श्रीकृष्ण भगवान द्वारका में रानी सत्यभामा के साथ सिंहासन पर विराजमान थे, निकट ही गरुड़ और सुदर्शन चक्र भी बैठे हुए थे। तीनों के चेहरे पर दिव्य तेज झलक रहा था। बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने श्रीकृष्ण से पूछा कि हे प्रभु, आपने त्रेता युग में राम के रूप में अवतार लिया था, सीता आपकी पत्नी थीं। क्या वे मुझसे भी ज्यादा सुंदर थीं? द्वारकाधीश समझ गए कि सत्यभामा को अपने रूप का अभिमान हो गया है। तभी गरुड़ ने कहा कि भगवान क्या दुनिया में मुझसे भी ज्यादा तेज गति से कोई उड़ सकता है। इधर सुदर्शन चक्र से भी रहा नहीं गया और वह भी कह उठे कि भगवान, मैंने बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजयश्री दिलवाई है। क्या संसार में मुझसे भी शक्तिशाली कोई है? भगवान मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। वे जान रहे थे कि उनके इन तीनों भक्तों को अहंकार हो गया है और इनका अहंकार नष्ट होने का समय आ गया है। ऐसा सोचकर उन्होंने गरुड़ से कहा कि हे गरुड़! तुम हनुमान के पास जाओ और कहना कि भगवान राम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। गरुड़ भगवान की आज्ञा लेकर हनुमान को लाने चले गए। इधर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि देवी आप सीता के रूप में तैयार हो जाएं और स्वयं द्वारकाधीश ने राम का रूप धारण कर लिया। मधुसूदन ने सुदर्शन चक्र को आज्ञा देते हुए कहा कि तुम महल के प्रवेश द्वार पर पहरा दो। और ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई प्रवेश न करे। भगवान की आज्ञा पाकर चक्र महल के प्रवेश द्वार पर तैनात हो गए। गरुड़ ने हनुमान के पास पहुंच कर कहा कि हे वानरश्रेष्ठ! भगवान राम माता सीता के साथ द्वारका में आपसे मिलने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप मेरे साथ चलें। मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर शीघ्र ही वहां ले जाऊंगा। हनुमान ने विनयपूर्वक गरुड़ से कहा, आप चलिए, मैं आता हूं। गरुड़ ने सोचा, पता नहीं यह बूढ़ा वानर कब पहुंचेगा। खैर मैं भगवान के पास चलता हूं। यह सोचकर गरुड़ शीघ्रता से द्वारका की ओर उड़े। पर यह क्या, महल में पहुंचकर गरुड़ देखते हैं कि हनुमान तो उनसे पहले ही महल में प्रभु के सामने बैठे हैं। गरुड़ का सिर लज्जा से झुक गया। तभी श्रीराम ने हनुमान से कहा कि पवन पुत्र तुम बिना आज्ञा के महल में कैसे प्रवेश कर गए? क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं? हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए सिर झुका कर अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकाल कर प्रभु के सामने रख दिया। हनुमान ने कहा कि प्रभु आपसे मिलने से मुझे इस चक्र ने रोका था, इसलिए इसे मुंह में रख मैं आपसे मिलने आ गया। मुझे क्षमा करें। भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे। हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए श्रीराम से प्रश्न किया हे प्रभु! आज आपने माता सीता के स्थान पर किस दासी को इतना सम्मान दे दिया कि वह आपके साथ सिंहासन पर विराजमान है। अब रानी सत्यभामा के अहंकार भंग होने की बारी थी। उन्हें सुंदरता का अहंकार था, जो पलभर में चूर हो गया था। रानी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र व गरुड़ तीनों का गर्व चूर-चूर हो गया था। वे भगवान की लीला समझ रहे थे। तीनों की आंख से आंसू बहने लगे और वे भगवान के चरणों में झुक गए। अद्भुत लीला है प्रभु की। हे परम इस्नेही मित्रो ..जब इन तीनो का अहंकार चूर चूर हो गया तो इन तीनो के सामने हम अपने आपको किस जगह पाते है ...? विचार करना .. |
Friday, February 26, 2016
अहंकार का पतन
Thursday, February 25, 2016
हमारी दृढ़ इच्छाशक्ति का बल
एक नौजवान व्यापारी अपनी लगन और कठोर परिश्रम के चलते शहर
का सबसे धनी और सम्मानित व्यक्ति बन गया। लेकिन धीरे-धीरे वह घमंडी और
लापरवाह हो गया। उसे व्यापार में घाटा हुआ और वह कर्जदार हो गया। एक दिन
हताश और निराश एक पार्क में बैठा था। वहां एक बुजुर्ग ने उसकी चिंता का
कारण पूछा। उसने अपनी पूरी स्थिति बयान कर दी।
यह सुनकर बुजुर्ग बोले,'मुझे तुम सच्चे और ईमानदार व्यक्ति लगते हो। यदि मैं तुम्हें 10 लाख रुपये का ब्याज रहित कर्ज दे दूं तो क्या तुम्हारी समस्या हल हो जाएगी?' युवक बोला,'ऐसा हो जाए तो मैं आजीवन आपका कृतज्ञ रहूंगा।' बुजुर्ग ने युवक को तुरंत 10 लाख रुपये का एक चेक दिया और कहा कि ठीक एक साल बाद हम यहीं मिलेंगे। तुम मुझे मेरी रकम लौटा देना।
युवक ने कृतज्ञ आंखों से उस दयालु व्यक्ति को जाते हुए देखा। उसने घर आकर सोचा कि उस भले व्यक्ति ने उस पर विश्वास करके चेक दिया है। लेकिन इसे वह भुनाएगा नहीं और अपने धन से ही काम चलाएगा। उसका विश्वास किसी भी हालत में टूटने नहीं देगा। वह पूरे आत्मविश्वास से अपने काम में जुट गया। उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति और लगन के चलते उसका काम पहले से भी अच्छा चलने लगा।
निश्चित दिन युवक उसी पार्क में बुजुर्ग के दिए चेक के साथ पहुंच गया। वह व्यक्ति भी आ पहुंचा। परंतु पार्क में पहुंचने पर एक नर्स के साथ आए लोगों ने उसे बताया कि वह बुजुर्ग तो मानसिक रोगी है जो खुद को अमीर बताकर फर्जी चेक बांटता रहता है। युवक समझ गया कि उसकी दृढ़ इच्छाशक्ति और लगन लौटाने में फर्जी चेक का नहीं, आत्मविश्वास का महत्व है।
यह सुनकर बुजुर्ग बोले,'मुझे तुम सच्चे और ईमानदार व्यक्ति लगते हो। यदि मैं तुम्हें 10 लाख रुपये का ब्याज रहित कर्ज दे दूं तो क्या तुम्हारी समस्या हल हो जाएगी?' युवक बोला,'ऐसा हो जाए तो मैं आजीवन आपका कृतज्ञ रहूंगा।' बुजुर्ग ने युवक को तुरंत 10 लाख रुपये का एक चेक दिया और कहा कि ठीक एक साल बाद हम यहीं मिलेंगे। तुम मुझे मेरी रकम लौटा देना।
युवक ने कृतज्ञ आंखों से उस दयालु व्यक्ति को जाते हुए देखा। उसने घर आकर सोचा कि उस भले व्यक्ति ने उस पर विश्वास करके चेक दिया है। लेकिन इसे वह भुनाएगा नहीं और अपने धन से ही काम चलाएगा। उसका विश्वास किसी भी हालत में टूटने नहीं देगा। वह पूरे आत्मविश्वास से अपने काम में जुट गया। उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति और लगन के चलते उसका काम पहले से भी अच्छा चलने लगा।
