गुरु तेगबहादुरजी भक्ति और शक्ति के उपासक थे। उन्होंने 1675 में धर्म की रक्षा के लिए दिल्ली में बलिदान देकर यह सिद्ध किया कि एक धर्मगुरु और कवि – साहित्यकार समय आने पर धर्म की रक्षा के लिए सिर भी कटा सकता है।
बलिदान देने से पूर्व अनेक वर्षों तक गुरु तेगबहादुरजी ने देश का भ्रमण कर असंख्य लोगों को सदाचार का उपदेश दिया। पंजाब के अनेक कसबों व गाँवों में पीने के पानी का अभाव दूर करने के लिए उन्होंने श्रमदान कर तालाब बनवाए, कुएँ खुदवाए।
एक बार गुरु महाराज तलवंडी से भठिंडा होते हुए सुलसट पहुँचे। उनके पास एक सुंदर घोड़ा था । चार चोर उस घोड़े को चुराने के लिए युक्ति करने लगे।
गुरुजी उनका मंतव्य जान गए। उन्होंने कहा, ‘यदि घोड़े पर नीयत है, तो चोरी क्यों करते हो ! मुझसे माँगकर ले जाओ। उनकी प्रेममय वाणी सुनकर चोरों को इतनी आत्मग्लानि हुई कि दो ने पश्चात्ताप के रूप में तत्काल आत्महत्या कर ली।
गुरुजी ने अगले पड़ाव में भक्तजनों के बीच प्रवचन देते हुए कहा कि पाप के प्रायश्चित्त का साधन आत्महत्या नहीं है। व्यक्ति ईश्वर का नाम सुमिरन करके हर तरह के पाप से मुक्त हो सकता है।
उन्होंने कहा, ‘शर्त यही है कि भविष्य में पाप न करने का दृढ़ संकल्प ले लिया जाए। लोभ, लालच व हिंसा की भावना त्याग देने वाले का हृदय स्वतः निर्मल बन जाता है।’ उनके सदुपदेशों से लाखों व्यक्तियों ने दुर्गुण त्यागकर अपना कल्याण किया ।
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