससे जो पैसे मिले अपनी फीस भर देना।"*

*उस बच्चे ने आम के पेड से सारे आम तोड़ लिए और उन सब आमो को लेकर वहा से चला गया।*

*उसके बाद फिर कभी दिखाई नही दिया।* 

*आम का पेड उसकी राह देखता रहता।*

*एक दिन वो फिर आया और कहने लगा,*
*"अब मुझे नौकरी मिल गई है,* 
*मेरी शादी हो चुकी है,*

*मुझे मेरा अपना घर बनाना है,इसके लिए मेरे पास अब पैसे नही है।"*
*आम के पेड ने कहा,* 

*"तू मेरी सभी डाली को काट कर ले जा,उससे अपना घर बना ले।"*
*उस जवान ने पेड की सभी डाली काट ली और ले के चला गया।* 

*आम के पेड के पास अब कुछ नहीं था वो अब बिल्कुल बंजर हो गया था।*

*कोई उसे देखता भी नहीं था।* 
*पेड ने भी अब वो बालक/जवान उसके पास फिर आयेगा यह उम्मीद छोड दी थी।*

*फिर एक दिन अचानक वहाँ एक बुढा आदमी आया। उसने आम के पेड से कहा,*

*"शायद आपने मुझे नही पहचाना,* 
*मैं वही बालक हूं जो बार-बार आपके पास आता और आप हमेशा अपने टुकड़े काटकर भी मेरी मदद करते थे।"*

*आम के पेड ने दु:ख के साथ कहा,*

*"पर बेटा मेरे पास अब ऐसा कुछ भी नही जो मै तुम्हे दे सकु।"*

*वृद्ध ने आंखो मे आंसु लिए कहा,*

*"आज मै आपसे कुछ लेने नही आया हूं बल्कि आज तो मुझे आपके साथ जी भरके खेलना है,*

*आपकी गोद मे सर रखकर सो जाना है।"*

*इतना कहकर वो आम के पेड से लिपट गया और आम के पेड की सुखी हुई डाली फिर से अंकुरित हो उठी।*

*वो आम का पेड़ कोई और नही हमारे माता-पिता हैं दोस्तों ।*

*जब छोटे थे उनके साथ खेलना अच्छा लगता था।* 

*जैसे-जैसे बडे होते चले गये उनसे दुर होते गये।*
*पास भी तब आये जब कोई जरूरत पडी,*
*कोई समस्या खडी हुई।*

*आज कई माँ बाप उस बंजर पेड की तरह अपने बच्चों की राह देख रहे है।*

*जाकर उनसे लिपटे,*
*उनके गले लग जाये*

*फिर देखना वृद्धावस्था में उनका जीवन फिर से अंकुरित हो उठेगा।*

Wednesday, November 22, 2017

पिता का अपनी संपत्ति पर फैसला

सुबह- सुबह लान में टहलते हुए जगन्नाथ महापात्र के मन में द्वंद्व छिड़ा हुआ था. पत्नी के निधन के बाद वो सारा व्यापार बेटे को सौंपकर अपना समय किसी तरह घर के छोटे- छोटे कार्यों व पोते- पोती के साथ खेलने बतियाने में काट रहे थे, लेकिन जब से डॉक्टर ने उसे किसी भयानक रोग से संक्रमित होना बताया है, बेटे-बहू का व्यवहार उसके प्रति बदल गया है.

डॉक्टर के यह कहने के बावजूद कि ~यह बीमारी इलाज ज़रूर है लेकिन छूत की नहीं, आप लोगों को अब इनका विशेष ध्यान रखना चाहिए...,
वे उससे कन्नी काटने लगे हैं. बच्चों को उसके निकट तक नहीं फटकने दिया जाता. भोजन भी नौकर के हाथ कमरे में भिजवाया जाने लगा है. उसे अब अपनी मेहनत के बल पर खड़ा किया गया अपना साम्राज्य –बंगला, गाड़ी, नौकर- चाकर, बैंक बैलेंस आदि सब व्यर्थ लगने लगा है.

टहलते- टहलते वे बेटे-बहू की मोटे परदे लगी हुई लान में खुलने वाली खिड़की के निकट से गुज़रे तो उनकी अस्फुट बातचीत में ‘पिताजी’ शब्द सुनकर वहीँ आड़ में खड़े होकर उनकी बातचीत सुनने लगे. बहू कह रही थी-

“देखो, पिताजी की बीमारी चाहे छूत की न भी हो लेकिन मैं परिवार के स्वास्थ्य के मामले में कोई रिस्क नहीं लेना चाहती, तुम्हें उनको अच्छे से वृद्धाश्रम में भर्ती करवा देना चाहिए, रुपए-पैसे की तो कोई कमी है नहीं ;और हम भी उनसे मिलने जाते रहेंगे.”

“सही कह रही हो, मैं आज ही उनसे बात करूँगा.”

जगन्नाथ महापात्र के कान इसके आगे कुछ सुन नहीं सके, उनके घूमते हुए कदम शिथिल पड़ने लगे और वे कमरे में आकर निढाल होकर बिस्तर पर पड़ गए.

रात को भोजन के बाद बेटे ने जब नीची निगाहों से उनके कमरे में प्रवेश किया, वे एक दृढ़ निश्चय के साथ स्वयं को नई ज़िन्दगी के लिए तैयार कर चुके थे.

बेटे को देखकर चौंकने का अभिनय करते हुए बोले
“आओ विमल, कहो आज इधर कैसे चले आए, कुछ परेशान से दिख रहे हो, क्या बात है”?