निश्चित दिन युवक उसी पार्क में बुजुर्ग के दिए चेक के साथ पहुंच गया। वह व्यक्ति भी आ पहुंचा। परंतु पार्क में पहुंचने पर एक नर्स के साथ आए लोगों ने उसे बताया कि वह बुजुर्ग तो मानसिक रोगी है जो खुद को अमीर बताकर फर्जी चेक बांटता रहता है। युवक समझ गया कि उसकी दृढ़ इच्छाशक्ति और लगन लौटाने में फर्जी चेक का नहीं, आत्मविश्वास का महत्व है।
Monday, February 22, 2016
जीवन की सीख
एक बार गोपाल राव अपने बड़े भाई गोविंद राव के साथ कबड्डी
खेल रहे थे। गोविंद राव विरोधी टीम में थे। गोविंद राव कबड्डी खेलते हुए
गोपाल राव के खेमे की तरफ आए और उन्होंने गोपाल राव को इशारा कर के कहा कि
वे उन्हें न पकड़ें और नंबर लेने दें, परंतु गोपाल राव को यह बात ठीक नहीं
लगी। उन्होंने खेल को पूरी न्याय भावना के साथ खेलना उचित समझा और अपने
बड़े भाई गोविंद राव को पकड़ने के लिए पूरी ताकत लगा दी। आखिरकार उन्होंने
उसे पकड़ ही लिया। इस तरह गोविंद राव आउट हो गए।
यह बात गोविंद राव को अच्छी नहीं लगी और उन्होंने घर लौटने पर गोपाल राव से कहा,'गोपाल, जब मैंने तुझे मना किया था कि मुझे मत पकड़ना, तब भी तूने मुझे पकड़ ही लिया। तू मेरा कैसा भाई है रे, जो अपने बड़े भाई की इतनी सी बात भी न मान सका।' गोविंद राव की बात सुनकर गोपाल राव अपने भाई के आगे आकर बोले,'भैया, आपके प्रति मेरे मन में पूरी श्रद्धा है। आप जो भी कहेंगे, वह मैं अवश्य करके दिखाऊंगा, चाहे इसके लिए मुझे अपनी जान की बाजी ही क्यों न लगानी पड़ जाए? किंतु मैं बेईमानी नहीं कर सकता।
खेल भी हमें पूरी ईमानदारी व निष्ठा से खेलना चाहिए क्योंकि खेल-खेल में अपनायी गई भावना ही आगे हमारे विचारों व भावों को पुष्ट करती है। मैं नहीं चाहता कि बड़े होने पर मेरे अंदर झूठ बोलने या गलत कार्य करने की आदत पड़ जाए।' अपने से पांच साल छोटे भाई की बात सुनकर गोविंद राव ने उसी समय अपने को सुधारने का प्रण कर लिया।
यह बात गोविंद राव को अच्छी नहीं लगी और उन्होंने घर लौटने पर गोपाल राव से कहा,'गोपाल, जब मैंने तुझे मना किया था कि मुझे मत पकड़ना, तब भी तूने मुझे पकड़ ही लिया। तू मेरा कैसा भाई है रे, जो अपने बड़े भाई की इतनी सी बात भी न मान सका।' गोविंद राव की बात सुनकर गोपाल राव अपने भाई के आगे आकर बोले,'भैया, आपके प्रति मेरे मन में पूरी श्रद्धा है। आप जो भी कहेंगे, वह मैं अवश्य करके दिखाऊंगा, चाहे इसके लिए मुझे अपनी जान की बाजी ही क्यों न लगानी पड़ जाए? किंतु मैं बेईमानी नहीं कर सकता।
खेल भी हमें पूरी ईमानदारी व निष्ठा से खेलना चाहिए क्योंकि खेल-खेल में अपनायी गई भावना ही आगे हमारे विचारों व भावों को पुष्ट करती है। मैं नहीं चाहता कि बड़े होने पर मेरे अंदर झूठ बोलने या गलत कार्य करने की आदत पड़ जाए।' अपने से पांच साल छोटे भाई की बात सुनकर गोविंद राव ने उसी समय अपने को सुधारने का प्रण कर लिया।
Sunday, February 21, 2016
मन की सुंदरता
उन दिनों प्रख्यात कलाकार माइकल एंजलो की पूरे यूरोप
में चर्चा थी। उनकी लोकप्रियता देखकर एक चित्रकार उनसे बड़ी ईर्ष्या करता
था। वह सोचता था कि लोग उसकी प्रशंसा क्यों नहीं करते? क्यों न वह एक ऐसा
चित्र बनाए, जिसे देखकर लोग माइकल एंजलो को भूल जाएं।
यह सोचकर उस चित्रकार ने एक स्त्री का चित्र बनाना शुरू किया। जब चित्र पूरा हो गया तो उसकी सुंदरता का परीक्षण करने के लिए वह उसे दूर से देखने लगा। उसमें उसे कुछ कमी लगी लेकिन कमी क्या थी, यह समझ में नहीं आया। संयोग से उसी समय माइकल एंजलो उस तरफ से जा रहे थे। उनकी नजर चित्र पर पड़ी। उन्हें वह चित्र बहुत सुंदर लगा लेकिन उन्हें उसकी कमी भी समझ आ गई।
उन्होंने चित्रकार से कहा, 'तुम्हारा चित्र तो बहुत सुंदर है पर इसमें जो कमी रह गई है, वह कुछ खटक रही है।' चित्रकार ने माइकल एंजलो को कभी देखा नहीं था। उसने सोचा, यह कोई कला प्रेमी होगा। उसने कहा,'कमी तो मुझे भी लग रही है।' एंजलो ने कहा, 'क्या आप अपनी कूची देंगे? मैं कोशिश करता हूं।' कूची मिलते ही एंजलो ने चित्र में बनी दोनों आंखों में काली बिंदियां बना दीं। बिंदियों का लगना था कि चित्र सजीव हो उठा।
चित्रकार ने एंजलो से कहा, 'धन्य है! तुमने सोने में सुगंध का काम कर दिया। मेरे चित्र की सुंदरता बढ़ाने वाले तुम हो कौन?' एंजलो ने कहा,'मेरा नाम माइकल एंजलो है।' चित्रकार के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वह बोला, 'क्षमा करें। आपकी उन्नति देखकर मैं जलता था। आपको हराने के लिए ही मैंने यह चित्र बनाया था लेकिन आपकी कला-प्रवीणता और सज्जनता देखकर मैं शर्मिंदा हूं।' माइकल एंजलो ने उसे गले लगा लिया।
यह सोचकर उस चित्रकार ने एक स्त्री का चित्र बनाना शुरू किया। जब चित्र पूरा हो गया तो उसकी सुंदरता का परीक्षण करने के लिए वह उसे दूर से देखने लगा। उसमें उसे कुछ कमी लगी लेकिन कमी क्या थी, यह समझ में नहीं आया। संयोग से उसी समय माइकल एंजलो उस तरफ से जा रहे थे। उनकी नजर चित्र पर पड़ी। उन्हें वह चित्र बहुत सुंदर लगा लेकिन उन्हें उसकी कमी भी समझ आ गई।
उन्होंने चित्रकार से कहा, 'तुम्हारा चित्र तो बहुत सुंदर है पर इसमें जो कमी रह गई है, वह कुछ खटक रही है।' चित्रकार ने माइकल एंजलो को कभी देखा नहीं था। उसने सोचा, यह कोई कला प्रेमी होगा। उसने कहा,'कमी तो मुझे भी लग रही है।' एंजलो ने कहा, 'क्या आप अपनी कूची देंगे? मैं कोशिश करता हूं।' कूची मिलते ही एंजलो ने चित्र में बनी दोनों आंखों में काली बिंदियां बना दीं। बिंदियों का लगना था कि चित्र सजीव हो उठा।
चित्रकार ने एंजलो से कहा, 'धन्य है! तुमने सोने में सुगंध का काम कर दिया। मेरे चित्र की सुंदरता बढ़ाने वाले तुम हो कौन?' एंजलो ने कहा,'मेरा नाम माइकल एंजलो है।' चित्रकार के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वह बोला, 'क्षमा करें। आपकी उन्नति देखकर मैं जलता था। आपको हराने के लिए ही मैंने यह चित्र बनाया था लेकिन आपकी कला-प्रवीणता और सज्जनता देखकर मैं शर्मिंदा हूं।' माइकल एंजलो ने उसे गले लगा लिया।
Friday, February 19, 2016
स्वाभिमान जरूरी
एक बार मेवाड़ के राजा का एक चारण अकबर के दरबार में
पहुंचा। बादशाह का अभिवादन करने से पहले उसने अपनी पगड़ी उतार दी। पगड़ी
उतारकर अभिवादन करने से अकबर को क्रोध आ गया। लेकिन खुद को नियंत्रित करते
हुए उन्होंने कहा,'राजपूत राजा का चारण होने के कारण तुम्हें राजदरबार के
नियम-कायदे की समझ तो होगी ही। तुम्हें पता होगा कि एक चारण को नंगे सिर
बादशाह का अभिवादन नहीं करना चाहिए। फिर तुमने ऐसा क्यों किया?'
