Sunday, July 28, 2019

समय

रात के ढाई बजे था, एक सेठ को नींद नहीं आ रही थी,


वह घर में चक्कर पर चक्कर लगाये जा रहा था।


पर चैन नहीं पड़ रहा था ।


आखिर  थक कर नीचे उतर आया और कार निकाली


 शहर की सड़कों पर निकल गया। रास्ते में एक मंदिर दिखा सोचा थोड़ी देर इस मंदिर में जाकर भगवान के पास बैठता हूँ। 


प्रार्थना करता हूं तो शायद शांति मिल जाये।

वह सेठ मंदिर के अंदर गया तो देखा, एक दूसरा आदमी पहले से ही भगवान की मूर्ति के सामने बैठा था, मगर उसका उदास चेहरा, आंखों में करूणा दर्श रही थी।

सेठ ने पूछा " क्यों भाई इतनी रात को मन्दिर में क्या कर रहे हो ?"

आदमी ने कहा " मेरी पत्नी अस्पताल में है, सुबह यदि उसका आपरेशन नहीं हुआ तो वह मर जायेगी और मेरे पास आपरेशन के लिए पैसा नहीं है "

उसकी बात सुनकर सेठ ने जेब में जितने रूपए थे  वह उस आदमी को दे दिए। अब गरीब आदमी के चहरे पर चमक आ गईं थीं ।

सेठ ने अपना कार्ड दिया और कहा इसमें फोन नम्बर और पता भी है और जरूरत हो तो निसंकोच बताना। 

उस गरीब आदमी ने कार्ड वापिस दे दिया और कहा


"मेरे पास उसका पता है " इस पते की जरूरत नहीं है सेठजी

आश्चर्य से सेठ ने कहा "किसका पता है भाई


"उस गरीब आदमी ने कहा


"जिसने रात को ढाई बजे आपको यहां भेजा उसका"

इतने अटूट विश्वास से सारे कार्य पूर्ण हो जाते है

घर से जब भी बाहर जाये*

 *तो घर में विराजमान अपने प्रभु से जरूर मिलकर जाएं*


*और*


 *जब लौट कर आए तो उनसे जरूर मिले*


*क्योंकि*


 *उनको भी आपके घर लौटने का इंतजार रहता है*

"घर" में यह नियम बनाइए की जब भी आप घर से बाहर निकले तो घर में मंदिर के पास दो घड़ी खड़े रह कर "प्रभु चलिए..आपको साथ में रहना हैं"..!

ऐसा बोल कर ही निकले क्यूँकि आप भले ही *"लाखों की घड़ी" हाथ में क्यूँ ना पहने हो पर "समय" तो "प्रभु के ही हाथ" में हैं न


Thursday, July 25, 2019

सकारात्मक सोच

एक राजा के पास कई हाथी थे,
लेकिन एक हाथी बहुत शक्तिशाली था, बहुत आज्ञाकारी,समझदार व युद्ध-कौशल में निपुण था।
बहुत से युद्धों में वह भेजा गया था और वह राजा को विजय दिलाकर वापस लौटा था
इसलिए वह महाराज का सबसे प्रिय हाथी था।

समय गुजरता गया  ..

और एक समय ऐसा भी आया, जब वह वृद्ध दिखने लगा।

                    
अब वह पहले की तरह कार्य नहीं कर पाता था।
इसलिए अब राजा उसे युद्ध क्षेत्र में भी नहीं भेजते थे।

एक दिन वह सरोवर में जल पीने के लिए गया, लेकिन वहीं कीचड़ में उसका पैर धँस गया और फिर धँसता ही चला गया।

उस हाथी ने बहुत कोशिश की, लेकिन वह उस कीचड़ से स्वयं को नहीं निकाल पाया।

उसकी चिंघाड़ने की आवाज से लोगों को यह पता चल गया कि वह हाथी संकट में है।

हाथी के फँसने का समाचार राजा तक भी पहुँचा।

राजा समेत सभी लोग हाथी के आसपास इक्कठा हो गए और विभिन्न प्रकार के शारीरिक प्रयत्न उसे निकालने के लिए करने लगे।

लेकिन बहुत देर तक प्रयास करने के उपरांत कोई मार्ग नही निकला..

