एक साधु गंगा किनारे अपनी
झोपड़ी में रहता था। सोने के लिए एक बिस्तर, पानी पीने के लिए मिट्टी का
एक घड़ा और दो कपड़े, बस यही उस साधु की पूंजी थी।
उस साधु ने एक कछुआ पाल रखा था। इसलिए जब वह साधु भिक्षा मांगने के लिए जाता, तो कछुए के लिए भी कुछ न कुछ ले आता था।
साधु के पास कछुआ था इसलिए बहुत से लोग उन्हे कछुआ वाले बाबा भी कहते थे।
एक दिन एक आदमी ने साधु से पूछा, “बाबा… आपने यह एक गंदा सा जीव क्यों पाल रखा हैॽ इसे आप गंगा में क्यों नहीं डाल आतेॽ“
साधु ने कहा, “कृपया ऐसा न कहे, इस कछुए को मैं अपना गुरू मानता हूँ।“
साधु की बात सुन कर वह आदमी बोला, “बाबा… भला कछुआ किसी का गुरू कैसे हो सकता है?“
साधु ने कहा, “देखो, किसी भी तरह की
आहट होने पर यह अपने सभी अंग अपने भीतर खींचकर छुपा लेता है। इसके बाद इसे
चाहे जितना हिलाओ, यह अपना एक अंग भी बाहर नहीं निकालता है। ठीक इसी प्रकार
से मनुष्य को भी लोभ, क्रोध, हिंसा आदि दुर्गुणों से स्वयं को बचाकर
रखना चाहिए। यह चीजें उसे कितना भी आमंत्रण दे, किंतु इनसे दूर ही रहना
चाहिए।“
मैं इस कछुए को जब भी देखता हूँ, मुझे यह
ऐहसास हो जाता है कि मैं भी इसी तरह से अपने अन्दर किसी भी प्रकार का ऐसा
भाव नही आने दुं, जिससे मेरा ही नुकसान हो। मुझे यह बात याद आ जाती है कि
मुझे सदैव इस कछुए की तरह ही जीवन जीना है।
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