चारण बोला,'जहांपनाह, गुस्ताखी माफ हो। मुझे दरबार के इस नियम का ज्ञान है कि एक चारण को राजदरबार में अभिवादन करते समय पगड़ी नहीं उतारनी चाहिए। लेकिन मेरे सिर पर जो पगड़ी है, वह कोई कपड़े की मामूली पगड़ी नहीं है।' अकबर ने पूछा,'क्या इसमें हीरे-जवाहरात जड़े हैं कि सिर झुकाते ही वे छिटक कर गुम हो जाएंगे।' चारण ने कहा,'हुजूर, यह सचमुच बहुमूल्य है।
एक बार मेवाड़ के महाराणा प्रताप ने घास की रोटी खाने पर मजबूर होते हुए भी प्रसन्न होकर मुझे यह पगड़ी भेंट की थी और कहा था कि इसकी लाज रखना। जब जंगलों की खाक छानने और घास की रोटियां खाने के बावजूद महाराणा आपके सामने कभी नतमस्तक नहीं हुए तो उनके द्वारा दी गई पगड़ी को आपके सामने झुकाने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। यदि मैं ऐसा करता तो राणा के स्वाभिमान को चोट पहुंचती।
एक चारण अपनी जान दे सकता है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं कर सकता जिससे कि उसके स्वामी के स्वाभिमान को ठेस पहुंचे।' चारण की बात सुनकर अकबर ने कहा,'मैं तुम्हारे स्वाभिमान को देखकर बहुत खुश हूं।' इसके बाद उन्होंने दरबारियों को आज्ञा दी कि चारण को ढेर सारा इनाम देकर विदा किया जाए।
चारण बोला,'जहांपनाह, गुस्ताखी माफ हो। मुझे दरबार के इस नियम का ज्ञान है कि एक चारण को राजदरबार में अभिवादन करते समय पगड़ी नहीं उतारनी चाहिए। लेकिन मेरे सिर पर जो पगड़ी है, वह कोई कपड़े की मामूली पगड़ी नहीं है।' अकबर ने पूछा,'क्या इसमें हीरे-जवाहरात जड़े हैं कि सिर झुकाते ही वे छिटक कर गुम हो जाएंगे।' चारण ने कहा,'हुजूर, यह सचमुच बहुमूल्य है।
एक बार मेवाड़ के महाराणा प्रताप ने घास की रोटी खाने पर मजबूर होते हुए भी प्रसन्न होकर मुझे यह पगड़ी भेंट की थी और कहा था कि इसकी लाज रखना। जब जंगलों की खाक छानने और घास की रोटियां खाने के बावजूद महाराणा आपके सामने कभी नतमस्तक नहीं हुए तो उनके द्वारा दी गई पगड़ी को आपके सामने झुकाने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। यदि मैं ऐसा करता तो राणा के स्वाभिमान को चोट पहुंचती।
एक चारण अपनी जान दे सकता है, लेकिन ऐसा कुछ नहीं कर सकता जिससे कि उसके स्वामी के स्वाभिमान को ठेस पहुंचे।' चारण की बात सुनकर अकबर ने कहा,'मैं तुम्हारे स्वाभिमान को देखकर बहुत खुश हूं।' इसके बाद उन्होंने दरबारियों को आज्ञा दी कि चारण को ढेर सारा इनाम देकर विदा किया जाए।
Tuesday, February 16, 2016
जो है आज है
एक बार की बात है। फ्रांस में विद्वानों ने नागरिकों से
लेख आमंत्रित किए। सर्वश्रेष्ठ लेख के लिए पुरस्कार की घोषणा की गई थी। एक
लेख नेपोलियन ने भी भेजा था। नेपोलियन के लेख को ही सर्वश्रेष्ठ लेख घोषित
किया गया। कुछ समय बाद जब नेपोलियन सम्राट बन गए, तब वे इस बात को लगभग भूल
चुके थे। नेपोलियन का एक मंत्री था टेलीरांत। उसे इस बात की जानकारी कहीं
से मिल गई कि सम्राट नेपोलियन ने एक लेख लिखा था, जो पुरस्कृत हुआ था। तब
उसने अपने एक विशेष व्यक्ति को भेजकर उस लेख की मूलप्रति मंगवा ली।
एक दिन उसने उस मूलप्रति को सम्राट के सामने रखकर हंसते हुए पूछा, 'सम्राट इस लेख के लेखक को आप जानते हैं?' नेपोलियन उस लेख को देखकर कुछ सोचने लगे। उनकी मुद्रा देख टेलीरांत ने सोचा कि सम्राट खुश होंगे और उसे पुरस्कार देंगे। कुछ देर सोचने के उपरांत सम्राट नेपोलियन ने उस प्रति को अपने हाथ में लिया और उसे लेकर कमरे में जल रही अंगीठी के पास गए। वह कुछ देर उसे देखते रहे और फिर अंगीठी में उस लेख को डाल दिया, जो जल गया।
यह सब टेलीरांत की समझ में नहीं आया। उसने नेपोलियन से पूछा, 'सम्राट इस लेख को आपने क्यों जला दिया?' नेपोलियन का जवाब था, 'यह लेख मेरे एक समय की उपलब्धि थी, लेकिन आज के लिए इसका कोई महत्व नहीं है। इसलिए मैंने इस लेख को जला दिया।' टेलीरांत समझ गया कि देशकाल की परिस्थिति में चिंतन को नया रूप देते रहना चाहिए। ऐसा न हो कि हम पुरानी प्रशंसाओं में ही डूबे रहें।
एक दिन उसने उस मूलप्रति को सम्राट के सामने रखकर हंसते हुए पूछा, 'सम्राट इस लेख के लेखक को आप जानते हैं?' नेपोलियन उस लेख को देखकर कुछ सोचने लगे। उनकी मुद्रा देख टेलीरांत ने सोचा कि सम्राट खुश होंगे और उसे पुरस्कार देंगे। कुछ देर सोचने के उपरांत सम्राट नेपोलियन ने उस प्रति को अपने हाथ में लिया और उसे लेकर कमरे में जल रही अंगीठी के पास गए। वह कुछ देर उसे देखते रहे और फिर अंगीठी में उस लेख को डाल दिया, जो जल गया।
यह सब टेलीरांत की समझ में नहीं आया। उसने नेपोलियन से पूछा, 'सम्राट इस लेख को आपने क्यों जला दिया?' नेपोलियन का जवाब था, 'यह लेख मेरे एक समय की उपलब्धि थी, लेकिन आज के लिए इसका कोई महत्व नहीं है। इसलिए मैंने इस लेख को जला दिया।' टेलीरांत समझ गया कि देशकाल की परिस्थिति में चिंतन को नया रूप देते रहना चाहिए। ऐसा न हो कि हम पुरानी प्रशंसाओं में ही डूबे रहें।
Sunday, February 14, 2016
जीवन में शांति
किसी नगर में एक विद्वान साधु रहता था। लोग उसके पास अपनी
समस्याएं लेकर आते और वहां से प्रसन्न होकर लौटते। एक दिन एक सेठ साधु के
पास आया और बोला,'महाराज, मेरे पास सब कुछ है, फिर भी मन शांत नहीं रहता।
मैं क्या करूं?' साधु कुछ न बोला और उठ कर चल दिया। सेठ भी पीछे-पीछे चल
पड़ा। आश्रम के एक खाली कोने में जाकर साधु ने वहां आग जलाई और धीरे-धीरे
कर उस आग में एक-एक लकड़ी डालता रहा। हर लकड़ी के साथ आग की लौ तेज होती
रही। कुछ देर बाद वह वहां से उठकर वापस अपनी जगह आकर चुपचाप बैठ गया। सेठ
भी साधु के पास आकर बैठ गया।
