बहुत समय पहले की बात है, एक राज्य में एक राजा राज करता था जिसका नाम महाराज विक्रम सिंह था। विक्रम सिंह अपनी वीरता और प्रजा के प्रति न्यायप्रियता के लिए पूरे राज्य में प्रसिद्ध था। राज्य में सुख-शांति थी और प्रजा भी खुशहाल जीवन जी रही थी। परंतु, राजा विक्रम सिंह के महल के भीतर एक गहरी समस्या जन्म ले रही थी जिसे कोई देख नहीं पा रहा था।
राजा का इकलौता पुत्र, युवराज अर्जुन, अपनी युवावस्था में प्रवेश कर चुका था। वह तेजस्वी और वीर था, परंतु उसके भीतर एक कमजोरी थी—उस पर कामवासना का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। उसने अपने जीवन के आनंद और भोग-विलास में इतना लिप्त हो गया था कि वह अपने कर्तव्यों को भूलता जा रहा था। दिन-रात महल में अलग-अलग स्त्रियों के साथ समय बिताना, मनोरंजन करना और सुख-साधनों में लीन रहना ही उसका प्रमुख काम बन गया था।
राजा विक्रम सिंह ने कई बार अर्जुन को समझाया, "बेटा, जीवन में संयम और मर्यादा का पालन करना बहुत जरूरी है। कामवासना एक ऐसा रोग है जो मनुष्य को भीतर से खोखला कर देता है। यह सिर्फ शरीर की क्षणिक संतुष्टि है, जो अंत में तुम्हें विनाश की ओर ले जाएगी। अगर तुमने इसे समय रहते नहीं रोका, तो इसका परिणाम बहुत बुरा होगा।"
अर्जुन ने अपने पिता की बातें सुनीं, लेकिन उसे हल्के में लिया। वह अपने मनोविकारों में इतना उलझ चुका था कि उसे सही और गलत का भान ही नहीं रहा। धीरे-धीरे, उसकी कामवासना ने उसके जीवन के अन्य पहलुओं को भी प्रभावित करना शुरू कर दिया। वह अपने राज्य के कामों में ध्यान नहीं दे पा रहा था, प्रजा की समस्याओं को नजरअंदाज कर रहा था और अपने राजधर्म से दूर होता जा रहा था।
कुछ समय बाद, राजा विक्रम सिंह बीमार पड़ गए और उन्हें महल के कार्यभार अर्जुन को सौंपना पड़ा। लेकिन अर्जुन, जो कामवासना के जाल में फंसा हुआ था, इस बड़ी जिम्मेदारी को निभाने में असमर्थ था। राज्य की हालत बिगड़ने लगी, प्रजा में असंतोष बढ़ने लगा, और शत्रु राज्य ने भी इस मौके का फायदा उठाकर हमला कर दिया।
अर्जुन ने युद्ध में जाने की तैयारी की, परंतु उसका शरीर और मन दोनों ही कमजोर हो चुके थे। कामवासना ने उसकी ऊर्जा और आत्मविश्वास को धीरे-धीरे खत्म कर दिया था। युद्ध के मैदान में अर्जुन अपने शत्रुओं का सामना नहीं कर पाया। उसकी कमजोरी और मानसिक अस्थिरता ने उसे पराजित कर दिया।
राज्य पर शत्रु ने कब्जा कर लिया, और राजा विक्रम सिंह ने यह समाचार सुनते ही प्राण त्याग दिए। महल में हाहाकार मच गया, और अर्जुन को अपनी गलतियों का एहसास होने लगा। उसने अपनी कामवासना को काबू में न रखने के कारण सब कुछ खो दिया था—अपना राज्य, अपनी प्रतिष्ठा, और अपने पिता का विश्वास।
अर्जुन एक दिन राज्य के खंडहरों के पास बैठा अपने बीते हुए जीवन पर विचार कर रहा था। उसे संत की वह बात याद आई जो एक बार उसके पिता ने उसे कही थी, "कामवासना के समान विनाशकारी कोई रोग नहीं है।" अब उसे इस सत्य का पूर्ण रूप से एहसास हो गया था।
वह सोचने लगा, "अगर मैंने समय रहते अपनी कामवासना पर नियंत्रण किया होता, तो आज यह दिन देखने को नहीं मिलता। मैंने अपनी इच्छाओं को अपना मालिक बना लिया, और अब उन्हीं इच्छाओं ने मुझे बर्बाद कर दिया।"
अर्जुन ने अपने आप से वादा किया कि अब वह संयम और मर्यादा का पालन करेगा। उसने अपनी गलतियों से सीखा कि जीवन में इच्छाओं का स्थान होता है, लेकिन उन्हें नियंत्रित करना ही सच्ची समझदारी है। अपनी कामवासना पर विजय पाना ही आत्म विजय है।
इस घटना से अर्जुन को यह महत्वपूर्ण शिक्षा मिली कि कामवासना एक ऐसा रोग है जो यदि समय पर काबू में न किया जाए, तो व्यक्ति का जीवन नष्ट कर सकता है। शरीर की क्षणिक इच्छाओं को पूरा करने के लिए यदि हम अपने कर्तव्यों और आदर्शों को भूल जाते हैं, तो अंततः हमारा पतन अवश्यंभावी है।
अर्जुन ने अपने जीवन में बदलाव किया और संयमित जीवन जीने का प्रण लिया। उसने अपनी प्रजा के प्रति जिम्मेदारी समझी और अपने राज्य को फिर से खड़ा करने के लिए मेहनत की।
इस प्रकार, अर्जुन की कहानी एक महत्वपूर्ण सीख बन गई कि कामवासना के समान विनाशकारी कोई रोग नहीं है। इसे समय रहते नियंत्रित करना ही व्यक्ति को सच्ची सफलता और सुख की ओर ले जा सकता है।
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