Friday, October 20, 2017

भ्रम


एक बार हनुमान जी ने प्रभु श्रीराम से कहा कि अशोक वाटिका में जिस समय रावण क्रोध में भरकर तलवार लेकर सीता माँ को मारने के लिए दौड़ा, तब मुझे लगा कि इसकी तलवार छीन कर इसका सिर काट लेना चाहिये, किन्तु अगले ही क्षण मैंने देखा कि मंदोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया, यह देखकर मैं गदगद् हो गया...

ओह प्रभू आपने कैसी शिक्षा दी, यदि मैं कूद पड़ता तो मुझे भ्रम हो जाता कि यदि मैं न होता तो क्या होता ?

बहुधा हमको ऐसा ही भ्रम हो जाता है, मुझे भी लगता कि यदि मैं न होता तो माँ सीता को कौन बचाता ? पर आपने उन्हें बचाया ही नही, बल्कि बचाने का काम रावण की पत्नी को ही सौंप दिया, तब मैं समझ गया कि आप जिससे जो कार्य लेना चाहते हैं, वह उसी से लेते हैं...

आगे चलकर जब त्रिजटा ने कहा कि लंका में बंदर आया हुआ है और वह लंका जलायेगा... तो मैं बड़ी चिंता मे पड़ गया कि प्रभु ने तो लंका जलाने के लिए कहा ही नहीं है और त्रिजटा कह रही है...तो मैं क्या करुँ ?

पर जब रावण के सैनिक तलवार लेकर मुझे मारने के लिये दौड़े तो मैंने अपने को बचाने की तनिक भी चेष्टा नहीं की, और जब विभीषण ने आकर कहा कि दूत को मारना अनीति है, तो मैं समझ गया कि मुझे बचाने के लिये प्रभु ने यह उपाय भी कर दिया है...

आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब रावण ने कहा कि बंदर को मारा नहीं जायेगा पर पूंछ में  कपड़ा लपेट कर घी डालकर आग लगाई जाये... तो मैं गदगद् हो गया कि उस लंका वाली संत त्रिजटा की बात सच होने जा रही है...वरना लंका को जलाने के लिए मैं कहाँ से घी, तेल, कपड़ा लाता और कहाँ आग ढूँढ़ता ?
पर वह प्रबन्ध भी आपने रावण से करा दिया...

जब आप रावण से भी अपना काम करा लेते हैं तो मुझसे करा लेने में आश्चर्य की क्या बात है ?

इसलिये संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह सब ईश्वरीय विधान है, हम और आप तो केवल निमित्त मात्र हैं...

इसलिये ऐसा भ्रम पालना उचित नहीं है कि मैं न होता तो यह कार्य कैसे होता और वह कार्य कैसे होता ?

Tuesday, October 17, 2017

प्रणाम का महत्व

महाभारत का युद्ध चल रहा था -
एक दिन दुर्योधन के व्यंग्य से आहत होकर "भीष्म पितामह" घोषणा कर देते हैं कि -

"मैं कल पांडवों का वध कर दूँगा"

उनकी घोषणा का पता चलते ही पांडवों के शिविर में बेचैनी बढ़ गई -

भीष्म की क्षमताओं के बारे में सभी को पता था इसलिए सभी किसी अनिष्ट की आशंका से परेशान हो गए|

तब -

श्री कृष्ण ने द्रौपदी से कहा अभी मेरे साथ चलो -

श्री कृष्ण द्रौपदी को लेकर सीधे भीष्म पितामह के शिविर में पहुँच गए -

शिविर के बाहर खड़े होकर उन्होंने द्रोपदी से कहा कि - अन्दर जाकर पितामह को प्रणाम करो -

द्रौपदी ने अन्दर जाकर पितामह भीष्म को प्रणाम किया तो उन्होंने - 
"अखंड सौभाग्यवती भव" का आशीर्वाद दे दिया , फिर उन्होंने द्रोपदी से पूछा कि !!

