Sunday, May 20, 2018

मूर्ख कौन

किसी गांव में एक सेठ रहता था. उसका एक ही बेटा था, जो व्यापार के काम से परदेस गया हुआ था. सेठ की बहू एक दिन कुएँ पर पानी भरने गई. घड़ा जब भर गया तो उसे उठाकर कुएँ के मुंडेर पर रख दिया और अपना हाथ-मुँह धोने लगी. तभी कहीं से चार राहगीर वहाँ आ पहुँचे. एक राहगीर बोला, "बहन, मैं बहुत प्यासा हूँ. क्या मुझे पानी पिला दोगी?"

   सेठ की बहू को पानी पिलाने में थोड़ी झिझक महसूस हुई, क्योंकि वह उस समय कम कपड़े पहने हुए थी. उसके पास लोटा या गिलास भी नहीं था जिससे वह पानी पिला देती. इसी कारण वहाँ उन राहगीरों को पानी पिलाना उसे ठीक नहीं लगा.

   बहू ने उससे पूछा, "आप कौन हैं?"

   राहगीर ने कहा, "मैं एक यात्री हूँ"

   बहू बोली, "यात्री तो संसार में केवल दो ही होते हैं, आप उन दोनों में से कौन हैं? अगर आपने मेरे इस सवाल का सही जवाब दे दिया तो मैं आपको पानी पिला दूंगी. नहीं तो मैं पानी नहीं पिलाऊंगी."

   बेचारा राहगीर उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे पाया.

   तभी दूसरे राहगीर ने पानी पिलाने की विनती की.

   बहू ने दूसरे राहगीर से पूछा, "अच्छा तो आप बताइए कि आप कौन हैं?"

   दूसरा राहगीर तुरंत बोल उठा, "मैं तो एक गरीब आदमी हूँ."

   सेठ की बहू बोली, "भइया, गरीब तो केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?"

   प्रश्न सुनकर दूसरा राहगीर चकरा गया. उसको कोई जवाब नहीं सूझा तो वह चुपचाप हट गया.

   तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मुझे बहुत प्यास लगी है. ईश्वर के लिए तुम मुझे पानी पिला दो"

   बहू ने पूछा, "अब आप कौन हैं?"

   तीसरा राहगीर बोला, "बहन, मैं तो एक अनपढ़ गंवार हूँ."

   यह सुनकर बहू बोली, "अरे भई, अनपढ़ गंवार तो इस संसार में बस दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?'

   बेचारा तीसरा राहगीर भी कुछ बोल नहीं पाया.

   अंत में चौथा राहगीह आगे आया और बोला, "बहन, मेहरबानी करके मुझे पानी पिला दें. प्यासे को पानी पिलाना तो बड़े पुण्य का काम होता है."

   सेठ की बहू बड़ी ही चतुर और होशियार थी, उसने चौथे राहगीर से पूछा, "आप कौन हैं?"

   वह राहगीर अपनी खीज छिपाते हुए बोला, "मैं तो..बहन बड़ा ही मूर्ख हूँ."

   बहू ने कहा, "मूर्ख तो संसार में केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?"

   वह बेचारा भी उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका. चारों पानी पिए बगैर ही वहाँ से जाने लगे तो बहू बोली, "यहाँ से थोड़ी ही दूर पर मेरा घर है. आप लोग कृपया वहीं चलिए. मैं आप लोगों को पानी पिला दूंगी"

   चारों राहगीर उसके घर की तरफ चल पड़े. बहू ने इसी बीच पानी का घड़ा उठाया और छोटे रास्ते से अपने घर पहुँच गई. उसने घड़ा रख दिया और अपने कपड़े ठीक तरह से पहन लिए.

   इतने में वे चारों राहगीर उसके घर पहुँच गए. बहू ने उन सभी को गुड़ दिया और पानी पिलाया. पानी पीने के बाद वे राहगीर अपनी राह पर चल पड़े.

   सेठ उस समय घर में एक तरफ बैठा यह सब देख रहा था. उसे बड़ा दुःख हुआ. वह सोचने लगा, इसका पति तो व्यापार करने के लिए परदेस गया है, और यह उसकी गैर हाजिरी में पराए मर्दों को घर बुलाती है. उनके साथ हँसती बोलती है. इसे तो मेरा भी लिहाज नहीं है. यह सब देख अगर मैं चुप रह गया तो आगे से इसकी हिम्मत और बढ़ जाएगी. मेरे सामने इसे किसी से बोलते बतियाते शर्म नहीं आती तो मेरे पीछे न जाने क्या-क्या करती होगी. फिर एक बात यह भी है कि बीमारी कोई अपने आप ठीक नहीं होती. उसके लिए वैद्य के पास जाना पड़ता है. क्यों न इसका फैसला राजा पर ही छोड़ दूं. यही सोचता वह सीधा राजा के पास जा पहुँचा और अपनी परेशानी बताई. सेठ की सारी बातें सुनकर राजा ने उसी वक्त बहू को बुलाने के लिए सिपाही बुलवा भेजे और उनसे कहा, "तुरंत सेठ की बहू को राज सभा में उपस्थित किया जाए."

   राजा के सिपाहियों को अपने घर पर आया देख उस सेठ की पत्नी ने अपनी बहू से पूछा, "क्या बात है बहू रानी? क्या तुम्हारी किसी से कहा-सुनी हो गई थी जो उसकी शिकायत पर राजा ने तुम्हें बुलाने के लिए सिपाही भेज दिए?"

   बहू ने सास की चिंता को दूर करते हुए कहा, "नहीं सासू मां, मेरी किसी से कोई कहा-सुनी नहीं हुई है. आप जरा भी फिक्र न करें."

   सास को आश्वस्त कर वह सिपाहियों से बोली, "तुम पहले अपने राजा से यह पूछकर आओ कि उन्होंने मुझे किस रूप में बुलाया है. बहन, बेटी या फिर बहू के रुप में? किस रूप में में उनकी राजसभा में मैं आऊँ?"

   बहू की बात सुन सिपाही वापस चले गए. उन्होंने राजा को सारी बातें बताई. राजा ने तुरंत आदेश दिया कि पालकी लेकर जाओ और कहना कि उसे बहू के रूप में बुलाया गया है.

   सिपाहियों ने राजा की आज्ञा के अनुसार जाकर सेठ की बहू से कहा, "राजा ने आपको बहू के रूप में आने के ले पालकी भेजी है."

   बहू उसी समय पालकी में बैठकर राज सभा में जा पहुँची.

   राजा ने बहू से पूछा, "तुम दूसरे पुरूषों को घर क्यों बुला लाईं, जबकि तुम्हारा पति घर पर नहीं है?"

   बहू बोली, "महाराज, मैंने तो केवल कर्तव्य का पालन किया. प्यासे पथिकों को पानी पिलाना कोई अपराध नहीं है. यह हर गृहिणी का कर्तव्य है. जब मैं कुएँ पर पानी भरने गई थी, तब तन पर मेरे कपड़े अजनबियों के सम्मुख उपस्थित होने के अनुरूप नहीं थे. इसी कारण उन राहगीरों को कुएँ पर पानी नहीं पिलाया. उन्हें बड़ी प्यास लगी थी और मैं उन्हें पानी पिलाना चाहती थी. इसीलिए उनसे मैंने मुश्किल प्रश्न पूछे और जब वे उनका उत्तर नहीं दे पाए तो उन्हें घर बुला लाई. घर पहुँचकर ही उन्हें पानी पिलाना उचित था."

   राजा को बहू की बात ठीक लगी. राजा को उन प्रश्नों के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता हुई जो बहू ने चारों राहगीरों से पूछे थे.

   राजा ने सेठ की बहू से कहा, "भला मैं भी तो सुनूं कि वे कौन से प्रश्न थे जिनका उत्तर वे लोग नहीं दे पाए?"

