Tuesday, May 8, 2018

दान की महिमा

एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल दिए, इस अंधविश्वास के कारण कि भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। थैली देखकर दूसरों को भी लगता है कि इसे पहले से ही किसी ने कुछ दे रखा है।
पूर्णिमा का दिन था। भिखारी सोच रहा था कि आज अगर ईश्वर की कृपा होगी तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी। अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती हुई दिखाई दी।
भिखारी खुश हो गया। उसने सोचा कि राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से आज तो उसकी सारी दरिद्रता दूर हो जाएंगी और उसका जीवन संवर जाएगा।
जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई। जैसे ही राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रूकवाया और उतर कर उसके निकट पहुंचे।
भिखारी की तो मानो सांसें ही रूकने लगीं, लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उल्टे अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और उससे भीख की याचना करने लगा। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। अभी वह सोच ही रहा था कि राजा ने पुनः याचना की।
भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला मगर हमेशा दूसरों से लेने वाला मन देने को राजी नहीं हो रहा था।
जैसे-तैसे करके उसने दो दाने जौ के निकाले और राजा की चादर में डाल दिए। उस दिन हालांकि भिखारी को अधिक भीख मिली, लेकिन अपनी झोली में से दो दाने जौ के देने का मलाल उसे सारा दिन रहा। शाम को जब उसने अपनी झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही।
जो जौ वह अपने साथ झोली में ले गया था, उसके दो दाने सोने के हो गए थे। अब उसे समझ में आया कि यह दान की महिमा के कारण ही हुआ। 
वह पछताया कि – काश.! उस समय उसने राजा को और अधिक जौ दिए होते लेकिन दे नहीं सका, क्योंकि उसकी देने की आदत जो नहीं थी।
शिक्षा-
*1. देने से कोई चीज कभी घटती नहीं।*
*2. लेने वाले से देने वाला बड़ा होता है।*
*3. अंधेरे में छाया, बुढ़ापे में काया और अन्त समय में माया किसी का साथ नहीं देती

