Sunday, May 31, 2015

भविष्य की चिंता



एक सेठ भविष्य को लेकर आशंकित रहता था। शाम को जब वह दुकान से घर लौटता तो भविष्य की संभावित कठिनाइयों को लेकर तिल का ताड़ बनाने लगता। घर के सभी लोगों, खासकर उसकी पत्नी को इससे बहुत परेशानी होती। धीरे-धीरे पत्नी समझ गई कि बेवजह नकारात्मक चिंतन में घुलते रहने की वजह से उसके पति की यह हालत हो रही है। पत्नी ने उसे सुधारने के लिए एक नाटक रचा। एक दिन वह चारपाई पर रोनी सूरत बनाकर पड़ गई। उसने घर का कोई काम भी नहीं किया।

शाम को सेठ जब घर आया और पत्नी को चारपाई पर लेटे देखा तो उसकी चिंता बढ़ गई। उसने पत्नी से उदासी का कारण पूछा। इस पर पत्नी बोली,'नगर में एक पहुंचे हुए ज्योतिषी पधारे हैं। लोग कहते हैं कि वे त्रिकालदर्शी हैं और उनका कहा कभी झूठ नहीं होता। पड़ोसन की सलाह पर आज मैं भी उनसे मिलने गई थी। उन्होंने मेरा हाथ देखकर बताया कि मैं सत्तर बरस तक जियूंगी। मैं यह सोच-सोचकर परेशान हूं कि सत्तर बरस में मैं कितना अनाज खा जाऊंगी...'

यह सुनकर सेठ उसे समझाते हुए बोला-'अरी बावरी, यह सब एक दिन में थोड़े ही होगा। समय के साथ आने और खर्च होने का काम चलता रहेगा। तू व्यर्थ ही चिंता करती है।' यह सुनकर पत्नी ने तुरंत कहा-'आप भी तो रोज भविष्य के बारे में सोच-सोचकर खुद भी परेशान होते हैं और हमें भी परेशान करते हैं। ऐसा क्यों नहीं सोचते कि समयानुसार यदि समस्याएं आएंगी, तो उनका हल भी निकालते रहेंगे।' सेठ को अपनी भूल समझ में आ गई। उसने अपनी दुविधा दूर करने के लिए पत्नी को धन्यवाद दिया।


'सबसे अच्छी चीज दें'

एक बार राम मनोहर लोहिया फर्रूखाबाद से शिकोहाबाद रेल पकड़ने जा रहे थे। रास्ते में एक जगह कव्वाली का आयोजन हो रहा था। आवाज सुनते ही उन्होंने गाड़ी रुकवाई और कव्वाली सुनने चले गए। वहां उन्हें एक व्यक्ति ने पहचान लिया और बोला अरे लोहिया जी आप यहां? फिर धीरे-धीरे सभी ने उन्हें पहचान लिया और काफी लोग वहां उनसे दुआ सलाम करने लगे।

जिस व्यक्ति ने लोहिया जी को सबसे पहले पहचाना था वह बहुत ही गरीब था। उसने जोरदार सर्दी में भी केवल लुंगी और कमीज पहनी हुई थी। डॉक्टर साहब ने उस व्यक्ति से पूछा- तुमने ऊनी कपड़े क्यों नहीं पहने? वह बोला- साहब मैं गरीब आदमी हूं। ऊनी कपड़े नहीं हैं। यह सुनते ही डॉक्टर साहब ने जनेश्वर मिश्र जी से कहा- मेरे बक्स में दो स्वेटर रखे हैं, एक स्वेटर लेकर आओ। जनेश्वर जी ने बक्स खोला तो उसमें एक आधी बाजू की और एक पूरी बाजू की स्वेटर थी। उन्होंने आधी बाजू की स्वेटर ली और लोहिया साहब को दे दी। आधी बाजू की स्वेटर देखते ही लोहिया जी ने कहा- आप फिर जाइए और दूसरी वाली लेकर आइए। इस बार वह पूरी बाजू की स्वेटर लेकर आए और डॉक्टर साहब को दे दी।

डॉक्टर साहब ने आधी बाजू की स्वेटर के बजाय उस व्यक्ति को पूरी बाजू की स्वेटर भेंट कर दी। वह बहुत खुश हो गया और डॉक्टर साहब को दुआएं देने लगा। वहां से निकल आने पर डॉक्टर साहब ने जनेश्वर मिश्र से पूछा- तुमने अपनी गलती महसूस की? देखो, किसी को कभी कुछ देना हो तो अपने पास जो सबसे अच्छी चीज है, वही उसे देनी चाहिए। खराब चीज किसी को कभी नहीं देनी चाहिए।


Saturday, May 30, 2015

सहनशीलता का महामंत्र

जापान के सम्राट यामातो का एक मंत्री था- ओ-चो-सान। उसका परिवार सौहार्द के लिए बड़ा मशहूर था। हालांकि उसके परिवार में लगभग एक हजार सदस्य थे, पर उनके बीच एकता का अटूट संबंध था। उसके सभी सदस्य साथ-साथ रहते और साथ ही खाना खाते थे। इस परिवार के किस्से दूर दूर तक फैल गए। ओ-चो-सान के परिवार के सौहार्द की बात यामातो के कानों तक भी पहुंच गई। सच की जांच करने के लिए एक दिन सम्राट स्वयं अपने इस बुजुर्ग मंत्री के घर तक आ पहुंचे।

स्वागत, सत्कार और शिष्टाचार की साधारण रस्में समाप्त हो जाने के बाद यामातो ने पूछा, 'ओ-चो, मैंने आपके परिवार की एकता और मिलनसारिता की ढेरों कहानियां सुनी हैं। क्या आप बताएंगे कि एक हजार से भी अधिक सदस्यों वाले आपके परिवार में यह सौहार्द और स्नेह संबंध आखिर किस तरह बना हुआ है।' ओ-चो-सान वृद्धावस्था के कारण ज्यादा देर तक बात नहीं कर सकता था। इसलिए उसने अपने पौत्र को संकेत से कलम-दवात और कागज लाने के लिए कहा। जब वह ये चीजें ले आया तो उसने अपने कांपते हाथ से करीबन सौ शब्द लिखकर वह कागज सम्राट को दे दिया।

सम्राट यामातो अपनी उत्सुकता न दबा पाया। उसने फौरन उस कागज को पढ़ना चाहा। देखते ही वह चकित रह गया। दरअसल, उस कागज पर एक ही शब्द को सौ बार लिखा गया था। और वह शब्द था- सहनशीलता। सम्राट को अवाक देख ओ-चो-सान ने कांपती हुई आवाज में कहा, 'मेरे परिवार के सौहार्द का रहस्य बस इसी एक शब्द में निहित है। सहनशीलता का यह महामंत्र ही हमारे बीच एकता का धागा अब तक पिरोए हुए है। इस महामंत्र को जितनी बार दुहराया जाए, कम है।'

Thursday, May 28, 2015

लड़ाई की जड़



एक बार एक बूढ़ा व्यक्ति शहद से भरी मटकी लेकर जा रहा था। रास्ते में उसका पांव एक छोटे से पत्थर पर पड़ा तो वह लड़खड़ाया और थोड़ा शहद टपक गया। बूढ़ा तो आगे चल दिया, मगर शहद पर कई मक्खियां आकर बैठ गईं। मक्खियों को एक गिलहरी ने देखा तो वह फौरन उन पर झपटीं। मक्खियां उड़ गईं। तभी एक बिल्ली ने गिलहरी पर झपट्टा मारा। गिलहरी फौरन भाग गई। तभी एक कुत्ता गुर्राता हुआ बिल्ली की तरफ झपटा। बिल्ली तो भाग गई मगर अचानक एक और कुत्ता वहां आ पहुंचा। दोनों आपस में लड़ने लगे।

इतने में कुत्तों के मालिक भी आ गए और उन्हें शांत करने लगे। लेकिन कुत्ते शांत नहीं हुए तो वे एक दूसरे के कुत्ते को ही पीटने लगे और फिर आपस में ही झगड़ पड़े। बात बढ़ी तो उनके घर वाले और दोस्त भी आ गए। कुछ देर बाद दोनों तरफ के मोहल्ले वाले भी लाठियां लेकर आ डटे। जमकर मारपीट होने लगी। कई लोग जख्मी हो गए।

एक साधु ने एक बुढ़िया से पूछा, 'ये लड़ाई क्यों हो रही है?' बुढ़िया खामोश रही तो साधु ने एक लड़के से पूछा। उसने भी कोई जवाब नहीं दिया। लेकिन जब साधु को लड़ाई की असली वजह पता चली तो उसने भीड़ को शांत होने को कहा। बस, लड़ाई रुक गई। साधु ने पूछा, 'बिना बात समझे लड़ने वाले को आप क्या कहेंगे?' सभी मौन थे। साधु फिर बोला, 'हमारे यहां लड़ाई की जड़ यही है कि लोग जानते नहीं कि वे किस बात पर झगड़ रहे हैं। लड़ाई की जड़ जान लेंगे, तो कभी झगड़ा-फसाद नहीं होगा।' यह सुनकर कुत्तों के मालिकों ने एक दूसरे से क्षमा मांगी।

संकलन: मनीषा शर्मा


Wednesday, May 27, 2015

खोटे सिक्के

एक दिन एक महात्मा किसी राजा के दरबार में बैठे हुए थे। ठीक उसी समय महात्मा जी का एक शिष्य वहां आया और रुआंसा होकर कहने लगा, 'यहां के दुकानदार तो बहुत ही खराब हैं। जब मैं एक सिक्का लेकर सामान खरीदने गया तो उन्होंने कहा कि तुम्हारा सिक्का खोटा है, इसलिए तुम्हें यहां सामान नहीं मिल सकता। तुम महात्मा जी के शिष्य हो, इसलिए छोड़े देते हैं अन्यथा तुम्हें हम दंड दिलाकर ही रहते।'

राजा भी उसकी यह बात सुन रहा था। उसने सिक्का अपने हाथ में लेकर देखा और पूछा, 'यह सिक्का तुम्हें किसने दिया है? क्या तुम्हें मेरे कानून का पता नहीं है। यह तो सचमुच खोटा है और खोटा सिक्का चलाने वाले को मैं सख्त दंड देता हूं। मैं जानता हूं कि तुमने यह नहीं बनाया होगा, पर बताओ यह सिक्का किसने दिया?' इस पर महात्मा ने राजा की बात को रोकते हुए कहा, 'यह सिक्का खोटा है तो क्या हुआ, इस पर राजा की छाप तो बनी ही है।' राजा ने कहा, 'मैं और कुछ नहीं जानता। बस, मेरा सिक्का सच्चा होना चाहिए। मेरी छाप होने पर भी खोटा सिक्का बनाना और चलाना मेरे राज्य में बहुत बड़ा अपराध है।'

इस पर महात्मा बोले, 'राजन, आपका शासन अन्याय से पूरी तरह मुक्त नहीं है। आप निरपराध को सजा देते हैं। युद्ध के नाम पर रक्तपात करते हैं। ऐसा करना क्या खोटा सिक्का चलाने के समान अपराध नहीं है?' राजा महात्मा की बात को तुरंत समझ गया। उसने पूछा, 'तब फिर मुझे अब क्या करना चाहिए।' महात्मा बोले, 'तुम्हें शासन ठीक ढंग से करना चाहिए। जब ऐसा हो जाएगा तभी तुम्हारे शासन में खोटा सिक्का खत्म हो सकेगा।'

सबसे बड़ी कला

एक गांव में एक साधु भिक्षा लेने के लिए गए। घर घर घूमते रहे, पर कुछ न मिला। आखिरकार वे पानी पीकर नदी के किनारे विश्राम करने लगे। नींद खुलते ही फिर सफर शुरू कर दिया। थोड़ी दूर जाकर उन्हें एक कुटिया में एक बुढ़िया नजर आई। उसके घर में आटे का धोवन था। बहुत मांगने पर भी उसने नहीं दिया। साधु अपने आचार्य के पास लौट आए। साधु ने कहा, 'साफ जल बहुत है, पर मिल नहीं रहा है।' भिक्षु- 'क्यों? क्या वह बहन देना नहीं चाहती?' साधु, 'वह जो देना चाहती है, वह आपको ग्राह्य नहीं है और जो ग्राह्य है, उसे वह देना नहीं चाहती।'

भिक्षु- 'उसे धोवन देने में क्या आपत्ति है?' साधु, 'वह कहती है, आदमी जैसा देता है, वैसा ही पाता है। आटे का धोवन दूंगी तो मुझे आगे वही मिलेगा। आप मिठाई ले जाएं, मेरे जीवन में मिठास भरें। ये पानी तो पीने योग्य नहीं है, आप साफ पानी और मिठाई ले जाएं। मैं आपको खाली हाथ नहीं भेजना चाहती। 'यह सुनते ही आचार्य भिक्षु उठे और साधुओं को साथ लेकर उसी बुढ़िया के घर गए। धोवन मांगने पर उसने वही उत्तर दिया जो वह पहले दे चुकी थी।