   बहू ने तब वे सभी प्रश्न दुहरा दिए. बहू के प्रश्न सुन राजा और सभासद चकित रह गए. फिर राजा ने उससे कहा, "तुम खुद ही इन प्रश्नों के उत्तर दो. हम अब तुमसे यह जानना चाहते हैं."

   बहू बोली, "महाराज, मेरी दृष्टि में पहले प्रश्न का उत्तर है कि संसार में सिर्फ दो ही यात्री हैं–सूर्य और चंद्रमा. मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि बहू और गाय इस पृथ्वी पर ऐसे दो प्राणी हैं जो गरीब हैं. अब मैं तीसरे प्रश्न का उत्तर सुनाती हूं. महाराज, हर इंसान के साथ हमेशा अनपढ़ गंवारों की तरह जो हमेशा चलते रहते हैं वे हैं–भोजन और पानी. चौथे आदमी ने कहा था कि वह मूर्ख है, और जब मैंने उससे पूछा कि मूर्ख तो दो ही होते हैं, तुम उनमें से कौन से मूर्ख हो तो वह उत्तर नहीं दे पाया." इतना कहकर वह चुप हो गई.

   राजा ने बड़े आश्चर्य से पूछा, "क्या तुम्हारी नजर में इस संसार में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं?"

   "हाँ, महाराज, इस घड़ी, इस समय मेरी नजर में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं."

   राजा ने कहा, "तुरंत बतलाओ कि वे दो मूर्ख कौन हैं."

   इस पर बहू बोली, "महाराज, मेरी जान बख्श दी जाए तो मैं इसका उत्तर दूं."

   राजा को बड़ी उत्सुकता थी यह जानने की कि वे दो मूर्ख कौन हैं. सो, उसने तुरंत बहू से कह दिया, "तुम निःसंकोच होकर कहो. हम वचन देते हैं तुम्हें कोई सज़ा नहीं दी जाएगी."

   बहू बोली, "महाराज, मेरे सामने इस वक्त बस दो ही मूर्ख हैं." फिर अपने ससुर की ओर हाथ जोड़कर कहने लगी, "पहले मूर्ख तो मेरे ससुर जी हैं जो पूरी बात जाने बिना ही अपनी बहू की शिकायत राजदरबार में की. अगर इन्हें शक हुआ ही था तो यह पहले मुझसे पूछ तो लेते, मैं खुद ही इन्हें सारी बातें बता देती. इस तरह घर-परिवार की बेइज्जती तो नहीं होती."
   ससुर को अपनी गलती का अहसास हुआ. उसने बहू से माफ़ी मांगी. बहू चुप रही.
   राजा ने तब पूछा, "और दूसरा मूर्ख कौन है?"
   बहू ने कहा, "दूसरा मूर्ख खुद इस राज्य का राजा है जिसने अपनी बहू की मान-मर्यादा का जरा भी खयाल नहीं किया और सोचे-समझे बिना ही बहू को भरी राजसभा में बुलवा लिया."

   बहू की बात सुनकर राजा पहले तो क्रोध से आग बबूला हो गया, परंतु तभी सारी बातें उसकी समझ में आ गईं. समझ में आने पर राजा ने बहू को उसकी समझदारी और चतुराई की सराहना करते हुए उसे ढेर सारे पुरस्कार देकर सम्मान सहित विदा किया

Saturday, May 19, 2018

लोहे और हीरे में फर्क

एक संत की कथा में एक बालिका खड़ी हो गई।
चेहरे पर झलकता आक्रोश...
संत ने पूछा - बोलो बेटी क्या बात है?
बालिका ने कहा- महाराज हमारे समाज में लड़कों को हर प्रकार की आजादी होती है।
वह कुछ भी करे, कहीं भी जाए उस पर कोई खास टोका टाकी नहीं होती।
इसके विपरीत लड़कियों को बात बात पर टोका जाता है।
यह मत करो, यहाँ मत जाओ, घर जल्दी आ जाओ आदि।
संत मुस्कुराए और कहा...
बेटी तुमने कभी लोहे की दुकान के बाहर पड़े लोहे के गार्डर देखे हैं?
ये गार्डर सर्दी, गर्मी, बरसात, रात दिन इसी प्रकार पड़े रहते हैं।
इसके बावजूद इनका कुछ नहीं बिगड़ता और इनकी कीमत पर भी कोई अन्तर नहीं पड़ता।
लड़कों के लिए कुछ इसी प्रकार की सोच है समाज में।
अब तुम चलो एक ज्वेलरी शॉप में।
एक बड़ी तिजोरी, उसमें एक छोटी तिजोरी।
उसमें रखी छोटी सुन्दर सी डिब्बी में रेशम पर नज़ाकत से रखा चमचमाता हीरा।
क्योंकि जौहरी जानता है कि अगर हीरे में जरा भी खरोंच आ गई तो उसकी कोई कीमत नहीं रहेगी।
समाज में बेटियों की अहमियत भी कुछ इसी प्रकार की है।
पूरे घर को रोशन करती झिलमिलाते हीरे की तरह।
जरा सी खरोंच से उसके और उसके परिवार के पास कुछ नहीं बचता।
बस यही अन्तर है लड़कियों और लड़कों में।
पूरी सभा में चुप्पी छा गई।
उस बेटी के साथ पूरी सभा की आँखों में छाई नमी साफ-साफ बता रही थी लोहे और हीरे में फर्क

Wednesday, May 16, 2018

आराधना में शक्ति

एक साधु महाराज श्री रामायण कथा सुना रहे थे। लोग आते और आनंद विभोर होकर जाते। साधु महाराज का नियम था, रोज कथा शुरू करने से पहले "आइए हनुमंत जी बिराजिए" कहकर हनुमान जी का आह्वान करते थे, फिर एक घण्टा प्रवचन करते थे।

एक वकील साहब हर रोज कथा सुनने आते। वकील साहब के भक्तिभाव पर एक दिन तर्कशीलता हावी हो गई। उन्हें लगा कि महाराज रोज "आइए हनुमंत जी बिराजिए" कहते हैं, तो क्या हनुमान जी सचमुच आते होंगे ?

अत: वकील साहब ने महात्मा जी से पूछ ही डाला! महाराज जी आप रामायण की कथा बहुत अच्छी कहते हैं, हमें बड़ा रस आता है, परंतु आप जो गद्दी प्रतिदिन हनुमान जी को देते हैं उस पर क्या हनुमान जी सचमुच बिराजते हैं ?

साधु महाराज ने कहा: हाँ यह मेरा व्यक्तिगत विश्वास है, कि रामकथा हो रही हो तो हनुमान जी अवश्य पधारते हैं।

वकील ने कहा: महाराज ऐसे बात नहीं बनेगी, हनुमान जी यहां आते हैं इसका कोई सबूत दीजिए। आपको साबित करके दिखाना चाहिए, कि हनुमान जी आपकी कथा सुनने आते हैं।

महाराज जी ने बहुत समझाया, कि भैया आस्था को किसी सबूत की कसौटी पर नहीं कसना चाहिए, यह तो भक्त और भगवान के बीच का प्रेमरस है, व्यक्तिगत श्रद्घा का विषय है। आप कहो तो मैं प्रवचन करना बंद कर दूँ, या आप कथा में आना छोड़ दो।

लेकिन वकील नहीं माना। कहता ही रहा, कि आप कई दिनों से दावा करते आ रहे हैं। यह बात और स्थानों पर भी कहते होंगे, इसलिए महाराज आपको तो साबित करना होगा, कि हनुमान जी कथा सुनने आते हैं।

इस तरह दोनों के बीच वाद-विवाद होता रहा। मौखिक संघर्ष बढ़ता चला गया। हारकर साधु महाराज ने कहा... हनुमान जी हैं या नहीं उसका सबूत कल दिलाऊंगा। कल कथा शुरू हो तब प्रयोग करूंगा।

जिस गद्दी पर मैं हनुमानजी को विराजित होने को कहता हूं आप उस गद्दी को आज अपने घर ले जाना, कल अपने साथ उस गद्दी को लेकर आना और फिर मैं कल गद्दी यहाँ रखूंगा।

कथा से पहले हनुमानजी को बुलाएंगे, फिर आप गद्दी ऊँची उठाना। यदि आपने गद्दी ऊँची कर दी तो समझना कि हनुमान जी नहीं हैं। वकील इस कसौटी के लिए तैयार हो गया।

महाराज ने कहा: हम दोनों में से जो पराजित होगा वह क्या करेगा, इसका निर्णय भी कर लें ? यह तो सत्य की परीक्षा है।

वकील ने कहा: मैं गद्दी ऊँची न कर सका तो वकालत छोड़कर आपसे दीक्षा ले लूंगा। आप पराजित हो गए तो क्या करोगे ? 