"वत्स, तुम इतनी रात में अकेली यहाँ कैसे आई हो, क्या तुमको श्री कृष्ण यहाँ लेकर आये है" ?

तब द्रोपदी ने कहा कि -

"हां और वे कक्ष के बाहर खड़े हैं" तब भीष्म भी कक्ष के बाहर आ गए और दोनों ने एक दूसरे से प्रणाम किया -

भीष्म ने कहा -

"मेरे एक वचन को मेरे ही दूसरे वचन से काट देने का काम श्री कृष्ण ही कर सकते है"

शिविर से वापस लौटते समय श्री कृष्ण ने द्रौपदी से कहा कि -

*"तुम्हारे एक बार जाकर पितामह को प्रणाम करने से तुम्हारे पतियों को जीवनदान मिल गया है "* -

*" अगर तुम प्रतिदिन भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, आदि को प्रणाम करती होती और दुर्योधन- दुःशासन, आदि की पत्नियां भी पांडवों को प्रणाम करती होंती, तो शायद इस युद्ध की नौबत ही न आती "* -
......तात्पर्य्......

वर्तमान में हमारे घरों में जो इतनी समस्याए हैं उनका भी मूल कारण यही है कि -

*"जाने अनजाने अक्सर घर के बड़ों की उपेक्षा हो जाती है "*

*" यदि घर के बच्चे और बहुएँ प्रतिदिन घर के सभी बड़ों को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लें तो, शायद किसी भी घर में कभी कोई क्लेश न हो "*

बड़ों के दिए आशीर्वाद कवच की तरह काम करते हैं उनको कोई "अस्त्र-शस्त्र" नहीं भेद सकता -

"निवेदन 🙏 सभी इस संस्कृति को सुनिश्चित कर नियमबद्ध करें तो घर स्वर्ग बन जाय।"

*क्योंकि*:-

*प्रणाम प्रेम है।*
*प्रणाम अनुशासन है।*
प्रणाम शीतलता है।              
प्रणाम आदर सिखाता है।
*प्रणाम से सुविचार आते है।*
प्रणाम झुकना सिखाता है।
प्रणाम क्रोध मिटाता है।
प्रणाम आँसू धो देता है।
*प्रणाम अहंकार मिटाता है।*
*प्रणाम हमारी संस्कृति है।*

Saturday, October 14, 2017

Women Empowerment Story

ये कहानी है, 62 वर्षीय कुमकुम भान्ति की, जो बेसिक शिक्षा विभाग के अन्तर्गत एक प्राइमरी स्कूल में 44+ साल से कार्यरत हैं। ये एक मिसाल हैं अपने साथ की और आने वाली पीढ़ियों की बेटियों के लिए। अपनी मेहनत और लगन से इन्होंने साबित किया है कि एक बेटी किसी भी वक़्त में, किसी भी मुश्किल में खुद को हारने नहीं देती।
कुमकुम भान्ती का महज़ 17 साल की थीं जब उनके पिता जी की मृत्यु हो गई थी। पिता सरकारी सेवा में थे इसलिए उनकी नौकरी अनुकम्पा के तौर पर कुमकुम को मिलीथी। लेकिन उम्र 18 वर्ष से कम थी। 4 महीने के इंतज़ार के बाद 18 साल का होते ही इन्हें बेसिक शिक्षा विद्यालय में बतौर अध्यापिका नियुक्त किया गया।
महज़ 18 साल की उम्र में नौकरी और घर दोनों की ज़िम्मेदारियां उठाना कम चुनौतीपूर्ण नहीं था। घर में मां के साथ छोटी बहन को संभालने का दारोमरदार उनके ऊपर ही था।
एक शिक्षिका की ज़िम्मेदारियों से न्याय करने के लिए आगे पढ़ाई की भी ज़रूरत थी। कुमकुम ने...फिर घर और नौकरी के साथ पढ़ाई की भी जिम्मेदारी उठाई। डा.भीमराव अम्बेडकर युनिवर्सिटी से उन्होंने प्राइवेट स्नातक और स्नातकोत्तर  किया। लगन और मेहनत देखकर सरकार ने बीटीसी करवाने में उनकी मदद की।
एक बेटी के तौर पर कुमकुम ने खुद को साबित किया...लेकिन एक बहू के तौर पर भी चुनौतियां कम नहीं थीं। ससुराल की कमज़ोर आर्थिक स्थिति उनके सामने एक चुनौती बनकर सामने आई। एक पत्नी के तौर पर, एक मां के तौर पर हर ज़िम्मेदारी इस बेटी ने पूरी तरह से उठाई।
बच्चों की परवरिश, उनकी पढ़ाई....उनका भविष्य। शायद ही ज़िंदगी का कोई पड़ाव होगा जहां उन्हें चुनौतियां ना मिली हों, जहां उन्हें खुद को साबित ना करना पड़ा हो।