Wednesday, May 2, 2018

वो भी क्या दिन थे

वो भी क्या दिन थे 
रूहअफ़ज़ा हुआ करता था हम सबके घरों मैं। .....कांच की खाली बोतलों में मम्मी ताज़े नीबू का रस निचोड़ कर गर्मी के पुख्ता इंतेज़ाम कर लिया करती थी ।
हाँ उन दिनों गर्मी की छुट्टियों मैं नानी के यहाँ जाने का रिवाज हुआ करता था । और वहां मामा ओर मौसी हमारे सारे नखरे उठाने के लिए वचनबद्ध हुआ करते थे ।
भारी दोपहरी वो सत्तू मैं शक्कर घोल कर नानी के घर पर खाने का मज़ा ही कुछ और था ।
ओर वो दस्सी पंजी चवन्नी की बेर मिरचन की पुड़िया दौड़े दौड़े लाया करते थे ।
ओर उसमे निकले छोटे छोटे खिलोनों पर इतराने का भी अपना मज़ा था ।
वो भी क्या दिन थे ।
वो कुल्फी वाला साइकल पर दूध की कुल्फी लिए आता था और कुछ कलदारों के बदले हमारे बचपन को ठंडक दे जाया करता था 
वो भी क्या दिन थे ।
ओर हां मटके हुआ करते थे । जिनपर कपड़ा लगाया होता था चारों तरफ । हमारा काम होता था कि वो कपड़ा सूखने न पाए । गोया ठंडक के सबसे बड़े जिम्मेदार मटके महाशय हुआ करते थे । उनकी एक सहेली भी कुछ घरों में रहा करती थी , सुराही नाम हुआ करता था मोहतरमा का । क्या नज़ाकत - ओर नक्काशी लिए हुए मोहतरमा खटिया के पास इतरा इतरा कर ठंडक बिखेरा करती थी ।
ओर दूर खड़े मटके को भी चिढ़ाया करी थी ।
वो भी क्या दिन हुआ करते थे ।
रातें ठंडक लिए हुए होती थी । और अटारियों पर चटाई के ऊपर दरी चादर बिछा कर बड़े सुकून की नींद आया करती थी ।
हाँ छत पर बड़ी सफाई हुआ करती थी उन दिनों ।
बिस्तर लगाने के पहले पानी छिड़क कर छत को पहले ठंडक पहुंचाई जाती थी ।
वो भी क्या दिन हुआ करते थे ।
कुछ अरसा हुआ कि छत पर एक झगड़े की जड़ आई जिसका नाम टेबल फैन हुआ करता था ।
सिन्नी ओर उषा ये नाम तो सभी को याद होंगे ।
बस उसके आते है वो खींचा तानी शुरू हुई कि कोन उसके सामने सोयेगा ओर को कहां ।
झगड़ा खत्म होता था पापा की घुड़की से ओर अम्मा की समझाइश से ।
वो भी क्या दिन थे ।
हां उनदिनों ठंडक के सारे इंतेज़ाम घर पर ही हुआ करते थे । बस बाहर से सिर्फ एक रुपये की बर्फ आया करती थी जो कभी लस्सी मैं , कभी रूह अफज़ा मैं कभी नीबू शर्बत में घुल मिल जाया करती थी ।
वो भी क्या दिन थे ।
और हाँ याद है ना तुम सबको की जब बर्फ का एक टुकड़ा हम कितनी देर तक अपने मुंह में घमाते थे ।
और फिर हाँ वो कटुूर कुटुर अपने दांतों से चबा कर एक दूसरे को चिढाना याद है ना ।
वो भी क्या दिन थे ।
वो पापा की घुड़की , वो मम्मी की थपकी ।
वो भी क्या दिन थे ।
वो गर्मी अब भी आती है , लेकिन ........
बस आगे कुछ नही कहना है........
बस वो बचपन अब नही आता , वो अटारी अब नही होती , टेबल फैन कब का कबाड़ी वाला रद्दी के साथ ले गया ....वो मटका अब किस्से कहानियों मैं रह गया ...
कभी कभी लगता है कि वो हमारे बचपन को भी रद्दी के साथ तोल कर कुछ कलदार हमारे हाथों मैं थमा गया ।
बस तब से हम कलदारों से रुपए और रुपयों से खुशियां खरीदने की कोशिश करने लगे है हम सब ।
काश की ऐसा हो सकता कि वो रद्दी वाला हमारा बचपन लौटा जाता ओर हम सब रुपये उसको दे देते ।
लेकिन फिर किसी कीमत पर हम वो बचपन कभी किसी को न देते
लोग कहते है हम बड़े हो गए , लोग कहते है हम समझदार हो गए 
लेकिन वो भी क्या दिन हुआ करते थे ।