“जी, मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ, सर झुकाए हुए ही विमल ने बुझे हुए से स्वर में कहा”.~

“मुझे भी तुमसे कुछ कहना है बेटा, मैं तुम्हें बुलाने ही वाला था, अच्छा हुआ तुम स्वयं आ गए, बेफिक्र होकर अपनी बात कहो...”

“पहले आप अपनी बात कहिये पिताजी...” समीप ही पड़ी हुई कुर्सी पर बैठते हुए विमल बोला.

“बात यह है बेटे, कि डॉक्टर ने जब मेरी बीमारी खतरनाक बताई है तो मैं चाहता हूँ कि मैं अपना
शेष जीवनकाल अपने जैसे असहाय, बेसहारा और अक्षम बुजुर्गों के साथ व्यतीत करूँ.”~ कहते हुए जगन्नाथ महापात्र का गला रुँधने लगा.

सुनते ही विमल मन ही मन ख़ुशी से फूला न समाया, पिताजी ने स्वयं आगे रहकर उसे अपराध-बोध से मुक्त कर दिया था. लेकिन दिखावे के लिए उसने पिता से कहा~

“यह आप क्या कह रहे हैं पिताजी, आपको यहाँ रहने में क्या तकलीफ है?
“नहीं बेटे, मुझे यहाँ रहने में कोई तकलीफ नहीं ;लेकिन यह कहने में तकलीफ हो रही है कि तुम अब अपने रहने की व्यवस्था अन्यत्र कर लो, मैंने इस बँगले को "वृद्धाश्रम " का रूप देने का निर्णय लिया है, ताकि अपनी यादों और जड़ों से जुड़ा रहकर आगे की ज़िन्दगी जी सकूँ...
और हाँ, तुम भी कुछ कहना चाहते थे न!...”

कमरे में एक सन्नाटा छा गया।

Sunday, November 19, 2017

प्रथम पाठशाला

बेटा तुम्हारा इन्टरव्यू लैटर आया है। मां ने लिफाफा हाथ में देते हुए कहा।
यह मेरा सातवां इन्टरव्यू था। मैं जल्दी से तैयार होकर दिए गए नियत समय 9:00 बजे पहुंच गया। एक घर में ही बनाए गए ऑफिस का गेट खुला ही पड़ा था मैंने बन्द किया भीतर गया।
सामने बने कमरे में जाने से पहले ही मुझे माँ की कही बात याद आ गई बेटा भीतर आने से पहले पांव झाड़ लिया करो।फुट मैट थोड़ा आगे खिसका हुआ था मैंने सही जगह पर रखा पांव पोंछे और भीतर गया।
एक रिसेप्शनिस्ट बैठी हुई थी अपना इंटरव्यू लेटर उसे दिखाया तो उसने सामने सोफे पर बैठकर इंतजार करने के लिए कहा। मैं सोफे पर बैठ गया, उसके तीनों कुशन अस्त व्यस्त पड़े थे आदत के अनुसार उन्हें ठीक किया, कमरे को सुंदर दिखाने के लिए खिड़की में कुछ गमलों में छोटे छोटे पौधे लगे हुए थे उन्हें देखने लगा एक गमला कुछ टेढ़ा रखा था, जो गिर भी सकता था माँ की व्यवस्थित रहने की आदत मुझे यहां भी आ याद आ गई, धीरे से उठा उस गमले को ठीक किया।
तभी रिसेप्शनिस्ट ने सीढ़ियों से ऊपर जाने का इशारा किया और कहा तीन नंबर कमरे में आपका इंटरव्यू है।
मैं सीढ़ियां चढ़ने लगा देखा दिन में भी दोनों लाइट जल रही है ऊपर चढ़कर मैंने दोनों लाइट को बंद कर दिया तीन नंबर कमरे में गया ।
वहां दो लोग बैठे थे उन्होंने मुझे सामने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और पूछा तो आप कब ज्वाइन करेंगे मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ जी मैं कुछ समझा नहीं इंटरव्यू तो आप ने लिया ही नहीं।
इसमें समझने की क्या बात है हम पूछ रहे हैं कि आप कब ज्वाइन करेंगे ? वह तो आप जब कहेंगे मैं ज्वाइन कर लूंगा लेकिन आपने मेरा इंटरव्यू कब लिया वे दोनों सज्जन हंसने लगे।
उन्होंने बताया जब से तुम इस भवन में आए हो तब से तुम्हारा इंटरव्यू चल रहा है, यदि तुम दरवाजा बंद नहीं करते तो तुम्हारे 20 नंबर कम हो जाते हैं यदि तुम फुटमेट ठीक नहीं रखते और बिना पांव पौंछे आ जाते तो फिर 20 नंबर कम हो जाते, इसी तरह जब तुमने सोफे पर बैठकर उस पर रखे कुशन को व्यवस्थित किया उसके भी 20 नम्बर थे और गमले को जो तुमने ठीक किया वह भी तुम्हारे इंटरव्यू का हिस्सा था अंतिम प्रश्न के रूप में सीढ़ियों की दोनों लाइट जलाकर छोड़ी गई थी और तुमने बंद कर दी तब निश्चय हो गया कि तुम हर काम को व्यवस्थित तरीके से करते हो और इस जॉब के लिए सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवार हो, बाहर रिसेप्शनिस्ट से अपना नियुक्ति पत्र ले लो और कल से काम पर लग जाओ।
मुझे रह रह कर माँऔर बाबूजी की यह छोटी-छोटी सीखें जो उस समय बहुत बुरी लगती थी याद आ रही थी।
मैं जल्दी से घर गया मां के और बाऊजी के पांव छुए और अपने इस अनूठे इंटरव्यू का पूरा विवरण सुनाया.
इसीलिए कहते हैं कि व्यक्ति की प्रथम पाठशाला घर और प्रथम गुरु माता पिता ही है।