भिक्षु, 'बहन, तेरे घर में कोई गाय है?' बहन,'हां महाराज है।' भिक्षु,'तू उसे क्या खिलाती है?' बहन, 'चारा, घास।' भिक्षु, 'वह क्या देती है?' बहन, 'दूध।' भिक्षु, 'तब बहन, जैसा देती है, वैसा कहां मिलता है? घास के बदले दूध मिलता है।' सुनते ही बुढ़िया ने जल का पात्र उठाकर सारा जल साधुओं के पात्र में उड़ेल दिया। इस जगत में अनेक कलाएं हैं, लेकिन इन कलाओं में सबसे बड़ी कला है दूसरों के हृदय को छू लेना।

सबसे बड़ी कला

एक गांव में एक साधु भिक्षा लेने के लिए गए। घर घर घूमते रहे, पर कुछ न मिला। आखिरकार वे पानी पीकर नदी के किनारे विश्राम करने लगे। नींद खुलते ही फिर सफर शुरू कर दिया। थोड़ी दूर जाकर उन्हें एक कुटिया में एक बुढ़िया नजर आई। उसके घर में आटे का धोवन था। बहुत मांगने पर भी उसने नहीं दिया। साधु अपने आचार्य के पास लौट आए। साधु ने कहा, 'साफ जल बहुत है, पर मिल नहीं रहा है।' भिक्षु- 'क्यों? क्या वह बहन देना नहीं चाहती?' साधु, 'वह जो देना चाहती है, वह आपको ग्राह्य नहीं है और जो ग्राह्य है, उसे वह देना नहीं चाहती।'

भिक्षु- 'उसे धोवन देने में क्या आपत्ति है?' साधु, 'वह कहती है, आदमी जैसा देता है, वैसा ही पाता है। आटे का धोवन दूंगी तो मुझे आगे वही मिलेगा। आप मिठाई ले जाएं, मेरे जीवन में मिठास भरें। ये पानी तो पीने योग्य नहीं है, आप साफ पानी और मिठाई ले जाएं। मैं आपको खाली हाथ नहीं भेजना चाहती। 'यह सुनते ही आचार्य भिक्षु उठे और साधुओं को साथ लेकर उसी बुढ़िया के घर गए। धोवन मांगने पर उसने वही उत्तर दिया जो वह पहले दे चुकी थी।

भिक्षु, 'बहन, तेरे घर में कोई गाय है?' बहन,'हां महाराज है।' भिक्षु,'तू उसे क्या खिलाती है?' बहन, 'चारा, घास।' भिक्षु, 'वह क्या देती है?' बहन, 'दूध।' भिक्षु, 'तब बहन, जैसा देती है, वैसा कहां मिलता है? घास के बदले दूध मिलता है।' सुनते ही बुढ़िया ने जल का पात्र उठाकर सारा जल साधुओं के पात्र में उड़ेल दिया। इस जगत में अनेक कलाएं हैं, लेकिन इन कलाओं में सबसे बड़ी कला है दूसरों के हृदय को छू लेना।

बुजुर्गों का आशीर्वाद अमर फल समान

एक बार रामानुजम ने अपने पुत्र को कुछ रुपए देकर बाजार से फल खरीदने भेजा। उन्होंने उसे समझाया कि फल बढ़िया और किसी अच्छी दुकान से ही खरीद कर लाए। बाजार में फलों की एक से एक अच्छी दुकान थी। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि कहां से फल खरीदें? कुछ देर बाद जब वह घर लौटा तो उसके पिता यह देखकर हैरान रह गए कि वह खाली हाथ ही घर वापस आ गया है।

रामानुजम ने पुत्र से कहा, 'बेटे, मैंने तुम्हें फल खरीदने भेजा था लेकिन तुम तो फल लिए बिना ही वापस आ गए। ऐसा क्यों?' पुत्र बोला, 'पिताजी मैं खाली नहीं आया। मैं तो अपने साथ एक अमर फल लेकर आया हूं।' पुत्र की बात सुनकर रामानुजम बोले, 'तुम्हें क्या हो गया है? ऐसी बातें क्यों कर रहे हो? भला अमर फल भी कहीं होता है?' पुत्र बोला, 'पिताजी मैं फल खरीदने के लिए बाजार में गया। वहां अच्छी से अच्छी दुकानें सजी हुई थीं। तभी मैंने एक बुजुर्ग को भूख से छटपटाते देखा। मुझसे नहीं देखा गया। मैंने उसे उन पैसों से भोजन करा दिया। भोजन करने के बाद उस बुजुर्ग ने मुझे आशीर्वाद दिया। इससे मुझे बड़ी संतुष्टि हुई। आप ही बताइए कि उस बुजुर्ग का दिल से दिया गया आशीर्वाद क्या किसी अमर फल से कम है?'
जवाब सुनकर पिता हैरान रह गए और उन्होंने उसे गले लगाते हुए कहा, 'बेटा तेरी इस बात ने मुझे बड़ा प्रभावित किया है। एक दिन तू जरूर महान बनेगा।' पिता की बात सच साबित हुई। यही लड़का आगे चलकर दक्षिण भारत का महान संत रंगदास बना।

Monday, May 25, 2015

जो होता है, अच्छे के लिए होता है

अकबर बीरबल – Akbar Birbal 

एक बार शहंशाह अकबर (Akbar) एंव बीरबल (Birbal) शिकार पर गए और वहां पर शिकार करते समय अकबर की अंगुली कट गयी| अकबर को बहुत दर्द हो रहा था| पास में खड़े बीरबल( Birbal ) ने कहा – “कोई बात नहीं शहंशाह, जो भी होता है अच्छे के लिए ही होता है|” अकबर( Akbar ) को बीरबल की इस बात पर क्रोध आ गया और उसने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि बीरबल को महल ले जा कर कारागाह में डाल दिया जाये| सैनिकों ने बीरबल को बंधी बना कर कारागाह में डाल दिया एंव अकबर अकेले ही शिकार पर आगे निकल गए|
रास्ते में आदिवासियों ने जाल बिछा कर शहंशाह अकबर को बंधी बना लिया और अकबर की बली देने के लिए अपने मुखिया के पास ले गए|
जैसे ही मुखिया अकबर की बली चढाने के लिए आगे बढे तो किसी ने देखा कि अकबर की तो अंगुली कटी हुई है अर्थात् वह खंडित है इसलिए उसकी बली नहीं दी जा सकती और उन्होंने अकबर को मुक्त कर दिया| अकबर को अपनी गलती का अहसास हुआ एंव वह तुरंत बीरबल के पास पहुँचा| अकबर (Akbar) ने बीरबल को कारागाह से मुक्त किया एंव उसने बीरबल से माफ़ी मांगी कि उससे बहुत बड़ी भूल हो गयी जो उसने बीरबल (Birbal) जैसे ज्ञानी एंव दूरदृष्टि मित्र को बंधी बनाया| बीरबल ने फिर कहा – जो भी होता है अच्छे के लिए होता है| तो अकबर ने पूछा कि मेरे द्वारा तुमको बंधी बनाने में क्या अच्छा हुआ है?
बीरबल ने कहा, शहंशाह अगर आप मुझे बंधी न बनाते तो में आपके साथ शिकार पर चलता और आदिवासी मेरी बली दे देते| इस तरह बीरबल की यह बात सच हुई की जो भी होता है उसका अंतिम परिणाम अच्छा ही होता है|
दोस्त्तों यह कहानी (Moral Story) साबित करती है कि जो होता है, वह अच्छे के लिए ही होता है (Whatever happens, happens for good)| अच्छे का अर्थ उचित एंव न्यायपूर्ण परिणाम से है| दोस्तों अगर आपको ऐसे व्यक्ति के सम्बन्ध में न्याय करने के लिए बुलाया जाये जिसने कोई बुरा कार्य किया है तो आप क्या करेंगे? आप जरूर उसे ऐसी सजा देंगे या ऐसा कार्य करने को बोलेंगे जिससे कि उसको अपनी गलती का अहसास हो जाये और ऐसा करना ही सबसे न्यायपूर्ण एंव उचित होगा| दोस्तों अब प्रश्न उठता है कि सजा देने में उस व्यक्ति का क्या अच्छा हुआ जिसने कोई बुरा कार्य किया था? सजा देने में उस व्यक्ति का अच्छा ही हुआ है क्योंकि अगर उस व्यक्ति को इस बात का अहसास न हो कि उसने कुछ गलत किया है तो शायद वह व्यक्ति अपना सारा जीवन ऐसे ही बुरे कार्यो में व्यर्थ गँवा दे और जब उसके बाल सफ़ेद हो एंव दांत गिरने लगे तो इस बात पर पछताए की काश किसी ने उस वक्त सही रास्ता दिखा दिया होता तो यह जीवन (Life) व्यर्थ न जाता|

Saturday, May 23, 2015

मेहनत की आदत

एक बार की बात है की एक आदमी जो पेशे से दुकानदार था बड़ा दुखी रहता था क्यूंकी उसका बेटा बहुत आलसी और गेरजिम्मेदार था वह हमेशा दोस्तों के साथ मस्ती करता रहता था | जबकि वह अपने पुत्र को एक मेहनती इंसान बनाना चाहता था | वह काफ़ी बार अपने पुत्र को डाँटता था लेकिन पुत्र उसकी बात पे ध्यान नहीं देता था | एक दिन उसने अपने पुत्र से कहा कि आज तुम घर से बाहर जाओ और शाम तक कुछ अपनी मेहनत से कमा के लाओ नहीं तो आज शाम को खाना नहीं मिलेगा |
लड़का पहुत परेशान हो गया वह रोते हुए अपनी माँ के पास गया और उन्हें रोते हुए सारी बात बताई माँ का दिल पासीज गया और उसने उसे एक सोने का सिक्का दिया कि जाओ और शाम को पिताजी को दिखा देना | लड़के ने वैसे ही किया शाम को जब पिता ने पूछा की क्या कमा कर लाए हो तो उसने वो सोने का सिक्का दिखा दिया| पिता यह देखकर सारी बात समझ गया | उसने पुत्र से वो सिक्का कुएँ मे डालने को कहा, लड़के ने खुशी खुशी सिक्का कुएँ में फेंक दिया | अगले दिन पिता ने माँ को अपने मायके भेज दिया और लड़के को फिर से कमा के लाने को कहा | अबकी बार लड़का रोते हुए बड़ी बहन के पास गया तो बहन ने दस रुपये दे दिए | लड़के ने फिर शाम को पैसे लाकर पिता को दिखा दिए| पिता ने कहा कि जाकर कुएँ में डाल दो लड़के ने फिर डाल दिए |
अब पिता ने बहन को भी उसके ससुराल भेज दिया| अब फिर लड़के से कमा के लाने को कहा| अब तो लड़के के पास कोई चारा नहीं था वह रोता हुआ बाजार गया और वहाँ उसे एक सेठ ने कुछ लकड़ियाँ अपने घर ढोने के लिए कहा और कहा कि बदले में दो रुपये देगा | लड़के ने लकड़ियाँ उठाईं और सेठ के साथ चल पड़ा रास्ते में चलते चलते उसके पैरों में छाले पड़ गये और हाथ पैर भी दर्द करने लगे | शाम को जब पिताजी को दो रुपये दिखाए तो पिता ने फिर कहा की बेटा कुएँ मे डाल दो तो लड़का गुस्सा होते हुए बोला कि मैने इतनी मेहनत से पैसे कमाए हैं और आप कुएँ में डालने को बोल रहे हैं | पिता ने मुस्कुराते हुए कहा कि यही तो मैं तुम्हें सीखाना चाहता था तुमने सोने का सिक्का तो कुएँ में फेंक दिया लेकिन दो रुपये फेंकने में डर रहे हो क्यूंकी ये तुमने मेहनत से कमाएँ हैं |
अबकी बार पिता ने दुकान की चाबी निकल कर बेटे के हाथ में देदी और बोले की आज वास्तव में तुम इसके लायक हुए हो| क्यूंकी आज तुम्हें मेहनत का अहसास हो गया है

