Tuesday, January 21, 2025

सच्चा पुत्र आज्ञाकारी होता है, सच्चा पिता प्रेम करने वाला होता है, और सच्चा मित्र ईमानदार होता है

गंगा नदी के किनारे बसा एक छोटा-सा गाँव था, जहाँ एक किसान परिवार रहता था। इस परिवार में एक पिता, रामनारायण, और उनका पुत्र, अर्जुन, रहते थे। रामनारायण सरल स्वभाव के व्यक्ति थे और अपनी मेहनत से अपने परिवार की देखभाल करते थे। अर्जुन भी बहुत मेहनती और होनहार था। बचपन से ही उसे सिखाया गया था कि जीवन में सफलता और सुख के लिए सच्चाई, प्रेम, और आज्ञाकारिता आवश्यक हैं।

रामनारायण अपने बेटे से बहुत प्रेम करते थे और उसकी हर इच्छा को पूरा करने की कोशिश करते थे। हालांकि, वह अर्जुन को यह भी सिखाते थे कि जीवन में हर सफलता के लिए मेहनत और अनुशासन जरूरी होता है। अर्जुन एक आज्ञाकारी पुत्र था और अपने पिता के हर निर्देश को बिना किसी सवाल के मानता था। उसने कभी भी अपने पिता की बातों को हल्के में नहीं लिया और हमेशा उनका सम्मान किया।

एक दिन अर्जुन ने अपने पिता से पूछा, "पिताजी, क्या मैं एक अच्छा पुत्र हूँ?"

रामनारायण ने मुस्कराते हुए कहा, "बेटा, सच्चा पुत्र वही होता है जो आज्ञाकारी हो, अपने माता-पिता की बातों का सम्मान करे, और उनके निर्देशों का पालन करे। तुम वही करते हो, इसलिए तुम सच्चे पुत्र हो।"

अर्जुन ने गर्व से अपने पिता के पैरों को छुआ और कहा, "मैं हमेशा आपकी बातें मानूँगा, पिताजी।"

समय बीता और अर्जुन की दोस्ती गाँव के एक अन्य लड़के, भीम, से हो गई। भीम गरीब परिवार से था, परंतु वह ईमानदारी और निष्ठा में सबसे आगे था। अर्जुन और भीम एक-दूसरे के अच्छे मित्र बन गए। उनकी दोस्ती इतनी गहरी थी कि वे एक-दूसरे के बिना कुछ भी नहीं करते थे। भीम हमेशा अर्जुन को सही राह पर चलने के लिए प्रेरित करता था और कभी भी झूठ या छल-कपट का सहारा नहीं लेता था।

एक दिन गाँव में एक बड़ा मेला लगा। अर्जुन और भीम दोनों ने वहाँ जाने का निर्णय किया। मेला गाँव से कुछ दूरी पर था, इसलिए अर्जुन ने अपने पिता से मेले में जाने की अनुमति मांगी। रामनारायण ने थोड़ी चिंता व्यक्त करते हुए कहा, "अर्जुन, मेले में कई तरह की भीड़ और झमेले होते हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम सावधानी से जाओ और समय पर वापस आओ।"

अर्जुन ने वादा किया, "पिताजी, मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा और समय पर वापस आ जाऊँगा।"

रामनारायण ने अपने पुत्र के ऊपर विश्वास किया और उसे जाने की अनुमति दे दी। अर्जुन और भीम मेले में पहुंच गए और वहां खूब आनंद लिया। लेकिन जब लौटने का समय आया, तो अर्जुन ने देखा कि मेला समाप्त होने के बावजूद समय का ध्यान नहीं रखा था, और अब वे काफी देर कर चुके थे।

भीम ने अर्जुन से कहा, "अर्जुन, तुम्हें समय पर घर लौटने का वादा किया था, अब देर हो गई है। हमें जल्दी चलना चाहिए, ताकि तुम्हारे पिता नाराज़ न हों।"

अर्जुन ने भीम की बात मानी और दोनों जल्द ही घर की ओर चल पड़े। रास्ते में अर्जुन के मन में डर था कि वह अपने पिता के विश्वास को तोड़ चुका है। जब वे घर पहुंचे, तो अर्जुन ने देखा कि रामनारायण बाहर खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

अर्जुन ने सिर झुका कर कहा, "पिताजी, मुझे माफ कर दीजिए। मैं समय पर नहीं लौट पाया, मैंने आपकी आज्ञा का पालन नहीं किया।"

रामनारायण ने धीरे-से मुस्कराते हुए कहा, "बेटा, मैं जानता हूँ कि तुमने कोई गलत इरादा नहीं रखा था। समय की भूल हो जाती है, लेकिन तुमने अपनी गलती स्वीकार की, यही तुम्हारी सच्चाई और आज्ञाकारिता का प्रमाण है। सच्चे पिता का काम केवल डांटना नहीं होता, वह अपने पुत्र को प्रेम और समझ से सही राह दिखाता है।"

यह सुनकर अर्जुन को अपने पिता के प्रेम और विश्वास की गहराई समझ में आई। उसने अपने पिता से वादा किया कि वह भविष्य में और अधिक ध्यान रखेगा।

भीम, जो यह सब देख रहा था, ने अर्जुन से कहा, "सच्चे मित्र की ईमानदारी यही होती है कि वह अपने दोस्त को सही समय पर सही बात कह सके, चाहे वह कितनी भी कठिन क्यों न हो। अगर मैंने तुम्हें मेला छोड़ने के लिए न कहा होता, तो शायद हम और देर कर देते।"

अर्जुन ने भीम की ओर देखते हुए कहा, "तुम्हारी ईमानदारी ने मुझे मेरी गलती का एहसास कराया, और सच्चे मित्र वही होते हैं जो एक-दूसरे को सच कहने से पीछे नहीं हटते।"

इस प्रकार अर्जुन ने उस दिन सीखा कि सच्चा पुत्र आज्ञाकारी होता है, सच्चा पिता प्रेम करने वाला होता है, और सच्चा मित्र ईमानदार होता है। ये तीनों गुण जीवन में सबसे महत्वपूर्ण होते हैं, और इन्हीं के बल पर रिश्ते मजबूत बनते हैं।--

Monday, January 13, 2025

जब तक शत्रु की दुर्बलता का पता न चल जाए, तब तक उसे मित्रता की दृष्टि से रखना चाहिए