Tuesday, October 10, 2017

पहनावा

इतना तो समझा देना तेरी बहु को की कोई घर आये तो अदब से रहे ...
कितने दिन के लिए आते है मेंहमान इससे तेरी ही इज़्ज़त की फजीती होगी,, 
तेरी बहु का तो क्या जाएगा....
ओर सच कहे तो आजकल की बहुओ में संस्कार नाम की चीज़ ही नही होती...

ये सुनके पहले तो कविता थोड़ी सकपकाई समझ नही पा रहती थी कि जीजी किस बात की चर्चा कर रही है..

तो उसने पूछा ऐसा क्या हुआ जीजी मेरी बहु से कोई गलती हो गई क्या...
कुछ कह दिया क्या उसने ओर ये कब हुआ क्या मैं उस वक्त नही थी घर पे....

तू नही थी तभी तो, 
तू तेरे दूसरे बेटे के गई हुई थी..
कहा कुछ नही उसने, 
हम गए तो 
हमारे पैर छुए 
चाय नास्ता भी कराया...
आदर सत्कार भी किया 
बहुत प्यार से बोली भी ...
खाना भी बहुत स्वादिष्ट बनाया था,,...
हम अच्छे से सोये भी...

तो क्या कमी रह गई जीजी 
फिर आप ऐसा क्यों बोली...

अरे कविता हम गए 
जब वो पैजामे टीशर्ट में थी 
हमे तो देखकर बहुत बुरा लगा, 
तेरे जीजाजी को ये पसंद नही है....
कमसे कम साड़ी ही पहन लेती हमे दिखाने को मन खुश हो जाता ..
बस यही बात खटक  गई....
हमारी बहुओ को देखो कोई भी घर आता है 
तो अदब से रहती है साडी में...
तूने कुछ सिखाया नही तेरी बहु को ।

सही कहा जीजी आपने 
आपकी बहु बहुत अदब में रहती है 
पिछली बार मेरा जाना हुआ था आपके बेटे के यहाँ।
बहुत ही सुशील लग रही थी साड़ी में ..
आई मेरे पास 
मेरे कंधे पे हाथ रख कर बोली आओ मौसीजी बताओ ओर कैसे आना हुआ...

मैंने कहा बहुत दिन हो गये थे, तो मिलने आ गई...

तो कहने लगी क्या करे मौसीजी वक़्त ही नही मिलता मिलने का 
व्यस्त रहते है...
ओर बात तो फोन पे भी हो जाती है....

बहुत देर बात करने के बाद मुझे याद आया गला सुख रहा है...
तो मैंने पानी मांग लिया पीने को...

बहु ने कहा मौसीजी चाय बनालू क्या... 

मैने कहा रहने दे क्यों परेशान होती है ,
मैं घर से चाय पीकर आई हूं.. 