सफलता का द्वार- आत्मविश्वास

एक बार एक बिज़नेसमैन जो कल तक एक सफल उद्धोगपति था अचानक किसी परेशानी से उसका बिज़नेस डूब गया और उस पर बैंक का कर्ज़ा भी हो गया और अब उसके पास कोई चारा नहीं बचा था| बैंक और सारे लेनदार उसे लगातार पैसे की भरपाई के लिए बोल रहे थे| अब तो उसे अपनी जिंदगी अंधेरे में नज़र आ रही थी| एक बार सुबह पार्क में घूमते हुए उसे एक बूढ़ा व्यक्ति दिखाई दिया| वो बूढ़ा उसके पास आया और उसे परेशान देखकर उससे परेशानी का कारण पूछा |
बिज़नेसमैन ने सारी परेशानी व्रद्ध को बताई, बूढ़े व्यक्ति ने अपनी जेब से अपनी चेकबुक निकाली और एक चेक साइन कर के उसको दिया और कहा कि इससे तुम अपना बिज़नेस फिर से शुरू कर सकते हो और एक साल बाद मुझे ठीक इसी जगह इसी समय मिलना और मुझे मेरे पैसे वापस कर देना | यह कहते हुए बूढ़ा वहाँ से दूर चला गया| बिज़नेसमैन ने जब अपने हाथ में रखे चेक पर नज़र डाली तो वह हैरान रह गया क्यूंकी वो बूढ़ा कोई मामूली व्यक्ति नहीं था उस चेक पर सर वारेन बफ़ेट(एक मशहूर अमेरिकन उद्धयोगपति) के साइन थे और चेक की रकम थी $500,000| उसको खुद पर यकीन नहीं हुआ कि खुद वारेन बफ़ेट ने आकर मेरी परेशानी हल की है | फिर उसने सोचा की ये रकम बैंक और लेनदारों को देने की बजाए वो पहले अपने बिज़नेस को बचाने के लिए संघर्ष करेगा और इमरजेंसी में ही उस चेक का प्रयोग करेगा |
अब तो बिना किसी डर के वह फिर से अपना बिज़नेस बचाने में जुट गया क्यूंकी उसे पता था कि अगर कोई परेशानी होगी तो मैं चेक की मदद से बच सकता हूँ | बस फिर क्या था उसने जी तोड़ मेहनत की और एक बार फिर से अपने बिज़नेस को वापस खड़ा कर दिया | आज उस बात को एक साल पूरा हो चुका था और वह चेक भी आज तक ऐसे ही सही सलामत था |
अपना वादा पूरा करने के लिए बिज़नेसमैन जब पार्क में गया तो उसे वहाँ वही बूढ़ा व्यक्ति दिखाई दिया| जैसे ही वह उसके पास आया अचानक एक नर्स पीछे से आई और व्रद्ध को पकड़ के ले गयी और कहा कि वह एक पागलख़ाने से भागा हुआ पागल है जो खुद को हमेशा वारेन बफ़ेट बताता है, यह कहकर नर्स व्रद्ध को ले गयी|
अब वह आदमी एक दम आश्चर्य में था क्यूकी वह बूढ़ा ना तो बफ़ेट था और ना ही वह चेक असली था, जिस पर उसे इतना विश्वास था | उसकी आँखों में आँसू छलक आए क्यूकी उसने आज एक नकली रकम की वजह से जागे अपने आत्मविश्वास से आज सफलता प्राप्त कर ली थी जबकि वह पैसा कुछ था ही नहीं |
तो मित्रों, दुनियाँ मे कुछ भी असंभव नहीं है बस अपना आत्मविश्वश जगाने की ज़रूरत है और एक बार जब आप आत्मविश्वास से भरपूर हो जाएँगे तो दुनियाँ की कोई बंदिश आपको नहीं रोक सकती |

हमारे माता पिता

एक बार की बात है एक जंगल में सेब का एक बड़ा पेड़ था| एक बच्चा रोज उस पेड़ पर खेलने आया करता था| वह कभी पेड़ की डाली से लटकता कभी फल तोड़ता कभी उछल कूद करता था, सेब का पेड़ भी उस बच्चे से काफ़ी खुश रहता था| कई साल इस तरह बीत गये|  अचानक एक दिन बच्चा कहीं चला गया और फिर लौट के नहीं आया, पेड़ ने उसका काफ़ी इंतज़ार किया पर वह नहीं आया| अब तो पेड़ उदास हो गया|
काफ़ी साल बाद वह बच्चा फिर से पेड़ के पास आया पर वह अब कुछ बड़ा हो गया था| पेड़ उसे देखकर काफ़ी खुश हुआ और उसे अपने साथ खेलने के लिए कहा| पर बच्चा उदास होते हुए बोला कि अब वह बड़ा हो गया है अब वह उसके साथ नहीं खेल सकता|  बच्चा बोला की अब मुझे खिलोने से खेलना अच्छा लगता है पर मेरे पास खिलोने खरीदने के लिए पैसे नहीं है| पेड़ बोला उदास ना हो तुम मेरे फल तोड़ लो और उन्हें बेच कर खिलोने खरीद लो| बच्चा खुशी खुशी फल तोड़ के ले गया लेकिन वह फिर बहुत दिनों तक वापस नहीं आया| पेड़ बहुत दुखी हुआ|
अचानक बहुत दिनों बाद बच्चा जो अब जवान हो गया था वापस आया, पेड़ बहुत खुश हुआ और उसे अपने साथ खेलने के लिए कहा पर लड़के ने कहा कि वह पेड़ के साथ नहीं खेल सकता अब मुझे कुछ पैसे चाहिए क्यूंकी मुझे अपने बच्चों के लिए घर बनाना है| पेड़ बोला मेरी शाखाएँ बहुत मजबूत हैं तुम इन्हें काट कर ले जाओ और अपना घर बना लो| अब लड़के ने खुशी खुशी सारी शाखाएँ काट डालीं और लेकर चला गया| वह फिर कभी वापस नहीं आया|
बहुत दिनों बात जब वह वापिस आया तो बूढ़ा हो चुका था पेड़ बोला मेरे साथ खेलो पर वह बोला की अब में बूढ़ा हो गया हूँ अब नहीं खेल सकता| पेड़ उदास होते हुए बोला की अब मेरे पास ना फल हैं और ना ही लकड़ी अब में तुम्हारी मदद भी नहीं कर सकता| बूढ़ा बोला की अब उसे कोई सहायता नहीं चाहिए बस एक जगह चाहिए जहाँ वह बाकी जिंदगी आराम से गुजर सके| पेड़ ने उसे अपने जड़ मे पनाह दी और बूढ़ा हमेशा वहीं रहने लगा|
मित्रों इसी पेड़ की तरह हमारे माता पिता भी होते हैं, जब हम छोटे होते हैं तो उनके साथ खेलकर बड़े होते हैं और बड़े होकर उन्हें छोड़ कर चले जाते हैं और तभी वापस आते हैं जब हमें कोई ज़रूरत होती है| धीरे धीरे ऐसे ही जीवन बीत जाता है| हमें पेड़ रूपी माता पिता की सेवा करनी चाहिए नाकी सिर्फ़ उनसे फ़ायदा लेना चाहिए

संघर्ष

जीव विज्ञान के टीचर क्लास में बच्चों को पढ़ा रहे थे कि इल्ली (कोष में बंद तितली का छोटा बच्चा) कैसे एक तितली का पूर्ण रूप लेता है | उन्होनें बताया कि 2 घंटे बाद ये इल्ली अपने कोष से बाहर आने के लिए संघर्ष करेगी | और कोई भी उसकी मदद नहीं करेगा उसको खुद ही कोष से बाहर निकलने के लिए संघर्ष करने देना|
 सारे छात्र उत्सुक्ता से इंतजार करने लगे, ठीक 2 घंटे बाद तितली अपने कोष से बाहर निकालने की कोशिश करने लगी, लेकिन उसे बहुत संघर्ष करना पड़ रहा था| एक छात्र को तितली पर दया आई और उसने अध्यापक की बात को नज़रअंदाज करते हुए उस तितली के बच्चे की मदद की और उसे कोष से बाहर निकाल दिया| लेकिन अचानक बाहर आते ही तितली ने दम तोड़ दिया |टीचर जब कक्षा मे वापस आए और घटना के बारे में पता चला तो उन्होनें छात्रों को समझाया की तितली के बच्चे की मौत प्रकर्ति के नियम तोड़ने की वजह से हुई है | प्रकर्ति का नियम है की तितली का कोष से निकालने के लिए संघर्ष करना उसके पंखों और शरीर को मजबूत और सुद्ृन्ढ बनाता है | लेकिन छात्र की ग़लती की वजह से तितली मर गयी |
ठीक उसी तरह ये बात हम पर भी लागू होती है | बहुत सारे अभिभावक भावनावश अपने बच्चों को संघर्ष करने से बचाते हैं लेकिन वे ये नहीं जानते की ये संघर्ष ही बच्चों को मजबूत बनता है |
तो मित्रों, संघर्ष इंसान को मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत बनता है | जो लोग जीवन में संघर्ष नहीं करते उनके हाथ सिर्फ़ विफलता ही लगती है|

Friday, May 22, 2015

सोच का फ़र्क

एक शहर में एक धनी व्यक्ति रहता था, उसके पास बहुत पैसा था और उसे इस बात पर बहुत घमंड भी था| एक बार किसी कारण से उसकी आँखों में इंफेक्शन हो गया|
आँखों में बुरी तरह जलन होती थी, वह डॉक्टर के पास गया लेकिन डॉक्टर उसकी इस बीमारी का इलाज नहीं कर पाया| सेठ के पास बहुत पैसा था उसने देश विदेश से बहुत सारे नीम- हकीम और डॉक्टर बुलाए| एक बड़े डॉक्टर ने बताया की आपकी आँखों में एलर्जी है| आपको कुछ दिन तक सिर्फ़ हरा रंग ही देखना होगा और कोई और रंग देखेंगे तो आपकी आँखों को परेशानी होगी|
अब क्या था, सेठ ने बड़े बड़े पेंटरों को बुलाया और पूरे महल को हरे रंग सेगने के लिए कहा| वह बोला- मुझे हरे रंग से अलावा कोई और रंग दिखाई नहीं देना चाहिए मैं जहाँ से भी गुजरूँ, हर जगह हरा रंग कर दो|
इस काम में बहुत पैसा खर्च हो रहा था लेकिन फिर भी सेठ की नज़र किसी अलग रंग पर पड़ ही जाती थी क्यूंकी पूरे नगर को हरे रंग से रंगना को संभव ही नहीं था, सेठ दिन प्रतिदिन पेंट कराने के लिए पैसा खर्च करता जा रहा था|
वहीं शहर के एक सज्जन पुरुष गुजर रहा था उसने चारों तरफ हरा रंग देखकर लोगों से कारण पूछा| सारी बात सुनकर वह सेठ के पास गया और बोला सेठ जी आपको इतना पैसा खर्च करने की ज़रूरत नहीं है मेरे पास आपकी परेशानी का एक छोटा सा हल है.. आप हरा चश्मा क्यूँ नहीं खरीद लेते फिर सब कुछ हरा हो जाएगा|
सेठ की आँख खुली की खुली रह गयी उसके दिमाग़ में यह शानदार विचार आया ही नहीं वह बेकार में इतना पैसा खर्च किए जा रहा था|
तो मित्रों, जीवन में हमारी सोच और देखने के नज़रिए पर भी बहुत सारी चीज़ें निर्भर करतीं हैं कई बार परेशानी का हल बहुत आसान होता है लेकिन हम परेशानी में फँसे रहते हैं| तो मित्रों इसे कहते हैं सोच का फ़र्क|

Wednesday, May 20, 2015

स्वास्थ्य ही सबसे बड़ी पूंजी है

एक बार की बात है एक गॉव में एक धनी व्यक्ति रहता था| उसके पास पैसे की कोई कमी नहीं थी लेकिन वह बहुत ज़्यादा आलसी था| अपने सारे काम नौकरों से ही करता था और खुद सारे दिन सोता रहता या अययाशी करता था
वह धीरे धीरे बिल्कुल निकम्मा हो गया था| उसे ऐसा लगता जैसे मैं सबका स्वामी हूँ क्यूंकी मेरे पास बहुत धन है मैं तो कुछ भी खरीद सकता हूँ| यही सोचकर वह दिन रात सोता रहता था| 
किन कहा जाता है की बुरी सोच का बुरा नतीज़ा होता है| बस यही उस व्यक्ति के साथ हुआ| कुछ सालों उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे उसका शरीर पहले से शिथिल होता जा रहा है उसे हाथ पैर हिलाने में भी तकलीफ़ होने लगी
यह देखकर वह व्यक्ति बहुत परेशान हुआ| उसके पास बहुत पैसा था उसने शहर से बड़े बड़े डॉक्टर को बुलाया और खूब पैसा खर्च किया लेकिन उसका शरीर ठीक नहीं हो पाया| वह बहुत दुखी रहने लगा|
एक बार उस गॉव से एक साधु गुजर रहे थे उन्होने उस व्यक्ति की बीमारी के बारे मे सुना| सो उन्होनें सेठ के नौकर से कहा कि वह उसकी बीमारी का इलाज़ कर सकते हैं| यह सुनकर नौकर सेठ के पास गया और साधु के बारे में सब कुछ बताया| अब सेठ ने तुरंत साधु को अपने यहाँ बुलवाया लेकिन साधु ने कहा क़ि वह सेठ के पास नहीं आएँगे अगर सेठ को ठीक होना है तो वह स्वयं यहाँ चलकर आए|
सेठ बहुत परेशान हो गया क्यूंकी वो असहाय था और चल फिर नहीं पता था| लेकिन जब साधु आने को तैयार नहीं हुए तो हिम्मत करके बड़ी मुश्किल से साधु से मिलने पहुचें| पर साधु वहाँ थे ही नहीं| सेठ दुखी मन से वापिस आ गया अब तो रोजाना का यही नियम हो गया साधु रोज उसे बुलाते लेकिन जब सेठ आता तो कोई मिलता ही नहीं था| ऐसे करते करते 3 महीने गुजर गये| अब सेठ को लगने लगा जैसे वह ठीक होता जा रहा है उसके हाथ पैर धीरे धीरे कम करने लगे हैं| अब सेठ की समझ में सारी बात आ गयी की साधु रोज उससे क्यूँ नहीं मिलते थे| लगातार 3 महीने चलने से उसका शरीर काफ़ी ठीक हो गया था|
तब साधु ने सेठ को बताया की बेटा जीवन में कितना भी धन कमा लो लेकिनस्वस्थ शरीर से बड़ा कोई धन नहीं होता|
 तो मित्रों, यही बात हमारे दैनिक जीवन पर भी लागू होती है पैसा कितना भी कमा लो लेकिन स्वस्थ शरीर से बढ़कर कोई पूंजी नहीं होती