साधु ने कहा: मैं कथा वाचन छोड़कर आपके ऑफिस का चपरासी बन जाऊंगा।

अगले दिन कथा पंडाल में भारी भीड़ हुई जो लोग रोजाना कथा सुनने नहीं आते थे, वे भी भक्ति, प्रेम और विश्वास की परीक्षा देखने आए, काफी भीड़ हो गई, पंडाल भर गया। श्रद्घा और विश्वास का प्रश्न जो था।

साधु महाराज और वकील साहब कथा पंडाल में पधारे। गद्दी रखी गई।

महात्मा जी ने सजल नेत्रों से मंगलाचरण किया और फिर बोले: "आइए हनुमंत जी बिराजिए" ऐसा बोलते ही साधु महाराज के नेत्र सजल हो उठे। मन ही मन साधु बोले... प्रभु! आज मेरा प्रश्न नहीं, बल्कि रघुकुल रीति की पंरपरा का सवाल है। मैं तो एक साधारण जन हूँ। मेरी भक्ति और आस्था की लाज रखना।

फिर वकील साहब को निमंत्रण दिया गया, आइए गद्दी ऊँची कीजिए। लोगों की आँखे जम गईं। वकील साहब खड़ेे हुए।

उन्होंने गद्दी उठाने के लिए हाथ बढ़ाया पर गद्दी को स्पर्श भी न कर सके! जो भी कारण रहा, उन्होंने तीन बार हाथ बढ़ाया, किन्तु तीनों बार असफल रहे।

महात्मा जी देख रहे थे, गद्दी को पकड़ना तो दूर वकील साहब गद्दी को छू भी न सके। तीनों बार वकील साहब पसीने से तर-बतर हो गए। वकील साहब साधु महाराज के चरणों में गिर पड़े और बोले, महाराज गद्दी उठाना तो दूर, मुझे नहीं मालूम कि क्यों मेरा हाथ भी गद्दी तक नहीं पहुंच पा रहा है।

अत: मैं अपनी हार स्वीकार करता हूं। कहते है कि श्रद्घा और भक्ति के साथ की गई आराधना में बहुत शक्ति होती है। मानो तो देव नहीं तो पत्थर।

प्रभु की मूर्ति तो पाषाण की ही होती है, लेकिन भक्त के भाव से उसमें प्राण प्रतिष्ठा होती है, तो प्रभु बिराजते है

Monday, May 14, 2018

सही-गलत

ट्रेन में एक पिता-पुत्र सफर कर रहे थे.
24 वर्षीय पुत्र खिड़की से बाहर देख रहा था, अचानक वो चिल्लाया – पापा देखो पेड़ पीछे की ओर भाग रहे हैं !
पिता कुछ बोला नहीं, बस सुनकर मुस्कुरा दिया. ये देखकर बगल में बैठे एक युवा दम्पति को अजीब लगा और उस लड़के के बचकाने व्यवहार पर दया भी आई.
तब तक वो लड़का फिर से बोला – पापा देखो बादल हमारे साथ दौड़ रहे हैं !
युवा दम्पति से रहा नहीं गया और वो उसके पिता से बोल पड़े – आप अपने लड़के को किसी अच्छे डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाते ?
लड़के का पिता मुस्कुराया और बोला – हमने दिखाया था और हम अभी सीधे हॉस्पिटल से ही आ रहे हैं. मेरा लड़का जन्म से अंधा था और आज वो यह दुनिया पहली बार देख रहा है.

आजकल जीवन कठिन इसीलिए हो गया है क्योंकि हमने लोगो को समझना कम कर दिया और फौरी तौर पर judge करना शुरू कर दिया है. थोड़ी सी समझ और थोड़ी सी मानवता ही आपको सही रास्ता दिखा सकती है. जीवन में निर्णय लेने के कई ऐसे पल आयेंगे, सो अगली बार किसी पर भी अपने पूर्वाग्रह का ठप्पा लगाने से पहले विचार अवश्य करें.

Saturday, May 12, 2018

मुसीबत

उद्धव ने कृष्ण से पूछा,जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी,तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया!

लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं?

उसे एक आदमी घसीटकर भरी सभा में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के  लिए छोड़ देता है! एक महिला का शील क्या बचा? आपने क्या बचाया?

अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपाद-बांधव कैसे कहा जा सकता है?

बताईए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो क्या फायदा? क्या यही धर्म है?" इन प्रश्नों को पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।

ये अकेले उद्धव के प्रश्न नहीं हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं!

उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए।

भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले-
"प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है।

उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं।

यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए।"

उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसाऔर धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूतक्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है। धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा।

जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता?

पाँसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?

चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें माफ़ किया जा सकता है। 

लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी गलती की! और वह यह- उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए!

क्योंकि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे।

वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं!

इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया! मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी!

इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए! बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे! 

अपने भाई के आदेश पर जब दुस्साशन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही!

तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा!
उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुस्साशन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया!

जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर-
'हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम'-
की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला।

जैसे ही मुझे पुकारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया। अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?"

उद्धव बोले-
"कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई! 
क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ?"

कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा-
"इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?"

कृष्ण मुस्कुराए-
"उद्धव इस सृष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है।

न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ।

मैं केवल एक 'साक्षी' हूँ।

मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ।

यही ईश्वर का धर्म है।"

"वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण! तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे?"

हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे?

आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?" उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा!

तब कृष्ण बोले- "उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।"

जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ, तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे?

तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे।

जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो,तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो!

Friday, May 11, 2018

तेरा अहंकार

एक बार एक अजनबी किसी के घर गया। वह अंदर गया और मेहमान कक्ष मे बैठ गया। वह खाली हाथ आया था तो उसने सोचा कि कुछ उपहार देना अच्छा रहेगा। तो उसने वहा टंगी एक पेन्टिंग उतारी और जब घर का मालिक आया, उसने पेन्टिंग देते हुए कहा, यह मै आपके लिए लाया हुँ। घर का मालिक, जिसे पता था कि यह मेरी चीज मुझे ही भेंट दे रहा है, सन्न रह गया !!!!! अब आप ही बताएं कि क्या वह भेंट पा कर, जो कि पहले से ही उसका है, उस आदमी को खुश होना चाहिए ?? मेरे ख्याल से नहीं.... लेकिन यही चीज हम भगवान के साथ भी करते है। हम उन्हे रूपया, पैसा चढाते है और हर चीज जो उनकी ही बनाई है, उन्हें भेंट करते हैं! लेकिन मन मे भाव रखते है की ये चीज मै भगवान को दे रहा हूँ! और सोचते हैं कि ईश्वर खुश हो जाएगें। मूर्ख है हम! हम यह नहीं समझते कि उनको इन सब चीजो कि जरुरत नही। अगर आप सच मे उन्हे कुछ देना चाहते हैं तो अपनी श्रद्धा दीजिए, उन्हे अपने हर एक श्वास मे याद
कीजिये और विश्वास मानिए प्रभु जरुर खुश होगा !! अजब हैरान हूँ भगवन तुझे कैसे रिझाऊं मैं; कोई वस्तु नहीं ऐसी
जिसे तुझ पर चढाऊं मैं । भगवान ने जवाब दिया :" संसार की हर वसतु तुझे मैनें दी है। तेरे पास अपनी चीज सिरफ तेरा अहंकार है, जो मैनें नहीं दिया । उसी को तूं मेरे अरपण कर दे। तेरा जीवन सफल हो