Tuesday, May 1, 2018

बंजर पेड

एक बच्चे को आम का पेड़ बहुत पसंद था।जब भी फुर्सत मिलती वो आम के पेड के पास पहुच जाता।पेड के उपर चढ़ता,आम खाता,खेलता और थक जाने पर उसी की छाया मे सो जाता। उस बच्चे और आम के पेड के बीच एक अनोखा रिश्ता बन गया। बच्चा जैसे-जैसे बडा होता गया वैसे-वैसे उसने पेड के पास आना कम कर दिया। कुछ समय बाद तो बिल्कुल ही बंद हो गया। आम का पेड उस बालक को याद करके अकेला रोता। एक दिन अचानक पेड ने उस बच्चे को अपनी तरफ आते देखा और पास आने पर कहा, तू कहां चला गया था? मै रोज तुम्हे याद किया करता था। चलो आज फिर से दोनो खेलते है।" बच्चे ने आम के पेड से कहा, अब मेरी खेलने की उम्र नही है मुझे पढना है,लेकिन मेरे पास फीस भरने के पैसे नही है।" पेड ने कहा,"तू मेरे आम लेकर बाजार मे बेच दे, इससे जो पैसे मिले अपनी फीस भर देना।" उस बच्चे ने आम के पेड से सारे आम तोड़ लिए और उन सब आमो को लेकर वहा से चला गया। उसके बाद फिर कभी दिखाई नही दिया। आम का पेड उसकी राह देखता रहता। एक दिन वो फिर आया और कहने लगा, अब मुझे नौकरी मिल गई है, मेरी शादी हो चुकी है, मुझे मेरा अपना घर बनाना है,इसके लिए मेरे पास अब पैसे नही है।" आम के पेड ने कहा, तू मेरी सभी डाली को काट कर ले जा,उससे अपना घर बना ले।" उस जवान ने पेड की सभी डाली काट ली और ले के चला गया।आम के पेड के पास अब कुछ नहीं था वो अब बिल्कुल बंजर हो गया था। कोई उसे देखता भी नहीं था। पेड ने भी अब वो बालक/जवान उसके पास फिर आयेगा यह उम्मीद छोड दी थी। फिर एक दिन अचानक वहाँ एक बुढा आदमी आया। उसने आम के पेड से कहा,"शायद आपने मुझे नही पहचाना, मैं वही बालक हूं जो बार-बार आपके पास आता और आप हमेशा अपने टुकड़े काटकर भी मेरी मदद करते थे।"आम के पेड ने दु:ख के साथ कहा,पर बेटा मेरे पास अब ऐसा कुछ भी नही जो मै तुम्हे दे सकु।" वृद्ध ने आंखो मे आंसु लिए कहा, आज मै आपसे कुछ लेने नही आया हूं बल्कि आज तो मुझे आपके साथ जी भरके खेलना है, आपकी गोद मे सर रखकर सो जाना है।"
इतना कहकर वो आम के पेड से लिपट गया और आम के पेड की सुखी हुई डाली फिर से अंकुरित हो उठी।वो आम का पेड़ कोई और नही हमारे माता-पिता हैं दोस्तों ।जब छोटे थे उनके साथ खेलना अच्छा लगता था।* जैसे-जैसे बडे होते चले गये उनसे दुर होते गये। पास भी तब आये जब कोई जरूरत पडी, कोई समस्या खडी हुई।आज कई माँ बाप उस बंजर पेड की तरह अपने बच्चों की राह देख रहे है। जाकर उनसे लिपटे, उनके गले लग जाये फिर देखना वृद्धावस्था में उनका जीवन फिर से अंकुरित हो उठेगा।

Monday, April 30, 2018

वसीयत

एक घर मे तीन भाई और एक बहन थी...बड़ा और छोटा पढ़ने मे बहुत तेज थे। उनके मा बाप उन चारो से बेहद प्यार करते थे मगर मझले बेटे से थोड़ा परेशान से थे।

बड़ा बेटा पढ़ लिखकर डाक्टर बन गया।
छोटा भी पढ लिखकर इंजीनियर बन गया। मगर मझला बिलकुल अवारा और गंवार बनके ही रह गया। सबकी शादी हो गई । बहन और मझले को छोड़ दोनों भाईयो ने Love मैरीज की थी।

बहन की शादी भी अच्छे घराने मे हुई थी।
आखीर भाई सब डाक्टर इंजीनियर जो थे।

अब मझले को कोई लड़की नहीं मिल रही थी। बाप भी परेशान मां भी।
बहन जब भी मायके आती सबसे पहले छोटे भाई और बड़े भैया से मिलती। मगर मझले से कम ही मिलती थी। क्योंकि वह न तो कुछ दे सकता था और न ही वह जल्दी घर पे मिलता था।

वैसे वह दिहाडी मजदूरी करता था। पढ़ नहीं सका तो...नौकरी कौन देता। मझले की शादी कीये बिना बाप गुजर गये ।