लेकिन जब साधु ने उससे कुछ भी न कहा तो सेठ हैरान होकर बोला,'महाराज, आपने मेरी समस्या का समाधान तो किया नहीं।' सेठ की बात सुनकर साधु मुस्कराते हुए बोला,'मैं इतनी देर से तुम्हारी समस्या का समाधान ही बता रहा था। शायद तुम समझे नहीं। देखो, हर व्यक्ति के अंदर आग होती है। उसमें प्यार की आहुति डालें तो वह मन को शांति और आनंद देती है। यदि उसमें दिन-रात काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद की लकड़ियां डाली जाती रहें तो वह मन में अशांति उत्पन्न करती हैं, आग को और भड़काती हैं।
जब तक तुम अशांति फैलाने वाले इन तत्वों को आग में डालना बंद नहीं करोगे, तब तक तुम्हारा मन शांत नहीं होगा।' यह सुनकर सेठ की आंखें खुल गईं। वह प्रसन्न मन से साधु को नमस्कार कर अपने घर लौट आया। उसने भविष्य में अपने अंदर की आग में प्यार, करुणा और परोपकार की आहुति डालने का संकल्प कर लिया।
लेकिन जब साधु ने उससे कुछ भी न कहा तो सेठ हैरान होकर बोला,'महाराज, आपने मेरी समस्या का समाधान तो किया नहीं।' सेठ की बात सुनकर साधु मुस्कराते हुए बोला,'मैं इतनी देर से तुम्हारी समस्या का समाधान ही बता रहा था। शायद तुम समझे नहीं। देखो, हर व्यक्ति के अंदर आग होती है। उसमें प्यार की आहुति डालें तो वह मन को शांति और आनंद देती है। यदि उसमें दिन-रात काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद की लकड़ियां डाली जाती रहें तो वह मन में अशांति उत्पन्न करती हैं, आग को और भड़काती हैं।
जब तक तुम अशांति फैलाने वाले इन तत्वों को आग में डालना बंद नहीं करोगे, तब तक तुम्हारा मन शांत नहीं होगा।' यह सुनकर सेठ की आंखें खुल गईं। वह प्रसन्न मन से साधु को नमस्कार कर अपने घर लौट आया। उसने भविष्य में अपने अंदर की आग में प्यार, करुणा और परोपकार की आहुति डालने का संकल्प कर लिया।
Friday, February 12, 2016
सुभाष चंद्र बोस की बुद्धिमानी
सुभाष चंद्र बोस इंग्लैंड में आईसीएस का इंटरव्यू देने
गए। वहां उनका इंटरव्यू लेने वाले सभी अधिकारी अंग्रेज थे। दरअसल, वे
भारतीय को किसी उच्च पद पर नहीं देखना चाहते थे। इसलिए इंटरव्यू में
अजीबो-गरीब प्रश्न पूछकर भारतीयों को नीचा दिखाने का प्रयास करते रहते थे।
सुभाष इंटरव्यू के लिए अंग्रेज अधिकारियों के समक्ष बैठ गए। अधिकारी ने
उन्हें देखकर व्यंग्य से मुस्कराते हुए पूछा,'बताओ, उस छत के पंखे में कुल
कितनी पंखुड़ियां हैं।'
प्रश्न सुनकर सुभाष की नजर पंखे पर चली गई। पंखा काफी तेज गति से चल रहा था। उन्हें पंखे की ओर देखता पाकर अंग्रेज मुस्कराते हुए एक-दूसरे की ओर देखने लगे। तभी दूसरा अंग्रेज बोला,'यदि तुम पंखुड़ियों की सही संख्या नहीं बता पाए तो इस इंटरव्यू में फेल हो जाओगे।' एक और सदस्य बोला,'भारतीयों में बुद्धि होती ही कहां है?' उनकी बातें सुनकर सुभाष निर्भीकता से बोले,'अगर मैंने इसका सही जवाब दे दिया तो आप भी मुझसे दूसरा प्रश्न नहीं पूछ पाएंगे। और साथ ही मेरे सामने यह भी स्वीकार करेंगे कि भारतीय न सिर्फ बुद्धिमान होते हैं बल्कि वे निर्भीकता और धैर्य से हर प्रश्न का हल खोज लेते हैं।'
इसके बाद सुभाष तेजी से अपने स्थान से उठे। उन्होंने चलता पंखा बंद कर दिया और पंखा रुकते ही पंखुड़ियों की संख्या गिन ली। इसके बाद पंखुड़ियों की सही संख्या उन्होंने अधिकारियों को बता दी। सुभाष की विलक्ष्ण बुद्धि, सामयिक सूझबूझ और साहस को देखकर इंटरव्यू बोर्ड के सदस्यों के सिर शर्म से झुक गए। वे फिर उनसे आगे कोई प्रश्न नहीं पूछ पाए। उन्हें इस बात को भी स्वीकार करना पड़ा कि भारतीय साहस, बुद्धिमानी और आत्मविश्वास से हर मुसीबत का हल खोज लेते हैं।
प्रश्न सुनकर सुभाष की नजर पंखे पर चली गई। पंखा काफी तेज गति से चल रहा था। उन्हें पंखे की ओर देखता पाकर अंग्रेज मुस्कराते हुए एक-दूसरे की ओर देखने लगे। तभी दूसरा अंग्रेज बोला,'यदि तुम पंखुड़ियों की सही संख्या नहीं बता पाए तो इस इंटरव्यू में फेल हो जाओगे।' एक और सदस्य बोला,'भारतीयों में बुद्धि होती ही कहां है?' उनकी बातें सुनकर सुभाष निर्भीकता से बोले,'अगर मैंने इसका सही जवाब दे दिया तो आप भी मुझसे दूसरा प्रश्न नहीं पूछ पाएंगे। और साथ ही मेरे सामने यह भी स्वीकार करेंगे कि भारतीय न सिर्फ बुद्धिमान होते हैं बल्कि वे निर्भीकता और धैर्य से हर प्रश्न का हल खोज लेते हैं।'
इसके बाद सुभाष तेजी से अपने स्थान से उठे। उन्होंने चलता पंखा बंद कर दिया और पंखा रुकते ही पंखुड़ियों की संख्या गिन ली। इसके बाद पंखुड़ियों की सही संख्या उन्होंने अधिकारियों को बता दी। सुभाष की विलक्ष्ण बुद्धि, सामयिक सूझबूझ और साहस को देखकर इंटरव्यू बोर्ड के सदस्यों के सिर शर्म से झुक गए। वे फिर उनसे आगे कोई प्रश्न नहीं पूछ पाए। उन्हें इस बात को भी स्वीकार करना पड़ा कि भारतीय साहस, बुद्धिमानी और आत्मविश्वास से हर मुसीबत का हल खोज लेते हैं।
Thursday, February 11, 2016
सरल रास्ता
एक बार एक डाकू गुरु नानक के पास गया और उनके चरणों में गिरकर बोला-'मैं
अपने जीवन से परेशान हो गया हूं। जाने कितनों को मैंने लूटकर दुखी किया है।
मुझे कोई रास्ता बताइए ताकि मैं इस बुराई से बच सकूं।'
गुरु नानक ने बड़े प्रेम से कहा- 'यदि तुम बुराई करना छोड़ दो तो बुराई से बच जाओगे।' गुरु नानक की बात सुनकर डाकू बोला-'अच्छी बात है, मैं कोशिश करूंगा।' यह कहकर वह वापस चला गया। कुछ दिन बीतने के बाद वह फिर उनके पास लौट आया और बोला-'मैंने बुराई छोड़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन छोड़ नहीं पाया। अपनी आदत से मैं लाचार हूं। मुझे कोई अन्य उपाय बताइए।'
गुरु जी बोले-'अच्छा, ऐसा करो कि तुम्हारे मन में जो भी बात उठे, उसे कर डालो, लेकिन रोज-रोज दूसरे लोगों से कह दो।' डाकू को बड़ी खुशी हुई कि इतने बड़े संत ने जो मन में आए, सो कर डालने की आज्ञा दे दी। अब मैं बेधड़क डाका डालूंगा और दूसरों से कह दूंगा। यह तो बहुत आसान है। वह खुशी-खुशी उनके चरण छूकर घर लौट गया। कुछ दिनों बाद डाकू फिर उनके पास जा पहुंचा। गुरु नानक ने पूछा-'अब तुम्हारा क्या हाल है?'