Wednesday, May 9, 2018

मृत्यु से भय कैसा

राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनातें हुए जब शुकदेव जी महाराज को छह दिन बीत गए और तक्षक ( सर्प ) के काटने से मृत्यु होने का एक दिन शेष रह गया, तब भी राजा परीक्षित का शोक और मृत्यु का भय दूर नहीं हुआ। अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर राजा का मन क्षुब्ध हो रहा था। तब शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को एक कथा
सुनानी आरंभ की। राजन ! बहुत समय पहले की बात है, एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया। संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा पहुँचा। उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात्रि पड़ गई और भारी वर्षा पड़ने लगी। जंगल में सिंह व्याघ्र आदि बोलने लगे। वह राजा बहुत डर गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूंढने लगा। रात के समय में अंधेरा होने की वजह से उसे एक दीपक दिखाई दिया। वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बहेलिये की झोंपड़ी देखी । वह बहेलिया ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था। अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था। बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंधयुक्त वह झोंपड़ी थी। उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठका, लेकिन पीछे उसने सिर छिपाने का कोई और आश्रय न देखकर उस बहेलिये से अपनी झोंपड़ी में रात भर ठहर
जाने देने के लिए प्रार्थना की। बहेलिये ने कहा कि आश्रय के लोभी राहगीर कभी- कभी यहाँ आ भटकते हैं। मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूँ, लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं। इस झोंपड़ी की गंध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर वे उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने की कोशिश करते हैं एवं अपना कब्जा जमाते हैं। ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ।। इसलिए मैं अब किसी को भी यहां नहीं ठहरने देता। मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा।
राजा ने प्रतिज्ञा की कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा। उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है, सिर्फ एक रात्रि ही काटनी है। बहेलिये ने राजा को ठहरने की अनुमति दे दी, पर सुबह होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दोहरा दिया। राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा। सोने में झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सुबह उठा तो वही सब परमप्रिय लगने लगा। अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वहीं निवास करने की बात सोचने लगा। वह बहेलिये से और ठहरने की प्रार्थना करने लगा। इस पर बहेलिया भड़क गया और राजा को भला-बुरा कहने लगा। राजा को अब वह जगह छोड़ना झंझट लगने लगा और दोनों के बीच उस स्थान को लेकर बड़ा विवाद खड़ा हो गया। कथा सुनाकर शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित से पूछा," परीक्षित ! बताओ, उस राजा का उस स्थान पर सदा के लिए रहने के लिए झंझट करना उचित था ? परीक्षित ने उत्तर दिया," भगवन् ! वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइये ? वह तो बड़ा भारी मूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता है। उसकी मूर्खता पर तो मुझे आश्चर्य होता है। " श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा," हे राजा परीक्षित ! वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं। इस मल-मूल की गठरी देह ( शरीर ) में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आएं हैं। फिर भी आप झंझट फैला रहे हैं और मरना नहीं चाहते। क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है ?" राजा परीक्षित का ज्ञान जाग पड़ा और वे बंधन मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए। मेरे भाई - बहनों, वास्तव में यही सत्य है। जब एक जीव अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् ! मुझे यहाँ ( इस कोख ) से मुक्त कीजिए, मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा। और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है तो ( उस राजा की तरह हैरान होकर ) सोचने लगता है कि मैं ये कहाँ आ गया (और पैदा होते ही रोने लगता है ) फिर उस गंध से भरी झोंपड़ी की तरह उसे यहाँ कीखुशबू ऐसी भा जाती है कि वह अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता है।यही मेरी भी कथा है और आपकी भी।

रामनाम सत्य है
यही अटल सत्य है

Tuesday, May 8, 2018

दान की महिमा

एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल दिए, इस अंधविश्वास के कारण कि भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। थैली देखकर दूसरों को भी लगता है कि इसे पहले से ही किसी ने कुछ दे रखा है।
पूर्णिमा का दिन था। भिखारी सोच रहा था कि आज अगर ईश्वर की कृपा होगी तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी। अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती हुई दिखाई दी।
भिखारी खुश हो गया। उसने सोचा कि राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से आज तो उसकी सारी दरिद्रता दूर हो जाएंगी और उसका जीवन संवर जाएगा।
जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई। जैसे ही राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रूकवाया और उतर कर उसके निकट पहुंचे।
भिखारी की तो मानो सांसें ही रूकने लगीं, लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उल्टे अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और उससे भीख की याचना करने लगा। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। अभी वह सोच ही रहा था कि राजा ने पुनः याचना की।
भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला मगर हमेशा दूसरों से लेने वाला मन देने को राजी नहीं हो रहा था।
जैसे-तैसे करके उसने दो दाने जौ के निकाले और राजा की चादर में डाल दिए। उस दिन हालांकि भिखारी को अधिक भीख मिली, लेकिन अपनी झोली में से दो दाने जौ के देने का मलाल उसे सारा दिन रहा। शाम को जब उसने अपनी झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही।
जो जौ वह अपने साथ झोली में ले गया था, उसके दो दाने सोने के हो गए थे। अब उसे समझ में आया कि यह दान की महिमा के कारण ही हुआ। 
वह पछताया कि – काश.! उस समय उसने राजा को और अधिक जौ दिए होते लेकिन दे नहीं सका, क्योंकि उसकी देने की आदत जो नहीं थी।
शिक्षा-
*1. देने से कोई चीज कभी घटती नहीं।*
*2. लेने वाले से देने वाला बड़ा होता है।*
*3. अंधेरे में छाया, बुढ़ापे में काया और अन्त समय में माया किसी का साथ नहीं देती