तभी गौतम बुद्ध मार्गभ्रमण कर रहे थे। राजा और सारा मंत्रीमंडल तथागत गौतम बुद्ध के पास गये और अनुरोध किया कि आप हमे इस बिकट परिस्थिति मे मार्गदर्शन करे. गौतम बुद्ध ने सबके घटनास्थल का निरीक्षण किया और फिर राजा को सुझाव दिया कि सरोवर के चारों और युद्ध के नगाड़े बजाए जाएँ।

सुनने वालो को विचित्र लगा कि भला नगाड़े बजाने से वह फँसा हुआ हाथी बाहर कैसे निकलेगा। जैसे ही युद्ध के नगाड़े बजने प्रारंभ हुए, वैसे ही उस मृतप्राय हाथी के हाव-भाव में परिवर्तन आने लगा।

पहले तो वह धीरे-धीरे करके खड़ा हुआ और फिर सबको हतप्रभ करते हुए स्वयं ही कीचड़ से बाहर निकल आया।
गौतम बुद्ध ने सबको स्पष्ट किया कि हाथी की शारीरिक क्षमता में कमी नहीं थी, आवश्यकता मात्र उसके अंदर उत्साह के संचार करने की थी।

जीवन में उत्साह बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि मनुष्य सकारात्मक चिंतन बनाए रखे और निराशा को हावी न होने दे।
कभी – कभी निरंतर मिलने वाली असफलताओं से व्यक्ति यह मान लेता है कि अब वह पहले की तरह कार्य नहीं कर सकता, लेकिन यह पूर्ण सच नहीं है.

"सकारात्मक सोच ही आदमी को "आदमी" बनाती है....
उसे अपनी मंजिल  तक ले जाती है...।।
आप हमेशा सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण , स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें

Tuesday, July 23, 2019

नैतिकता का पाठ

महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था, युद्धभूमि में यत्र-तत्र योद्धाओं के फ़टे वस्त्र, मुकुट, टूटे शस्त्र, टूटे रथों के चक्के, छज्जे आदि बिखरे हुए थे और वायुमण्डल में पसरी हुई थी घोर उदासी।

गिद्ध, कुत्ते, सियारों की उदास और डरावनी आवाजों के बीच उस निर्जन हो चुकी उस भूमि में द्वापर का सबसे महान योद्धा देवब्रत भीष्म शरशय्या पर पड़ा सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा कर रहा था अकेला। तभी उनके कानों में एक परिचित ध्वनि शहद घोलती हुई पहुँची, "प्रणाम पितामह!"

भीष्म के सूख चुके अधरों पर एक मरी हुई मुस्कुराहट तैर उठी,  बोले, " आओ देवकीनंदन... स्वागत है तुम्हारा. मैं बहुत देर से तुम्हारा ही स्मरण कर रहा था।"

कृष्ण बोले, " क्या कहूँ पितामह! अब तो यह भी नहीं पूछ सकता कि कैसे हैं आप।"

भीष्म चुप रहे.कुछ क्षण बाद बोले," पुत्र युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करा चुके केशव? उनका ध्यान रखना, परिवार के बुजुर्गों से रिक्त हो चुके राजप्रासाद में उन्हें अब सबसे अधिक तुम्हारी ही आवश्यकता है।"

कृष्ण चुप रहे।

भीष्म ने पुनः कहा, "कुछ पूछूँ केशव? बड़े अच्छे समय से आये हो, सम्भवतः धरा छोड़ने के पूर्व मेरे अनेक भ्रम समाप्त हो जय।"

कृष्ण बोले- कहिये न पितामह!

"एक बात बताओ प्रभु! तुम तो ईश्वर हो न?'

कृष्ण ने बीच में ही टोका, "नहीं पितामह! मैं ईश्वर नहीं। मैं तो आपका पौत्र हूँ पितामह, ईश्वर नहीं।"

भीष्म उस घोर पीड़ा में भी ठठा के हँस पड़े, बोले, " अपने जीवन का स्वयं कभी आकलन नहीं कर पाया कृष्ण, सो नहीं जानता कि अच्छा रहा या बुरा। पर अब तो इस धरा से जा रहा हूँ कन्हैया, अब तो ठगना छोड़ दे रे!"