अच्छा ठीक है 
फिर मौसीजी आप रुको 
में मार्केट जा रही हु 
आपके साथ ही निकल लूंगी... 

समझ आ गया था की बहू के पास समय नही है 
मैने बेग उठाया और घर की ओर रवानगी कर ली।

अगर संस्कार 
ऐसे साड़ी पहन कर निभाये जाते है तो 
अच्छा है मैने अपनी बहू को नही दिए...

क्या करूँ 
वो बस दुसरो की इज़्ज़त करे 
प्यार करे और उनकी भावनाओं की कद्र करे,
मैं उसमे ही खुश हूं...

ये कहकर दोनो बहनो में कभी न मिटने वाली एक खटक हो गई....

पता नही क्यों लोग संस्कार प्यार इज़्ज़त को वेषभूषा से आंकते है...
इज़्ज़त देने से मिलती है 
और प्यार को पाने के लिए प्यार देना पड़ता है..

Monday, October 9, 2017

बुढापे की लाठी



लोगों से अक्सर सुनते आये हैं कि बेटा बुढ़ापे की लाठी होता है।इसलिये लोग अपने जीवन मे एक "बेटा" की कामना ज़रूर रखते हैं ताकि बुढ़ापे अच्छे से कट जाए।ये बात सच भी है क्योंकि बेटा ही घर में बहु लाता है।बहु के आ जाने के बाद एक बेटा अपनी लगभग सारी जिम्मेदारी अपनी पत्नी के कंधे में डाल देता है।और फिर बहु बन जाती है अपने बूढ़े सास-ससुर की बुढ़ापे की लाठी।जी हाँ मेरा तो यही मनाना है वो बहु ही होती है जिसके सहारे बूढ़े सास-ससुर अपनी जीवन व्यतीत करते हैं।एक बहु को अपने सास-ससुर की पूरी दिनचर्या मालूम होती।कौन कब और कैसी चाय पीते है, क्या खाना बनाना है, शाम में नाश्ता में क्या देना,रात को हर हालत में 9 बजे से पहले खाना बनाना है।अगर सास-ससुर बीमार पड़ जाए तो पूरे मन या बेमन से बहु ही देखभाल करती है।अगर एक दिन के लिये बहु बीमार पड़ जाए या फिर कही चले जाएं,बेचारे सास-ससुर को ऐसा लगता है जैसा उनकी लाठी ही किसी ने छीन ली हो।वे चाय नाश्ता से लेकर खाना के लिये छटपटा जाएंगे।कोई पूछेगा नही उन्हें,उनका अपना बेटा भी नही क्योंकि बेटा को फुर्सत नही है,और अगर बेटे को फुरसत मिल जाये भी तो वो कुछ नही कर पायेगा क्योंकि उसे ये मालूम ही नही है कि माँ-बाबूजी को सुबह से रात तक क्या क्या देना है।क्योंकि बेटा के चंद सवाल है और उसकी ज़िम्मेदारी खत्म जैसे माँ-बाबूजी को खाना खाएं,चाय पियें, नाश्ता किये, लेकिन कभी भी ये जानने की कोशिश नही करते कि वे क्या खाते हैं कैसी चाय पीते हैं।ये लगभग सारे घर की कहानी है।मैंने तो ऐसी बहुएं देखी है जिसने अपनी सास की बीमारी में तन मन से सेवा करती थी,बिल्कुल एक बच्चे की तरह,जैसे बच्चे सारे काम बिस्तर पर करते हैं ठीक उसी तरह उसकी सास भी करती थी और बेचारी बहु उसको साफ करती थी।और बेटा ये बचकर निकल जाता था कि मैं अपनी माँ को ऐसी हालत में नही देख सकता इसलिये उनके पास नही जाता था।ऐसे की कई बहु के उदाहरण हैं।मैंने अपनी माँ और चाची को दादा-दादी की ऐसे ही सेवा करते देखा है।ऐसे ही कई उदाहरण आपलोगो ने भी देखा होगा,आपलोग में से ही कई बहुयें ने अपनी सास-ससुर की ऐसी सेवा की होगी या कर रही होगी।कभी -कभी ऐसा होता है कि बेटा संसार छोड़ चला जाता है,तब बहु ही होती है जो उसके माँ-बाप की सेवा करती है, ज़रूरत पड़ने पर नौकरी करती है।लेकिन अगर बहु दुनिया से चले जाएं तो बेटा फिर एक बहु ले आता है, क्योंकि वो नही कर पाता अपने माँ-बाप की सेवा,उसे खुद उस बहु नाम की लाठी की ज़रूरत पड़ती है।इसलिये मेरा मानना है कि बहु ही होती ही बुढ़ापे की असली लाठी लेकिन अफसोस "बहु" की त्याग और सेवा उन्हें भी नही दिखती जिसके लिये सारा दिन वो दौड़-भाग करती रहती है।