Wednesday, May 2, 2018

वो भी क्या दिन थे

वो भी क्या दिन थे 
रूहअफ़ज़ा हुआ करता था हम सबके घरों मैं। .....कांच की खाली बोतलों में मम्मी ताज़े नीबू का रस निचोड़ कर गर्मी के पुख्ता इंतेज़ाम कर लिया करती थी ।
हाँ उन दिनों गर्मी की छुट्टियों मैं नानी के यहाँ जाने का रिवाज हुआ करता था । और वहां मामा ओर मौसी हमारे सारे नखरे उठाने के लिए वचनबद्ध हुआ करते थे ।
भारी दोपहरी वो सत्तू मैं शक्कर घोल कर नानी के घर पर खाने का मज़ा ही कुछ और था ।
ओर वो दस्सी पंजी चवन्नी की बेर मिरचन की पुड़िया दौड़े दौड़े लाया करते थे ।
ओर उसमे निकले छोटे छोटे खिलोनों पर इतराने का भी अपना मज़ा था ।
वो भी क्या दिन थे ।
वो कुल्फी वाला साइकल पर दूध की कुल्फी लिए आता था और कुछ कलदारों के बदले हमारे बचपन को ठंडक दे जाया करता था 
वो भी क्या दिन थे ।
ओर हां मटके हुआ करते थे । जिनपर कपड़ा लगाया होता था चारों तरफ । हमारा काम होता था कि वो कपड़ा सूखने न पाए । गोया ठंडक के सबसे बड़े जिम्मेदार मटके महाशय हुआ करते थे । उनकी एक सहेली भी कुछ घरों में रहा करती थी , सुराही नाम हुआ करता था मोहतरमा का । क्या नज़ाकत - ओर नक्काशी लिए हुए मोहतरमा खटिया के पास इतरा इतरा कर ठंडक बिखेरा करती थी ।
ओर दूर खड़े मटके को भी चिढ़ाया करी थी ।
वो भी क्या दिन हुआ करते थे ।
रातें ठंडक लिए हुए होती थी । और अटारियों पर चटाई के ऊपर दरी चादर बिछा कर बड़े सुकून की नींद आया करती थी ।
हाँ छत पर बड़ी सफाई हुआ करती थी उन दिनों ।
बिस्तर लगाने के पहले पानी छिड़क कर छत को पहले ठंडक पहुंचाई जाती थी ।
वो भी क्या दिन हुआ करते थे ।
कुछ अरसा हुआ कि छत पर एक झगड़े की जड़ आई जिसका नाम टेबल फैन हुआ करता था ।
सिन्नी ओर उषा ये नाम तो सभी को याद होंगे ।
बस उसके आते है वो खींचा तानी शुरू हुई कि कोन उसके सामने सोयेगा ओर को कहां ।
झगड़ा खत्म होता था पापा की घुड़की से ओर अम्मा की समझाइश से ।
वो भी क्या दिन थे ।
हां उनदिनों ठंडक के सारे इंतेज़ाम घर पर ही हुआ करते थे । बस बाहर से सिर्फ एक रुपये की बर्फ आया करती थी जो कभी लस्सी मैं , कभी रूह अफज़ा मैं कभी नीबू शर्बत में घुल मिल जाया करती थी ।
वो भी क्या दिन थे ।
और हाँ याद है ना तुम सबको की जब बर्फ का एक टुकड़ा हम कितनी देर तक अपने मुंह में घमाते थे ।
और फिर हाँ वो कटुूर कुटुर अपने दांतों से चबा कर एक दूसरे को चिढाना याद है ना ।
वो भी क्या दिन थे ।
वो पापा की घुड़की , वो मम्मी की थपकी ।
वो भी क्या दिन थे ।
वो गर्मी अब भी आती है , लेकिन ........
बस आगे कुछ नही कहना है........
बस वो बचपन अब नही आता , वो अटारी अब नही होती , टेबल फैन कब का कबाड़ी वाला रद्दी के साथ ले गया ....वो मटका अब किस्से कहानियों मैं रह गया ...
कभी कभी लगता है कि वो हमारे बचपन को भी रद्दी के साथ तोल कर कुछ कलदार हमारे हाथों मैं थमा गया ।
बस तब से हम कलदारों से रुपए और रुपयों से खुशियां खरीदने की कोशिश करने लगे है हम सब ।
काश की ऐसा हो सकता कि वो रद्दी वाला हमारा बचपन लौटा जाता ओर हम सब रुपये उसको दे देते ।
लेकिन फिर किसी कीमत पर हम वो बचपन कभी किसी को न देते
लोग कहते है हम बड़े हो गए , लोग कहते है हम समझदार हो गए 
लेकिन वो भी क्या दिन हुआ करते थे ।

Tuesday, May 1, 2018

बंजर पेड

एक बच्चे को आम का पेड़ बहुत पसंद था।जब भी फुर्सत मिलती वो आम के पेड के पास पहुच जाता।पेड के उपर चढ़ता,आम खाता,खेलता और थक जाने पर उसी की छाया मे सो जाता। उस बच्चे और आम के पेड के बीच एक अनोखा रिश्ता बन गया। बच्चा जैसे-जैसे बडा होता गया वैसे-वैसे उसने पेड के पास आना कम कर दिया। कुछ समय बाद तो बिल्कुल ही बंद हो गया। आम का पेड उस बालक को याद करके अकेला रोता। एक दिन अचानक पेड ने उस बच्चे को अपनी तरफ आते देखा और पास आने पर कहा, तू कहां चला गया था? मै रोज तुम्हे याद किया करता था। चलो आज फिर से दोनो खेलते है।" बच्चे ने आम के पेड से कहा, अब मेरी खेलने की उम्र नही है मुझे पढना है,लेकिन मेरे पास फीस भरने के पैसे नही है।" पेड ने कहा,"तू मेरे आम लेकर बाजार मे बेच दे, इससे जो पैसे मिले अपनी फीस भर देना।" उस बच्चे ने आम के पेड से सारे आम तोड़ लिए और उन सब आमो को लेकर वहा से चला गया। उसके बाद फिर कभी दिखाई नही दिया। आम का पेड उसकी राह देखता रहता। एक दिन वो फिर आया और कहने लगा, अब मुझे नौकरी मिल गई है, मेरी शादी हो चुकी है, मुझे मेरा अपना घर बनाना है,इसके लिए मेरे पास अब पैसे नही है।" आम के पेड ने कहा, तू मेरी सभी डाली को काट कर ले जा,उससे अपना घर बना ले।" उस जवान ने पेड की सभी डाली काट ली और ले के चला गया।आम के पेड के पास अब कुछ नहीं था वो अब बिल्कुल बंजर हो गया था। कोई उसे देखता भी नहीं था। पेड ने भी अब वो बालक/जवान उसके पास फिर आयेगा यह उम्मीद छोड दी थी। फिर एक दिन अचानक वहाँ एक बुढा आदमी आया। उसने आम के पेड से कहा,"शायद आपने मुझे नही पहचाना, मैं वही बालक हूं जो बार-बार आपके पास आता और आप हमेशा अपने टुकड़े काटकर भी मेरी मदद करते थे।"आम के पेड ने दु:ख के साथ कहा,पर बेटा मेरे पास अब ऐसा कुछ भी नही जो मै तुम्हे दे सकु।" वृद्ध ने आंखो मे आंसु लिए कहा, आज मै आपसे कुछ लेने नही आया हूं बल्कि आज तो मुझे आपके साथ जी भरके खेलना है, आपकी गोद मे सर रखकर सो जाना है।"
इतना कहकर वो आम के पेड से लिपट गया और आम के पेड की सुखी हुई डाली फिर से अंकुरित हो उठी।वो आम का पेड़ कोई और नही हमारे माता-पिता हैं दोस्तों ।जब छोटे थे उनके साथ खेलना अच्छा लगता था।* जैसे-जैसे बडे होते चले गये उनसे दुर होते गये। पास भी तब आये जब कोई जरूरत पडी, कोई समस्या खडी हुई।आज कई माँ बाप उस बंजर पेड की तरह अपने बच्चों की राह देख रहे है। जाकर उनसे लिपटे, उनके गले लग जाये फिर देखना वृद्धावस्था में उनका जीवन फिर से अंकुरित हो उठेगा।

Monday, April 30, 2018

वसीयत

एक घर मे तीन भाई और एक बहन थी...बड़ा और छोटा पढ़ने मे बहुत तेज थे। उनके मा बाप उन चारो से बेहद प्यार करते थे मगर मझले बेटे से थोड़ा परेशान से थे।

बड़ा बेटा पढ़ लिखकर डाक्टर बन गया।
छोटा भी पढ लिखकर इंजीनियर बन गया। मगर मझला बिलकुल अवारा और गंवार बनके ही रह गया। सबकी शादी हो गई । बहन और मझले को छोड़ दोनों भाईयो ने Love मैरीज की थी।

बहन की शादी भी अच्छे घराने मे हुई थी।
आखीर भाई सब डाक्टर इंजीनियर जो थे।

अब मझले को कोई लड़की नहीं मिल रही थी। बाप भी परेशान मां भी।
बहन जब भी मायके आती सबसे पहले छोटे भाई और बड़े भैया से मिलती। मगर मझले से कम ही मिलती थी। क्योंकि वह न तो कुछ दे सकता था और न ही वह जल्दी घर पे मिलता था।

वैसे वह दिहाडी मजदूरी करता था। पढ़ नहीं सका तो...नौकरी कौन देता। मझले की शादी कीये बिना बाप गुजर गये ।

माँ ने सोचा कहीं अब बँटवारे की बात न निकले इसलिए अपने ही गाँव से एक सीधी साधी लड़की से मझले की शादी करवा दी।
शादी होते ही न जाने क्या हुआ की मझला बड़े लगन से काम करने लगा ।
दोस्तों ने कहा... ए चन्दू आज अड्डे पे आना।