डाकू बोला-'गुरुजी, आपने मुझे जो उपाय बताया था, मैंने उसे बहुत आसान समझा था, लेकिन वह तो निकला बड़ा मुश्किल। बुरा काम करना जितना मुश्किल है तो उससे कहीं अधिक मुश्किल है- दूसरों के सामने उसे कह पाना। इस काम में बहुत ज्यादा कष्ट होता है।' इतना कहकर डाकू चुप हो गया और फिर बोला-' गुरुजी इसलिए अब दोनों में से मैंने आसान रास्ता चुन लिया है। मैंने डाका डालना ही छोड़ दिया है।' गुरु नानक मुस्करा दिए।
गुरु नानक ने बड़े प्रेम से कहा- 'यदि तुम बुराई करना छोड़ दो तो बुराई से बच जाओगे।' गुरु नानक की बात सुनकर डाकू बोला-'अच्छी बात है, मैं कोशिश करूंगा।' यह कहकर वह वापस चला गया। कुछ दिन बीतने के बाद वह फिर उनके पास लौट आया और बोला-'मैंने बुराई छोड़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन छोड़ नहीं पाया। अपनी आदत से मैं लाचार हूं। मुझे कोई अन्य उपाय बताइए।'
गुरु जी बोले-'अच्छा, ऐसा करो कि तुम्हारे मन में जो भी बात उठे, उसे कर डालो, लेकिन रोज-रोज दूसरे लोगों से कह दो।' डाकू को बड़ी खुशी हुई कि इतने बड़े संत ने जो मन में आए, सो कर डालने की आज्ञा दे दी। अब मैं बेधड़क डाका डालूंगा और दूसरों से कह दूंगा। यह तो बहुत आसान है। वह खुशी-खुशी उनके चरण छूकर घर लौट गया। कुछ दिनों बाद डाकू फिर उनके पास जा पहुंचा। गुरु नानक ने पूछा-'अब तुम्हारा क्या हाल है?'
डाकू बोला-'गुरुजी, आपने मुझे जो उपाय बताया था, मैंने उसे बहुत आसान समझा था, लेकिन वह तो निकला बड़ा मुश्किल। बुरा काम करना जितना मुश्किल है तो उससे कहीं अधिक मुश्किल है- दूसरों के सामने उसे कह पाना। इस काम में बहुत ज्यादा कष्ट होता है।' इतना कहकर डाकू चुप हो गया और फिर बोला-' गुरुजी इसलिए अब दोनों में से मैंने आसान रास्ता चुन लिया है। मैंने डाका डालना ही छोड़ दिया है।' गुरु नानक मुस्करा दिए।
Tuesday, February 9, 2016
जैसी करनी वैसी भरनी
एक गांव में रहीम नाम का एक किसान रहता था। वह बड़ा सरल,
मिलनसार और मेहनती था। गांव के सभी लोग उसे पसंद करते थे क्योंकि वह लोगों
की मदद करने को हरदम तैयार रहता था। अपनी मेहनत से उगाई फसल बेचकर वह
अच्छी-खासी कमाई कर लेता था। उसी गांव में दूसरा किसान रफीक भी रहता था।
रफीक और रहीम के खेत पास-पास ही थे। यह बात रफीक को बिलकुल अच्छी नहीं लगती
थी कि सभी गांव वाले रहीम को अच्छा मानते थे। वह रहीम से नफरत करता था।
रहीम तो हमेशा अपने खेतों पर काम करता रहता था, लेकिन रफीक इधर-उधर घूमने में ही समय निकाल देता। वह हमेशा ऐसे मौके की तलाश में रहता था जिससे वह रहीम को नुकसान पहुंचा सके। एक साल रहीम के खेत में बहुत अच्छी फसल पैदा हुई। यह देखकर रफीक को बड़ी जलन हुई। फसल कटने से कुछ दिन पहले एक दिन मौका पाकर उसने रहीम के खेत में आग लगा दी। आग फैलने लगी तो रफीक का खेत भी जलने लगा। गांव वालों को पता चला कि रहीम के खेत में आग लगी है तो वे जी-जान से आग बुझाने में जुट गए।
रहीम की आधी फसल जलने से बच गई, लेकिन रफीक के खेत की ओर चलने वाली तेज हवा और आग ने उसकी पूरी फसल चौपट कर डाली। लोग चाहकर भी रफीक की मदद नहीं कर पाए। यह उसकी लगाई हुई आग का परिणाम था जो उसे ही भुगतना पड़ा। वह अपना सिर पकड़ कर बैठ गया। अब उसकी समझ में आ गया था कि दूसरों के लिए गड्ढा खोदने वाला पहले खुद उसमें गिरता है।
रहीम तो हमेशा अपने खेतों पर काम करता रहता था, लेकिन रफीक इधर-उधर घूमने में ही समय निकाल देता। वह हमेशा ऐसे मौके की तलाश में रहता था जिससे वह रहीम को नुकसान पहुंचा सके। एक साल रहीम के खेत में बहुत अच्छी फसल पैदा हुई। यह देखकर रफीक को बड़ी जलन हुई। फसल कटने से कुछ दिन पहले एक दिन मौका पाकर उसने रहीम के खेत में आग लगा दी। आग फैलने लगी तो रफीक का खेत भी जलने लगा। गांव वालों को पता चला कि रहीम के खेत में आग लगी है तो वे जी-जान से आग बुझाने में जुट गए।
रहीम की आधी फसल जलने से बच गई, लेकिन रफीक के खेत की ओर चलने वाली तेज हवा और आग ने उसकी पूरी फसल चौपट कर डाली। लोग चाहकर भी रफीक की मदद नहीं कर पाए। यह उसकी लगाई हुई आग का परिणाम था जो उसे ही भुगतना पड़ा। वह अपना सिर पकड़ कर बैठ गया। अब उसकी समझ में आ गया था कि दूसरों के लिए गड्ढा खोदने वाला पहले खुद उसमें गिरता है।
Monday, February 8, 2016
निर्मल मन
एक युवा ब्रह्मचारी ने दुनिया के कई देशों में जाकर अनेक
कलाएं सीखीं। एक देश में उसने धनुष बाण बनाने और चलाने का प्रशिक्षण
प्राप्त किया। कुछ दिनों के बाद वह दूसरे देश की यात्रा पर निकल गया। वहां
जहाज बनाए जाते थे, इसलिए उसने जहाज बनाने की कला सीख ली। इसके बाद वह किसी
तीसरे देश में पहुंच गया। वहां वह कई ऐसे लोगों के संपर्क में आया जो घर
बनाने का काम करते थे। इस प्रकार वह सोलह देशों में गया और कई कलाएं सीख कर
अपने घर लौट आया।
वापस आने के बाद वह अहंकार में भरकर लोगों से पूछता-'इस संपूर्ण पृथ्वी पर मुझ जैसा कोई गुणी व्यक्ति नजर आता है?' लोग हैरत से उसे देखते। धीरे-धीरे यह बात भगवान बुद्ध तक भी पहुंची। बुद्ध उसके बारे में सब जानते थे। वह उसकी प्रतिभा से भी परिचित थे। लेकिन वे इस बात से चिंतित हो गए कि कहीं उसका अभिमान उसका नाश ही न कर दे। एक दिन वे एक भिखारी का रूप धरकर, भिक्षा पात्र लिए उसके सामने चले गए। ब्रह्मचारी ने बड़े अभिमान से पूछा-'कौन हो तुम?' बुद्ध बोले-'मैं आत्मविजय का पथिक हूं।'