माँ ने सोचा कहीं अब बँटवारे की बात न निकले इसलिए अपने ही गाँव से एक सीधी साधी लड़की से मझले की शादी करवा दी।
शादी होते ही न जाने क्या हुआ की मझला बड़े लगन से काम करने लगा ।
दोस्तों ने कहा... ए चन्दू आज अड्डे पे आना।

चंदू - आज नहीं फिर कभी
दोस्त - अरे तू शादी के बाद तो जैसे बिबी का गुलाम ही हो गया?
चंदू - अरे ऐसी बात नहीं । कल मैं अकेला एक पेट था तो अपने रोटी के हिस्से कमा लेता था। अब दो पेट है आज
कल और होगा।

घरवाले नालायक कहते थे कहते हैं मेरे लिए चलता है।
मगर मेरी पत्नी मुझे कभी नालायक कहे तो मेरी मर्दानगी पर एक भद्दा गाली है। क्योंकि एक पत्नी के लिए उसका पति उसका घमंड इज्जत और उम्मीद होता है। उसके घरवालो ने भी तो मुझपर भरोसा करके ही तो अपनी बेटी दी होगी...फिर उनका भरोसा कैसे तोड़ सकता हूँ । कालेज मे नौकरी की डिग्री मिलती है और ऐसे संस्कार मा बाप से मिलते हैं ।

इधर घरपे बड़ा और छोटा भाई और उनकी पत्नीया मिलकर आपस मे फैसला करते हैं की...जायदाद का बंटवारा हो जाये क्योंकि हम दोनों लाखों कमाते है मगर मझला ना के बराबर कमाता है। ऐसा नहीं होगा।

मां के लाख मना करने पर भी...बंटवारा की तारीख तय होती है। बहन भी आ जाती है मगर चंदू है की काम पे निकलने के बाहर आता है। उसके दोनों भाई उसको पकड़कर भीतर लाकर बोलते हैं की आज तो रूक जा? बंटवारा कर ही लेते हैं । वकील कहता है ऐसा नहीं होता। साईन करना पड़ता है।

चंदू - तुम लोग बंटवारा करो मेरे हिस्से मे जो देना है दे देना। मैं शाम को आकर अपना बड़ा सा अगूंठा चिपका दूंगा पेपर पर।
बहन- अरे बेवकूफ ...तू गंवार का गंवार ही रहेगा। तेरी किस्मत अच्छी है की तू इतनी अच्छे भाई और भैया मिलें
मां- अरे चंदू आज रूक जा।

बंटवारे में कुल दस विघा जमीन मे दोनों भाई 5- 5 रख लेते हैं ।
और चंदू को पुस्तैनी घर छोड़ देते है
तभी चंदू जोर से चिल्लाता है।

अरे???? फिर हमारी छुटकी का हिस्सा कौन सा है?
दोनों भाई हंसकर बोलते हैं
अरे मूरख...बंटवारा भाईयो मे होता है और बहनों के हिस्से मे सिर्फ उसका मायका ही है।

चंदू - ओह... शायद पढ़ा लिखा न होना भी मूर्खता ही है।
ठीक है आप दोनों ऐसा करो।
मेरे हिस्से की वसीएत मेरी बहन छुटकी के नाम कर दो।
दोनों भाई चकीत होकर बोलते हैं ।
और तू?

चंदू मां की और देखके मुस्कुराके बोलता है
मेरे हिस्से में माँ है न......
फिर अपनी बिबी की ओर देखकर बोलता है..मुस्कुराके...क्यों चंदूनी जी...क्या मैंने गलत कहा?