बहुत समय पहले की बात है, एक शक्तिशाली राज्य था जिसका नाम "विजयनगर" था। इस राज्य के राजा थे महाराज विक्रमादित्य, जो अपनी न्यायप्रियता और दूरदर्शी बुद्धि के लिए प्रसिद्ध थे। उनके राज्य में हर कोई सुख-शांति से जीवन जीता था, और राज्य में समृद्धि थी। परंतु, विजयनगर के पड़ोसी राज्य "कौशल" के राजा, महाराज शालिवाहन, उनसे ईर्ष्या करते थे और हमेशा विजयनगर पर आक्रमण करने का अवसर ढूंढते रहते थे।

राजा विक्रमादित्य को यह बात पता थी कि कौशल राज्य उनके राज्य पर हमला करना चाहता है, लेकिन उन्होंने कभी भी शालिवाहन के खिलाफ कोई कड़ा कदम नहीं उठाया। उनके मंत्रियों और सेनापतियों को यह बात अजीब लगती थी कि राजा शालिवाहन के खुले तौर पर शत्रु होते हुए भी महाराज विक्रमादित्य उसे मित्रता की दृष्टि से देखते हैं।

एक दिन राजा के सबसे भरोसेमंद मंत्री, महादेव, ने उनसे कहा, "महाराज, शालिवाहन हमारा शत्रु है। वह हमेशा हमारे राज्य को कमजोर करने की कोशिश में लगा रहता है। आपको उसके खिलाफ तुरंत कड़ा कदम उठाना चाहिए, अन्यथा वह हमें नुकसान पहुंचा सकता है।"

महाराज विक्रमादित्य ने शांत स्वर में उत्तर दिया, "महादेव, शत्रु की दुर्बलता को समझे बिना उस पर हमला करना एक बड़ी मूर्खता होगी। जब तक हमें उसकी कमजोरियों का पूरा ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक हमें उसे मित्रता की दृष्टि से ही देखना चाहिए।"

महादेव को राजा की यह नीति थोड़ी कठिन समझ में आई, लेकिन वे राजा की बुद्धिमत्ता पर सवाल नहीं उठाना चाहते थे। समय बीतता गया और एक दिन शालिवाहन ने एक संदेश भेजा कि वह विजयनगर के साथ मित्रता चाहता है। महाराज विक्रमादित्य ने उस संदेश को स्वीकार किया और शालिवाहन को मित्र मान लिया। यह देखकर राज्य के लोग और मंत्रीगण चकित रह गए, क्योंकि वे जानते थे कि शालिवाहन का उद्देश्य सच्ची मित्रता नहीं, बल्कि धोखे से राज्य को कमजोर करना था।

विक्रमादित्य ने शालिवाहन से मित्रता का हाथ बढ़ाया और दोनों राज्यों के बीच व्यापार और सांस्कृतिक संबंध स्थापित हो गए। यह देखकर कौशल के लोग भी खुश हो गए कि अब उनके राज्य और विजयनगर के बीच कोई संघर्ष नहीं है। लेकिन महाराज विक्रमादित्य की दृष्टि दूर तक थी। उन्होंने अपने गुप्तचरों को कौशल राज्य में भेजा ताकि वे शालिवाहन की सेना और उसकी कमजोरियों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकें।

कुछ महीनों बाद गुप्तचरों ने सूचना दी कि शालिवाहन की सेना अंदर से कमजोर है। उसकी सेना के पास पर्याप्त हथियार और संसाधन नहीं थे, और राजा शालिवाहन केवल बाहर से ताकतवर दिखने की कोशिश कर रहा था। उसकी असली शक्ति उसकी बातें और छलपूर्ण चालें थीं, लेकिन उसके पास कोई ठोस सैन्य ताकत नहीं थी।

यह सुनकर महाराज विक्रमादित्य ने अपने मंत्रियों और सेनापतियों को बुलाया और कहा, "अब समय आ गया है कि हम शालिवाहन की असली दुर्बलता का सामना करें। अब हमें उसे शत्रु के रूप में देखना चाहिए, क्योंकि उसकी कमजोरियाँ हमारे सामने स्पष्ट हो चुकी हैं।"

विक्रमादित्य ने तुरंत अपनी सेना को तैयार किया और कौशल राज्य पर आक्रमण करने का आदेश दिया। जब शालिवाहन को यह खबर मिली, तो वह घबरा गया क्योंकि उसकी सेना और राज्य इस हमले के लिए तैयार नहीं थे। वह राजा विक्रमादित्य की ताकत और रणनीति को समझ नहीं पाया था। उसकी सेना कमजोर थी और कुछ ही समय में विजयनगर की सेना ने कौशल पर विजय प्राप्त कर ली।

महाराज विक्रमादित्य ने शालिवाहन को बंदी बनाया और उससे कहा, "तुम्हारा छल और धोखा तुम्हारी सबसे बड़ी दुर्बलता थी, और जब तक हमें उसकी पूरी जानकारी नहीं मिल गई, तब तक हमने तुम्हें मित्रता की दृष्टि से देखा। अब तुम्हारी दुर्बलता स्पष्ट है, और हमने तुम्हें पराजित कर दिया है।"

शालिवाहन ने सिर झुका कर अपनी हार स्वीकार की और महाराज विक्रमादित्य के सामने अपने छलपूर्ण व्यवहार के लिए क्षमा मांगी। विक्रमादित्य ने उसे क्षमा कर दिया, लेकिन उसे हमेशा के लिए विजयनगर के अधीन रहने का आदेश दिया।

इस घटना के बाद, विजयनगर के सभी लोग और मंत्रीगण महाराज विक्रमादित्य की दूरदर्शिता और बुद्धिमानी की सराहना करने लगे। उन्होंने समझ लिया कि शत्रु को समझने और उसकी दुर्बलता का ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही सही कदम उठाया जाना चाहिए।

"जब तक शत्रु की दुर्बलता का पता न चल जाए, तब तक उसे मित्रता की दृष्टि से रखना चाहिए," यह सीख महाराज विक्रमादित्य की बुद्धिमान नीति का उदाहरण थी, जिसने उन्हें विजयी और सम्मानित राजा बनाया।