Wednesday, October 4, 2017

प्रसंग जिंदगी का

एक 6 साल का छोटा सा बच्चा अक्सर परमात्मा से मिलने की जिद किया करता था। उसकी चाहत थी की एक समय की रोटी वो परमात्मा के साथ खाये।

एक  दिन उसने 1 थैले में 5, 6 रोटियां रखीं और परमात्मा को ढूंढने निकल पड़ा।
चलते चलते वो बहुत दूर निकल आया संध्या का समय हो गया।

उसने देखा नदी के तट पर 1 बुजुर्ग बूढ़ा बैठा हैं, और ऐसा लग रहा था जैसे उसी के इन्तजार में वहां बैठा उसका रास्ता देख रहा हों।

वो 6 साल का मासूम बालक,बुजुर्ग बूढ़े के पास जा कर बैठ गया,।अपने थैले में से रोटी निकाली और खाने लग गया।और उसने अपना रोटी वाला हाँथ बूढे की ओर बढ़ाया और मुस्कुरा के देखने लगा,बूढे ने रोटी ले ली,। बूढ़े के झुर्रियों वाले चेहरे पर अजीब सी ख़ुशी आ गई आँखों में ख़ुशी के आंसू भी थे,,,,
बच्चा बुढ़े को देखे जा रहा था, जब बुढ़े ने रोटी खा ली बच्चे ने एक और रोटी बूढ़े को दी।

बूढ़ा अब बहुत खुश था। बच्चा भी बहुत खुश था। दोनों ने आपस में बहुत प्यार और स्नेह केे पल बिताये।
जब रात घिरने लगी तो बच्चा इजाज़त ले घर की ओर चलने लगा।
वो बार बार पीछे मुड़ कर देखता , तो पाता बुजुर्ग बूढ़ा उसी की ओर देख रहा था।
बच्चा घर पहुंचा तो माँ ने अपने बेटे को आया देख जोर से गले से लगा लिया और चूमने लगी,बच्चा बहूत खुश था। 

माँ ने अपने बच्चे को इतना खुश पहली बार देखा तो ख़ुशी का कारण पूछा, तो बच्चे ने बताया !
माँ,....आज मैंने परमात्मा के सांथ बैठ कर रोटी खाई,आपको पता है उन्होंने भी मेरी रोटी खाई,,,माँ परमात्मा् बहुत बूढ़े हो गये हैं,,,मैं आज बहुत खुश हूँ माँ

उस तरफ बुजुर्ग बूढ़ा भी जब अपने गाँव पहूँचा तो गाव वालों ने देखा बूढ़ा बहुत खुश हैं,तो किसी ने उनके इतने खुश होने का कारण पूछा????
बूढ़ा बोलां,,,,मैं 2 दिन से नदी के तट पर अकेला भूखा बैठा था,,मुझे पता था परमात्मा आएंगे और मुझे खाना खिलाएंगे।