चंदू - आज नहीं फिर कभी
दोस्त - अरे तू शादी के बाद तो जैसे बिबी का गुलाम ही हो गया?
चंदू - अरे ऐसी बात नहीं । कल मैं अकेला एक पेट था तो अपने रोटी के हिस्से कमा लेता था। अब दो पेट है आज
कल और होगा।

घरवाले नालायक कहते थे कहते हैं मेरे लिए चलता है।
मगर मेरी पत्नी मुझे कभी नालायक कहे तो मेरी मर्दानगी पर एक भद्दा गाली है। क्योंकि एक पत्नी के लिए उसका पति उसका घमंड इज्जत और उम्मीद होता है। उसके घरवालो ने भी तो मुझपर भरोसा करके ही तो अपनी बेटी दी होगी...फिर उनका भरोसा कैसे तोड़ सकता हूँ । कालेज मे नौकरी की डिग्री मिलती है और ऐसे संस्कार मा बाप से मिलते हैं ।

इधर घरपे बड़ा और छोटा भाई और उनकी पत्नीया मिलकर आपस मे फैसला करते हैं की...जायदाद का बंटवारा हो जाये क्योंकि हम दोनों लाखों कमाते है मगर मझला ना के बराबर कमाता है। ऐसा नहीं होगा।

मां के लाख मना करने पर भी...बंटवारा की तारीख तय होती है। बहन भी आ जाती है मगर चंदू है की काम पे निकलने के बाहर आता है। उसके दोनों भाई उसको पकड़कर भीतर लाकर बोलते हैं की आज तो रूक जा? बंटवारा कर ही लेते हैं । वकील कहता है ऐसा नहीं होता। साईन करना पड़ता है।

चंदू - तुम लोग बंटवारा करो मेरे हिस्से मे जो देना है दे देना। मैं शाम को आकर अपना बड़ा सा अगूंठा चिपका दूंगा पेपर पर।
बहन- अरे बेवकूफ ...तू गंवार का गंवार ही रहेगा। तेरी किस्मत अच्छी है की तू इतनी अच्छे भाई और भैया मिलें
मां- अरे चंदू आज रूक जा।

बंटवारे में कुल दस विघा जमीन मे दोनों भाई 5- 5 रख लेते हैं ।
और चंदू को पुस्तैनी घर छोड़ देते है
तभी चंदू जोर से चिल्लाता है।

अरे???? फिर हमारी छुटकी का हिस्सा कौन सा है?
दोनों भाई हंसकर बोलते हैं
अरे मूरख...बंटवारा भाईयो मे होता है और बहनों के हिस्से मे सिर्फ उसका मायका ही है।

चंदू - ओह... शायद पढ़ा लिखा न होना भी मूर्खता ही है।
ठीक है आप दोनों ऐसा करो।
मेरे हिस्से की वसीएत मेरी बहन छुटकी के नाम कर दो।
दोनों भाई चकीत होकर बोलते हैं ।
और तू?

चंदू मां की और देखके मुस्कुराके बोलता है
मेरे हिस्से में माँ है न......
फिर अपनी बिबी की ओर देखकर बोलता है..मुस्कुराके...क्यों चंदूनी जी...क्या मैंने गलत कहा?

चंदूनी अपनी सास से लिपटकर कहती है। इससे बड़ी वसीएत क्या होगी मेरे लिए की मुझे मां जैसी सासु मिली और बाप जैसा ख्याल रखना वाला पति।
बस येही शब्द थे जो बँटवारे को सन्नाटा मे बदल दिया ।
बहन दौड़कर अपने गंवार भैया से गले लगकर रोते हुए कहती है की..मांफ कर दो भैया मुझे क्योंकि मैं समझ न सकी आपको।

चंदू - इस घर मे तेरा भी उतना ही अधिकार है जीतना हम सभी का।
बहुओं को जलाने की हिम्मत कीसी मे नहीं मगर फिर भी जलाई जाती है क्योंकि शादी के बाद हर भाई हर बाप उसे पराया समझने लगते हैं । मगर मेरे लिए तुम सब बहुत अजीज हो चाहे पास रहो या दुर।

माँ का चुनाव इसलिए कीया ताकी तुम सब हमेशा मुझे याद आओ। क्योंकि ये वही कोख है जंहा हमने साथ साथ 9 - 9 महीने गुजारे। मां के साथ तुम्हारी यादों को भी मैं रख रहा हूँ।

दोनों भाई दौड़कर मझले से गले मिलकर रोते रोते कहते हैं
आज तो तू सचमुच का बाबा लग रहा है। सबकी पलको पे पानी ही पानी। सब एक साथ फिर से रहने लगते है।
 पोस्ट अच्छा लगे तो शेयर जरूर करें 

Sunday, April 29, 2018

बेटी के सवाल

मां ने बेटी से पूछा कि बेटी तुझे कैसा वर चाहिये? बेटी ने जबाब दिया मुझे रावण जैसा वर चाहिये। मां ने यह शब्द अपनी बेटी से सुनते ही चिल्लाई ।और डाँटते हुए अपनी बेटी को समझाने लगी? 
बेटी रावण नही राम जैसा पति मांगते है। जो पुरुषोत्तम और जगत के कुल थे ।
बेटी ने शांत मन से कहा कि मां रावण ने अपनी बहन शूर्पणखा की इज्जत की खातिर अपनी  लंका का विनाश करवाया। लेकिन समझौता नही किया।
सीता का हरण किया लेकिन उसकी इच्छा के  विरूद्ध कोई कार्य नही किया ।
जिस इंसान में  औरत के प्रति इतनी इज्जत और #श्रद्धा हो। वह पति जीवन में एक जन्म नही सात जन्म मिलना चाहिये ।
और मां आप राम के पुरुषोत्तम की बात कर रही हो। क्या तुम चाहती हो। कि तुम्हारी बेटी घर घर ठोकरें खाये ।सीता की तरह ?
अगर अपने पति के लिये यह सब कर भी लूँ । और मेरा पति मेरे चरित्र पर उंगली उठाये । तो अग्नि परीक्षा ??
अग्नि परीक्षा अगर दे भी दूँ  तो गर्भावस्था मैं मुझे घर से निकाल दिया जायेगा । तो क्या आप मेरे पति को पुरुषोत्तम कहेंगी ।।
मां जवाब सुनकर सन्न थी ।।और बेटी के सवाल खत्म नही हो रहे थे