Wednesday, January 1, 2025

एक मूर्ख व्यक्ति के लिए किताबें उतनी ही उपयोगी होती हैं, जितना कि एक अंधे व्यक्ति के लिए आईना

एक समय की बात है, एक छोटे से गाँव में एक युवक रहता था जिसका नाम था गोपाल। गोपाल बहुत ही आलसी और मूर्ख व्यक्ति था। उसके पास पढ़ाई के लिए बहुत सारी किताबें थीं, लेकिन उसने कभी भी उन्हें पढ़ने की कोशिश नहीं की। उसे लगता था कि किताबें सिर्फ सजावट के लिए होती हैं और उनका पढ़ाई से कोई खास संबंध नहीं है।

 

गाँव में एक बुद्धिमान व्यक्ति, पंडित रामदास, रहते थे, जो हमेशा लोगों को ज्ञान और शिक्षा का महत्व समझाते थे। पंडित जी ने कई बार गोपाल से कहा, "बेटा, किताबें तुम्हारे ज्ञान का विस्तार करेंगी। अगर तुम इन्हें पढ़ोगे, तो तुम समझदारी से जीवन जीने में सक्षम हो जाओगे।"

 

लेकिन गोपाल हमेशा हंसकर कहता, "पंडित जी, किताबें पढ़ने से क्या होगा? मैं तो बस मज़े करना चाहता हूँ। मुझे नहीं लगता कि मुझे आपकी बातों की कोई ज़रूरत है।"

 

एक दिन गाँव में एक मेला लगा। गोपाल ने सुना कि उस मेले में एक ऐसा आईना था, जो किसी को भी सुंदरता में बदल सकता था। गोपाल ने सोचा कि अगर वह उस आईने का इस्तेमाल करेगा, तो सभी लोग उसकी सुंदरता की तारीफ करेंगे। उसने तुरंत मेले में जाने का निर्णय लिया।

 

जब गोपाल मेले में पहुँचा, तो उसने देखा कि आईना बहुत बड़ा और खूबसूरत था। उसने वहाँ खड़े लोगों को देखा, जो अपनी सुंदरता की तारीफ कर रहे थे। गोपाल ने सोचा, "अगर मैं इस आईने में देखूंगा, तो सब मुझे सुंदर मानेंगे।"

 

गोपाल ने आईने के सामने जाकर अपनी शक्ल देखी। लेकिन उसे वह आईना कुछ भी उपयोगी नहीं लगा। उसे अपने चेहरे पर कोई परिवर्तन नहीं दिखा। उसने सोचा, "क्या ये आईना खराब है? मुझे सुंदर बनाने का वादा करके मुझे धोखा दे रहा है?"

 

उसी समय वहाँ एक बुद्धिमान व्यक्ति, पंडित रामदास, भी मौजूद थे। उन्होंने गोपाल को चिंता में देखा और उससे पूछा, "बेटा, तुम इस आईने के सामने क्यों उदास हो?"

 

गोपाल ने कहा, "पंडित जी, मैंने इस आईने में देखा, लेकिन मुझे तो मेरी असली शक्ल ही दिख रही है। मुझे कोई सुंदरता नहीं मिली।"

 

पंडित रामदास ने हंसते हुए कहा, "बेटा, यह आईना तुम्हें सिर्फ तुम्हारी असली तस्वीर दिखाता है। यह तुम्हें सुंदर नहीं बनाता, बल्कि तुम्हारी वास्तविकता को उजागर करता है।"

 

गोपाल ने आश्चर्य से पूछा, "तो क्या इसका मतलब है कि मैं सुंदर नहीं हूँ?"

 

पंडित जी ने उत्तर दिया, "बिल्कुल नहीं। सुंदरता केवल बाहरी नहीं होती, बल्कि यह तुम्हारी आंतरिक विशेषताओं से भी जुड़ी होती है। अगर तुममें ज्ञान और समझ होती, तो तुम्हारा व्यक्तित्व अपने आप ही आकर्षक होता।"

गोपान ने इस पर विचार किया। उसे याद आया कि उसके पास किताबें हैं, लेकिन उसने उन्हें कभी पढ़ा नहीं। उसने पंडित जी से कहा, "पंडित जी, अगर किताबें मुझे ज्ञान देंगी, तो क्या मुझे उन्हें पढ़ना चाहिए?"

पंडित जी ने कहा, "बिल्कुल। एक मूर्ख व्यक्ति के लिए किताबें उतनी ही उपयोगी होती हैं, जितना कि एक अंधे व्यक्ति के लिए आईना। अगर तुम किताबें नहीं पढ़ोगे, तो तुम कभी भी समझदारी से नहीं जी पाओगे।"

गोपान ने पंडित जी की बातों को गंभीरता से लिया। उसने फैसला किया कि वह अपनी किताबों को पढ़ेगा और ज्ञान प्राप्त करेगा। वह वापस गाँव आया और अपने सभी किताबों को एकत्र किया। उसने रोज़ कुछ समय पढ़ाई में बिताने का निश्चय किया।

समय बीतता गया और गोपाल ने धीरे-धीरे अपने ज्ञान में वृद्धि की। वह अब न केवल पढ़ाई में अच्छा हो गया था, बल्कि वह गाँव के लोगों के लिए एक प्रेरणा बन गया। उसकी सोच में बदलाव आया, और उसकी बुद्धिमानी ने उसे एक सम्मानित व्यक्ति बना दिया।एक समय की बात है, एक छोटे से गाँव में एक युवक रहता था जिसका नाम था गोपाल। गोपाल बहुत ही आलसी और मूर्ख व्यक्ति था। उसके पास पढ़ाई के लिए बहुत सारी किताबें थीं, लेकिन उसने कभी भी उन्हें पढ़ने की कोशिश नहीं की। उसे लगता था कि किताबें सिर्फ सजावट के लिए होती हैं और उनका पढ़ाई से कोई खास संबंध नहीं है।

गाँव में एक बुद्धिमान व्यक्ति, पंडित रामदास, रहते थे, जो हमेशा लोगों को ज्ञान और शिक्षा का महत्व समझाते थे। पंडित जी ने कई बार गोपाल से कहा, "बेटा, किताबें तुम्हारे ज्ञान का विस्तार करेंगी। अगर तुम इन्हें पढ़ोगे, तो तुम समझदारी से जीवन जीने में सक्षम हो जाओगे।"

