एक बार की बात है। एक संत अपने एक शिष्य के साथ किसी नगर की ओर जा रहे थे।
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रास्ते में चलते-चलते रात हो चली थी और तेज बारिश भी हो रही थी। संत और उनका शिष्य कच्ची सड़क पर चुपचाप चले जा रहे थे।
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उनके कपड़े भी कीचड़ से लथपथ हो चुके थे। मार्ग में चलते-चलते संत ने अचानक अपने शिष्य से सवाल किया - 'वत्स, क्या तुम बता सकते हो कि वास्तव में सच्चा साधु कौन होता है ?
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संत की बात सुनकर शिष्य सोच में पड़ गया। उसे तुरंत कोई जवाब नहीं सूझा।
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उसे मौन देखकर संत ने कहा - सच्चा साधु वह नहीं होता, जो अपनी सिद्धियों के प्रभाव से किसी रोगी को ठीक कर दे या पशु-पक्षियों की भाषा समझ ले।
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सच्चा साधु वह भी नहीं होता, जो अपने घर-परिवार से नाता तोड़ पूरी तरह बैरागी बन गया हो या जिसने मानवता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया हो।
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शिष्य को यह सब सुनकर बहुत आश्चर्य हो रहा था। वह तो इन्हीं गुणों को साधुता के लक्षण मानता था।
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उसने संत से पूछा - गुरुदेव, तो फिर सच्चा साधु किसे कहा जा सकता है ?
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इस पर संत ने कहा - वत्स, कल्पना करो कि इस अंधेरी, तूफानी रात में हम जब नगर में पहुंचें और द्वार खटखटाएं।
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इस पर चौकीदार हमसे पूछे - कौन है ? और हम कहें - दो साधु।
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इस पर वह कहे - मुफ्तखोरो ! चलो भागो यहां से। न जाने कहां-कहां से चले आते हैं।
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संत के मुख से ऐसी बातें सुनकर शिष्य की हैरानी बढ़ती जा रही थी।
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संत ने आगे कहा - सोचो, इसी तरह का व्यवहार और जगहों पर भी हो। हमें हर कोई उसी तरह दुत्कारे, अपमानित करे, प्रताड़ित करे।
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इस पर भी यदि हम नाराज न हों, उनके प्रति जरा-सी भी कटुता हमारे मन में आए और हम उनमें भी प्रभु के ही दर्शन करते रहें, तो समझो कि यही सच्ची साधुता है।
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साधु होने का मापदंड है - हर परिस्थिति में समानता और सहजता का व्यवहार।
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इस पर शिष्य ने सवाल किया - लेकिन इस तरह का भाव तो एक गृहस्थ में भी हो सकता है। तो क्या वह भी साधु है ?
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संत ने मुस्कराते हुए कहा - बिलकुल है, जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि सिर्फ घर छोड़कर बैरागी हो जाने से ही कोई साधु नहीं हो जाता।
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साधु वही है, जो साधुता के गुणों को धारण करे। और ऐसा कोई भी कर सकता है।
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