कृष्ण जाने क्यों भीष्म के पास सरक आये और उनका हाथ पकड़ कर बोले, " कहिये पितामह!"

भीष्म बोले, "एक बात बताओ कन्हैया! इस युद्ध में जो हुआ वो ठीक था क्या?"

- "किसकी ओर से पितामह? पांडवों की ओर से?"

- "कौरवों के कृत्यों पर चर्चा का तो अब कोई अर्थ ही नहीं कन्हैया, पर क्या पांडवों की ओर से जो हुआ वो सही था? आचार्य द्रोण का वध, दुर्योधन की जंघा के नीचे प्रहार, दुःशासन की छाती का चीरा जाना, जयद्रथ के साथ हुआ छल, निहत्थे कर्ण का वध, सब ठीक था क्या? यह सब उचित था क्या?"

- इसका उत्तर मैं कैसे दे सकता हूँ पितामह! इसका उत्तर तो उन्हें देना चाहिए जिन्होंने यह किया। उत्तर दें दुर्योधन का वध करने वाले भीम, उत्तर दें कर्ण और जयद्रथ का वध करने वाले अर्जुन, मैं तो इस युद्ध में कहीं था ही नहीं पितामह!

- "अभी भी छलना नहीं छोड़ोगे कृष्ण? अरे विश्व भले कहता रहे कि महाभारत को अर्जुन और भीम ने जीता है, पर मैं जानता हूँ कन्हैया कि यह तुम्हारी और केवल तुम्हारी विजय है। मैं तो उत्तर तुम्ही से पूछूंगा कृष्ण!"

- "तो सुनिए पितामह! कुछ बुरा नहीं हुआ, कुछ अनैतिक नहीं हुआ। वही हुआ जो हो होना चाहिए।"

- " यह तुम कह रहे हो केशव? मर्यादा पुरुषोत्तम राम का अवतार कृष्ण कह रहा है? यह क्षल तो किसी युग में हमारे सनातन संस्कारों का अंग नहीं रहा, फिर यह उचित कैसे गया? "

- "इतिहास से शिक्षा ली जाती है पितामह, पर निर्णय वर्तमान की परिस्थितियों के आधार पर लेना पड़ता है। हर युग अपने तर्कों और अपनी आवश्यकता के आधार पर अपना नायक चुनता है। राम त्रेता युग के नायक थे, मेरे भाग में द्वापर आया था। हम दोनों का निर्णय एक सा नहीं हो सकता पितामह।"

-" नहीं समझ पाया कृष्ण! तनिक समझाओ तो..."

-" राम और कृष्ण की परिस्थितियों में बहुत अंतर है पितामह! राम के युग में खलनायक भी 'रावण' जैसा शिवभक्त होता था। तब रावण जैसी नकारात्मक शक्ति के परिवार में भी विभीषण और कुम्भकर्ण जैसे सन्त हुआ करते थे। तब बाली जैसे खलनायक के परिवार में भी तारा जैसी विदुषी स्त्रियाँ और अंगद जैसे सज्जन पुत्र होते थे। उस युग में खलनायक भी धर्म का ज्ञान रखता था। इसलिए राम ने उनके साथ कहीं छल नहीं किया। किंतु मेरे युग के भाग में में कंस, जरासन्ध, दुर्योधन, दुःशासन, शकुनी, जयद्रथ जैसे घोर पापी आये हैं। उनकी समाप्ति के लिए हर छल उचित है पितामह। पाप का अंत आवश्यक है पितामह, वह चाहे जिस विधि से हो।"

- "तो क्या तुम्हारे इन निर्णयों से गलत परम्पराएं नहीं प्रारम्भ होंगी केशव? क्या भविष्य तुम्हारे इन छलों का अनुशरण नहीं करेगा? और यदि करेगा तो क्या यह उचित होगा?"