ब्रह्मचारी ने उनके कहे शब्दों का अर्थ जानना चाहा तो वे बोले-'एक मामूली हथियार निर्माता भी बाण बना लेता है, जहाज का चालक उस पर नियंत्रण रख लेता है, गृह निर्माता भी घर बना लेता है। केवल ज्ञान से कुछ नहीं होने वाला। मनुष्य की वास्तविक उपलब्धि तो है उसका निर्मल मन। अगर मन पवित्र नहीं हुआ तो सारा ज्ञान व्यर्थ है। अहंकार से मुक्त व्यक्ति ही ईश्वर को पा सकता है।' ब्रह्मचारी ने बुद्ध के ये वचन सुने तो उसे अपनी भूल का अहसास हो गया।
वापस आने के बाद वह अहंकार में भरकर लोगों से पूछता-'इस संपूर्ण पृथ्वी पर मुझ जैसा कोई गुणी व्यक्ति नजर आता है?' लोग हैरत से उसे देखते। धीरे-धीरे यह बात भगवान बुद्ध तक भी पहुंची। बुद्ध उसके बारे में सब जानते थे। वह उसकी प्रतिभा से भी परिचित थे। लेकिन वे इस बात से चिंतित हो गए कि कहीं उसका अभिमान उसका नाश ही न कर दे। एक दिन वे एक भिखारी का रूप धरकर, भिक्षा पात्र लिए उसके सामने चले गए। ब्रह्मचारी ने बड़े अभिमान से पूछा-'कौन हो तुम?' बुद्ध बोले-'मैं आत्मविजय का पथिक हूं।'
ब्रह्मचारी ने उनके कहे शब्दों का अर्थ जानना चाहा तो वे बोले-'एक मामूली हथियार निर्माता भी बाण बना लेता है, जहाज का चालक उस पर नियंत्रण रख लेता है, गृह निर्माता भी घर बना लेता है। केवल ज्ञान से कुछ नहीं होने वाला। मनुष्य की वास्तविक उपलब्धि तो है उसका निर्मल मन। अगर मन पवित्र नहीं हुआ तो सारा ज्ञान व्यर्थ है। अहंकार से मुक्त व्यक्ति ही ईश्वर को पा सकता है।' ब्रह्मचारी ने बुद्ध के ये वचन सुने तो उसे अपनी भूल का अहसास हो गया।
Friday, February 5, 2016
सही मार्ग
पांच-छह साल
का एक लड़का एक दिन अपने साथियों के साथ आम के बगीचे में चला गया। वहां
सभी बच्चे आम तोड़ने लगे। लेकिन वह लड़का चुपचाप एक कोने में खड़ा रहा।
साथियों के बहुत उकसाने पर भी उसने आम तो नहीं तोड़े, लेकिन इसी बीच गुलाब
के पौधे पर खिले एक सुंदर फूल पर उसकी दृष्टि पड़ी। गुलाब का वह बड़ा फूल
देखकर उसका मन ललचा उठा। उसने चुपचाप वह फूल तोड़ लिया। ठीक उसी समय बगीचे
का माली वहीं आ धमका।
माली को देख सभी लड़के उड़न छू हो गए। लेकिन वह लड़ा घबराहट में वहीं खड़ा रह गया। माली ने उसे देखते ही पकड़ लिया और पूछा,'बता, कहां है तेरा घर। चल जरा मैं तेरे बाबू जी से तेरी यह करतूत बताकर आता हूं।' माली की यह बात सुनकर लड़का मायूस हो गया। उसने सहमते हुए धीमे स्वर में कहा, 'मेरे पिता जी नहीं हैं।' लड़के का भोला-भाला चेहरा और सरल आंखें देखकर माली बड़ा प्रभावित हुआ। उसने उसे प्यार से समझाया, 'फिर तो तुम्हें ऐसे काम बिल्कुल नहीं करना चाहिए। क्योंकि तुम्हें तो पिटाई से बचाने वाला भी कोई नहीं है। कभी कोई चीज अच्छी लगे तो उसके मालिक से मांग लेनी चाहिए। इस तरह लेना तो चोरी कहलाता है।'
लड़के को लगा जैसे माली के रूप में उसके जीवन को सही दिशा बताने वाला कोई गुरु मिल गया हो। उसने तभी अच्छा इंसान बनने का संकल्प कर लिया। माली की बात को उसने ऐसे गांठ बांध लिया कि उसका जीवन एक मिसाल बन गया। यह लड़का लाल बहादुर शास्त्री था, जो आगे चलकर अपनी सचाई, ईमानदारी, सेवा भावना और कर्तव्यनिष्ठता के बल पर हमारे देश के प्रधानमंत्री बने।
माली को देख सभी लड़के उड़न छू हो गए। लेकिन वह लड़ा घबराहट में वहीं खड़ा रह गया। माली ने उसे देखते ही पकड़ लिया और पूछा,'बता, कहां है तेरा घर। चल जरा मैं तेरे बाबू जी से तेरी यह करतूत बताकर आता हूं।' माली की यह बात सुनकर लड़का मायूस हो गया। उसने सहमते हुए धीमे स्वर में कहा, 'मेरे पिता जी नहीं हैं।' लड़के का भोला-भाला चेहरा और सरल आंखें देखकर माली बड़ा प्रभावित हुआ। उसने उसे प्यार से समझाया, 'फिर तो तुम्हें ऐसे काम बिल्कुल नहीं करना चाहिए। क्योंकि तुम्हें तो पिटाई से बचाने वाला भी कोई नहीं है। कभी कोई चीज अच्छी लगे तो उसके मालिक से मांग लेनी चाहिए। इस तरह लेना तो चोरी कहलाता है।'
लड़के को लगा जैसे माली के रूप में उसके जीवन को सही दिशा बताने वाला कोई गुरु मिल गया हो। उसने तभी अच्छा इंसान बनने का संकल्प कर लिया। माली की बात को उसने ऐसे गांठ बांध लिया कि उसका जीवन एक मिसाल बन गया। यह लड़का लाल बहादुर शास्त्री था, जो आगे चलकर अपनी सचाई, ईमानदारी, सेवा भावना और कर्तव्यनिष्ठता के बल पर हमारे देश के प्रधानमंत्री बने।
Thursday, February 4, 2016
परिवर्तन
एक लड़का सुबह सुबह दौड़ने को जाया करता था | आते जाते वो एक बूढी महिला
को देखता था | वो बूढी महिला तालाब के किनारे छोटे छोटे कछुवों की पीठ को
साफ़ किया करती थी | एक दिन उसने इसके पीछे का कारण जानने की सोची |
वो लड़का महिला के पास गया और उनका अभिवादन कर बोला ” नमस्ते आंटी ! मैं आपको हमेशा इन कछुवों की पीठ को साफ़ करते हुए देखता हूँ आप ऐसा किस वजह से करते हो ?” महिला ने उस मासूम से लड़के को देखा और इस पर लड़के को जवाब दिया ” मैं हर रविवार यंहा आती हूँ और इन छोटे छोटे कछुवों की पीठ साफ़ करते हुए सुख शांति का अनुभव लेती हूँ |” क्योंकि इनकी पीठ पर जो कवच होता है उस पर कचता जमा हो जाने की वजह से इनकी गर्मी पैदा करने की क्षमता कम हो जाती है इसलिए ये कछुवे तैरने में मुश्किल का सामना करते है | कुछ समय बाद तक अगर ऐसा ही रहे तो ये कवच भी कमजोर हो जाते है इसलिए कवच को साफ़ करती हूँ |
यह सुनकर लड़का बड़ा हैरान था | उसने फिर एक जाना पहचाना सा सवाल किया और बोला “बेशक आप बहुत अच्छा काम कर रहे है लेकिन फिर भी आंटी एक बात सोचिये कि इन जैसे कितने कछुवे है जो इनसे भी बुरी हालत में है जबकि आप सभी के लिए ये नहीं कर सकते तो उनका क्या क्योंकि आपके अकेले के बदलने से तो कोई बड़ा बदलाव नहीं आयेगा न |