लक्ष्य- सफलता का सूत्र

क्या आप एक सफल इंसान बनना चाहते हैं? क्या आप चाहते हैं क़ि दुनिया में आपकी भी एक पहचान हो? यदि हाँ, तो ये article आपके लिए है| सबसे पहले आपसे एक सवाल क्या आपने कोई लक्ष्य बनाया है?
मित्रों, सफलता कोई एक रात का game नहीं है, उसके लिए पूरा जीवन न्योछावर करना पड़ता है|
आज से करीब 40 साल पहले, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में कुछ researchers ने स्टूडेंट्स पर एक छोटा सा रिसर्च किया|
उन्होनें सारे स्टूडेंट्स को एक जगह बुलाया और और उनसे उनके जीवन के लक्ष्य के बारे में पूछा| उन स्टूडेंट्स में एक से एक मेधावी छात्र थे ,कुछ तो काफ़ी विलक्ष्ण थे| लेकिन पूछने पर पता चला की केवल 3% छात्र ऐसे थे जिन्होने अपना एक लक्ष्य बनाया हुआ था|
करीब 20 साल बाद researchers ने फिर फिर से उसी group के स्टूडेंट्स को एक साथ बुलाया और उनसे उनके जीवन के बारे में पूछा|
जब research का रिज़ल्ट सामने आया तो पता चला की जो 3% लोग 20 साल पहले अपना लक्ष्य set कर चुके थे वो आज जीवन में बहुत आगे थे जबकि 97% बचे हुए लोग कहीं ना कहीं आज भी संघर्ष कर रहे थे|
मित्रों ये रिसर्च केवल एक research ना होकर जीवन का एक सत्य था, बिना लक्ष्य के दौड़ने वाले लोग जीवन भर संघर्ष करते रह जाते है लेकिन कुछ प्राप्त नहीं होता|
मुझे उम्मीद है की आपने कहानी को अच्छे से पढ़ा होगा और अगर आप सच में सफल बनना चाहते हैं तो आज ही लक्ष्य बनाएँ और जुट जाए उसे प्राप्त करने में, लगातार मेहनत करिए आप पाएँगे कि आप लगातार अपने लक्ष्य के पास आते जा रहे हैं

मुश्किलों पर विजय

दो व्यक्ति राम और श्याम शहर से कमाकर पैसे लेकर घर लौट रहे थे। अपनी मेहनत से राम ने खूब पैसे कमाए थे, जबकि श्याम कम ही कमा पाया था। श्याम के मन में खोट आ गया। वह सोचने लगा कि किसी तरह राम  का पैसा हड़पने को मिल जाए, तो खूब ऐश से जिंदगी गुजरेगी। रास्ते में  एक उथला  कुआं पड़ा, तो श्याम ने राम को उसमें धक्का दे दिया। राम गढ्डे से बाहर आने का प्रयत्न करने लगा। 
श्याम ने सोचा कि यह ऊपर आ गया, तो  मुश्किल
 हो जाएगी। इसलिए श्याम साथ लिए फावड़े से मिट्टी खोद-खोदकर कुएं में डालने लगा। लेकिन जब राम के ऊपर मिट्टी पड़ती, तो वह अपने पैरों से मिट्टी को नीचे दबा देता और उसके ऊपर चढ़ जाता। मिट्टी डालने के उपक्रम में श्याम इतना थक गया था कि उसके पसीने छूटने लगे। लेकिन तब तक वह कुएं में काफी मिट्टी डाल चुका था और राम उन मिट्टियों पर चढ़ कर  ऊपर आ गया।

अतः जीवन में कई ऐसे क्षण आते हैं, जब बहुत सारी मुश्किलें एक साथ हमारे जीवन में मिट्टी की तरह आ पड़ती हैं। जो व्यक्ति इन मुश्किलों पर विजय प्राप्त कर आगे बढ़ता जाता है उसी की जीत होती है और वही  जीवन में हर बुलंदियों को छूता है।

ये कहानी आपको कैसी लगी अपनी टिप्पणियों के माध्यम से हमें जरुर बताएं। आपकी प्रतिक्रिया एवं सुझाव हमारा उत्साह बढाती है, इसलिए हमें अपने कमेंट्स के माध्यम से ये जरुर बताएं की हिंदी साहित्य मार्गदर्शन पर छापे गए पोस्ट्स आपको कैसे लगते हैं ।

Tuesday, May 19, 2015

मन की शांति

चीन पहुंचे तो हर जगह उनकी चर्चा होने लगी। राजा को पता चला कि उसके राज्य में परम ज्ञानी संत आए हैं, तो वह भी दर्शन के लिए पहुंच गया। अभिवादन के बाद राजा बोला-'कृपया बताएं, मेरा मन कैसे शांत होगा?' बोधिधर्म ने कहा-'अब आप जब भी आएं, अपने मन को भी साथ लेते आएं। कोई उपाय सोचेंगे।' राजा हैरान कि कैसा अजीब संत है, मन साथ लेने को कह रहा है। मन क्या कोई अलग पुर्जा है जिसे उठाकर लाया जा सके? किंतु क्या करता, संत की आज्ञा जो थी।

वह एक दिन फिर बोधिधर्म के पास जा पहुंचा-'भगवन, मन ऐसी वस्तु नहीं है जिसे व्यक्ति अलग रखता हो।' 'तो यह तय हुआ कि मन आप में ही है,' बोधिधर्म ने कहा-'अब आप शांत चित्त होकर आंखें बंद कर बैठ जाएं। फिर खोजें कि मन कहां है। जब उसे ढूंढ लें तो मुझे बता दें कि वह कहां है। मैं उसे शांत कर दूंगा।' राजा शांत चित्त होकर बैठ गया और अपने अंदर मन को ढूंढने लगा।

ज्यों-ज्यों वह अंदर झांकता गया त्यों-त्यों उसमें डूबता गया। उसने ध्यान से देखा कि मन नाम की कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे ढूंढा जा सके। उसे समझ आई कि जो वस्तु है ही नहीं, उसके बारे में कुछ किया ही नहीं जा सकता। यह मात्र एक क्रिया है। राजा ने बोधिधर्म के सामने सिर झुकाकर कहा-'अब मुझे समझ में आ गया कि मेरे विचार की शैली ही मुझे बेचैन किए थी।' बोधिधर्म ने कहा-'जब भी आपको बेचैनी हो, आप विचारों को उलटकर विचार करने की आदत बना लें। सारी ऊर्जा, एक दृष्टि, एक सोच और एक विचार बन जाएगी और मन शांत हो जाएगा।'

Monday, May 18, 2015

खुद को योग्य बनाएं

अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक जार्ज बर्नार्ड शॉ का आरंभिक जीवन बेहद संघर्षपूर्ण था। लेकिन तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने हार नहीं मानी, और धीरे-धीरे सफलता की बुलंदियां छूते गए। एक दिन उन्हें एक कॉलेज के कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया। बर्नार्ड शॉ ने सहजता से आमंत्रण स्वीकार कर लिया और कार्यक्रम के दिन कॉलेज पहुंच गए। उन्हें देखकर कॉलेज के विद्यार्थियों के उत्साह का कोई ठिकाना न रहा। सभी उनकी एक झलक पाने को लालायित हो उठे।

कार्यक्रम समाप्त हुआ तो उनके ऑटोग्राफ लेने वालों की एक अच्छी-खासी भीड़ वहां जमा थी। एक नौजवान ने अपनी ऑटोग्राफ बुक उन्हें देते हुए कहा,'सर, मुझे साहित्य से बहुत लगाव है और मैंने आपकी कई पुस्तकें पढ़ी हैं। मैं अब तक अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया हूं, लेकिन बनाना अवश्य चाहता हूं। इसके लिए आप कोई संदेश देकर अपने हस्ताक्षर कर दें तो बहुत मेहरबानी होगी।' बर्नार्ड शॉ नौजवान की इस बात पर धीमे से मुस्कराए फिर उसके हाथ से ऑटोग्राफ बुक लेकर एक संदेश लिखा और अपने हस्ताक्षर भी कर दिए।

नौजवान ने ऑटोग्राफ बुक खोलकर देखी तो संदेश पर उसकी नजर गई। लिखा था-'अपना समय दूसरों के ऑटोग्राफ इकट्ठा करने में नष्ट न करें, बल्कि खुद को इस योग्य बनाएं कि दूसरे लोग आपके ऑटोग्राफ प्राप्त करने के लिए लालायित रहें।' यह संदेश पढ़कर नौजवान ने उनका अभिवादन किया और बोला,'सर, मैं आपके इस संदेश को जीवन भर याद रखूंगा और अपनी एक अलग पहचान बनाकर दिखाऊंगा।' बर्नार्ड शॉ ने नवयुवक की पीठ थपथपाई और आगे चल पड़े।

Sunday, May 17, 2015

कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता

महान साहित्यकार शेक्सपियर की उम्र उस वक्त बहुत कम थी, जब उनके पिता का देहांत हो गया। इसके बाद अचानक उनके नाजुक कंधों पर पूरे परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी आ गई। इतना भारी काम कैसे हो सकेगा, यह सोचकर वह बहुत उदास रहने लगे। एक दिन बाइबिल पढ़ते समय उनकी नजर एक पंक्ति पर ठहर गई-'कोई काम छोटा-बड़ा नहीं होता। जो दायित्व मिले उसे पूरी निष्ठा व मनोयोग से करो, सफलता तुम्हारे कदम चूमेगी। कठिन परिश्रम ही सफलता का द्वार है।'

इस वाक्य से उन्हें बहुत संबल मिला। उन्होंने काम पाने के लिए खूब भागदौड़ शुरू कर दी। काफी कोशिशों के बाद उन्हें एक नाटक कंपनी में घोड़ों की देखभाल का काम मिला। काम के साथ-साथ शेक्सपियर समय मिलने पर पुस्तकें भी पढ़ते रहते थे। एक नाटककार ने जब उन्हें मनोयोग से पढ़ते हुए देखा तो वह समझ गए कि यह व्यक्ति कुछ अलग तरह का है। शेक्सपियर को नाटक देखना भी बहुत अच्छा लगता था। यह देखकर नाटक कंपनी के मालिक ने एक दिन शेक्सपियर को नाटकों के अंशों को साफ-साफ लिखने का काम सौंप दिया।

दूसरों के नाटकों के अंश लिखते-लिखते शेक्सपियर ने धीरे-धीरे खुद भी लिखने का प्रयास शुरू कर दिया। एक दिन उन्होंने अपनी एक डायरी नाटक कंपनी के मालिक को दिखाई तो उन्होंने शेक्सपियर की पीठ थपथपाते हुए कहा, 'तुम तो बहुत अच्छा लिखते हो, जरा इसे पूरा करके दिखाओ। यदि वह अच्छा लगा तो हमारी नाटक कंपनी इसे मंच पर प्रस्तुत करेगी।' शेक्सपियर का लिखा नाटक काफी पसंद किया गया। उनके लेखन की हर जगह प्रशंसा होने लगी। बस फिर क्या था, शेक्सपियर अपनी लगन और प्रतिभा के बल पर अंग्रेजी के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकारों में गिने जाने लगे।

मित्रता की कसौटी

एक बार दो युवकों में परिचय हुआ। धीरे-धीरे वे एक-दूसरे के घर भी आने-जाने लगे। एक मित्र के घर में शादी हुई तो उसने अपने नए दोस्त को भी आमंत्रित किया। लेकिन मेहमान मित्र की आवभगत में कमी रह गई। खाने-पीने की कमी न थी, लेकिन पूछताछ और अपेक्षित शिष्टाचार व औपचारिकता का निर्वाह नहीं हो पाया। आमंत्रित करने वाला मित्र बीमार हो गया था। मेहमान मित्र ने स्वयं को थोड़ा उपेक्षित और अपमानित महसूस किया।