-" भविष्य तो इससे भी अधिक नकारात्मक आ रहा है पितामह। कलियुग में तो इतने से भी काम नहीं चलेगा। वहाँ मनुष्य को कृष्ण से भी अधिक कठोर होना होगा, नहीं तो धर्म समाप्त हो जाएगा। जब क्रूर और अनैतिक शक्तियाँ धर्म का समूल नाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता अर्थहीन हो जाती है पितामह! तब महत्वपूर्ण होती है विजय, केवल विजय। भविष्य को यह सीखना ही होगा पितामह।"

-"क्या धर्म का भी नाश हो सकता है केशव? और यदि धर्म का नाश होना ही है, तो क्या मनुष्य इसे रोक सकता है?"

-"सबकुछ ईश्वर के भरोसे छोड़ कर बैठना मूर्खता होती है पितामह! ईश्वर स्वयं कुछ नहीं करता, सब मनुष्य को ही करना पड़ता है। आप मुझे भी ईश्वर कहते हैं न! तो बताइए न पितामह, मैंने स्वयं इस युद्घ में कुछ किया क्या? सब पांडवों को ही करना पड़ा न? यही प्रकृति का संविधान है। युद्ध के प्रथम दिन यही तो कहा था मैंने अर्जुन से। यही परम सत्य है।"

भीष्म अब सन्तुष्ट लग रहे थे। उनकी आँखें धीरे-धीरे बन्द होने लगीं थी। उन्होंने कहा, "चलो कृष्ण! यह इस धरा पर अंतिम रात्रि है, कल सम्भवतः चले जाना हो... अपने इस अभागे भक्त पर कृपा करना कृष्ण!"

कृष्ण ने मन मे ही कुछ कहा और भीष्म को प्रणाम कर लौट चले, पर युद्धभूमि के उस डरावने अंधकार में भविष्य को जीवन का सबसे बड़ा सूत्र मिल चुका था।

जब अनैतिक और क्रूर शक्तियाँ धर्म का विनाश करने के लिए आक्रमण कर रही हों, तो नैतिकता का पाठ आत्मघाती होता है.

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

Thursday, July 18, 2019

जीवन के सत्य

भगवान विष्णु गरुड़ पर बैठ कर कैलाश पर्वत पर गए।
द्वार पर गरुड़ को छोड़ कर खुद शिव से मिलने अंदर
चले गए। तब कैलाश की अपूर्व प्राकृतिक शोभा
को देख कर गरुड़ मंत्रमुग्ध थे कि तभी उनकी नजर
एक खूबसूरत छोटी सी चिड़िया पर पड़ी।

चिड़िया कुछ इतनी सुंदर थी कि गरुड़ के सारे
विचार उसकी तरफ आकर्षित होने लगे।
उसी समय कैलाश पर यम देव पधारे और अंदर जाने से
पहले उन्होंने उस छोटे से पक्षी को आश्चर्य की
द्रष्टि से देखा। गरुड़ समझ गए उस चिड़िया का अंत
निकट है और यमदेव कैलाश से निकलते ही उसे अपने
साथ यमलोक ले जाएँगे।

गरूड़ को दया आ गई। इतनी छोटी और सुंदर
चिड़िया को मरता हुआ नहीं देख सकते थे। उसे अपने
पंजों में दबाया और कैलाश से हजारो कोश दूर एक
जंगल में एक चट्टान के ऊपर छोड़ दिया, और खुद
बापिस कैलाश पर आ गया।

आखिर जब यम बाहर आए तो गरुड़ ने पूछ ही लिया
कि उन्होंने उस चिड़िया को इतनी आश्चर्य भरी
नजर से क्यों देखा था। यम देव बोले "गरुड़ जब मैंने
उस चिड़िया को देखा तो मुझे ज्ञात हुआ कि वो
चिड़िया कुछ ही पल बाद यहाँ से हजारों कोस दूर
एक नाग द्वारा खा ली जाएगी। मैं सोच रहा था
कि वो इतनी जलदी इतनी दूर कैसे जाएगी, पर अब
जब वो यहाँ नहीं है तो निश्चित ही वो मर चुकी
होगी।"

गरुड़ समझ गये "मृत्यु टाले नहीं टलती चाहे कितनी
भी चतुराई की जाए।"

इसलिए कृष्ण कहते है..