लेकिन गोपाल हमेशा हंसकर कहता, "पंडित जी, किताबें पढ़ने से क्या होगा? मैं तो बस मज़े करना चाहता हूँ। मुझे नहीं लगता कि मुझे आपकी बातों की कोई ज़रूरत है।"

एक दिन गाँव में एक मेला लगा। गोपाल ने सुना कि उस मेले में एक ऐसा आईना था, जो किसी को भी सुंदरता में बदल सकता था। गोपाल ने सोचा कि अगर वह उस आईने का इस्तेमाल करेगा, तो सभी लोग उसकी सुंदरता की तारीफ करेंगे। उसने तुरंत मेले में जाने का निर्णय लिया।

जब गोपाल मेले में पहुँचा, तो उसने देखा कि आईना बहुत बड़ा और खूबसूरत था। उसने वहाँ खड़े लोगों को देखा, जो अपनी सुंदरता की तारीफ कर रहे थे। गोपाल ने सोचा, "अगर मैं इस आईने में देखूंगा, तो सब मुझे सुंदर मानेंगे।"

गोपाल ने आईने के सामने जाकर अपनी शक्ल देखी। लेकिन उसे वह आईना कुछ भी उपयोगी नहीं लगा। उसे अपने चेहरे पर कोई परिवर्तन नहीं दिखा। उसने सोचा, "क्या ये आईना खराब है? मुझे सुंदर बनाने का वादा करके मुझे धोखा दे रहा है?"

उसी समय वहाँ एक बुद्धिमान व्यक्ति, पंडित रामदास, भी मौजूद थे। उन्होंने गोपाल को चिंता में देखा और उससे पूछा, "बेटा, तुम इस आईने के सामने क्यों उदास हो?"

गोपाल ने कहा, "पंडित जी, मैंने इस आईने में देखा, लेकिन मुझे तो मेरी असली शक्ल ही दिख रही है। मुझे कोई सुंदरता नहीं मिली।"

पंडित रामदास ने हंसते हुए कहा, "बेटा, यह आईना तुम्हें सिर्फ तुम्हारी असली तस्वीर दिखाता है। यह तुम्हें सुंदर नहीं बनाता, बल्कि तुम्हारी वास्तविकता को उजागर करता है।"

गोपाल ने आश्चर्य से पूछा, "तो क्या इसका मतलब है कि मैं सुंदर नहीं हूँ?"

पंडित जी ने उत्तर दिया, "बिल्कुल नहीं। सुंदरता केवल बाहरी नहीं होती, बल्कि यह तुम्हारी आंतरिक विशेषताओं से भी जुड़ी होती है। अगर तुममें ज्ञान और समझ होती, तो तुम्हारा व्यक्तित्व अपने आप ही आकर्षक होता।"

गोपान ने इस पर विचार किया। उसे याद आया कि उसके पास किताबें हैं, लेकिन उसने उन्हें कभी पढ़ा नहीं। उसने पंडित जी से कहा, "पंडित जी, अगर किताबें मुझे ज्ञान देंगी, तो क्या मुझे उन्हें पढ़ना चाहिए?"

पंडित जी ने कहा, "बिल्कुल। एक मूर्ख व्यक्ति के लिए किताबें उतनी ही उपयोगी होती हैं, जितना कि एक अंधे व्यक्ति के लिए आईना। अगर तुम किताबें नहीं पढ़ोगे, तो तुम कभी भी समझदारी से नहीं जी पाओगे।"

गोपान ने पंडित जी की बातों को गंभीरता से लिया। उसने फैसला किया कि वह अपनी किताबों को पढ़ेगा और ज्ञान प्राप्त करेगा। वह वापस गाँव आया और अपने सभी किताबों को एकत्र किया। उसने रोज़ कुछ समय पढ़ाई में बिताने का निश्चय किया।

समय बीतता गया और गोपाल ने धीरे-धीरे अपने ज्ञान में वृद्धि की। वह अब न केवल पढ़ाई में अच्छा हो गया था, बल्कि वह गाँव के लोगों के लिए एक प्रेरणा बन गया। उसकी सोच में बदलाव आया, और उसकी बुद्धिमानी ने उसे एक सम्मानित व्यक्ति बना दिया।

गाँव के लोगों ने गोपाल की प्रगति को देखकर उसकी सराहना की। उन्होंने कहा, "गोपाल, तुम तो अब बहुत समझदार हो गए हो। तुम्हारी मेहनत और पढ़ाई ने तुम्हें एक अच्छा इंसान बना दिया है।"

गोपान ने मुस्कराते हुए कहा, "धन्यवाद दोस्तों, लेकिन यह सब पंडित रामदास जी की सलाह का परिणाम है। उन्होंने मुझे बताया था कि किताबें केवल सजावट नहीं हैं, बल्कि वे ज्ञान का भंडार हैं।"

इस प्रकार, गोपाल ने सीखा कि किताबें उसके लिए कितनी महत्वपूर्ण थीं। उसने यह भी समझा कि बिना ज्ञान के, किताबों का कोई उपयोग नहीं होता। अब वह एक शिक्षित और समझदार व्यक्ति था, जो न केवल अपने लिए बल्कि अपने गाँव के लिए भी एक मिसाल बन गया था।

इस कहानी से हमें यह सिखने को मिलता है कि ज्ञान और शिक्षा का महत्व किसी भी व्यक्ति के लिए कितना बड़ा होता है, और यह केवल उस व्यक्ति की सोच पर निर्भर करता है कि वह उस ज्ञान का उपयोग कैसे करता है। 

गाँव के लोगों ने गोपाल की प्रगति को देखकर उसकी सराहना की। उन्होंने कहा, "गोपाल, तुम तो अब बहुत समझदार हो गए हो। तुम्हारी मेहनत और पढ़ाई ने तुम्हें एक अच्छा इंसान बना दिया है।"

गोपान ने मुस्कराते हुए कहा, "धन्यवाद दोस्तों, लेकिन यह सब पंडित रामदास जी की सलाह का परिणाम है। उन्होंने मुझे बताया था कि किताबें केवल सजावट नहीं हैं, बल्कि वे ज्ञान का भंडार हैं।"