आज भगवान् आए थे, उन्होंने मेरे साथ बैठ कर रोटी खाई मुझे भी बहुत प्यार से खिलाई,बहुत प्यार से मेरी और देखते थे, जाते समय मुझे गले भी लगाया,,परमात्मा बहुत ही मासूम हैं बच्चे की तरह दिखते हैं।

  असल में बात सिर्फ इतनी है की दोनों के दिलों में परमात्मा के लिए प्यार बहुत सच्चा है। और परमात्मा ने दोनों को,दोनों के लिये, दोनों में ही (परमात्मा) खुद को भेज दिया। *जब मन परमात्मा में रम जाता है तो मन को हर एक में वो ही नजर आने लग जाता है क्योंकि परमात्मा प्रेम का सागर है।

Monday, September 25, 2017

सफल जीवन का राज

एक औरत ने तीन संतों को अपने घर के सामने  देखा। वह उन्हें जानती नहीं थी। औरत ने कहा –  “कृपया भीतर आइये और भोजन करिए।” संत बोले – “क्या तुम्हारे पति घर पर हैं?” औरत – “नहीं, वे अभी बाहर गए हैं।” संत –“हम तभी भीतर आयेंगे जब वह घर पर  हों।” शाम को उस औरत का पति घर आया और  औरत ने उसे यह सब बताया। पति – “जाओ और उनसे कहो कि मैं घर आ गया हूँ और उनको आदर सहित बुलाओ औरत बाहर गई और उनको भीतर आने के  लिए कहा। संत बोले – “हम सब किसी भी घर में एक साथ नहीं जाते।” “पर क्यों?” – औरत ने पूछा। उनमें से एक संत ने कहा – “मेरा नाम धन है”  फ़िर दूसरे संतों की ओर इशारा कर के कहा  “इन दोनों के नाम सफलता और प्रेम हैं।  हममें से कोई एक ही भीतर आ सकता है।  आप घर के अन्य सदस्यों से मिलकर तय कर  लें कि भीतर किसे निमंत्रित करना है।” औरत ने भीतर जाकर अपने पति को यह सब  बताया।  उसका पति बहुत प्रसन्न हो गया और  बोला –“यदि ऐसा है तो हमें धन को आमंत्रित
करना चाहिए।  हमारा घर खुशियों से भर जाएगा।” पत्नी – “मुझे लगता है कि हमें सफलता को  आमंत्रित करना चाहिए।” उनकी बेटी दूसरे कमरे से यह सब सुन रही थी।  वह उनके पास आई और बोली –  “मुझे लगता है कि हमें प्रेम को आमंत्रित करना  चाहिए। प्रेम से बढ़कर कुछ भी नहीं हैं।” “तुम ठीक कहती हो, हमें प्रेम
को ही बुलाना चाहिए” – उसके माता-पिता ने कहा। औरत घर के बाहर गई और उसने संतों से पूछा –  “आप में से जिनका नाम प्रेम है वे कृपया घर में  प्रवेश कर भोजन गृहण करें।” प्रेम घर की ओर बढ़ चले।  बाकी के दो संत भी उनके पीछे चलने लगे। औरत ने आश्चर्य से उन दोनों से पूछा –  “मैंने तो सिर्फ़ प्रेम को आमंत्रित किया था। आप लोग भीतर क्यों जा रहे हैं?” उनमें से एक ने कहा – “यदि आपने धन और  सफलता में से किसी एक को आमंत्रित किया होता  तो केवल वही भीतर जाता।  आपने प्रेम को आमंत्रित किया है।  प्रेम कभी अकेला नहीं जाता।  प्रेम जहाँ-जहाँ जाता है, धन और सफलता  उसके पीछे जाते हैं। इस कहानी को एक बार, 2 बार, 3 बार
पढ़ें अच्छा लगे तो प्रेम के साथ रहें,   प्रेम बाटें, प्रेम दें और प्रेम लें  क्यों कि प्रेम ही 
सफल जीवन का राज है।