बहू ! आज माताजी का पूजन करना है घर में ही पूड़ीयाँ , हलवा और चने का प्रशाद बनेगा ।"
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"ओहो
! ये त्योहार भी आज ही आना था और ऊपर से ये पुराने रीतिरिवाज ढ़ोने वाली ये
सास । इनके मुंह में तो जुबान ही नहीं है जो कुछ कह सकें माँ से ! "
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"अरे! यार कभी तो माँ की भी मान लिया करो , हमेशा अपनी ही चलाती हो । इस बार तो अपनी मनमर्जी को लगाम दो! "
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"तुम्हें
मालूम है न ....मुझसे ये सब नहीं होने वाला है । रही बात बच्चियों में
देवी माँ को देखने की तो मैं समझती हूँ कि अब जिस तरह से छोटी -छोटी
देवियाँ राक्षसों द्वारा हलाल की जा रहीं हैं , पूजा से ज्यादा उन्हें
बचाने की जरूरत है ।"
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"ये तुम
और तुम्हारी समाज सेवा मैं तो समझ सकता हूँ मगर माँ नहीं समझेगी और
ज्यादा देर हुई तो वो खुद बैठ जाएंगी रसोई में और फिर जो होगा तुम जानती
ही हो । "
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"कोई चिंता की
जरूरत नहीं है मुझे मालूम था कि आज ये सब होने वाला है और मैं पहले ही
इंतजाम करके आई थी रात को ही । पंडित जी सुबह नौ बजे आएंगे और साथ ही
बच्चियाँ भी आएंगी ।"
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लगभग
एक घंटे बाद दरवाजे की घंटी बजी तो पंडित जी के साथ दस बारह बच्चियाँ भी
थी । पूजा स्थान पर पंडित जी को सामान देकर वह सास को भी बुला लाई । पूजा
अच्छी तरह से सम्पन्न हुई अब भोग लगाने की बारी थी ।
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"जाओ बहू भोग का सामान ले आओ !"
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"लंच बॉक्स, कपियाँ, पेंसिलें , चाकलेट और कपड़े की कई थैलियाँ बहू ने सामने रख दीं । "
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"अरे! ये क्या है ? कन्या पूजन करना है मुझे ! देवी को भोग लगाना है । प्रसाद क्या बनाया है वो लेकर आओ ।"
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"माँ
! देवी तो कोई प्रसाद नहीं खाती उन्हें जो भी भोग लगा दो वे ग्रहण कर लेती
है । ये बच्चियाँ भी देवी का ही रूप हैं । मैंने इनके लिए पनीर, पुलाव
बनाया है और रोटियाँ हैं मिठाई बाहर से मँगवा ली है । इसी का भोग लगेगा
आज !"
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"राम राम राम ! कैसी बात कर रही हो बहू ? क्या तुम पूजा को भी मज़ाक समझती हो ? देवी माँ नाराज हो जाएंगी !"
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"माँ
जी ! ये तो मैं नहीं जानती कि देवी माँ नाराज होंगी या नहीं पर ये जरूर
जानती हूँ कि ये बच्चियाँ जो मैंने पास की गरीब बस्ती से बुलाई हैं आज
जरूर खुश होंगी और दूसरों को खुशी देना ही पूजा है मेरे लिए । "
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सास हैरान और परेशान उस सामान को देख रही थी और साथ ही बहू को ।
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"पंडित जी से देवी माँ को मिठाई और भोजन का भोग लगवाकर पूजा समाप्त करें ताकि बच्चियों को भोजन करवाया जा सके ।"
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बच्चियों को अच्छे और नए आसनों पर बैठाया गया । सब के सामने भोजन परोसा गया और प्रेम से बच्चियों को भोजन करवाया गया ।
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"आइये माँ जी ! लीजिये कन्याओं को अपने हाथों से उपहार दीजिये !"
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अनमने
मन से सास आगे आई तो बहू ने पचास -पचास के नोट उनके हाथों में थमा दिये ।
हर बच्ची को लंच बॉक्स, कपियाँ, पेंसिलें , चाकलेट और कपड़े की थैली के
साथ पचास रुपये दिये ।
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"बहू ! तू तो पैसे लुटा रही है बेकार में इन गरीबों पर और ये मनमानी ठीक नहीं है ।"
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"माँ
जी ! ये जिंदा देवियाँ हैं , इनकी मदद ही हमारी पूजा है । जो प्रसाद
गलियों में फेंक दिया जाय और अनादर हो, मैं पसंद नहीं करती , इसलिए मैंने
जरूरत का सामान उन्हें दिया है जिस से सही में खुशी हासिल हो । वैसे भी
पूजा के बदले हम चाहते भी क्या हैं खुशी ही न ! अब मेरी टेढ़ी-मेढ़ी पूड़ीयाँ
ये खुशी कहाँ दे पाती !"
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"सही कह रही है बहू ! मैं ही न समझ सकी तेरी बात । तेरी पूजा ही सफल है ।" और बहू को गले लगा लिया ।
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