वो भी क्या दिन थे
रूहअफ़ज़ा हुआ करता था हम सबके घरों मैं। .....कांच की खाली बोतलों में मम्मी ताज़े नीबू का रस निचोड़ कर गर्मी के पुख्ता इंतेज़ाम कर लिया करती थी ।
हाँ उन दिनों गर्मी की छुट्टियों मैं नानी के यहाँ जाने का रिवाज हुआ करता था । और वहां मामा ओर मौसी हमारे सारे नखरे उठाने के लिए वचनबद्ध हुआ करते थे ।
भारी दोपहरी वो सत्तू मैं शक्कर घोल कर नानी के घर पर खाने का मज़ा ही कुछ और था ।
ओर वो दस्सी पंजी चवन्नी की बेर मिरचन की पुड़िया दौड़े दौड़े लाया करते थे ।
ओर उसमे निकले छोटे छोटे खिलोनों पर इतराने का भी अपना मज़ा था ।
वो भी क्या दिन थे ।
वो कुल्फी वाला साइकल पर दूध की कुल्फी लिए आता था और कुछ कलदारों के बदले हमारे बचपन को ठंडक दे जाया करता था
वो भी क्या दिन थे ।
ओर हां मटके हुआ करते थे । जिनपर कपड़ा लगाया होता था चारों तरफ । हमारा काम होता था कि वो कपड़ा सूखने न पाए । गोया ठंडक के सबसे बड़े जिम्मेदार मटके महाशय हुआ करते थे । उनकी एक सहेली भी कुछ घरों में रहा करती थी , सुराही नाम हुआ करता था मोहतरमा का । क्या नज़ाकत - ओर नक्काशी लिए हुए मोहतरमा खटिया के पास इतरा इतरा कर ठंडक बिखेरा करती थी ।
ओर दूर खड़े मटके को भी चिढ़ाया करी थी ।
वो भी क्या दिन हुआ करते थे ।
रातें ठंडक लिए हुए होती थी । और अटारियों पर चटाई के ऊपर दरी चादर बिछा कर बड़े सुकून की नींद आया करती थी ।
हाँ छत पर बड़ी सफाई हुआ करती थी उन दिनों ।
बिस्तर लगाने के पहले पानी छिड़क कर छत को पहले ठंडक पहुंचाई जाती थी ।
वो भी क्या दिन हुआ करते थे ।
कुछ अरसा हुआ कि छत पर एक झगड़े की जड़ आई जिसका नाम टेबल फैन हुआ करता था ।
सिन्नी ओर उषा ये नाम तो सभी को याद होंगे ।
बस उसके आते है वो खींचा तानी शुरू हुई कि कोन उसके सामने सोयेगा ओर को कहां ।
झगड़ा खत्म होता था पापा की घुड़की से ओर अम्मा की समझाइश से ।
वो भी क्या दिन थे ।
हां उनदिनों ठंडक के सारे इंतेज़ाम घर पर ही हुआ करते थे । बस बाहर से सिर्फ एक रुपये की बर्फ आया करती थी जो कभी लस्सी मैं , कभी रूह अफज़ा मैं कभी नीबू शर्बत में घुल मिल जाया करती थी ।
वो भी क्या दिन थे ।
और हाँ याद है ना तुम सबको की जब बर्फ का एक टुकड़ा हम कितनी देर तक अपने मुंह में घमाते थे ।
और फिर हाँ वो कटुूर कुटुर अपने दांतों से चबा कर एक दूसरे को चिढाना याद है ना ।
वो भी क्या दिन थे ।
वो पापा की घुड़की , वो मम्मी की थपकी ।
वो भी क्या दिन थे ।
वो गर्मी अब भी आती है , लेकिन ........
बस आगे कुछ नही कहना है........
बस वो बचपन अब नही आता , वो अटारी अब नही होती , टेबल फैन कब का कबाड़ी वाला रद्दी के साथ ले गया ....वो मटका अब किस्से कहानियों मैं रह गया ...
कभी कभी लगता है कि वो हमारे बचपन को भी रद्दी के साथ तोल कर कुछ कलदार हमारे हाथों मैं थमा गया ।
बस तब से हम कलदारों से रुपए और रुपयों से खुशियां खरीदने की कोशिश करने लगे है हम सब ।
काश की ऐसा हो सकता कि वो रद्दी वाला हमारा बचपन लौटा जाता ओर हम सब रुपये उसको दे देते ।
लेकिन फिर किसी कीमत पर हम वो बचपन कभी किसी को न देते
लोग कहते है हम बड़े हो गए , लोग कहते है हम समझदार हो गए
लेकिन वो भी क्या दिन हुआ करते थे ।
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