Wednesday, April 25, 2018

प्रभू का पत्र

मेरे प्रिय सुबह तुम जैसे ही सो कर उठे,  मैं तुम्हारे बिस्तर के पास ही खड़ा था मुझे लगा कि तुम मुझसे कुछ बात करोगे। तुम कल या पिछले हफ्ते हुई किसी बात या घटना के लिये मुझे धन्यवाद कहोगे। लेकिन तुम फटाफट चाय पी कर तैयार होने चले गए  और मेरी तरफ देखा भी नहींफिर मैंने सोचा कि तुम नहा के मुझे याद करोगे। पर तुम इस उधेड़बुन में लग गये कि तुम्हे आज कौन से कपड़े पहनने है!!!फिर जब तुम जल्दी से नाश्ता कर रहे थे और अपने ऑफिस के कागज़ इक्कठे करने के लिये घर में इधर से उधर दौड़ रहे थे...तो भी मुझे लगा कि शायद अब तुम्हे मेरा ध्यान आयेगा,लेकिन ऐसा नहीं हुआ।फिर जब तुमने आफिस जाने के 
लिए ट्रेन पकड़ी तो मैं समझा कि इस खाली समय का उपयोग तुम मुझसे बातचीत करने में करोगे पर तुमने थोड़ी देर पेपर पढ़ा और 
फिर खेलने लग गए अपने मोबाइल में और मैं खड़ा का खड़ा ही रह गया। मैं तुम्हें बताना चाहता था कि दिन का कुछ हिस्सा मेरे साथ बिता कर तो देखो तुम्हारे काम और भी अच्छी तरह से होने लगेंगे, लेकिन तुमनें मुझसे बात ही नहीं की...एक मौका ऐसा भी आया जब तुम बिलकुल खाली थे  और कुर्सी पर पूरे 15 मिनट यूं ही बैठे रहे,लेकिन तब भी तुम्हें मेरा ध्यान नहीं आया।दोपहर के खाने के  वक्त जब  तुम इधर- उधर देख रहे थे,तो भी मुझे लगा कि 
खाना खाने से पहले तुम  एक पल के लिये  मेरे बारे में सोचोंगे,
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दिन का अब भी काफी समय बचा था। 
मुझे लगा कि  शायद इस बचे समय में हमारी बात  हो जायेगी,
लेकिन घर पहुँचने के बाद तुम  रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त हो गये। 
जब वे काम निबट गये तो तुमनें टीवी खोल लिया और घंटो टीवी देखते रहे। देर रात थककर तुम बिस्तर पर आ लेटे।तुमनें अपनी पत्नी, बच्चों को  शुभरात्रि कहा  और चुपचाप चादर  ओढ़कर सो गये। मेरा बड़ा मन था कि मैं भी  तुम्हारी  दिनचर्या का हिस्सा बनूं...तुम्हारे साथ कुछ वक्त बिताऊँ...तुम्हारी कुछ सुनूं...तुम्हे कुछ सुनाऊँ। कुछ मार्गदर्शन करूँ  तुम्हारा ताकि तुम्हें समझ आए 
कि तुम किसलिए इस धरती पर आए हो और किन कामों में उलझ गए हो, लेकिन तुम्हें समयही नहीं मिला और मैं मन मार कर ही रह गया।मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ। हर रोज़ मैं इस बात का इंतज़ार करता हूँ  कि तुम मेरा ध्यान करोगे और अपनी छोटी छोटी खुशियों के लिए मेरा धन्यवाद करोगे। पर तुम तब ही आते हो * जब तुम्हें कुछ चाहिए होता है। तुम जल्दी में आते हो और अपनी माँगें मेरे आगे रख के चले जाते हो। और  मजे की बात तो  ये है कि इस प्रक्रिया में तुम मेरी तरफ देखते भी नहीं। ध्यान तुम्हारा उस समय भी  लोगों की तरफ ही  लगा रहता है, और मैं इंतज़ार  करता ही रह जाता हूँ।खैर कोई बात नहीं...हो सकता है  कल तुम्हें मेरी याद आ जाये!!!ऐसा मुझे विश्वास है  और मुझे तुम में आस्था है आखिरकार मेरा दूसरा नाम...आस्था और विश्वास ही तो है।
तुम्हारा ईश्वर...

Monday, April 23, 2018

सबसे प्यारा रिश्ता

रामलाल तुम अपनी बीबी से इतना क्यों डरते हो?"मैने अपने घरेलू नौकर से पुछा।।
"मै डरता नही मैडम उसकी कद्र करता हूँ उसका सम्मान करता हूँ।"उसने जबाव दिया।
मैं हंसी और बोली-" ऐसा कया है उसमें।ना सुरत ना पढी लिखी।"
जबाव मिला-" कोई फरक नही पडता मैडम कि वो कैसी है पर मुझे सबसे प्यारा रिश्ता उसी का लगता है।"
"जोरू का गुलाम।"मेरे मुँह से निकला।"और सारे रिश्ते कोई मायने नही रखते तेरे लिये।"मैने पुछा।
उसने बहुत इत्मिनान से जबाव दिया-
"मैडम जी माँ बाप रिश्तेदार नही होते।वो भगवान होते हैं।उनसे रिश्ता नही निभाते उनकी पूजा करते हैं।
भाई बहन के रिश्ते जन्मजात होते हैं , दोस्ती का रिश्ता भी मतलब का ही होता है।
आपका मेरा रिश्ता भी दजरूरत और पैसे का है पर,
पत्नी बिना किसी करीबी रिश्ते के होते हुए भी हमेशा के लिये हमारी हो जाती है अपने सारे रिश्ते को पीछे छोडकर।और हमारे हर सुख दुख की सहभागी बन जाती है आखिरी साँसो तक।"
मै अचरज से उसकी बातें सुन रही थी।
वह आगे बोला-"मैडम जी, पत्नी अकेला रिश्ता नही है, बल्कि वो पुरा रिश्तों की भण्डार है।
जब वो हमारी सेवा करती है हमारी देख भाल करती है , हमसे दुलार करती है तो एक माँ जैसी होती है।
जब वो हमे जमाने के उतार चढाव से आगाह करती है,और मैं अपनी सारी कमाई उसके हाथ पर रख देता हूँ क्योकि जानता हूँ वह हर हाल मे मेरे घर का भला करेगी तब पिता जैसी होती है।
जब हमारा ख्याल रखती है हमसे लाड़ करती है, हमारी गलती पर डाँटती है, हमारे लिये खरीदारी करती है तब बहन जैसी होती है।
जब हमसे नयी नयी फरमाईश करती है, नखरे करती है, रूठती है , अपनी बात मनवाने की जिद करती है तब बेटी जैसी होती है।
जब हमसे सलाह करती है मशवरा देती है ,परिवार चलाने के लिये नसीहतें देती है, झगडे करती है तब एक दोस्त जैसी होती है।
 जब वह सारे घर का लेन देन , खरीददारी , घर चलाने की जिम्मेदारी उठाती है तो एक मालकिन जैसी होती है।
और जब वही सारी दुनिमा को यहाँ तक कि अपने बच्चो को भी छोडकर हमारे बाहों मे आती है 
तब वह पत्नी, प्रेमिका, प्रेयसी, अर्धांगिनी , हमारी प्राण और आत्मा होती है जो अपना सब कुछ सिर्फ हमपर न्योछावर करती है।"
मैं उसकी इज्जत करता हूँ तो क्या गलत करता हूँ मैडम।"

मैं उसकी बात सुकर अवाक रह गयी।।
एक अनपढ़ और सीमित साधनो मे जीवन निर्वाह करनेवाले से जीवन का यह फलसफा सुकर मुझे एक नया अनुभव हुआ ।
और मैं अपने पति को आजतक दब्बू समझ रही थी।धिक्कार है मेरी सोच को।