इस प्रकार, गोपाल ने सीखा कि किताबें उसके लिए कितनी महत्वपूर्ण थीं। उसने यह भी समझा कि बिना ज्ञान के, किताबों का कोई उपयोग नहीं होता। अब वह एक शिक्षित और समझदार व्यक्ति था, जो न केवल अपने लिए बल्कि अपने गाँव के लिए भी एक मिसाल बन गया था।

 

इस कहानी से हमें यह सिखने को मिलता है कि ज्ञान और शिक्षा का महत्व किसी भी व्यक्ति के लिए कितना बड़ा होता है, और यह केवल उस व्यक्ति की सोच पर निर्भर करता है कि वह उस ज्ञान का उपयोग कैसे करता है।

Saturday, December 21, 2024

कौशल को छुपा हुआ खजाना कहा जाता है

एक समय की बात है, एक छोटे से गाँव में एक युवक रहता था जिसका नाम था रामु। रामु एक साधारण किसान था, लेकिन उसमें एक विशेष गुण थाउसका कौशल। वह हर काम को अपनी चतुराई और समझदारी से करता था। उसकी इस खासियत के कारण गाँव के लोग उसे बहुत मानते थे। गाँव में एक और बात प्रसिद्ध थी, कि कौशल को छुपा हुआ खजाना कहा जाता है, क्योंकि वह परदेस में एक माँ की तरह बचत करता है।

 

गाँव में रहने वाले लोग अक्सर रामु की बुद्धिमानी की कहानियाँ सुनाते थे। वे कहते थे कि रामु ने अपने खेत में हमेशा सही तरीके से फसल उगाई है, जिससे उसे हर साल अच्छी फसल मिलती है। लेकिन उसकी असली प्रतिभा तब उजागर हुई जब गाँव के पास एक बड़ा मेला लगा। उस मेले में बहुत से व्यापारी और कलाकार आए थे, और यह सब जानकर रामु ने सोचा कि वह इस अवसर का लाभ उठाएगा।

 

रामु ने मेले में जाकर कुछ अनोखी चीजें बेचने का निर्णय लिया। उसने अपने खेत से ताज़ी सब्जियाँ और फल एकत्र किए और मेले में जाकर बेचना शुरू किया। उसकी चतुराई और हंसी-मजाक ने तुरंत लोगों का ध्यान खींचा। धीरे-धीरे, उसके सामान की बिक्री बढ़ने लगी, और वह बहुत अच्छे दाम में अपनी फसल बेचने में सफल हुआ।

 

रामु की बातों और उसके कौशल की चर्चा पूरे मेले में होने लगी। एक व्यापारी, जिसका नाम था गोपाल, ने रामु से कहा, "तुम्हारा कौशल अद्भुत है। तुम्हें तो व्यापार में जाना चाहिए। तुम्हारी चतुराई और समझदारी से तुम बहुत पैसे कमा सकते हो।"

 

रामु ने विनम्रता से उत्तर दिया, "धन्यवाद, भाई। लेकिन मेरा उद्देश्य केवल अपने गाँव के लिए कुछ अच्छा करना है। मैं चाहूंगा कि मेरे लोग भी इस मेले से लाभान्वित हों।"

 

गोपाल ने रामु की बातों को सुनकर कहा, "तुम सही कह रहे हो। लेकिन तुम्हें अपनी इस कला का लाभ उठाना चाहिए। अगर तुम इस व्यापार को बढ़ाना चाहते हो, तो तुम्हें कौशल की जरूरत है। कौशल एक छुपा हुआ खजाना है, जो तुम्हारे अंदर है।"

 

रामु ने गोपाल की बातों को ध्यान से सुना। उसे यह एहसास हुआ कि कौशल वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण है। उसी दिन, उसने निश्चय किया कि वह अपने कौशल को और निखारेगा और अपने गाँव के लोगों को भी इस कला में प्रशिक्षित करेगा।

 

मेला समाप्त होने के बाद, रामु ने गाँव में एक शिक्षण कार्यक्रम शुरू किया। उसने गाँव के बच्चों और युवाओं को खेती, बागवानी और व्यापार की विभिन्न तकनीकों के बारे में सिखाना शुरू किया। उसकी मेहनत और ज्ञान ने गाँव के लोगों में उत्साह भर दिया। सभी लोग उसकी बातों को सुनने के लिए उत्सुक रहते थे।

 

कुछ महीनों बाद, गाँव में खेती और व्यापार में तेजी आई। लोग रामु को "कौशल का खजाना" कहने लगे, क्योंकि उसकी शिक्षाओं ने उन्हें आत्मनिर्भर बना दिया था। अब गाँव के लोग भी अपनी फसलें बेचकर अच्छा मुनाफा कमा रहे थे। गाँव की आर्थिक स्थिति सुधरने लगी, और लोगों के चेहरे पर खुशियाँ लौट आईं।

 

एक दिन, गाँव में एक बड़े व्यापारी ने रामु से मिलने का निश्चय किया। वह व्यापारी बहुत अमीर था और उसने गाँव की विकास की कहानियाँ सुनी थीं। व्यापारी ने रामु से कहा, "तुम्हारी मेहनत और ज्ञान ने इस गाँव को एक नई दिशा दी है। मैं तुम्हें अपने व्यापार में शामिल करना चाहता हूँ। तुम्हारे कौशल का मैं लाभ उठाना चाहता हूँ।"

 

रामु ने विनम्रता से कहा, "धन्यवाद, लेकिन मैं अपने गाँव को छोड़ना नहीं चाहता। मेरा काम यहाँ है, और मैं अपने लोगों के साथ रहना चाहता हूँ।"

 

व्यापारी ने उसकी ईमानदारी की सराहना की और कहा, "तुम सच में एक अनमोल रत्न हो। तुम्हारा कौशल इस गाँव का खजाना है। तुम जैसे लोग ही समाज को आगे बढ़ाते हैं।"

 

रामु ने उस व्यापारी का धन्यवाद किया और कहा, "मेरा असली खजाना मेरे गाँव के लोग हैं। जब वे खुश रहेंगे, तभी मैं भी खुश रहूँगा।"

 

समय के साथ, गाँव में और भी विकास हुआ। लोग रामु की शिक्षाओं को मानते थे और अपने कौशल को बढ़ाते रहते थे। गाँव अब एक उदाहरण बन गया था कि कैसे एक व्यक्ति का कौशल और समझदारी पूरी समुदाय को बदल सकती है।

 