घर लौटकर उसने इस मित्र को व्यंग्यात्मक लहजे में एक पत्र लिखा- 'विवाह वाले दिन आपकी तबीयत खराब थी, सो मेहमानों की ठीक से देखभाल भी नहीं कर पाए। खैर, अब आपकी तबीयत कैसी है?' कुछ दिनों बाद उत्तर आया। लिखा था- मित्र, विवाह में सैकड़ों रिश्तेदार और मित्र आए, पर किसी ने भी मेरी चिंता नहीं की। किसी ने भी मेरे स्वास्थ्य के बारे में नहीं पूछा। बस मित्र, तुम एकमात्र ऐसे व्यक्ति हो जिसने मेरा हालचाल जानने के लिए पत्र लिखा। मैं आभारी हूं और तुम जैसा मित्र पाकर धन्य भी। उस दिन तो हाल कुछ ठीक नहीं था। अस्वस्थ होने के कारण तुम्हारा अपेक्षित आदर-सत्कार भी न कर सका। पत्र मिलते ही किसी दिन आने का कार्यक्रम बनाओ। बैठकर गपशप करेंगे।

यह पत्र पढ़कर मित्र के सारे गिले-शिकवे दूर हो गए। उसे लगने लगा कि शायद स्वयं वही गलती पर था। कई बार हम किसी की विवशता को समझे बिना ही व्यर्थ के दोषारोपण करने लगते हैं। मित्रता की कसौटी एक-दूसरे से अपेक्षाएं रखना नहीं, एक दूसरे की अपेक्षाओं पर खरा उतरना है। जिस दिन आचरण में यह चीज आ जाती है, असल मित्रता उसी दिन से शुरू होती है।

Saturday, May 16, 2015

बुजुर्गों का आशीर्वाद अमर फल समान

एक बार रामानुजम ने अपने पुत्र को कुछ रुपए देकर बाजार से फल खरीदने भेजा। उन्होंने उसे समझाया कि फल बढ़िया और किसी अच्छी दुकान से ही खरीद कर लाए। बाजार में फलों की एक से एक अच्छी दुकान थी। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि कहां से फल खरीदें? कुछ देर बाद जब वह घर लौटा तो उसके पिता यह देखकर हैरान रह गए कि वह खाली हाथ ही घर वापस आ गया है।
रामानुजम ने पुत्र से कहा, 'बेटे, मैंने तुम्हें फल खरीदने भेजा था लेकिन तुम तो फल लिए बिना ही वापस आ गए। ऐसा क्यों?' पुत्र बोला, 'पिताजी मैं खाली नहीं आया। मैं तो अपने साथ एक अमर फल लेकर आया हूं।' पुत्र की बात सुनकर रामानुजम बोले, 'तुम्हें क्या हो गया है? ऐसी बातें क्यों कर रहे हो? भला अमर फल भी कहीं होता है?' पुत्र बोला, 'पिताजी मैं फल खरीदने के लिए बाजार में गया। वहां अच्छी से अच्छी दुकानें सजी हुई थीं। तभी मैंने एक बुजुर्ग को भूख से छटपटाते देखा। मुझसे नहीं देखा गया। मैंने उसे उन पैसों से भोजन करा दिया। भोजन करने के बाद उस बुजुर्ग ने मुझे आशीर्वाद दिया। इससे मुझे बड़ी संतुष्टि हुई। आप ही बताइए कि उस बुजुर्ग का दिल से दिया गया आशीर्वाद क्या किसी अमर फल से कम है?'
जवाब सुनकर पिता हैरान रह गए और उन्होंने उसे गले लगाते हुए कहा, 'बेटा तेरी इस बात ने मुझे बड़ा प्रभावित किया है। एक दिन तू जरूर महान बनेगा।' पिता की बात सच साबित हुई। यही लड़का आगे चलकर दक्षिण भारत का महान संत रंगदास बना।


                           असफलता से सबक


नोबेल पुरस्कार विजेता कथाकार अर्नेस्ट हेमिंग्वे बचपन में बड़े हंसोड़ और नटखट थे। पढ़ने-लिखने में भी तेज थे और ईश्वर ने उन्हें गजब की कल्पना शक्ति भी दी थी। एक बार उनके शिक्षक ने बच्चों से कहानी लिखने को कहा। कहानी लिखने के लिए एक महीने का समय दिया। हेमिंग्वे ने सोचा, कहानी लिखने के लिए एक महीने की क्या जरूरत है। यह तो एकाध घंटे में ही लिखी जा सकती है।

दिन गुजरते जा रहे थे, पर वह खेलकूद में ही मस्त रहे। उनकी बहन ने कई बार कहानी लिखने की याद दिलाई, लेकिन हर बार वह यही कहकर टालते रहे कि कहानी तो एक घंटे में लिख देंगे। कहानी जमा करने के दिन से ठीक पहले की रात को भी हेमिंग्वे की बहन ने उन्हें कहानी की याद दिलाई, पर उन्हें नींद आ रही थी। कहानी सुबह लिख लूंगा, सोचकर वह सो गए। सुबह उठकर उन्होंने हड़बड़ाहट में लिखना शुरू किया। कहानी तो पूरी कर ली, मगर वह उससे संतुष्ट नहीं हुए।
उन्हें लग रहा था कि कहानी में भाषा और कथा सूत्रों में सुधार की जरूरत है। समय की कमी के कारण वह चाहकर भी सुधार नहीं कर सकते थे। इसलिए उन्होंने बिना सुधारे ही अधूरे मन से कहानी शिक्षक को सौंप दी। बहरहाल, पुरस्कार किसी और छात्र को मिला। हेमिंग्वे बहुत निराश होकर घर लौटे तो उनकी बहन ने कहा,'हर काम अंतिम क्षणों में निपटाने की आदत के कारण ही तुम्हें पुरस्कार नहीं मिला। इस असफलता से सबक लो और हर काम नियम से समय पर करने की आदत डालो।'
हेमिंग्वे ने बहन की सलाह को अपना आदर्श बना लिया। आज पूरी दुनिया उन्हें एक श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में याद करती है।

Sunday, May 10, 2015

सफलता का सूत्र

सफलता का सूत्र
एक दिन राजा रामदत्त शिकार के लिए जंगल गए। वहां एक हिरन के पीछे उन्होंने अपना घोड़ा दौड़ाया। हिरन जंगल से निकलकर पहाड़ी की ओर भाग निकला। राजा उसके पीछे-पीछे चलते हुए अचानक एक पहाड़ी गांव में जा पहुंचे। वहां वह एक मूर्तिकार को मूर्तियां बनाते देख ठिठक गए। इतनी सुंदर मूर्तियां उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थीं। राजा ने मूर्तिकार से कहा,'मैं चाहता हूं कि तुम मेरी भी एक सुंदर मूर्ति बना दो।'
मूर्तिकार ने कहा-'ठीक है महाराज। मैं आपकी मूर्ति अवश्य बनाऊंगा।' उसने राजा की मूर्ति बनाने का काम शुरू कर दिया। कई दिन बीत गए पर मूर्ति तैयार नहीं हुई। मूर्तिकार रोज मूर्ति बनाता और उसे तोड़ देता, फिर बनाता और फिर तोड़ देता। लेकिन जैसी मूर्ति वह बनाना चाहता था, वैसी उससे बन नहीं पा रही थी। अंत में वह निराश होकर मूर्तियों के पास ही बैठ गया। अचानक उसकी नजर दीवार पर चढ़ रही एक चीटीं पर पड़ी जो बार-बार गिरी जा रही थी। वह चींटी दरअसल, एक गेहूं के दाने को दीवार के उस पार ले जाना चाहती थी।
मूर्तिकार यह दृश्य बड़े गौर से देख रहा था। चींटी बार-बार गिरने पर भी प्रयास में लगी हुई थी। आखिरकार चींटी को सफलता मिल ही गई और वह दीवार के उस पार चली गई। यह दृश्य देख मूर्तिकार ने सोचा- जब यह छोटी-सी चींटी निरंतर प्रयास से सफलता पा सकती है तो फिर मैं सफल क्यों नहीं हो सकता। मूर्तिकार को सफलता का सूत्र मिल चुका था। मूर्तिकार फिर से राजा की मूर्ति बनाने में जुट गया। इस बार मूर्ति बिलकुल उसकी कल्पना के अनुरूप बनी। राजा रामदत्त ने जब अपनी सजीव मूर्ति देखी तो बड़े खुश हुए।

सफलता का सूत्र

एक बार एक लड़का परीक्षा में फेल हो गया। साथियों ने उसके फेल होने का खूब मजाक बनाया। वह बरर्दाश्त नहीं कर पाया और घर लौटकर तनाव में डूब गया। उसके माता-पिता ने उसे बहुत समझाया- 'बेटा, फेल होना इतनी बड़ी असफलता नहीं है कि तुम इतने परेशान हो जाओ और आगे के जीवन पर प्रश्नचिन्ह लगा बैठो। जब तक इंसान अच्छे-बुरे, सफलता-असफलता के दौर से खुद नहीं गुजरता, तब तक वह बड़े काम नहीं कर सकता।' लेकिन उसे उनकी बातों से संतुष्टि नहीं हुई। अशांति और निराशा में जब उसे कुछ नहीं सूझा और रात में वह आत्महत्या करने लिए चल दिया। रास्ते में उसे एक बौद्ध मठ दिखाई दिया। वहां से कुछ आवाजें आ रही थीं। वह उत्सुकतावश बौद्ध मठ के अंदर चला गया।

वहां उसने सुना, एक भिक्षुक कह रहा था-'पानी मैला क्यों नहीं होता? क्योंकि वह बहता है। उसके मार्ग में बाधाएं क्यों नहीं आतीं? क्योंकि वह बहता रहता है। पानी का एक बिंदु झरने से नदी, नदी से महानदी और फिर समुद्र क्यों बन जाता है? क्योंकि वह बहता है। इसलिए मेरे जीवन तुम रुको मत, बहते रहो। कुछ असफलताएं आती हैं पर तुम उनसे घबराओ मत। उन्हें लांघकर मेहनत करते चलो। बहना और चलना ही जीवन है। असफलता से घबराकर रुक गए तो उसी तरह सड़ जाओगे जैसे रुका हुआ पानी सड़ जाता है।'

यह सुनकर लड़के ने मन में यह ठान लिया कि उसे भी बहते जल की तरह बनना है। इसी सोच के साथ वह घर की ओर मुड़ गया। अगले दिन वह सामान्य होकर स्कूल की ओर चल दिया। बाद में वह वियतनाम के राष्ट्रनायक हो ची मिन्ह के नाम से जाना गया।


पश्चिम जर्मनी के एक नगर में जाइगर नाम का युवक नौकरी की तलाश में था। उसे एक मोटर कंपनी में सफाई का काम मिल गया। वह उसे इतनी निष्ठा और मुस्तैदी के साथ करने लगा कि मालिक के चहेतों में शामिल हो गया। उसके प्रति मालिक का यह भरोसा देख बाकी कर्मचारी उससे जलने लगे। उन्होंने चालबाजी से उसे झूठे इल्जाम में फंसा दिया। पकड़े जाने पर उसे जेल की सजा काटनी पड़ी।

जेल में उसका एक गिरोह तैयार हो गया। यह गिरोह जेल से बाहर निकलने के बाद डकैती डालने लगा। जल्द ही जाइगर दोबारा पकड़ लिया गया। उसे फिर जेल की सजा हो गई। दूसरी बार जब वह जेल पहुंचा तो उसे आत्मग्लानि और पश्चाताप होने लगा। ऐसे ही किन्हीं क्षणों में उसने साबुन के रैपर पर अपनी व्यथा एक कविता के रूप में लिख डाली। उसकी कविता एक दिन अनायास जेल के पादरी के हाथ लग गई। पादरी को लगा कि इस व्यक्ति का विकास और सुधार इसी रचनात्मक रास्ते से किया जा सकता है।

उसने जेल के अधिकारियों से आग्रह करके जाइगर के लिए लिखने के साजो सामान का इंतजाम करवा दिया। यह देखकर जाइगर का मन रम गया। उसने जेल में एक उपन्यास लिखना शुरू कर दिया। जब वह जेल से बाहर आया तो उसने मजदूरी शुरू कर दी। लेकिन मजदूरी करते हुए भी वह समय मिलने पर उपन्यास लिखता रहा। उसका वह उपन्यास 'दि फोर्टेस' के नाम से प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास ने उसे पूरे जर्मनी में मशहूर कर दिया। एक सजायाफ्ता से एक प्रसिद्ध लेखक बनना मनुष्य की असीम संभावनाओं की कहानी है। हममें से प्रत्येक में ये संभावनाएं निहित हैं। जरूरत है, बस कोशिश करके उन्हें साकार करने की।