महिला ने बड़ा ही संक्षिप्त लेकिन असरदार जवाब दिया कि भले ही मेरे इस कर्म से दुनिया में कोई बड़ा बदलाव नहीं आयेगा लेकिन सोचो इस एक कछुवे की जिन्दगी में तो बदल्वाव आयेगा ही न | तो क्यों हम छोटे बदलाव से ही शुरुआत करें
वो लड़का महिला के पास गया और उनका अभिवादन कर बोला ” नमस्ते आंटी ! मैं आपको हमेशा इन कछुवों की पीठ को साफ़ करते हुए देखता हूँ आप ऐसा किस वजह से करते हो ?” महिला ने उस मासूम से लड़के को देखा और इस पर लड़के को जवाब दिया ” मैं हर रविवार यंहा आती हूँ और इन छोटे छोटे कछुवों की पीठ साफ़ करते हुए सुख शांति का अनुभव लेती हूँ |” क्योंकि इनकी पीठ पर जो कवच होता है उस पर कचता जमा हो जाने की वजह से इनकी गर्मी पैदा करने की क्षमता कम हो जाती है इसलिए ये कछुवे तैरने में मुश्किल का सामना करते है | कुछ समय बाद तक अगर ऐसा ही रहे तो ये कवच भी कमजोर हो जाते है इसलिए कवच को साफ़ करती हूँ |
यह सुनकर लड़का बड़ा हैरान था | उसने फिर एक जाना पहचाना सा सवाल किया और बोला “बेशक आप बहुत अच्छा काम कर रहे है लेकिन फिर भी आंटी एक बात सोचिये कि इन जैसे कितने कछुवे है जो इनसे भी बुरी हालत में है जबकि आप सभी के लिए ये नहीं कर सकते तो उनका क्या क्योंकि आपके अकेले के बदलने से तो कोई बड़ा बदलाव नहीं आयेगा न |
महिला ने बड़ा ही संक्षिप्त लेकिन असरदार जवाब दिया कि भले ही मेरे इस कर्म से दुनिया में कोई बड़ा बदलाव नहीं आयेगा लेकिन सोचो इस एक कछुवे की जिन्दगी में तो बदल्वाव आयेगा ही न | तो क्यों हम छोटे बदलाव से ही शुरुआत करें
Wednesday, February 3, 2016
जीवन में ग्रहण करने का महत्व
एक घड़ा पानी से भरा हुआ रखा रहता था। उसके ऊपर एक कटोरी
ढकी रहती थी। घड़ा अपने स्वभाव से परोपकारी था। बर्तन उस घड़े के पास आते,
उससे जल पाने को अपना मुख नवाते। घड़ा प्रसन्नता से झुक जाता और उन्हें
शीतल जल से भर देता। प्रसन्न होकर बर्तन शीतल जल लेकर चले जाते। कटोरी बहुत
दिन से यह सब देख रही थी। एक दिन उससे रहा न गया, तो उसने शिकायत करते हुए
अपने दिल की टीस घड़े से व्यक्त की, 'बुरा न मानो तो एक बात पूछूं?'
'पूछो।' घड़े ने शांत स्वर में उत्तर दिया।
कटोरी ने अपने मन की बात कही, 'मैं देखती हूं कि जो भी बर्तन तुम्हारे पास आता है, तुम उसे अपने जल से भरकर संतुष्ट कर देते हो। मैं सदा तुम्हारे साथ रहती हूं, फिर भी तुम मुझे कभी नहीं भरते। यह मेरे साथ पक्षपात है।' अपने शीतल जल की तरह शांत व मधुर वाणी में घड़े ने उत्तर दिया, 'कटोरी बहन, तुम गलत समझ रही हो।
मेरे काम में पक्षपात जैसा कुछ नहीं। तुम देखती हो कि जब बर्तन मेरे पास आते हैं, तो जल ग्रहण करने के लिए विनीत भाव से झुकते हैं। तब मैं स्वयं उनके प्रति विनम्र होते हुए उन्हें अपने शीतल जल से भर देता हूं। किंतु तुम तो गर्व से भरी हमेशा मेरे सिर पर सवार रहती हो।
जरा विनीत भाव से कभी मेरे सामने झुको, तब फिर देखो कैसे तुम भी शीतल जल से भर जाती हो। नम्रता से झुकना सीखोगी तो कभी खाली नहीं रहोगी। मुझे उम्मीद है कि तुम मेरी बात समझ गई होगी।' कटोरी ने मुस्कराकर कहा, 'आज मैंने ग्रहण करने का गुण सीख लिया।
कटोरी ने अपने मन की बात कही, 'मैं देखती हूं कि जो भी बर्तन तुम्हारे पास आता है, तुम उसे अपने जल से भरकर संतुष्ट कर देते हो। मैं सदा तुम्हारे साथ रहती हूं, फिर भी तुम मुझे कभी नहीं भरते। यह मेरे साथ पक्षपात है।' अपने शीतल जल की तरह शांत व मधुर वाणी में घड़े ने उत्तर दिया, 'कटोरी बहन, तुम गलत समझ रही हो।
मेरे काम में पक्षपात जैसा कुछ नहीं। तुम देखती हो कि जब बर्तन मेरे पास आते हैं, तो जल ग्रहण करने के लिए विनीत भाव से झुकते हैं। तब मैं स्वयं उनके प्रति विनम्र होते हुए उन्हें अपने शीतल जल से भर देता हूं। किंतु तुम तो गर्व से भरी हमेशा मेरे सिर पर सवार रहती हो।
जरा विनीत भाव से कभी मेरे सामने झुको, तब फिर देखो कैसे तुम भी शीतल जल से भर जाती हो। नम्रता से झुकना सीखोगी तो कभी खाली नहीं रहोगी। मुझे उम्मीद है कि तुम मेरी बात समझ गई होगी।' कटोरी ने मुस्कराकर कहा, 'आज मैंने ग्रहण करने का गुण सीख लिया।
Tuesday, February 2, 2016
दुनिया का समस्त ज्ञान
एक बहुत पहुंचे हुए विद्धान थे। उनका एक शिष्य बड़ा
जिज्ञासु प्रवृत्ति का था। वह अधिक से अधिक ज्ञान पाने के लिए प्रयत्नशील
रहता था। एक दिन उसने अपने गुरुजी से प्रश्न किया,'क्या आपको समस्त दुनिया
का ज्ञान है?' गुरु बोले,'नहीं वत्स, ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। वह तो
अपार है। वैसे किसी एक व्यक्ति के लिए विश्व का समस्त ज्ञान प्राप्त करना
संभव भी नहीं है।'
गुरुजी ने समझाया, लेकिन शिष्य हठ कर बैठा, 'गुरुजी, चाहे जो भी हो, मैं तो दुनिया का समस्त ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं। आप मुझ पर कृपा कीजिए और मुझे विश्व का समस्त ज्ञान-कोष दिखला दीजिए।' गुरुजी ने उसे कई तरह से समझाने की कोशिश की, किंतु शिष्य तो अपनी बात पर ही अड़ा रहा। इस पर गुरुदेव ने कुछ देर विचार किया, फिर उसे ले संसार के ज्ञान-ग्रंथों का विशाल भंडार दिखाने चल दिए।
शिष्य गुरुजी की कृपा से कृतज्ञ हो गया। वह उन ज्ञान-ग्रंथों को पढ़ने में लग गया। बरसों बीत गए, किंतु लगातार पढ़ते रहने पर भी अनगिनत ग्रंथ शेष रह गए। उधर उसके गुरुदेव समय के साथ वृद्ध हो चले। लेकिन, शिष्य की ज्ञान-पिपासा शांत ही न होती थी। एक दिन गुरुदेव मृत्यु शैया पर जा पहुंचे। शिष्य ने उनका अंत निकट देख दुख भरे शब्दों में कहा,'गुरुदेव, आप इस प्रकार चले जाएंगे तो मुझे शेष ज्ञान-ग्रंथों का परिचय कौन देगा?'