Sunday, April 22, 2018

शर्त

शहर के सबसे बड़े बैंक में एक बार एक बुढ़िया आई ।
 उसने मैनेजर से कहा :- “मुझे इस बैंक में कुछ रुपये जमा करने हैं”
मैनेजर ने पूछा :- कितने हैं ?
वृद्धा बोली :- होंगे कोई दस लाख ।
मैनेजर बोला :- वाह क्या बात है, आपके पास तो काफ़ी पैसा है, आप करती क्या हैं ?
वृद्धा बोली :- कुछ खास नहीं, बस शर्तें लगाती हूँ ।
मैनेजर बोला :- शर्त लगा-लगा कर आपने इतना सारा पैसा कमाया है ? कमाल है…
वृद्धा बोली :- कमाल कुछ नहीं है, बेटा, मैं अभी एक लाख रुपये की शर्त लगा सकती हूँ कि तुमने अपने सिर पर विग लगा रखा है ।
मैनेजर हँसते हुए बोला :- नहीं माताजी, मैं तो अभी जवान हूँ और विग नहीं लगाता ।
तो शर्त क्यों नहीं लगाते ? वृद्धा बोली ।
मैनेजर ने सोचा यह पागल बुढ़िया खामख्वाह ही एक लाख रुपये गँवाने पर तुली है, तो क्यों न मैं इसका फ़ायदा उठाऊँ… मुझे तो मालूम ही है कि मैं विग नहीं लगाता ।
मैनेजर एक लाख की शर्त लगाने को तैयार हो गया ।
वृद्धा बोली :- चूँकि मामला एक लाख रुपये का है, इसलिये मैं कल सुबह ठीक दस बजे अपने वकील के साथ आऊँगी और उसी के सामने शर्त का फ़ैसला होगा ।
मैनेजर ने कहा :- ठीक है, बात पक्की…
मैनेजर को रात भर नींद नहीं आई.. वह एक लाख रुपये और बुढ़िया के बारे में सोचता रहा ।
अगली सुबह ठीक दस बजे वह बुढ़िया अपने वकील के साथ मैनेजर के केबिन में पहुच और कहा :- क्या आप तैयार हैं ?
मैनेजर ने कहा :- बिलकुल, क्यों नहीं ?
वृद्धा बोली :- लेकिन चूँकि वकील साहब भी यहाँ मौजूद हैं और बात एक लाख की है, अतः मैं तसल्ली करना चाहती हूँ कि सचमुच आप विग नहीं लगाते, इसलिये मैं अपने हाथों से आपके बाल नोचकर देखूँगी । 
मैनेजर ने पल भर सोचा और हाँ कर दी, आखिर मामला एक लाख का था ।
 वृद्धा मैनेजर के नजदीक आई और धीर-धीरे आराम से मैनेजर के बाल नोचने लगी । उसी वक्त अचानक पता नहीं क्या हुआ, वकील साहब अपना माथा दीवार पर ठोंकने लगे ।
मैनेजर ने कहा :- अरे.. अरे.. वकील साहब को क्या हुआ ?
वृद्धा बोली :- कुछ नहीं, इन्हें सदमा लगा है, मैंने इनसे पाँच लाख रुपये की शर्त लगाई थी कि आज सुबह दस बजे मैं शहर के सबसे बड़े बैंक के मैनेजर के बाल नोचकर दिखा दूँगी ।

Thursday, April 19, 2018

रिश्ते

पिताजी जोऱ से चिल्लाते हैं ।
प्रिंस दौड़कर आता है, और
पूछता है...
क्या बात है पिताजी? 
पिताजी- तूझे पता नहीं है, आज तेरी बहन रश्मि आ रही है?  
वह इस बार हम सभी के साथ अपना जन्मदिन मनायेगी..
अब जल्दी से जा और अपनी बहन को लेके आ, 
हाँ और सुन...तू अपनी नई गाड़ी लेकर जा जो तूने कल खरीदी है...
उसे अच्छा लगेगा,
प्रिंस - लेकिन मेरी गाड़ी तो मेरा दोस्त ले गया है सुबह ही...
और आपकी गाड़ी भी ड्राइवर ये कहकर ले गया कि गाड़ी की ब्रेक चेक करवानी है।
पिताजी - ठीक है तो तू स्टेशन तो जा किसी की गाड़ी लेकर
या किराया की करके? 
उसे बहुत खुशी मिलेगी ।
प्रिंस - अरे वह बच्ची है क्या जो आ नहीं सकेगी? 
आ जायेगी आप चिंता क्यों करते हो कोई टैक्सी या आटो लेकर-----
पिताजी - तूझे शर्म नहीं आती ऐसा बोलते हुए?  घर मे गाड़ियाँ होते हुए भी घर की बेटी किसी टैक्सी या आटो से आयेगी?
प्रिंस - ठीक है आप जाओ मुझे बहुत काम है मैं जा नहीं सकता ।
पिताजी - तूझे अपनी बहन की थोड़ी भी फिकर नहीं? शादी हो गई तो क्या बहन पराई हो गई ?
क्या उसे हम सबका प्यार पाने का हक नहीं?
 तेरा जितना अधिकार है इस घर में,
उतना ही तेरी बहन का भी है। कोई भी बेटी या बहन मायके छोड़ने के बाद पराई नहीं होती।
प्रिंस - मगर मेरे लिए वह पराई हो चुकी है और इस घर पर सिर्फ मेरा अधिकार है।
तडाक ...!
अचानक पिताजी का हाथ उठ जाता है प्रिंस पर,
 और तभी माँ आ जाती है ।
मम्मी - आप कुछ शरम तो कीजिए ऐसे जवान बेटे पर हाँथ बिलकुल नहीं उठाते।
पिताजी - तुमने सुना नहीं इसने क्या कहा, ?
अपनी बहन को पराया कहता है ये वही बहन है जो इससे एक पल भी जुदा नहीं होती थी--
हर पल इसका ख्याल रखती थी। पाकेट मनी से भी बचाकर इसके लिए कुछ न कुछ खरीद देती थी। बिदाई के वक्त भी हमसे ज्यादा अपने भाई से गले लगकर रोई थी।
और ये आज उसी बहन को पराया कहता है।
प्रिंस -(मुस्कुराकर)  बुआ का भी तो आज ही जन्मदिन है पापा...वह कई बार इस घर मे आई है मगर हर बार अॉटो से आई है..आपने कभी भी अपनी गाड़ी लेकर उन्हें लेने नहीं गये...
माना वह आज वह तंगी मे है मगर कल वह भी बहुत अमीर थी । आपको मुझको इस घर को उन्होंने दिल खोलकर सहायता और सहयोग किया है। बुआ भी इसी घर से बिदा हुई थी फिर रश्मि दी और बुआ मे फर्क कैसा। रश्मि मेरी बहन है तो बुआ भी तो आपकी बहन है।
पापा... आप मेरे मार्गदर्शक हो आप मेरे हीरो हो मगर बस इसी बात से मैं हरपल अकेले में रोता हूँ। की तभी बाहर गाड़ी रूकने की आवाज आती है....
तब तक पापा भी प्रिंस की बातों से पश्चाताप की 
आग मे जलकर रोने लगे और इधर प्रिंस भी~~
कि रश्मि दौड़कर पापा मम्मी से गले मिलती है..
लेकिन उनकी हालत देखकर पूछती है कि क्या हुआ पापा? 
पापा - तेरा भाई आज मेरा भी पापा बन गया है ।
रश्मि - ए पागल...!!
नई गाड़ी न? 
बहुत ही अच्छी है मैंने ड्राइवर को पीछे बिठाकर खुद चलाके आई हूँ और कलर भी मेरी पसंद का है।
प्रिंस - happy birthday to you दी...वह गाड़ी आपकी है और हमारे तरफ से आपको birthday gift..!!
बहन सुनते ही खुशी से उछल पड़ती है कि तभी बुआ भी अंदर आती है ।
बुआ - क्या भैया आप भी न, ??? 
न फोन न कोई खबर,
अचानक भेज दी गाड़ी आपने, भागकर आई हूँ खुशी से~~~
ऐसा लगा कि पापा आज भी जिंदा हैं ..
इधर पिताजी अपनी पलकों मे आँसू लिये प्रिंस की ओर देखते हैं ~~~
और प्रिंस पापा को चुप रहने का इशारा करता है।
इधर बुआ कहती जाती है कि मैं कितनी भाग्यशाली हूँ~~
 कि मुझे बाप जैसा भैया मिला, 
ईश्वर करे मुझे हर जन्म मे आप ही भैया मिले...
पापा 
मम्मी को पता चल गया था कि..
ये सब प्रिंस की करतूत है,
मगर आज फिर एक बार रिश्तों को मजबूती से जुड़ते देखकर वह अंदर से खुशी से टूटकर रोने लगे। उन्हें अब पूरा यकीन था कि...मेरे जाने के बाद भी मेरा प्रिंस रिश्तों को सदा हिफाजत से रखेगा~
बेटी और बहन 
   ये दो बेहद अनमोल शब्द हैं 
जिनकी उम्र बहुत कम होती है । क्योंकि शादी के बाद बेटी और बहन किसी की पत्नी तो किसी की भाभी और किसी की बहू बनकर रह जाती है।
शायद लड़कियाँ इसी लिए मायके आती होंगी कि...
उन्हें फिर से बेटी और बहन शब्द सुनने को बहुत मन करता होगा~~