सहनशीलता का महामंत्र


जापान के सम्राट यामातो का एक मंत्री था- ओ-चो-सान। उसका परिवार सौहार्द के लिए बड़ा मशहूर था। हालांकि उसके परिवार में लगभग एक हजार सदस्य थे, पर उनके बीच एकता का अटूट संबंध था। उसके सभी सदस्य साथ-साथ रहते और साथ ही खाना खाते थे। इस परिवार के किस्से दूर दूर तक फैल गए। ओ-चो-सान के परिवार के सौहार्द की बात यामातो के कानों तक भी पहुंच गई। सच की जांच करने के लिए एक दिन सम्राट स्वयं अपने इस बुजुर्ग मंत्री के घर तक आ पहुंचे।

स्वागत, सत्कार और शिष्टाचार की साधारण रस्में समाप्त हो जाने के बाद यामातो ने पूछा, 'ओ-चो, मैंने आपके परिवार की एकता और मिलनसारिता की ढेरों कहानियां सुनी हैं। क्या आप बताएंगे कि एक हजार से भी अधिक सदस्यों वाले आपके परिवार में यह सौहार्द और स्नेह संबंध आखिर किस तरह बना हुआ है।' ओ-चो-सान वृद्धावस्था के कारण ज्यादा देर तक बात नहीं कर सकता था। इसलिए उसने अपने पौत्र को संकेत से कलम-दवात और कागज लाने के लिए कहा। जब वह ये चीजें ले आया तो उसने अपने कांपते हाथ से करीबन सौ शब्द लिखकर वह कागज सम्राट को दे दिया।

सम्राट यामातो अपनी उत्सुकता न दबा पाया। उसने फौरन उस कागज को पढ़ना चाहा। देखते ही वह चकित रह गया। दरअसल, उस कागज पर एक ही शब्द को सौ बार लिखा गया था। और वह शब्द था- सहनशीलता। सम्राट को अवाक देख ओ-चो-सान ने कांपती हुई आवाज में कहा, 'मेरे परिवार के सौहार्द का रहस्य बस इसी एक शब्द में निहित है। सहनशीलता का यह महामंत्र ही हमारे बीच एकता का धागा अब तक पिरोए हुए है। इस महामंत्र को जितनी बार दुहराया जाए, कम है।'

Saturday, May 9, 2015

विनम्र और मिलनसार वीरमणि शंकर, जो कि रैलीज़ इंडिया के प्रबंध निदेशक तथा मुख्य कार्यकारी हैं, अपने छात्र जीवन के दिनों के बारे में बता रहे थे, वे उन मूल्यों की बात कर रहे थे जिन्होने उनके कैरियर को टाटा समूह के साथ स्थायित्व प्रदान किया।
वीरमणि शंकर 22 वर्ष के होने पर एक चार्टर्ड एकाउन्टेंट व कॉस्ट एकाउन्टेंट थे, कलकत्ता विश्वविद्यालय से कॉमर्स में स्नातक डिग्री को आधार बनाकर उन्होने इसे हासिल किया, जिसमें वे परीक्षा में तीसरे स्थान पर आए थे। श्री शंकर के लिए इतनी जल्दी इतना कुछ हासिल करना काफी न था जिन्होने अपने अकादमिक प्रदर्शनों की सूची में कानून की डिग्री तथा कंपनी सेक्रेटरीशिप को भी जोड़ लिया।
यह पूछे जाने पर कि क्या वे अपने स्कूल में भी इतने ही मेधावी थे, तो विनम्र श्री शंकर का जवाब था कि वे एक खराब छात्र नहीं थे। रैलीज़ इंडिया के विनम्र और मिलनसार मुखिया बताते हैं कि उनका चरित्र निर्धारण कुछ हद तक मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि की देन है। 1970 के दशक के बीच में कलकत्ता में पढ़ते हुए, जबकि छात्र आंदोलन काफी फैला हुआ था तथा कैंपस में राजनीतिक माहौल भरा हुआ था, श्री शंकर ने अपने अध्ययन पर ध्यान केन्द्रित रखा। मैं ऐसे कॉलेज में था जहाँ पर कोई छात्र समस्याएं न थीं। मेरी कक्षा 6 बजे शुरु होती थी और 9 बजे तक मैं एक एकाउन्टिंग फर्म में चार्टर्ड एकाउन्टेंसी के लिए काम करने पहुंच जाया करता था, श्री शर्मा ने न केवल कठिन चार्टर्ड एकाउन्टेंसी का पाठ्यक्रम पहली बार में ही पूरा किया, बल्कि पूरे भारत की रैंकिंग में भी स्थान हासिल किया।
श्री शंकर ने अपना कैरियर अल्कान सब्सिडियरी, इंडियन अल्यूमुनियन कंपनी से शुरु किया तथा 1986 में उन्होने हिन्दुस्तान लीवर में काम करना शुरु किया। टाटा में आने से पहले उन्होने 18 साल बाहर काम किया और फिर टाटा में पिछले लगभग एक दशक से वे वरिष्ठ लीडर की भूमिका निभा रहे हैं। निथिन रॉव के साथ दिए गए इस साक्षात्कार में, वे अपने जीवन तथा कैरियर के महत्वपूर्ण बिन्दुओं के बारे में बता रहे हैं।
एक ऐसा शख्स होते हुए जिसने कि कॉलेज की पढ़ाई के साथ तीन पेशेवर पाठ्यक्रम पूरे किये, आप आज के युवाओं को क्या संदेश देना पसंद करेंगे। 1970 के दशक में जीवन भिन्न था। विकर्षण कम थे और लोग केवल अकादमिक गतिविधियों पर केन्द्रित हुआ करते थे। मुझे नहीं लगता है कि आज की पीढ़ी में कोई उस मेहनत को करने में सक्षम होगा। दूसरी ओर हमारे पास उस तरह की सहायता नहीं उपलब्ध थी जिस तरह की आज उपलब्ध है: सामान्य परिस्थितिकी, इंटरनेट, कोचिंग आदि। मैने उन पाठ्यक्रमों को बिना उपयुक्त किताबों के 10-12 घंटे प्रतिदिन की पढ़ाई से पूरा किया।
युवाओं के लिए मेरा परामर्श है कि नियोजन तथा प्रतिबद्धता का कोई छोटा मार्ग नहीं है, विशेष रूप से चार्टर्ड एकाउन्टेंसी जैसे पाठ्यक्रमों के लिए। उनको और अधिक व्यावहारिक प्रशिक्षण लेना चाहिए तथा अपने सीनियरों के साथ मामलों पर चर्चा करनी चाहिए।
जब आपने अपना पेशेवर कैरियर शुरु किया तो आपके लक्ष्य और सपने क्या थे? क्या आपकी योजना के अनुसार ही सारी घटनाएं घटीं?मैं एक एकाउंटेंट के रूप में प्रशिक्षित था और वित्त प्रकार्य में कुछ बड़ा करना चाहता था। मेरी यात्रा मुझे विभिन्न भूमिकाओं और प्रकार्यों तक ले गयी और अब मेरे पास व्यवसाय मुखिया की बड़ी भूमिका है। मेरी यात्रा सुखद, चुनौतीपूर्ण और संतुष्ट रही है।
मैं खुशनसीब हूँ कि मुझे उन उद्यमों में काम करने का अवसर मिला जो नैतिक मानकों और अपने आचार को सर्वोपरि मानते हैं। मैं आभारी हूँ कि मुझे अपने पूरे कैरियर में ऐसी कंपनियों के जुड़ कर काम करने को मिला क्योंकि यह मेरी पृष्ठभूमि से समानता रखता था। मूल्य प्रणालियों में कोई संघर्ष नहीं है और मैं रात में शांति के साथ सोता हूँ।
पिछले तीन दशकों में भारत में हुए बदलावों को आप किस तरह से देखते हैं: अभाव और प्रतिबंधों के समय से आज की अधिक खुले समय तक?जब वित्त के साथ मैने अपना कैरियर शुरु किया तो हमारे पास एक मशीन हुआ करती थी जिसे हम "कॉम्पटोमीटर" कहा करते थे जिसे आप आज म्यूजियम में पाएंगे। ट्रायल बैलेंस का मिलान और बैलेंस शीट का निर्माण के बड़ा काम हुआ करता था। यह मशीन हमें आंकड़ों को जोड़ने व एकत्र करने में सहायक होती थी जिसे हमें हाथ से लिखे जाने वाले लेजर में भरना होता था। आज जीवन आसान है क्योंकि आपको विवरणों का मिलान और समायोजन के लिए चिंतित नहीं होना पड़ता है। हालांकि दूसरे तरीकों से अब चीज़ें अधिक जटिल हैं, क्योंकि पालन करने के लिए अब अधिक मानक व नियम हैं।
पुराने समय में विस्तार और विदेशी मुद्रा पर बहुत सारे प्रतिबंध थे। लेकिन बाज़ार में जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था वे आसान थीं, क्योंकि ग्राहक के सामने सीमित विकल्प हुआ करते थे। आज का समय अधिक उदार है लेकिन बाजार कठिन है। ग्राहक के पास खूब सारे विकल्प हैं तथा उसकी पहुंच वैश्विक ब्रांडों तक है तथा पारदर्शिता भी अधिक है। सूचीबद्ध कंपनी होने के कारण हमको हर तिमाही में निवेशकों का सामना करना पड़ता है और हम सार्वजनिक निगाहों में बने रहते हैं और ज्ञानवान लोगों द्वारा हमारे हर कदम का विश्लेषण करते रहते हैं।
आप यूनीलीवर समूह के साथ 18 वर्ष तक काम करते रहे। क्या आप उस समय के अनुभव को साझा कर सकते हैं?
यूनीलीवर समूह के साथ के मेरे समय से मुझे स्नेह है। इस अवधि के दौरान मुझे आठ बार स्थानान्तरित किया गया, लेकिन सकारात्मक पहलू यह था कि इसने मुझे विभिन्न व्यवसायों, स्थलों और लोगों के साथ अनुभव का अवसर दिया। यूनीलीवर कॉरपोरेट ऑडिट के काम को मैं काफी बड़ा ब्रेक मानता हूँ, जिसने मुझे 20 देशों के परिचालन को समझने का अवसर प्रदान किया। व्यवसाय के सभी पहलुओं के लिए यह कार्यकाल आँखें खोलने वाला साबित हुआ, इन पहलुओं में मूल्य श्रंखला, टीम संस्कृति आदि शामिल थे। इसने मुझे व्यवसाय चलाने की जिम्मेदारी लेने का आत्मविश्वास प्रदान किया।
यूनीलीवर के आपके जुड़ाव के समय से आप कृषि के व्यापार के साथ नज़दीकी से जुड़े रहे हैं। यह व्यापार उस समय से आज कितना भिन्न है? मुझे दिखने वाला मुख्य अंतर यह है कि भोजन, चारे, फाइबर तथा ईंधन के लिए जमीन की घटती उपलब्धता के चलते कृषि ने मुख्य स्थान हासिल कर लिया है। भारत में यह क्षेत्र अब लाभाकारी होने लगा है और किसान अब निवेश तथा नई टेक्नोलॉजी को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। बहुत सारी अन्य व्यापक प्रवृत्तियां हैं जैसे कि मजदूरों की कमी, कठोर होते नियम तथा बायोटेक्नोलॉजी के विकास। नवीनतम खाद्य सुरक्षा प्रावधानों के लिए उत्पादकता सुधार तथा खेती के अच्छे अभ्यासों व बुनियादी ढ़ांचे की जरूरत होगी। सारांश में, मुझे लगता है कि इस व्यापार का सर्वश्रेष्ठ समय अभी आना बाकी है।
शहरी क्षेत्रों में प्रवास के कारण मजदूरी लागतों में काफी वृद्धि हो रही है। इसको महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम जैसी योजनाओं से बल मिल रहा है। लेकिन यह weedicides और फार्म मिकेनिज़्म में नए समाधानों के अवसर भी खोलता है। इसी तरह से, हमको हमारी नियामक प्रणाली में परिवर्तन की जरूरत है जिससे कि जमीन की चकबंदी हो सके जिससे कि आधुनिक तकनीकों को लागू करना आसान हो सके।
खाद्य की बढ़ती माँग को देखते हुए, हम स्थिर कृषि उत्पादन के साथ प्रगति नहीं कर सकते हैं। कृषि उत्पादों के मूल्य तेजी से बढ़ रहे हैं, जिका कारण माँग व आपूर्ति का तंत्र है। उदाहरण के लिए दालों को ही ले लीजिए। मुझे याद है कि सिर्फ कुछ वर्षों पहले एक किलो दाल का मूल्य 20-30 रुपये हुआ करता था। लेकिन अब यह 80-100 रुपये तक पहुंच गया है। यह, भारत में स्थिर हो गए दाल के उत्पादन का जीवंत उदाहरण है, जिसके परिणाम स्वरूप हमें इसको कनाडा और ऑस्ट्रेलिया से आयात करना पड़ता है। अगले 10-15 वर्षों में भारत में दाल की माँग दुगनी हो जाएगी, लेकिन इसे पूरा करने के लिए उत्पादन को बढ़ाने हेतु कोई चिह्न नहीं दिख रहे हैं। टाटा समूह में हमारे अपने अध्ययन ने प्रदर्शित किया है कि फसलों में कुछ प्रतिस्थापन करके किसान और अधिक दालें पैदा कर सकते हैं। हमारी अपनी "अधिक दाल उपजाएं" पहल द्वारा हमने यह दर्शाया है कि किसान उत्पादकता को दुगना, तिगुना तक बढ़ा सकते हैं।
आप अपनी जैसी कंपनी का भविष्य क्या देखते हैं, जो कि कृषि व्यापार पर ध्यान केन्द्रित कर रही है? रैलीस के लिए आने वाला समय अच्छा है। ग्रामीण भारत में इसका अच्छा प्रभाव है और एक शताब्दी की अवधि के दौरान इसने किसानों के साथ गहरे रिश्ते कायम किए हैं। हमने प्रवृत्तियों तथा अवसरों की पहचान की है और कंपनी को एक पूर्ण कृषि समाधान प्रदाता के रूप में रूपांतरित करने की यात्रा शुरु की है।
फसल सुरक्षा क्षेत्र में अग्रणी स्थिति होने के अलावा हम तेजी से अपने दूसरे खंभे का निर्माण कर रहे हैं: एक कीटनाशक शून्य पोर्टफोलियो जिसमें बीज, पौध वृद्धि पोषण, मिट्टी का स्वास्थ्य, कृषि सेवाएं और अनुबंधित विनिर्माण जैसे व्यावसायिक खंड शामिल हैं। इस विशिष्ट व्यापार मॉडल ने MoPu (अधिक दालें) पहल के माध्यम से एक बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत किया है, जो कि पूरी मूल्य श्रंखला को आधार प्रदान करता है। रैलीस, पीछे से किसानों को गाइड करती है व दालों का उत्पादन करती है तथा टाटा केमिकल्स, खुदरा उपभोक्ताओं को आई-शक्ति ब्रांड की दालों को बेचती है। इस अब सभी स्टॉकधारकों द्वारा काफी पसंद किया जा रहा है, जिसमें सरकार भी शामिल है।
संवर्धित जीन्स (GM) खाद्य भारत में बदनाम हैं। आपके नज़रिए से, इस मामले में वह कौन सी सर्वश्रेष्ठ नीति है जो इस मामले से निपट सकती है? GM खाद्य, कई विकसित देशों में काफी समय से उपलब्ध हैं। बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए, हमें आधुनिक तकनीक की जरूरत है। साथ ही, विनियामक तथा सुरक्षा मंजूरी से संबंधित प्रक्रियाओं को भी तेज़ होना चाहिए। मेरे विचार से, आगे बढ़ने के मार्ग पर बाधाएं नहीं बनानी चाहिए या GM तकनीक को शामिल करने में विलंब ठीक नहीं है, लेकिन प्रभावी तथा वैज्ञानिक प्रक्रियाओं में निवेश किया जाना चाहिए जिससे कि ऐसी तकनीकें पेश की जा सकें जो असामान्य व सुरक्षित हों।
आप दिसंबर 2005 से रैलीस की अध्यक्षता कर रहे हैं। एक लीडर के रूप में आपने कौन सी सबसे महत्वपूर्ण चुनौती का सामना किया है? मैने रैलीस को बदलाव, मजबूती और अब प्रगति के चरणों से गुजरते हुए देखा है। इनमें से हर एक चरण में एक भिन्न मनस्थिति तथा बदलाव के लिए खुलापन, यथास्थिति के प्रति चुनौती तथा लगातार बेहतरी और बार-बार सुधार की जरूरत थी। इन सब को हासिल करने के लिए मैं अपने लोगों में इसके लिए क्षमतावान होने को क्रेडिट देता हूँ।
मुझे लगता है कि एक स्थिति में, जब 2003 में हमें सबसे बुरा घाटा 1.07 बिलियन रुपये का हुआ था तब हमारी कंपनी में निराशा की भावना भर गयी थी। समूह के समर्थन से उस समय से आज तक की यात्रा को हितधारकों का हममें जताया गया विश्वास काफी लाभदायी रहा है। जबकि हमारे समाधानों तथा संबंध बनाने संबंधी प्रयासों से किसानों ने, हमारे साथियों ने बाजारगत अभ्यासों तथा उपस्थिति के बारे में संतुष्टि जाहिर की है, वहीं निवेशकों से अभिस्वीकृति हासिल करना भी संतुष्टिदायक रहा है। एक दशक में हमारा बाज़ार पूंजीकरण जो कि रु.300 मिलियन के निम्न स्तर पर पहुंच गया था, अब तेजी से बढ़ कर रु.30 बिलियन तक पहुंच गया है। कंपनी लगातार सुदृढ़ होती गयी है और 2011 में व्यावसायिक उत्कृष्टता के लिए जेआरडी क्यूवी पुरस्कार (टाटा व्यावसायिक उत्कृष्टता मॉडल प्लेटफॉर्म) जीतना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। हमारे लिए इसके काफी मायने थे क्योंकि यह एक कमजोर प्रक्रिया व नियंत्रण था जिसने हमको पहले काफी नीचे लाकर खड़ा कर दिया था। इस सबसे ऊपर हमारे कर्मचारियों के वचनबद्धता अंकों से प्रमाणित हमारे कर्मचारियों का आत्मविश्वास, और "काम करने के लिए बेहतरीन स्थल" के रूप में हमारी रैंकिंग, संतोषजनक रही है।
कंपनी के दीर्घकालीन लक्ष्य क्या हैं? अगले पाँच वर्षों में रैलीस के सामने क्या चुनौतियाँ हैं। हमारे द्वारा प्रदत्त कृषि समाधानों द्वारा अपने ग्राहकों के लिए मूल्यवर्धन का लक्ष्य हमने तय किया है। हमारे एकीकृत कार्यक्रम, रैलीस किसान कुटुंब (RKK) के अंतर्गत कई सारी नवाचारी पहल प्रगति पर हैं। हमारे पास RKK से जुड़े दस लाख किसान हैं और इस संख्या को दोगुना करना है तथा अंततः प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 10 मिलियन किसानों से जुड़ना हमारा लक्ष्य है। किसानों को हमारे द्वारा प्रस्तावित उच्च प्रभाव वाली बहुत सारी सेवाओं के साथ लगातार संपर्क की आवश्यकता है।
कार्यबल तथा साथ ही सूचना व संचार तकनीक-प्रेरित समाधानों के लिहाज से आवश्यक कौशल निर्माण को संबोधित करने की जरूरत, एक चुनौती है।
आपकी राय में एक अच्छे व्यवसायिक लीडर की विशेषताएं क्या हैं? मेरा विश्वास है कि किसी व्यक्ति में ईमानदारी का होना तथा उसकी क्रियाओं में उसका दिखना मूल बात है। कंपनी के लिए एक विज़न के प्रति अपनी टीम को प्रोत्साहित करने की क्षमता, उच्च महत्व की है जिसे मजबूत संचार कौशल द्वारा पूरित किया जा सकता है। अच्छी रणनीति बनाना और सफलता के साथ उसको निष्पादित करने की दृढ़ता ही उद्यम की सफलता को निर्धारित करती है।
एक व्यक्ति तथा एक पेशेवर के रूप में आप अपने को किस तरह से परिभाषित करेंगे? स्वभाव से मैं एक गहन व्यक्ति हूँ तथा निम्न प्रोफाइल रखता हूँ। मुझे बोलने से अधिक सुनना पसंद है। जानना महत्वपूर्ण है और मैने लिखित व मौखिक संचार में कुछ अच्छे अभ्यासों को आत्मसात किया है और मैं अभी भी सीख रहा हूँ। आम तौर पर मैं विश्लेषणात्मक रहता हूँ तथा चीजों को करने के लिए नियोजित दृष्टिकोण रखता हूँ। आवेगी व्यवहार मुझमें नहीं है। मैं जो कुछ भी करता हूँ उसमें ध्यान लगाता हूँ, हालांकि यह विशेषता कई बार बाधा भी बनती है। अधिकांश मामलों पर मैं आम राय रखना चाहता हूँ लेकिन कभी कभार मैं अपने निर्णय पर ही निर्भर करता हूँ।
जीवन में आपके रोल मॉडल तथा समर्थन प्रणालियां कौन व क्या हैं?व्यवसाय में मैं स्टीव जॉब्स को पसंद करता हूँ जो कि ग्राहक की आवाज़ से अधिक सुनने में सक्षम थे। ग्राहकों को खुशी देने के लिए उद्योग को बदलने के साथ-साथ उनके पास नए मानदंड के निर्माण का दृढ़ विश्वास था, ऐसा उन्होने बार-बार किया।
मेरे निजी जीवन में मेरे माता-पिता और मेरी पत्नी, पद्मिनी ने मुझे उन मूल्यों को सिखाया जिनके साथ में रहता हूँ। एक समर्पित गृहणी और योग्य शिक्षक जो कर्नाटक संगीत और भरत नाट्यम सिखाती हैं। पद्मिनी मेरी वास्तविक मजबूती हैं, जो कि मुझे मेरे कैरियर में जोखिम व चुनौतियों का सामना करने में सक्षम करती हैं। मेरे दो बच्चों में अजितेश चार्टर्ड एकाउंटेंट है तथा राधिका अपनी प्रबंधन की पढ़ाई कर रही है (वह भी एक नर्तकी है)।
मैं खुशनसीब हूँ कि मुझे उन उद्यमों में काम करने का अवसर मिला जो नैतिक मानकों और अपने आचार को सर्वोपरि मानते हैं।