अब गुरुदेव ने ज्ञान भंडार का रहस्य बताते हुए कहा- 'वत्स, तुमने अब तक जो ज्ञान प्राप्त किया है, वह तो कुछ विशेष नहीं है। ज्ञान-ग्रंथों से करोड़ों गुना ज्ञान तो इस संसार में यों ही बिखरा पड़ा है। लेकिन याद रखो, व्यावहारिक स्तर पर प्राप्त ज्ञान ही सर्वोपरि है। ज्ञान तो अपार है। उसे कितना भी प्राप्त करो, कम ही है। वस्तुतः ज्ञान की कोई सीमा नहीं है।'
गुरुजी ने समझाया, लेकिन शिष्य हठ कर बैठा, 'गुरुजी, चाहे जो भी हो, मैं तो दुनिया का समस्त ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं। आप मुझ पर कृपा कीजिए और मुझे विश्व का समस्त ज्ञान-कोष दिखला दीजिए।' गुरुजी ने उसे कई तरह से समझाने की कोशिश की, किंतु शिष्य तो अपनी बात पर ही अड़ा रहा। इस पर गुरुदेव ने कुछ देर विचार किया, फिर उसे ले संसार के ज्ञान-ग्रंथों का विशाल भंडार दिखाने चल दिए।
शिष्य गुरुजी की कृपा से कृतज्ञ हो गया। वह उन ज्ञान-ग्रंथों को पढ़ने में लग गया। बरसों बीत गए, किंतु लगातार पढ़ते रहने पर भी अनगिनत ग्रंथ शेष रह गए। उधर उसके गुरुदेव समय के साथ वृद्ध हो चले। लेकिन, शिष्य की ज्ञान-पिपासा शांत ही न होती थी। एक दिन गुरुदेव मृत्यु शैया पर जा पहुंचे। शिष्य ने उनका अंत निकट देख दुख भरे शब्दों में कहा,'गुरुदेव, आप इस प्रकार चले जाएंगे तो मुझे शेष ज्ञान-ग्रंथों का परिचय कौन देगा?'
अब गुरुदेव ने ज्ञान भंडार का रहस्य बताते हुए कहा- 'वत्स, तुमने अब तक जो ज्ञान प्राप्त किया है, वह तो कुछ विशेष नहीं है। ज्ञान-ग्रंथों से करोड़ों गुना ज्ञान तो इस संसार में यों ही बिखरा पड़ा है। लेकिन याद रखो, व्यावहारिक स्तर पर प्राप्त ज्ञान ही सर्वोपरि है। ज्ञान तो अपार है। उसे कितना भी प्राप्त करो, कम ही है। वस्तुतः ज्ञान की कोई सीमा नहीं है।'
Monday, February 1, 2016
व्यावहारिक- ज्ञान की शिक्षा
गुरुकुल
में अपनी शिक्षा पूरी करके एक शिष्य अपने गुरु से विदा लेने आया। गुरु ने
कहा- वत्स, यहां रहकर तुमने शास्त्रों का समुचित ज्ञान प्राप्त कर लिया,
किंतु कुछ उपयोगी शिक्षा शेष रह गई है। इसके लिए तुम मेरे साथ चलो।
शिष्य गुरु के साथ चल पड़ा। गुरु उसे गुरुकुल से दूर एक खेत के पास ले गए। वहां एक किसान खेतों को पानी दे रहा था। गुरु और शिष्य उसे गौर से देखते रहे। पर किसान ने एक बार भी उनकी ओर आंख उठाकर नहीं देखा। जैसे उसे इस बात का अहसास ही न हुआ हो कि पास में कोई खड़ा भी है।
वहां से आगे बढ़ते हुए उन्होंने देखा कि एक लुहार भट्ठी में कोयला डाले उसमें लोहे को गर्म कर रहा था। लोहा लाल होता जा रहा था। लुहार अपने काम में इस कदर मगन था कि उसने गुरु-शिष्य की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया।
गुर- ने शिष्य को चलने का इशारा किया। फिर दोनों आगे बढ़े। आगे थोड़ी दूर पर एक व्यक्ति जूता बना रहा था। चमड़े को काटने, छीलने और सिलने में उसके हाथ काफी सफाई के साथ चल रहे थे। गुरु ने शिष्य को वापस चलने को कहा।
शिष्य समझ नहीं सका कि आखिर गुरु का इरादा क्या है? रास्ते में चलते हुए गुरु ने शिष्य से कहा- वत्स, मेरे पास रहकर तुमने शास्त्रों का अध्ययन किया लेकिन व्यावहारिक- ज्ञान की शिक्षा बाकी थी। तुमने इन तीनों को देखा। ये अपने काम में संलग्न थे। अपने काम में ऐसी ही तल्लीनता आवश्यक है, तभी व्यक्ति को सफलता मिलेगी।
शिष्य गुरु के साथ चल पड़ा। गुरु उसे गुरुकुल से दूर एक खेत के पास ले गए। वहां एक किसान खेतों को पानी दे रहा था। गुरु और शिष्य उसे गौर से देखते रहे। पर किसान ने एक बार भी उनकी ओर आंख उठाकर नहीं देखा। जैसे उसे इस बात का अहसास ही न हुआ हो कि पास में कोई खड़ा भी है।
वहां से आगे बढ़ते हुए उन्होंने देखा कि एक लुहार भट्ठी में कोयला डाले उसमें लोहे को गर्म कर रहा था। लोहा लाल होता जा रहा था। लुहार अपने काम में इस कदर मगन था कि उसने गुरु-शिष्य की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया।
गुर- ने शिष्य को चलने का इशारा किया। फिर दोनों आगे बढ़े। आगे थोड़ी दूर पर एक व्यक्ति जूता बना रहा था। चमड़े को काटने, छीलने और सिलने में उसके हाथ काफी सफाई के साथ चल रहे थे। गुरु ने शिष्य को वापस चलने को कहा।
शिष्य समझ नहीं सका कि आखिर गुरु का इरादा क्या है? रास्ते में चलते हुए गुरु ने शिष्य से कहा- वत्स, मेरे पास रहकर तुमने शास्त्रों का अध्ययन किया लेकिन व्यावहारिक- ज्ञान की शिक्षा बाकी थी। तुमने इन तीनों को देखा। ये अपने काम में संलग्न थे। अपने काम में ऐसी ही तल्लीनता आवश्यक है, तभी व्यक्ति को सफलता मिलेगी।
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एक गाँव में एक किसान रहता था. उसका गाँव के बाहर एक छोटा सा खेत था. एक बार फसल बोने के कुछ दिनों बाद उसके खेत में चिड़िया ने घोंसला बना लिया. ...