कल की शाम दोस्तों के बीच लँबी चर्चा-परिचर्चा में कब रात के दस बज गए पता ही नहीं चला...!
आखिरकार एक-एक लस्सी पीते हुए घर जाना तय हुआ।
लस्सी
का ऑर्डर देकर हम सब आराम से बैठकर एक दूसरे की खिंचाई मे लगे ही थे कि
लगभग 70-75 साल की एक माताजी कुछ पैसे माँगते हुए मेरे सामने हाथ फैलाकर
खड़ी हो गईं ...
उनकी कमर
झुकी हुई थी, धोती बहुत पुरानी थी मगर गन्दी ना थी... चेहरे की झुर्रियों
में भूख तैर रही थी... आँखें भीतर को धँसी हुई किन्तु सजल थीं...!
उनको देखकर मन में ना जाने क्या आया कि मैने जेब में सिक्के निकालने के लिए डाला हुआ हाथ वापस खींचते हुए उनसे पूछ लिया:
"दादी लस्सी पिहौ का?"
मेरी
इस बात पर- दादी कम अचँभित हुईं और मेरे मित्र अधिक...! क्योंकि अगर मैं
उनको पैसे देता तो बस 2-4-5 रुपए ही देता लेकिन लस्सी तो 35 रुपए की एक
है..
इसलिए लस्सी पिलाने से "मेरे" गरीब हो जाने की और उन दादी के, मुझे ठगकर, अमीर हो जाने की सँभावना बहुत अधिक बढ़ गई थी !
दादी ने सकुचाते हुए हामी भरी और अपने पास जो माँग कर जमा किए हुए 06-07 ₹ थे वो अपने काँपते हाथों से मेरी ओर बढ़ाए...
मुझे कुछ समझ नहीं आया तो मैंने उनसे पूछा-
"ये काहे के लिए?"
तो दादी बोली:
"इनका मिलाई के पियाइ देओ पूत !"
भावुक तो मैं उनको देखकर ही हो गया था... रही बची कसर उनकी इस बात ने पूरी कर दी !
एकाएक आँखें छलछला आईं और भरभराए हुए गले से मैंने दुकान वाले से एक लस्सी बढ़ाने को कहा...
उन्होंने अपने पैसे वापस मुट्ठी में बंद कर लिए और पास ही जमीन पर बैठ गईं...
अब
मुझे वास्तविकता में अपनी लाचारी का अनुभव हुआ क्योंकि मैं वहाँ पर मौजूद
दुकानदार, अपने ही दोस्तों और अन्य कई ग्राहकों की वजह से उनको कुर्सी पर
बैठने के लिए ना कह सका !
डर था कि कहीं कोई टोंक ना दे...
कहीं
किसी को एक भीख माँगने वाली बूढ़ी महिला के उनके बराबर में बैठ जाने पर
आपत्ति ना हो...! लेकिन वो कुर्सी जिसपर मैं बैठा था मुझे काट रही थी...
लस्सी कुल्लड़ों में भरकर हम लोगों के हाथों में आते ही मैं भी अपना कुल्लड़ पकड़कर दादी के पड़ोस मे ही जमीन पर बैठ गया,
क्योंकि ये करने के लिए मैं स्वतंत्र था...
इससे किसी को आपत्ति नहीं हो सकती...
हाँ!
मेरे दोस्तों ने मुझे एक पल को घूरा... लेकिन वो कुछ कहते उससे पहले ही
दुकान के मालिक ने आगे बढ़कर दादी को उठाकर कुर्सी पर बिठाया और मेरी ओर
मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर कहा ..
"ऊपर बैठ जाईए साहब !"
अब सबके हाथों में लस्सी के कुल्लड़ और होठों पर मुस्कुराहट थी बस एक वो दादी ही थीं जिनकी आँखों में तृप्ति के आँसू...
होठों पर मलाई के कुछ अंश और सैकड़ों दुआएँ थीं...।
ना
जाने क्यों जब कभी हमें 10-20-50 रुपए किसी भूखे गरीब को देने या उसपर
खर्च करने होते हैं तो वो हमें बहुत ज्यादा लगते हैं लेकिन सोचिए कभी कि...
क्या वो चंद रुपए किसी के मन को तृप्त करने से अधिक कीमती हैं ?
क्या उन रुपयों को सिगरेट, रजनीगंधा पर खर्चकर दुआएँ खरीदी जा सकती हैं ?
जब कभी अवसर मिले अच्छे काम करते रहें,
भले
ही कोई "अभी" आपका साथ ना दे... लेकिन ऊपर जब अच्छाईयों का हिसाब किया
जाएगा तब यही दुआएँ देते होंठ तुम्हारी अच्छाइयों के गवाह बनेंगे
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