करता तू वह है
जो तू चाहता है
परन्तु होता वह है
जो में चाहता हूँ
कर तू वह
जो में चाहता हूँ
फिर होगा वो
जो तू चाहेगा ।

Friday, July 12, 2019

जागरूकता

हम झूठा व बासी नही खाते !

अगली बार ये कहने से पहले सोचियेगा

कुछ दिन पहले एक परिचित दावत के लिये उदयपुर के एक मशहूर रेस्टोरेंट में ले गये।

मैं अक़्सर बाहर खाना खाने से कतराता हूँ, किन्तु सामाजिक दबाव तले जाना पड़ा।

आजकल पनीर खाना रईसी की निशानी है, इसलिए उन्होंने कुछ डिश पनीर की ऑर्डर की।

प्लेट में रखे पनीर के अनियमित टुकड़े मुझे कुछ अजीब से लगे। ऐसा लगा की उन्हें कांट छांट कर पकाया है।

मैंने वेटर से कुक को बुलाने के लिए कहा, कुक के आने पर मैंने उससे पूछा पनीर के टुकड़े अलग अलग आकार के व अलग रंगों के क्यों हैं तो उसने कहा ये स्पेशल डिश है।"

मैंने कहा की मैँ एक और प्लेट पैक करवा कर ले जाना चाहता हूं लेकिन वो मुझे ये डिश बनाकर दिखाये।

सारा रेस्टोरेंट अकबका गया...
बहुत से लोग थे जो खाना रोककर मुझे  देखने लगे...

स्टाफ तरह तरह के बहाने करने लगा। आखिर वेटर ने पुलिस के डर से बताया की अक्सर लोग प्लेटों में खाना,सब्जी सलाद व रोटी इत्यादी छोड़ देते हैं। रसोई में वो फेंका नही जाता। पनीर व सब्जी के बड़े टुकड़ों को इकट्ठा कर दुबारा से सब्जी की शक्ल में परोस दिया जाता है।

प्लेटों में बची सलाद के टुकड़े दुबारा से परोस दिए जाते है । प्लेटों में बचे सूखे  चिकन व मांस के टुकड़ों को काटकर करी के रूप में दुबारा पका दिया जाता है। बासी व सड़ी सब्जियाँ भी करी की शक्ल में छुप जाती हैं...

ये बड़े बड़े होटलों का सच है। अगली बार जब प्लेट में खाना बचे तो उसे इकट्ठा कर एक प्लास्टिक की थैली में साथ ले जाएं व बाहर जाकर उसे या तो किसी जानवर को दे दें या स्वयं से कचरेदान में फेंके

वरना क्या पता आपका झूठा खाना कोई और खाये या आप किसी और कि प्लेट का बचा खाना खाएं।

दूसरा क़िस्सा भगवान कृष्ण की भूमि वृंदावन का है. वृंदावन पहुंच कर,मैँ मुग्ध होकर पावन धरा को निहार रहा था। जयपुर से लंबी यात्रा के बाद हम सभी को कड़ाके की भूख लगी थी सो एक साफ से दिखने वाले  रेस्टोरेंट पर रुक गये । समय नष्ठ ना करने के लिए थाली मंगाई गई।

एक साफ से ट्रे में दाल, सब्जी,चावल, रायता व साथ एक टोकरी में रोटियां आई।

पहले कुछ कौर में ध्यान नही गया फिर मुझे कुछ ठीक नही लगा। मुझे रोटी में खट्टेपन का अहसास हुआ, फिर सब्जी की ओर ध्यान दिया तो देखा सब्जी में हर टुकड़े का रंग अलग अलग सा था। चावल चखा तो वहां भी माजरा गड़बड़ था। सारा खाना छोड़ दिया। फिर काउंटर पर बिल पूछा यो 650 का बिल थमाया।

मैंने कहा 'भैया! पैसे तो दूँगा लेकिन एक बार आपकी रसोई देखना चाहता हूं" वो अटपटा गया और पूछने लगा "क्यों?"

