ये कहानी है, 62 वर्षीय
कुमकुम भान्ति की, जो बेसिक शिक्षा विभाग के अन्तर्गत एक प्राइमरी स्कूल में 44+ साल से कार्यरत हैं। ये एक
मिसाल हैं अपने साथ की और आने वाली पीढ़ियों की बेटियों के लिए। अपनी मेहनत और लगन
से इन्होंने साबित किया है कि एक बेटी किसी भी वक़्त में, किसी भी मुश्किल में खुद
को हारने नहीं देती।
कुमकुम भान्ती का महज़ 17
साल की थीं जब उनके पिता जी की मृत्यु हो गई थी। पिता सरकारी सेवा में थे
इसलिए उनकी नौकरी अनुकम्पा के तौर पर कुमकुम को मिलीथी। लेकिन उम्र 18 वर्ष से कम
थी। 4 महीने के इंतज़ार के बाद 18 साल का होते ही इन्हें बेसिक शिक्षा विद्यालय
में बतौर अध्यापिका नियुक्त किया गया।
महज़ 18 साल की उम्र में नौकरी
और घर दोनों की ज़िम्मेदारियां उठाना कम चुनौतीपूर्ण नहीं था। घर में मां के
साथ छोटी बहन को संभालने का दारोमरदार उनके ऊपर ही था।
एक शिक्षिका की
ज़िम्मेदारियों से न्याय करने के लिए आगे पढ़ाई की भी ज़रूरत थी। कुमकुम ने...फिर
घर और नौकरी के साथ पढ़ाई की भी जिम्मेदारी उठाई। डा.भीमराव अम्बेडकर युनिवर्सिटी
से उन्होंने प्राइवेट स्नातक और स्नातकोत्तर किया। लगन और मेहनत देखकर सरकार ने बीटीसी करवाने
में उनकी मदद की।
एक बेटी के तौर पर कुमकुम
ने खुद को साबित किया...लेकिन एक बहू के तौर पर भी चुनौतियां कम नहीं थीं। ससुराल
की कमज़ोर आर्थिक स्थिति उनके सामने एक चुनौती बनकर सामने आई। एक पत्नी के तौर
पर, एक मां के तौर पर हर ज़िम्मेदारी इस बेटी ने पूरी तरह से उठाई।
बच्चों की परवरिश, उनकी
पढ़ाई....उनका भविष्य। शायद ही ज़िंदगी का कोई
पड़ाव होगा जहां उन्हें चुनौतियां ना मिली हों, जहां उन्हें खुद को साबित ना करना
पड़ा हो।