इस प्रकार, रामु ने साबित कर दिया कि कौशल सिर्फ व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं, बल्कि सामूहिक विकास के लिए भी होता है। उसका नाम गाँव में हमेशा के लिए अमर हो गया, और लोग उसे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद करते रहे जिसने अपने कौशल से एक संपूर्ण गाँव को समृद्ध किया।

 

कहानी का संदेश यह है कि कौशल केवल एक व्यक्ति का नहीं होता, बल्कि जब वह साझा किया जाता है, तो वह पूरे समाज का खजाना बन जाता है।

Sunday, December 15, 2024

भगवान मूर्तियों में मौजूद नहीं है, आपकी भावनाएं ही आपका भगवान हैं

एक समय की बात है, एक छोटे से गाँव में एक साधू बाबा निवास करते थे। उनका नाम था बाबा हरिदास। बाबा का मानना था कि भगवान केवल मूर्तियों में नहीं, बल्कि हमारी भावनाओं और आत्मा में भी विद्यमान हैं। गाँव के लोग उन्हें बहुत मानते थे और उनकी बातों को ध्यान से सुनते थे।

गाँव में एक युवक था जिसका नाम था कृष्णा। कृष्णा बहुत धार्मिक था और हमेशा मंदिर जाकर पूजा करता था। वह मानता था कि भगवान केवल मूर्तियों में ही हैं और पूजा करने से ही उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है। उसने कभी भी बाबा हरिदास की बातों पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उसे लगा कि साधू लोग बस ज्ञान की बातें करते हैं, लेकिन असलियत में पूजा ही सब कुछ है।

एक दिन, गाँव में एक बड़ा उत्सव आयोजित हुआ। सभी लोग तैयार हो रहे थे, और मंदिर में विशेष पूजा का आयोजन किया गया। कृष्णा ने भी इस अवसर का लाभ उठाने का निर्णय लिया। उसने सुंदर फूल, फल और मिठाई खरीदकर मंदिर की ओर चल पड़ा। मंदिर पहुँचकर उसने भगवान की मूर्ति के सामने घुटने टेक दिए और पूजा करने लगा।

लेकिन उस दिन कुछ खास था। जैसे ही कृष्णा ने आँखें बंद कीं, उसे अचानक एक आवाज सुनाई दी। "कृष्णा, तुम मेरी मूर्ति के सामने बैठकर क्यों रो रहे हो? क्या तुम जानते हो कि मैं तुम्हारी भावनाओं में हूँ, न कि इस पत्थर की मूर्ति में?"

कृष्णा ने आँखें खोलीं और चारों ओर देखा। उसे कोई दिखाई नहीं दिया। लेकिन उसकी आत्मा में एक अनकही सी हलचल महसूस हो रही थी। वह सोच में पड़ गया। "क्या भगवान सच में मूर्तियों में नहीं हैं?"

उसी समय, बाबा हरिदास वहाँ पहुंचे। उन्होंने कृष्णा की स्थिति देखी और कहा, "बेटा, तुम भगवान को इस मूर्ति में ढूँढ रहे हो, लेकिन असली भगवान तो तुम्हारी भावनाओं में हैं। आत्मा तुम्हारा मंदिर है, और यही तुम्हारी असली पूजा है।"

कृष्णा ने हैरानी से पूछा, "बाबा, आप क्या कहना चाहते हैं?"

बाबा ने मुस्कराते हुए कहा, "तुम्हारे मन में जो प्रेम, करुणा और समर्पण हैं, वही तुम्हारा असली भगवान है। तुम यदि सच्चे मन से किसी की मदद करते हो, तो वह भी पूजा है। यह मूर्ति सिर्फ एक प्रतीक है। भगवान तुमसे तुम्हारी भावनाओं के जरिए जुड़े हैं।"

कृष्णा ने बाबा की बातों पर ध्यान दिया और सोचा। "तो क्या मैं बिना मूर्ति की पूजा किए भी भगवान को पा सकता हूँ?" उसने प्रश्न किया।

बाबा ने कहा, "बिल्कुल। जब तुम अपनी भावनाओं को समझोगे और दूसरों के प्रति प्रेम और करुणा दिखाओगे, तो तुम भगवान के नज़दीक पहुँचोगे।"

इससे प्रभावित होकर कृष्णा ने उस दिन तय किया कि वह केवल मूर्तियों की पूजा नहीं करेगा, बल्कि अपने कार्यों से भी भगवान की आराधना करेगा। उत्सव के बाद, उसने गाँव के लोगों की मदद करने का निश्चय किया।

कृष्णा ने देखा कि गाँव में कई लोग हैं जो आर्थिक तंगी में हैं। उसने अपनी थोड़ी-सी बचत से गाँव के गरीबों के लिए भोजन और कपड़े खरीदने का निर्णय लिया। उसने अपने दोस्तों को भी इस कार्य में शामिल किया, और सब मिलकर गाँव के गरीबों की मदद करने लगे।

धीरे-धीरे, गाँव में सबकी जिंदगी में बदलाव आने लगा। लोग एक-दूसरे की मदद करने लगे, और गाँव में भाईचारे का माहौल बनने लगा। कृष्णा ने महसूस किया कि उसकी आत्मा में जो खुशी थी, वही असली पूजा थी। अब वह भगवान की मूर्तियों की पूजा करने के बजाय, अपने कार्यों और भावनाओं के जरिए भगवान को महसूस कर रहा था।

एक दिन, गाँव के एक व्यक्ति ने कृष्णा से कहा, "कृष्णा, तुमने हमारे लिए जो किया है, उसके लिए हम तुम्हारे आभारी हैं। तुम सच में भगवान के दूत हो।"

कृष्णा ने मुस्कराते हुए कहा, "नहीं, मैं कोई दूत नहीं हूँ। मैं केवल अपनी भावनाओं का पालन कर रहा हूँ। हमारी आत्मा ही हमारा मंदिर है, और प्रेम और करुणा ही हमारी असली पूजा है।"

कृष्णा की बातें गाँव के लोगों के दिलों में गहरी उतर गईं। उन्होंने भी यह समझ लिया कि भगवान मूर्तियों में नहीं, बल्कि हमारी भावनाओं में हैं।