मैंने कहा "जो पैसे देता है उसे देखने का हक़ है कि खाना साफ बनता है या नहीँ?"

इससे पहले की वो कुछ समख पाता मैंने होटल की रसोई की ओर रुख किया।

आश्चर्य की सीमा ना रही जब देखा रसोई में कोई खाना नहीं पक रहा था। एक टोकरी में कुछ रोटियां पड़ी थी। फ्रिज खोल तो खुले डिब्बों में अलग अलग प्रकार की पकी हुई सब्जियां पड़ी हुई थी।कुछ खाने में तो फफूंद भी लगी हुई थी।

फ्रिज से बदबू का भभका आ रहा था।डांटने पर रसोइये ने बताया की सब्जियां करीब एक हफ्ता पुरानी हैं। परोसने के समय वो उन्हें कुछ तेल डालकर कड़ाई में तेज गर्म कर देता है और धनिया टमाटर से सजा देता है।

रोटी का आटा 2 दिन में एक बार ही गूंधता है।

कई कई घण्टे जब बिजली चली जाती है तो खाना खराब होने लगता है तो वो उसे तेज़ मसालों के पीछे छुपाकर परोस देते हैं। रोटी का आटा खराब हो तो उसे वो नॉन बनाकर परोस देते हैं।

मैंने रेस्टोरेंट मालिक से कहा कि "आप भी कभी यात्रा करते होंगे, इश्वेर करे जब अगली बार आप भूख से बिलबिला रहे हों तो आपको बिल्कुल वैसा ही खाना मिले जैसा आप परोसते हैं"  उसका चेहरा स्याह हो गया....

आज आपको खतरो, धोखों व ठगी से सिर्फ़ जागरूकता ही बचा सकती है। क्यों कि भगवान को भी दुष्टों ने घेर रखा है।

भारत से सही व गलत का भेद खत्म होता जा रहा है....

हर दुकान व प्रतिष्ठान में एक कोने में भगवान का बड़ा या छोटा मंदिर होता है।  व्यापारी सवेरे आते ही उसमें धूप दीप लगाता है, गल्ले को हाथ जोड़ता है और फिर सामान के साथ आत्मा बेचने का कारोबार शुरू हो जाता है!!!

भगवान से मांगते वक़्त ये नही सोचते की वो स्वयं दुनिया को क्या दे रहे हैं!!***

जागरूक बनिये!!
और कोई चारा नही है

Sunday, July 7, 2019

महान वकील

एक वरिष्ठ वकील 46 दोषियों को मौत की सजा (फांसी) से बचाने के लिए बहस कर रहा था।

तभी उसका सहायक अंदर आया और उसे एक छोटा सा कागज दिया।

वकील ने इसे पढ़ा और अपनी जेब के अंदर रखा और अपनी बहस जारी रखी।

लंच ब्रेक के दौरान,
न्यायाधीश ने उससे पूछा "आपको पर्ची पर क्या जानकारी मिली थी"?

वकील ने कहा "मेरी पत्नी मर गई"।

जज चौंक गया और बोला “फिर तुम यहाँ क्या कर रहे हो? अपने घर क्यों नहीं गए "।

वकील ने कहा…।
"मैं अपनी पत्नी के जीवन को वापस नहीं ला सकता, लेकिन इन 46 स्वतंत्रता सेनानियों को जीवनदान देने और उन्हें मरने से रोकने में मदद कर सकता हुँ"।

न्यायाधीश, जो एक अंग्रेज था, ने सभी 46 पुरुषों को रिहा करने का आदेश दिया।

वकील कोई और नहीं बल्कि महान सरदार वल्लभभाई पटेल थे।

Wednesday, July 3, 2019

शब्दों का प्रयोग

18 दिन के युद्ध ने,
द्रोपदी की उम्र को
80 वर्ष जैसा कर दिया था...

शारीरिक रूप से भी
और मानसिक रूप से भी

शहर में चारों तरफ़
विधवाओं का बाहुल्य था..