Tuesday, May 5, 2015

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                             हम चिल्लाते क्यों हैं गुस्से में?
एक बार एक संत अपने शिष्यों के साथ बैठे थे। अचानक उन्होंने सभी शिष्यों से एक सवाल पूछा; “बताओ जब दो लोग एक दूसरे पर गुस्सा करते हैं तो जोर-जोर से चिल्लाते क्यों हैं?”

शिष्यों ने कुछ देर सोचा और एक ने उत्तर दिया : “हमअपनी शांति खो चुके होते हैं इसलिए चिल्लाने लगते हैं।”

संत ने मुस्कुराते हुए कहा : दोनों लोग एक दूसरे के काफी करीब होते हैं तो फिर धीरे-धीरे भी तो बात कर सकते हैं। आखिर वह चिल्लाते क्यों हैं?” कुछ और शिष्यों ने भी जवाब दिया लेकिन संत संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने खुद उत्तर देना शुरू किया।

वह बोले : “जब दो लोग एक दूसरे से नाराज होते हैं तो उनके दिलों में दूरियां बहुत बढ़ जाती हैं। जब दूरियां बढ़ जाएं तो आवाज को पहुंचाने के लिए उसका तेज होना जरूरी है। दूरियां जितनी ज्यादा होंगी उतनी तेज चिल्लाना पड़ेगा। दिलों की यह दूरियां ही दो गुस्साए लोगों को चिल्लाने पर मजबूर कर देती हैं।

जब दो लोगों में प्रेम होता है तो वह एक दूसरे से बड़े आराम से और धीरे-धीरे बात करते हैं। प्रेम दिलों को करीब लाता है और करीब तक आवाज पहुंचाने के लिए चिल्लाने की जरूरत नहीं।

जब दो लोगों में प्रेम और भी प्रगाढ़ हो जाता है तो वह खुसफुसा कर भी एक दूसरे तक अपनी बात पहुंचा लेते हैं। इसके बाद प्रेम की एक अवस्था यह भी आती है कि खुसफुसाने की जरूरत भी नहीं पड़ती।

एक दूसरे की आंख में देख कर ही समझ आ जाता है कि क्या कहा जा रहा है।

शिष्यों की तरफ देखते हुए संत बोले : “अब जब भी कभी बहस करें तो दिलों की दूरियों को न बढ़ने दें। शांत चित्त और धीमी आवाज में बात करें। ध्यान रखें कि कहीं दूरियां इतनी न बढ़े जाएं कि वापस आना ही मुमकिन न हो।”


                              खुशी की तलाश

अंजन मुनि अपने आश्रम में अनेक शिष्यों को शिक्षा देते थे। एक दिन वह अपने शिष्यों से बोले,'आज मैं तुम्हें बताऊंगा कि खुशी आसानी से किस तरह मिल सकती है?' सभी शिष्य बोले,'गुरुजी, जल्दी बताइए।' मुनि शिष्यों को एक कमरे में ले गए। वहां ढेर सारी एक जैसी पतंगें रखी हुई थीं। मुनि शिष्यों से बोले,'इन पतंगों में से एक-एक उठाकर सभी अपना नाम लिखकर वापस वहीं रख दो।' सभी शिष्यों ने एक-एक पतंग पर अपना नाम लिखा और वापस वहीं रख दिया।