इस प्रकार, कृष्णा ने अपने गाँव में एक नई सोच और परिवर्तन लाया। उसने सिखाया कि सच्ची भक्ति केवल पूजा के रिवाजों में नहीं, बल्कि अपने कार्यों और भावनाओं में होती है। भगवान की सच्ची उपासना वही है, जब हम अपने भीतर की अच्छाई को बाहर लाते हैं और दूसरों की सहायता करते हैं।

कहानी का संदेश यह है कि भगवान का असली रूप हमारी भावनाओं में बसा है, और हमारी आत्मा ही हमारी सच्ची पूजा है।--

Thursday, December 12, 2024

थोड़ा सा कमज़ोर हूँ लेकिन किस्मत का मारा नहीं, बस लड़खड़ाकर गिरा हूँ, अभी मैं हारा नहीं

आरव का जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था। उसके पिता एक छोटे किसान थे, जो बमुश्किल अपने परिवार का पेट पाल पाते थे। माँ घर में सिलाई का काम करके थोड़ा-बहुत सहारा देती थीं। आरव पढ़ाई में तेज़ था, लेकिन उसके पास ज़रूरी साधन नहीं थे। वह टूटे-फूटे जूतों में स्कूल जाता, पुरानी किताबें पढ़ता और अक्सर खाली पेट ही सो जाता। लेकिन उसकी आँखों में बड़े सपने थे।

संघर्ष की शुरुआत

आरव को पढ़ाई में बहुत रुचि थी। वह हमेशा कक्षा में अव्वल आता था, लेकिन गरीबी उसके सपनों के बीच दीवार बनकर खड़ी थी। दसवीं कक्षा के बाद उसकी पढ़ाई छूटने की नौबत आ गई क्योंकि उसके पिता की तबीयत खराब हो गई थी। घर की जिम्मेदारियाँ अब आरव के कंधों पर आ गईं।

आरव ने हार मानने की बजाय पास के शहर में एक चाय की दुकान पर काम करना शुरू किया। दिन में चाय बेचता और रात को स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठकर पढ़ाई करता। दुकान पर आने वाले लोग उसे ताने मारते, लेकिन आरव ने किसी की परवाह नहीं की।

पहला असफल कदम

बारहवीं की परीक्षा में आरव ने अच्छे अंक हासिल किए और उसे एक अच्छे कॉलेज में दाखिला मिल गया। लेकिन कॉलेज की फीस भरने के लिए पैसे नहीं थे। उसने कई जगहों पर छोटे-मोटे काम किए, लेकिन फिर भी पैसे पूरे नहीं हो पाए। दोस्तों और रिश्तेदारों से मदद मांगी, लेकिन सभी ने मना कर दिया।

तभी उसे एक स्कॉलरशिप का पता चला। उसने पूरी रात जागकर आवेदन भरा और कठिन परीक्षा दी। लेकिन दुर्भाग्यवश, स्कॉलरशिप किसी और को मिल गई। यह आरव के लिए बड़ा झटका था।

उस रात आरव घर आकर खूब रोया। उसे लगा कि किस्मत उसके साथ नहीं है। लेकिन फिर उसे अपनी माँ की बात याद आई:

"अगर गिरकर उठने का साहस है, तो हार कभी स्थायी नहीं होती।"

यह बात उसके दिल में घर कर गई। उसने तय किया कि वह हार नहीं मानेगा।

दूसरा मौका

आरव ने फिर से मेहनत शुरू की। उसने पार्ट-टाइम नौकरी की और कॉलेज की फीस का इंतज़ाम किया। कॉलेज में दाखिला लेने के बाद भी उसका संघर्ष कम नहीं हुआ। सुबह कॉलेज जाना, शाम को नौकरी करना, और रात में पढ़ाई करना उसकी दिनचर्या बन गई।

वह कई बार थककर चूर हो जाता, लेकिन हर बार अपने सपने को याद करके खुद को संभाल लेता। उसे विश्वास था कि एक दिन उसकी मेहनत रंग लाएगी।

समाज की चुनौतियाँ

जब लोग आरव की मेहनत को देखते, तो उसे ताने मारते:

"गरीब का बेटा होकर भी इतना बड़ा बनने का सपना देखता है।"

"तू कभी कुछ नहीं कर पाएगा।"

लेकिन आरव ने इन तानों को अपनी ताकत बना लिया। उसने तय किया कि वह अपनी सफलता से इन सभी को गलत साबित करेगा

सफलता की ओर पहला कदम

कॉलेज के आखिरी साल में आरव को एक बड़ी कंपनी में इंटर्नशिप का मौका मिला। उसने वहां भी अपनी मेहनत और ईमानदारी से सबका दिल जीत लिया। उसकी प्रतिभा देखकर कंपनी ने उसे स्थायी नौकरी का प्रस्ताव दिया।

अब आरव की ज़िंदगी बदलने लगी। वह जिस गरीबी से जूझ रहा था, उससे बाहर निकल आया। लेकिन उसने कभी अपने अतीत को नहीं भूला।

आखिरी संघर्ष

एक दिन, आरव के गाँव में एक बड़ी प्राकृतिक आपदा आ गई। उसके परिवार का सब कुछ बर्बाद हो गया। उस समय, आरव ने अपनी बचत का इस्तेमाल करके न केवल अपने परिवार को संभाला, बल्कि गाँव के अन्य लोगों की भी मदद की।

प्रेरणा का स्रोत

आरव की कहानी अब एक मिसाल बन चुकी थी। लोग, जो कभी उसका मज़ाक उड़ाते थे, अब उसकी तारीफ करते नहीं थकते। उसने अपने संघर्षों से यह साबित कर दिया कि कोई भी परिस्थिति कितनी भी कठिन क्यों न हो, अगर हौसला बुलंद हो, तो कोई भी इंसान अपनी किस्मत बदल सकता है।

नतीजा

आरव ने अपनी मेहनत और लगन से जो मुकाम हासिल किया, वह हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणा है, जो जिंदगी की कठिनाइयों से घबराकर हार मान लेता है। उसकी कहानी हमें सिखाती है कि:

"थोड़ा सा कमज़ोर होना कोई कमजोरी नहीं है, और लड़खड़ाना हार नहीं। असली जीत तो तब होती है, जब इंसान बार-बार गिरकर भी उठता रहे और अपने लक्ष्य को पाने के लिए डटा रहे।"