पुरुष इक्का-दुक्का ही दिखाई पड़ता था

अनाथ बच्चे घूमते दिखाई पड़ते थे और उन सबकी वह महारानी
द्रौपदी हस्तिनापुर के महल में
निश्चेष्ट बैठी हुई शून्य को निहार रही थी ।

तभी,

*श्रीकृष्ण*
कक्ष में दाखिल होते हैं

द्रौपदी
कृष्ण को देखते ही
दौड़कर उनसे लिपट जाती है ...
कृष्ण उसके सिर को सहलाते रहते हैं और रोने देते हैं

थोड़ी देर में,
उसे खुद से अलग करके
समीप के पलंग पर बैठा देते हैं ।

*द्रोपदी* : यह क्या हो गया सखा ??

ऐसा तो मैंने नहीं सोचा था ।

*कृष्ण* : नियति बहुत क्रूर होती है पांचाली..
वह हमारे सोचने के अनुरूप नहीं चलती !

वह हमारे कर्मों को
परिणामों में बदल देती है..

तुम प्रतिशोध लेना चाहती थी और, तुम सफल हुई, द्रौपदी !

तुम्हारा प्रतिशोध पूरा हुआ... सिर्फ दुर्योधन और दुशासन ही नहीं,
सारे कौरव समाप्त हो गए

तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए !

*द्रोपदी*: सखा,
तुम मेरे घावों को सहलाने आए हो या उन पर नमक छिड़कने के लिए ?

*कृष्ण* : नहीं द्रौपदी,
मैं तो तुम्हें वास्तविकता से अवगत कराने के लिए आया हूँ
हमारे कर्मों के परिणाम को
हम, दूर तक नहीं देख पाते हैं और जब वे समक्ष होते हैं..
तो, हमारे हाथ में कुछ नहीं रहता।

*द्रोपदी* : तो क्या,
इस युद्ध के लिए पूर्ण रूप से मैं ही उत्तरदायी हूँ कृष्ण ?

*कृष्ण* : नहीं, द्रौपदी
तुम स्वयं को इतना महत्वपूर्ण मत समझो...

लेकिन,

तुम अपने कर्मों में थोड़ी सी दूरदर्शिता रखती तो, स्वयं इतना कष्ट कभी नहीं पाती।

*द्रोपदी* : मैं क्या कर सकती थी कृष्ण ?

*तुम बहुत कुछ कर सकती थी*

*कृष्ण*:- जब तुम्हारा स्वयंवर हुआ...
तब तुम कर्ण को अपमानित नहीं करती और उसे प्रतियोगिता में भाग लेने का एक अवसर देती
तो, शायद परिणाम
कुछ और होते !

इसके बाद जब कुंती ने तुम्हें पाँच पतियों की पत्नी बनने का आदेश दिया...
तब तुम उसे स्वीकार नहीं करती तो भी, परिणाम कुछ और होते ।

और

उसके बाद
तुमने अपने महल में दुर्योधन को अपमानित किया...
कि अंधों के पुत्र अंधे होते हैं।

वह नहीं कहती तो, तुम्हारा चीर हरण नहीं होता...

तब भी शायद, परिस्थितियाँ कुछ और होती ।

हमारे  *शब्द* भी
हमारे *कर्म* होते हैं द्रोपदी...

और, हमें

अपने हर शब्द को बोलने से पहले तोलना बहुत ज़रूरी होता है...
अन्यथा,
उसके *दुष्परिणाम* सिर्फ़ स्वयं को ही नहीं... अपने पूरे परिवेश को दुखी करते रहते हैं ।

संसार में केवल मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है...
जिसका
"ज़हर"
उसके
"दाँतों" में नहीं,
"शब्दों " में है...

