आखेट की खोज में भटकता विश्वबंधु शवर नील पर्वत की एक
गुफा में जा पहुंचा। वहां भगवान नील-माधव की मूर्ति के दर्शन पाते ही शवर
के हृदय में भक्ति-भावना का स्रोत उमड़ पड़ा और उनका ह्रदय परिवर्तित हो
गया। वह हिंसा छोड़कर भगवान नील माधव की रात-दिन पूजा करने लगे। उन्हीं
दिनों मालव राजा इंद्र प्रद्युम्न किसी अपरिचित तीर्थ में मंदिर बनवाना
चाहते थे। उन्होंने अपनी इस इच्छा को पूर्ण करने के उद्देश्य से, स्थान की
खोज के लिए अपने मंत्री विद्यापति को भेजा।
विद्यापति ने लौटकर राजा को नील पर्वत पर शवर विश्वबंधु द्वारा पूजित भगवान नील माधव की मूर्ति की सूचना दी। यह सुनते ही राजा तुरंत मंदिर बनवाने के लिए वहां पहुंचा। किंतु घोर आश्चर्य, मूर्ति वहां नहीं थी। राजा ने क्रोधित होकर कहा,'विद्यापति तुमने व्यर्थ ही हमारा समय नष्ट किया है। यहां तो मूर्ति ही नहीं है।' विद्यापति ने कहा,'महाराज मैंने स्वयं अपनी आंखों से इसी गुफा में भगवान नील माधव की मूर्ति देखी है। अवश्य ही कोई ऐसी बात हुई है, जिससे भगवान की मूर्ति अंतर्ध्यान हो गई है।
राजन, यह बताइए, आते समय आप क्या सोचते हुए आए हैं?' राजा इंद्र प्रद्युम्न ने बताया, 'मैं सारे रास्ते केवल इतना सोचता आया हूं कि अपने स्पर्श से भगवान की मूर्ति को अपवित्र करने वाले शवर को सबसे पहले भगा दूंगा और कोई अच्छा पुजारी नियुक्त कर दूंगा।' विद्यापति ने बड़ी नम्रता से कहा, 'आपकी इसी भेद-भावना के कारण भगवान रुष्ट होकर चले गए हैं। समदर्शी भगवान जात-पात नहीं, सदैव हृदय की सच्ची निष्ठा ही देखते हैं।' बात समझ में आते ही राजा को अपनी भूल का अहसास हो गया। उन्होंने भगवान से क्षमा मांगी। उनकी स्तुति की और तब उसी स्थान पर प्रसिद्ध जगन्नाथ जी के मंदिर की स्थापना कराई।
विद्यापति ने लौटकर राजा को नील पर्वत पर शवर विश्वबंधु द्वारा पूजित भगवान नील माधव की मूर्ति की सूचना दी। यह सुनते ही राजा तुरंत मंदिर बनवाने के लिए वहां पहुंचा। किंतु घोर आश्चर्य, मूर्ति वहां नहीं थी। राजा ने क्रोधित होकर कहा,'विद्यापति तुमने व्यर्थ ही हमारा समय नष्ट किया है। यहां तो मूर्ति ही नहीं है।' विद्यापति ने कहा,'महाराज मैंने स्वयं अपनी आंखों से इसी गुफा में भगवान नील माधव की मूर्ति देखी है। अवश्य ही कोई ऐसी बात हुई है, जिससे भगवान की मूर्ति अंतर्ध्यान हो गई है।
राजन, यह बताइए, आते समय आप क्या सोचते हुए आए हैं?' राजा इंद्र प्रद्युम्न ने बताया, 'मैं सारे रास्ते केवल इतना सोचता आया हूं कि अपने स्पर्श से भगवान की मूर्ति को अपवित्र करने वाले शवर को सबसे पहले भगा दूंगा और कोई अच्छा पुजारी नियुक्त कर दूंगा।' विद्यापति ने बड़ी नम्रता से कहा, 'आपकी इसी भेद-भावना के कारण भगवान रुष्ट होकर चले गए हैं। समदर्शी भगवान जात-पात नहीं, सदैव हृदय की सच्ची निष्ठा ही देखते हैं।' बात समझ में आते ही राजा को अपनी भूल का अहसास हो गया। उन्होंने भगवान से क्षमा मांगी। उनकी स्तुति की और तब उसी स्थान पर प्रसिद्ध जगन्नाथ जी के मंदिर की स्थापना कराई।