Friday, December 6, 2024

वो जो शोर मचाते हैं भीड़ में, भीड़ ही बनकर रह जाते हैं। वही पाते हैं जिंदगी में सफलता, जो खामोशी से अपना काम कर जाते हैं।

निशा एक छोटे गाँव में पैदा हुई थी, जहाँ लड़कियों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था। उसके पिता एक साधारण किसान थे और माँ गृहिणी। निशा बचपन से ही पढ़ाई में बहुत अच्छी थी, लेकिन उसे हमेशा यह सुनने को मिलता था:

"लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने का क्या फायदा? शादी के बाद तो घर ही संभालना है।"

लेकिन निशा को अपनी ज़िंदगी के साथ कुछ बड़ा करना था। वह जानती थी कि अगर वह भीड़ का हिस्सा बनकर रह गई, तो उसकी पहचान हमेशा के लिए खो जाएगी। उसने तय किया कि वह अपनी मेहनत और लगन से अपने सपनों को पूरा करेगी, चाहे रास्ता कितना भी कठिन क्यों न हो।

संघर्ष की शुरुआत

गाँव के स्कूल में पढ़ाई पूरी करने के बाद, निशा ने शहर के एक कॉलेज में दाखिला लेने की इच्छा जताई। लेकिन उसके पिता के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह उसे शहर भेज सकें। परिवार के अन्य लोग भी इसके खिलाफ थे।

उसकी माँ ने उसे चुपचाप सहारा दिया। उन्होंने अपने गहने बेचकर निशा की फीस भरने में मदद की। निशा ने अपने माता-पिता से वादा किया कि वह अपनी मेहनत से न केवल अपने सपनों को पूरा करेगी, बल्कि उनका भी नाम रोशन करेगी।

कॉलेज का सफर

शहर में पहुंचकर निशा ने देखा कि वहां के बच्चे कितने आत्मविश्वासी और साधन-संपन्न थे। उनके पास महंगे कपड़े, स्मार्टफोन, और हर तरह की सुविधाएं थीं। लेकिन निशा के पास सिर्फ अपनी किताबें, एक पुराना बैग और अपने सपने थे।

वह खुद को कमज़ोर महसूस कर सकती थी, लेकिन उसने अपने काम से सबका ध्यान खींचने की ठानी। उसने पढ़ाई में कड़ी मेहनत की। वह हमेशा कक्षा में अव्वल आती, लेकिन कभी अपनी सफलता का दिखावा नहीं करती।

दूसरों का शोर

कॉलेज में बहुत से ऐसे छात्र थे, जो अपने छोटे-छोटे कामों को भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते थे। वे शोर मचाते, अपनी छोटी-छोटी उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटते और खुद को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश करते। निशा ने इन सबसे खुद को दूर रखा।

वह जानती थी कि सच्ची सफलता शोर मचाने से नहीं मिलती, बल्कि खामोशी से मेहनत करने और सही समय पर सही कदम उठाने से मिलती है।

कठिनाइयों का सामना

कॉलेज के आखिरी साल में निशा के सामने एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई। उसकी माँ की तबीयत अचानक खराब हो गई, और उसे गाँव लौटना पड़ा। पिता पर पहले से ही कर्ज़ था, और अब माँ के इलाज के लिए भी पैसे चाहिए थे।

निशा ने हार नहीं मानी। उसने शहर लौटकर ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया और अपनी पढ़ाई और माँ के इलाज का खर्च खुद उठाया। वह दिन में कॉलेज जाती, शाम को ट्यूशन पढ़ाती, और रात को पढ़ाई करती।

खामोश मेहनत का असर

एक दिन, कॉलेज में एक राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता का आयोजन हुआ। यह प्रतियोगिता उन छात्रों के लिए थी, जो शोध और नवाचार (इनोवेशन) में रुचि रखते थे। निशा ने चुपचाप इस प्रतियोगिता में भाग लिया। उसने अपनी पूरी मेहनत से एक ऐसा प्रोजेक्ट तैयार किया, जो समाज की समस्याओं का समाधान प्रदान कर सके।

उसका प्रोजेक्ट गाँवों में किसानों के लिए एक सस्ता और सरल उपकरण बनाने पर आधारित था, जिससे खेती की उत्पादकता बढ़ सके। उसने न तो इस प्रतियोगिता के बारे में किसी को बताया और न ही कोई शोर मचाया।

सफलता का दिन

प्रतियोगिता के परिणाम घोषित होने का दिन आया। निशा का नाम पहले स्थान पर था। जब उसका नाम पुकारा गया, तो पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। जिन लोगों ने उसे कभी नजरअंदाज किया था, वे अब उसकी तारीफ कर रहे थे।

कॉलेज के प्रिंसिपल ने उसे मंच पर बुलाकर कहा:

"निशा ने यह साबित कर दिया कि असली सफलता शोर मचाने में नहीं, बल्कि मेहनत करने में है।"

निशा ने अपनी खामोश मेहनत से वह मुकाम हासिल किया, जो दूसरों के लिए प्रेरणा बन गया।

समाज में बदलाव

प्रतियोगिता जीतने के बाद, निशा को एक बड़ी कंपनी से नौकरी का प्रस्ताव मिला। उसने अपने माता-पिता का कर्ज़ चुकाया और अपने गाँव लौटकर किसानों की मदद के लिए काम करना शुरू किया।

उसने अपने उपकरण को बड़े पैमाने पर विकसित किया और इसे पूरे देश में उपलब्ध कराया। उसकी इस पहल से कई किसानों की ज़िंदगी बदल गई।

निशा की सीख

निशा की कहानी ने यह साबित कर दिया कि:

"जो शोर मचाते हैं, वे भीड़ में खो जाते हैं। लेकिन जो खामोशी से अपना काम करते हैं, वे इतिहास रचते हैं।"

उसकी सफलता सिर्फ उसकी नहीं थी, बल्कि उन सभी लोगों के लिए प्रेरणा थी, जो जिंदगी में कुछ बड़ा करना चाहते हैं लेकिन दिखावे से बचते हैं।

नतीजा

निशा की मेहनत और लगन ने उसे वह मुकाम दिलाया, जो बहुत से लोगों का सपना होता है। उसने अपनी खामोशी और मेहनत से यह साबित कर दिया कि असली शक्ति शोर मचाने में नहीं, बल्कि निरंतर प्रयास में है।

अपने आप से जंग