इसलिए शब्दों का प्रयोग सोच समझकर करें।

ऐसे शब्द का प्रयोग कीजिये जिससे, .
किसी की भावना को ठेस ना पहुँचे।

Wednesday, June 19, 2019

विचारों में उदारता

एक अती सुन्दर महिला ने विमान में प्रवेश किया और अपनी सीट की तलाश में नजरें घुमाईं।

उसने देखा कि उसकी सीट एक ऐसे व्यक्ति के बगल में है। जिसके दोनों ही हाथ नहीं है।

महिला को उस अपाहिज व्यक्ति के पास बैठने में झिझक हुई।

उस 'सुंदर' महिला ने एयरहोस्टेस से बोला "मै इस सीट पर सुविधापूर्वक यात्रा नहीं कर पाऊँगी।

क्योंकि साथ की सीट पर जो व्यक्ति बैठा हुआ है उसके दोनों हाथ नहीं हैं।

" उस सुन्दर महिला ने एयरहोस्टेस से सीट बदलने हेतु आग्रह किया।

असहज हुई एयरहोस्टेस ने पूछा, "मैम क्या मुझे कारण बता सकती है..?"

'सुंदर' महिला ने जवाब दिया "मैं ऐसे लोगों को पसंद नहीं करती। मैं ऐसे व्यक्ति के पास बैठकर यात्रा नहीं कर पाउंगी।"

दिखने में पढी लिखी और विनम्र प्रतीत होने वाली महिला की यह बात सुनकर एयरहोस्टेस अचंभित हो गई।

महिला ने एक बार फिर एयरहोस्टेस से जोर देकर कहा कि "मैं उस सीट पर नहीं बैठ सकती। अतः मुझे कोई दूसरी सीट दे दी जाए।"

एयरहोस्टेस ने खाली सीट की तलाश में चारों ओर नजर घुमाई, पर कोई भी सीट खाली नहीं दिखी।

एयरहोस्टेस ने महिला से कहा कि "मैडम इस इकोनोमी क्लास में कोई सीट खाली नहीं है, किन्तु यात्रियों की सुविधा का ध्यान रखना हमारा दायित्व है।

अतः मैं विमान के कप्तान से बात करती हूँ। कृपया तब तक थोडा धैर्य रखें।" ऐसा कहकर होस्टेस कप्तान से बात करने चली गई।

कुछ समय बाद लोटने के बाद उसने महिला को बताया, "मैडम! आपको जो असुविधा हुई, उसके लिए बहुत खेद है |

इस पूरे विमान में, केवल एक सीट खाली है और वह प्रथम श्रेणी में है। मैंने हमारी टीम से बात की और हमने एक असाधारण निर्णय लिया। एक यात्री को इकोनॉमी क्लास से प्रथम श्रेणी में भेजने का कार्य हमारी कंपनी के इतिहास में पहली बार हो रहा है।"

'सुंदर' महिला अत्यंत प्रसन्न हो गई, किन्तु इसके पहले कि वह अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती और एक शब्द भी बोल पाती...

एयरहोस्टेस उस अपाहिज और दोनों हाथ विहीन व्यक्ति की ओर बढ़ गई और विनम्रता पूर्वक उनसे पूछा

"सर, क्या आप प्रथम श्रेणी में जा सकेंगे..? क्योंकि हम नहीं चाहते कि आप एक अशिष्ट यात्री के साथ यात्रा कर के परेशान हों।

यह बात सुनकर सभी यात्रियों ने ताली बजाकर इस निर्णय का स्वागत किया। वह अति सुन्दर दिखने वाली महिला तो अब शर्म से नजरें ही नहीं उठा पा रही थी।

तब उस अपाहिज व्यक्ति ने खड़े होकर कहा,

"मैं एक भूतपूर्व सैनिक हूँ। और मैंने एक ऑपरेशन के दौरान कश्मीर सीमा पर हुए बम विस्फोट में अपने दोनों हाथ खोये थे।

सबसे पहले, जब मैंने इन देवी जी की चर्चा सुनी, तब मैं सोच रहा था। की मैंने भी किन लोगों की सुरक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डाली और अपने हाथ खोये..?

लेकिन जब आप सभी की प्रतिक्रिया देखी तो अब अपने आप पर गर्व हो रहा है कि मैंने अपने देश और देशवासियों के लिए अपने दोनों हाथ खोये।"

और इतना कह कर, वह प्रथम श्रेणी में चले गए।

'सुंदर' महिला पूरी तरह से अपमानित होकर सर झुकाए सीट पर बैठ गई।

अगर विचारों में उदारता नहीं है तो ऐसी सुंदरता का कोई मूल्य नहीं है।