18 दिन के युद्ध ने, द्रोपदी की उम्र को
80 वर्ष जैसा कर दिया था... शारीरिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी !
उसकी आंखे मानो किसी खड्डे में धंस गई थी, उनके नीचे के काले घेरों ने उसके रक्ताभ कपोलों को भी अपनी सीमा में ले लिया था !
श्याम वर्ण और अधिक काला हो गया था... युद्ध से पूर्व प्रतिशोध की ज्वाला ने जलाया था और, युद्ध के उपरांत पश्चाताप की आग तपा रही थी !
ना कुछ समझने की क्षमता बची थी ना सोचने की । कुरूक्षेत्र मेें चारों तरफ लाशों के ढेर थे । जिनके दाह संस्कार के लिए न लोग उपलब्ध थे न साधन ।
शहर में चारों तरफ विधवाओं का बाहुल्य था.. पुरुष इक्का-दुक्का ही दिखाई पड़ता था अनाथ बच्चे घूमते दिखाई पड़ते थे और, उन सबकी वह महारानी द्रौपदी हस्तिनापुर के महल में निश्चेष्ट बैठी हुई शून्य को ताक रही थी ।
तभी, * श्रीकृष्ण* कक्ष में दाखिल होते है !
द्रौपदी कृष्ण को देखते ही दौड़कर उनसे लिपट जाती है ... कृष्ण उसके सर को सहलाते रहते हैं और रोने देते हैं !
थोड़ी देर में, उसे खुद से अलग करके समीप के पलंग पर बिठा देते हैं ।
*द्रोपती* : यह क्या हो गया *सखा* ??
ऐसा तो मैंने नहीं सोचा था ।
*कृष्ण* : नियति बहुत क्रूर होती है पांचाली..
वह हमारे सोचने के अनुरूप नहीं चलती !
हमारे कर्मों को परिणामों में बदल देती है..
तुम प्रतिशोध लेना चाहती थी और, तुम सफल हुई, द्रौपदी !
तुम्हारा प्रतिशोध पूरा हुआ... सिर्फ दुर्योधन और दुशासन ही नहीं, सारे कौरव समाप्त हो गए !
तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए !
*द्रोपती*: सखा, तुम मेरे घावों को सहलाने आए हो या, उन पर नमक छिड़कने के लिए ?
*कृष्ण* : नहीं द्रौपदी, मैं तो तुम्हें वास्तविकता से अवगत कराने के लिए आया हूं ।
हमारे कर्मों के परिणाम को हम, दूर तक नहीं देख पाते हैं और जब वे समक्ष होते हैं.. तो, हमारे हाथ मे कुछ नहीं रहता ।
*द्रोपती* : तो क्या, इस युद्ध के लिए पूर्ण रूप से मैं ही उत्तरदाई हूं कृष्ण ?
*कृष्ण* : नहीं द्रौपदी तुम स्वयं को इतना महत्वपूर्ण मत समझो...
लेकिन, तुम अपने कर्मों में थोड़ी सी भी दूरदर्शिता रखती तो, स्वयं इतना कष्ट कभी नहीं पाती।
*द्रोपती* : मैं क्या कर सकती थी कृष्ण ?
*कृष्ण*:- 👉जब तुम्हारा स्वयंबर हुआ...
तब तुम कर्ण को अपमानित नहीं करती
और उसे प्रतियोगिता में भाग लेने का
एक अवसर देती तो, शायद परिणाम
कुछ और होते !
👉इसके बाद जब कुंती ने तुम्हें पांच पतियों की पत्नी बनने का आदेश दिया...
तब तुम उसे स्वीकार नहीं करती
तो भी, परिणाम कुछ और होते ।
और
उसके बाद तुमने अपने महल में दुर्योधन को अपमानित किया... वह नहीं करती तो, तुम्हारा चीर हरण नहीं होता... तब भी शायद, परिस्थितियां कुछ और होती ।
हमारे *शब्द* भी हमारे *कर्म* होते हैं द्रोपदी...
और, हमें अपने हर शब्द को बोलने से पहले तोलना बहुत जरूरी होता है... अन्यथा, उसके *दुष्परिणाम* सिर्फ स्वयं को ही नहीं.... अपने पूरे परिवेश को दुखी करते रहते हैं ।
संसार में केवल मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है... जिसका " जहर " उसके " दांतों " में नही,
*"शब्दों " में है...
इसलिए शब्दों का प्रयोग सोच समझकर करिये।
ऐसे शब्द का प्रयोग करिये... जिससे, किसी की भावना को ठेस ना पहुंचे।