कुछ देर बाद मुनि बोले,'अब सभी अपने नाम की पतंग लेकर मेरे पास आओ।' यह सुनकर शिष्यों में भगदड़ मच गई और अपने नाम की पतंग लेने के चक्कर में सारी पतंगें फट गईं। इसके बाद मुनि उन्हें दूसरे कमरे में ले गए। वहां भी ढेरों पतंगें थीं। उन्होंने सब शिष्यों को एक-एक पतंग पर अपना नाम लिखने के लिए कहा। इसके बाद वह बोले,'अब, तुम सभी इनमें से कोई भी पतंग उठा लो।' सभी शिष्यों ने बिना कोई जल्दबाजी किए आराम से एक-एक पतंग उठा ली।

गुरुजी बोले,'अब तुम एक-दूसरे से अपने नाम वाली पतंग प्राप्त कर लो।' सभी शिष्यों ने बगैर खींचतान किए और बगैर पतंगें फाड़े अपने-अपने नाम की पतंग प्राप्त कर ली। गुरुजी बोले,'हम खुशी की तलाश इधर-उधर करते हैं, जबकि हमारी खुशी दूसरों की खुशी में छिपी है।' जब तुमने केवल अपने नाम की पतंग तलाशनी चाही तो आपाधापी में सारी पतंगें फट गईं। दूसरी बार तुमने आराम से पतंग उठाकर दूसरे के नाम की पतंग उसे सौंप दी। इस तरह उसे भी खुशी मिल गई और तुम्हें भी अपने नाम की पतंग मिल गई। असल खुशी दूसरों की मदद कर उन्हें खुशी देने में है।

                          कलाकार की प्रशंसा


एक प्रसिद्ध चित्रकार ने अपने पुत्र को चित्रकला सिखाई। उसका पुत्र इस कला में जल्द ही पारंगत हो गया। शीघ्र ही वह सुंदर चित्र बनाने लगा। लेकिन चित्रकार पिता अपने पुत्र द्वारा बनाए गए चित्रों में कोई न कोई त्रुटि जरूर निकाल देता। वह कभी खुले हृदय से अपने पुत्र की प्रशंसा न करता। लेकिन, दूसरे लोग चित्रकार के बेटे के चित्रों की खूब सराहना करते थे। उसके बनाए हुए चित्रों की मांग बढ़ने लगी। फिर भी उसके पिता के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया।

एक दिन उसके पुत्र को एक युक्ति सूझी। उसने एक आकर्षक चित्र बनाया और अपने एक मित्र द्वारा उसे अपने पिता के पास भिजवाया। उसके पिता ने सोचा कि यह चित्र उसी मित्र का बनाया हुआ है। उसने उसकी खूब प्रशंसा की। तभी एक कोने में छिपा उसका पुत्र निकल आया और बोला,'पिताजी, यह चित्र मैंने बनाया है। अंतत: मैंने वह चित्र बना ही दिया जिसमें आप कोई कमी न निकाल सके।'

पिता ने कहा,' बेटा, एक बात गांठ बांध लो। अभिमान उन्नति के सभी मार्ग बंद कर देता है। आज तक मैंने तुम्हारी प्रशंसा नहीं की। सदा तुम्हारे चित्रों में कमियां निकालता रहा, इसीलिए तुम आज तक अच्छे चित्र बनाते रहे। अगर मैं तुम्हें एक बार भी कह देता कि तुमने बहुत अच्छा चित्र बनाया है, तो शायद तुम चित्र बनाने से पहले जागरूक नहीं रहते। तुम्हें लगता कि तुम पूर्णता प्राप्त कर चुके हो, जबकि कला के क्षेत्र में पूर्णता की कोई सीमा ही नहीं होती। मैं तो इस उम्र में भी अपने को पूर्ण नहीं मानता। इसलिए भविष्य में सावधान रहना।' यह सुनकर पुत्र लज्जित हो ग


                           

Monday, May 4, 2015

                सबसे हट कर सबसे बड़ी बात

एक दिन सुबह के समय परमहंस देव अपने शिष्यों के साथ टहल रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि पास ही कुछ मछुआरे जाल फेंक कर मछलियां पकड़ रहे हैं। वह अचानक एक मछुआरे के पास पहुंचकर खड़े हो गए और अपने शिष्यों से बोले, 'तुम लोग इस जाल में फंसी मछलियों की गतिविधियां गौर से देखो।' शिष्यों ने देखा कि कुछ मछलियां ऐसी हैं जो जाल में निश्चल पड़ी हैं। वे निकलने की कोई कोशिश भी नहीं कर रही हैं, जबकि कुछ मछलियां जाल से निकलने की कोशिश करती रहीं। हालांकि, उनमें कुछ को सफलता नहीं मिली, लेकिन कुछ जाल से मुक्त होकर फिर से जल में खेलने में मगन हैं।

जब परमहंस ने देखा कि शिष्य मछलियों को देखने में मगन होकर दूर निकल गए हैं, तो फिर उन्हें अपने पास बुला लिया। शिष्य आ गए तो कहा, 'जिस प्रकार मछलियां मुख्यत: तीन प्रकार की होती हैं, वैसे ही अधिकतर मनुष्य भी तीन प्रकार के होते हैं। एक श्रेणी उन मनुष्यों की होती है, जिनकी आत्मा ने बंधन स्वीकार कर लिया है। अब वे इस भव-जाल से निकलने की बात ही नहीं सोचते। दूसरी श्रेणी ऐसे व्यक्तियों की है, जो वीरों की तरह प्रयत्न तो करते हैं पर मुक्ति से वंचित रहते हैं। तीसरी श्रेणी उन लोगों की है जो प्रयत्न द्वारा अंततः मुक्ति पा ही लेते हैं। लेकिन दोनों में एक श्रेणी और होती है जो खुद को बचाए रहती है।

' एक शिष्य ने पूछा, 'गुरुदेव, वह श्रेणी कैसी है?' परमहंस देव बोले, 'हां, वह बड़ी महत्वपूर्ण है। इस श्रेणी के मनुष्य उन मछलियों के समान हैं जो जाल के निकट कभी नहीं आतीं। और जब वे निकट ही नहीं आतीं, तो उनके फंसने का प्रश्न ही नहीं उठता।'

                        सबसे बड़ा काम

एक बार बेंजामिन फ्रैंकलिन ने एक धनी व्यक्ति की मेज पर बीस डॉलर की सोने की गिन्नी रखते हुए कहा, 'सर, आपने बुरे वक्त में मेरी सहायता की थी। उसके लिए मैं बहुत आभारी हूं। लेकिन अब मैं अपनी मेहनत के बल पर इतना सक्षम हो गया हूं कि आपका वह कर्ज लौटा सकूं।' यह सुनकर वह व्यक्ति उन्हें गौर से घूरते हुए बोला, 'क्षमा कीजिए, पर मैंने आपको पहचाना नहीं। न ही मुझे याद है कि मैंने किसी को बीस डॉलर उधार दिए थे।'
बेंजामिन बोले, 'मैं उन दिनों एक प्रेस में अखबार छापने का काम करता था। एक दिन अचानक मेरी तबीयत खराब हो गई। तभी मैंने आपसे बीस डॉलर लिए थे।' उस व्यक्ति ने अपने बीते दिनों के बारे में सोचा तो उसे याद हो आया कि काफी पहले एक लड़का प्रेस में काम किया करता था और एक दिन उसने उसकी मदद भी की थी। इस पर वह बोला, 'हां मुझे याद आ गया। लेकिन दोस्त, यह तो मनुष्य का सहज धर्म है कि वह मुसीबत में सहायता करे। इन गिन्नियों को अब अपने पास ही रखें। कभी कोई जरूरतमंद आए तो उसे दे दें।'
उसकी यह बात सुनकर बेंजामिन फ्रैंकलिन बहुत प्रभावित हुए और उन्हें अभिवादन कर वे गिन्नियां अपने साथ लौटा लाए। इसके बाद एक दिन उन्होंने एक जरूरतमंद व्यक्ति को वह गिन्नियां दे दीं। उस व्यक्ति ने बेंजामिन से गिन्नियां लौटाने की बात कही तो वह उससे बोले, 'दोस्त, जब तुम सक्षम हो जाओगे तो अपने जैसे किसी जरूरतमंद को ये गिन्नियां दे देना। मैं समझूंगा कि मेरी गिन्नियां मुझे मिल गईं। किसी जरूरतमंद की वक्त पर मदद करना ही सबसे बड़ा काम है।'

                  काम करने का तरीका

क युवक अपने काम के लिए कहीं जा रहा था। रास्ते में उसने देखा कि एक मजदूर दीवार पर सफेदी कर रहा है। वह सड़क पार करने के लिए वहां कुछ देर रुका रहा और इस बीच मजदूर का काम करने का तरीका देखता रहा। कुछ देर में सड़क खाली हो गई तो उसने पाया कि मजदूर जिस ढंग से दीवार पर सफेदी कर रहा था, उससे सामान और समय दोनों की बर्बादी हो रही थी।
कुछ सोचकर वह उस मजदूर के पास गया और उससे बोला, 'दोस्त, इससे बहुत कम समय में और कम सामान में अच्छी तरह से सफेदी हो सकती है। क्या तुम वह तरकीब मुझसे सीखना चाहोगे?' मजदूर यह सुनकर हैरानी से युवक को देखते हुए बोला,'तुम अगर ऐसा कर सकते हो तो बहुत अच्छी बात है। मैं उस तरकीब को अवश्य सीखना चाहूंगा।' बस, इसके बाद वह युवक अपनी कमीज की बांहें ऊपर चढ़ाकर ब्रश और सफेदी लेकर काम में जुट गया।
कुछ ही समय में उसने अपनी बात सही साबित करके दिखा दी। उसके सफेदी करने के तरीके से काफी समय व सामान बच गया और सफेदी भी बहुत बढ़िया हो गई। मजदूर खुश होकर युवक से बोला,'अब मैं भविष्य में ऐसे ही काम करूंगा जैसा आपने सिखाया है। उस जगह का मालिक चुपचाप वहां खड़ा यह सब देख रहा था। युवक नीचे उतर कर आया तो उसने उसके हाथ में इनाम थमाना चाहा।
युवक बोला,'सर, इनाम व मेहनताने पर मेरा नहीं, मजदूर का हक है। काम तो इसी ने किया है, मैंने तो बस इसे काम को सही ढंग से करने का तरीका समझाया है।'आगे चलकर यही युवक महान दार्शनिक बना और कार्ल मार्क्स के नाम से मशहूर हुआ।

                               महात्मा की सीख
एक दिन एक महात्मा भिक्षा मांगने कहीं जा रहे थे। एक जगह उन्हें एक सिक्का पड़ा नजर आया। उसे उठाकर उन्होंने अपनी झोली में रख लिया। उनके साथ जा रहे दोनों शिष्य यह देखकर मायूस रह गए। असल में मन ही मन वे सोच रहे थे कि काश वह सिक्का उन्हें मिल जाता तो वे बाजार से अपने लिए कुछ खरीद लाते। उनके ऐसा सोचते ही महात्मा जी समझ गए। वह बोले- 'यह कोई साधारण सिक्का नहीं है। मैं इसे किसी योग्य व्यक्ति को ही दूंगा।'
देखते-देखते कई दिन बीत गए, लेकिन महात्मा ने वो सिक्का किसी को नहीं दिया। एक दिन महात्मा को समाचार मिला कि सिंहगढ़ के महाराज अपनी विशाल सेना के साथ पास से गुजर रहे हैं। महात्मा ने तुरंत अपने शिष्यों से कहा- यह जगह छोड़ने की घड़ी आ गई है। बस फिर क्या था, शिष्यों के साथ महात्मा जी चल पड़े। तभी उस रास्ते से राजा की सवारी भी आ गई। मंत्री ने राजा को बताया कि ये महात्मा बड़े ज्ञानी हैं।
यह सुन राजा ने हाथी से उतरकर महात्मा को सादर प्रणाम किया और कहा- 'महात्मा जी, आप मुझे विजय का आशीर्वाद दें।' महात्मा ने झोले से सिक्का निकाला और राजा की हथेली पर उसे रखते हुए कहा, 'राजा, तुम्हारा राज्य धन-धान्य से संपन्न है। फिर भी तुम्हारे लालच का अंत नहीं है। तुम और अधिक पाने की लालसा में युद्ध करने के लिए जा रहे हो। मेरे विचार में तुम वास्तव में सबसे बड़े दरिद्र इंसान हो। इसलिए मैंने तुम्हें यह सिक्का दिया है।'
राजा महात्मा की बात का मतलब समझ गया। उसने सेना को तुरंत वापस लौट चलने का आदेश दिया।