चंदूनी अपनी सास से लिपटकर कहती है। इससे बड़ी वसीएत क्या होगी मेरे लिए की मुझे मां जैसी सासु मिली और बाप जैसा ख्याल रखना वाला पति।
बस येही शब्द थे जो बँटवारे को सन्नाटा मे बदल दिया ।
बहन दौड़कर अपने गंवार भैया से गले लगकर रोते हुए कहती है की..मांफ कर दो भैया मुझे क्योंकि मैं समझ न सकी आपको।

चंदू - इस घर मे तेरा भी उतना ही अधिकार है जीतना हम सभी का।
बहुओं को जलाने की हिम्मत कीसी मे नहीं मगर फिर भी जलाई जाती है क्योंकि शादी के बाद हर भाई हर बाप उसे पराया समझने लगते हैं । मगर मेरे लिए तुम सब बहुत अजीज हो चाहे पास रहो या दुर।

माँ का चुनाव इसलिए कीया ताकी तुम सब हमेशा मुझे याद आओ। क्योंकि ये वही कोख है जंहा हमने साथ साथ 9 - 9 महीने गुजारे। मां के साथ तुम्हारी यादों को भी मैं रख रहा हूँ।

दोनों भाई दौड़कर मझले से गले मिलकर रोते रोते कहते हैं
आज तो तू सचमुच का बाबा लग रहा है। सबकी पलको पे पानी ही पानी। सब एक साथ फिर से रहने लगते है।
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Sunday, April 29, 2018

बेटी के सवाल

मां ने बेटी से पूछा कि बेटी तुझे कैसा वर चाहिये? बेटी ने जबाब दिया मुझे रावण जैसा वर चाहिये। मां ने यह शब्द अपनी बेटी से सुनते ही चिल्लाई ।और डाँटते हुए अपनी बेटी को समझाने लगी? 
बेटी रावण नही राम जैसा पति मांगते है। जो पुरुषोत्तम और जगत के कुल थे ।
बेटी ने शांत मन से कहा कि मां रावण ने अपनी बहन शूर्पणखा की इज्जत की खातिर अपनी  लंका का विनाश करवाया। लेकिन समझौता नही किया।
सीता का हरण किया लेकिन उसकी इच्छा के  विरूद्ध कोई कार्य नही किया ।
जिस इंसान में  औरत के प्रति इतनी इज्जत और #श्रद्धा हो। वह पति जीवन में एक जन्म नही सात जन्म मिलना चाहिये ।
और मां आप राम के पुरुषोत्तम की बात कर रही हो। क्या तुम चाहती हो। कि तुम्हारी बेटी घर घर ठोकरें खाये ।सीता की तरह ?
अगर अपने पति के लिये यह सब कर भी लूँ । और मेरा पति मेरे चरित्र पर उंगली उठाये । तो अग्नि परीक्षा ??
अग्नि परीक्षा अगर दे भी दूँ  तो गर्भावस्था मैं मुझे घर से निकाल दिया जायेगा । तो क्या आप मेरे पति को पुरुषोत्तम कहेंगी ।।
मां जवाब सुनकर सन्न थी ।।और बेटी के सवाल खत्म नही हो रहे थे

Wednesday, April 25, 2018

प्रभू का पत्र

मेरे प्रिय सुबह तुम जैसे ही सो कर उठे,  मैं तुम्हारे बिस्तर के पास ही खड़ा था मुझे लगा कि तुम मुझसे कुछ बात करोगे। तुम कल या पिछले हफ्ते हुई किसी बात या घटना के लिये मुझे धन्यवाद कहोगे। लेकिन तुम फटाफट चाय पी कर तैयार होने चले गए  और मेरी तरफ देखा भी नहींफिर मैंने सोचा कि तुम नहा के मुझे याद करोगे। पर तुम इस उधेड़बुन में लग गये कि तुम्हे आज कौन से कपड़े पहनने है!!!फिर जब तुम जल्दी से नाश्ता कर रहे थे और अपने ऑफिस के कागज़ इक्कठे करने के लिये घर में इधर से उधर दौड़ रहे थे...तो भी मुझे लगा कि शायद अब तुम्हे मेरा ध्यान आयेगा,लेकिन ऐसा नहीं हुआ।फिर जब तुमने आफिस जाने के 
लिए ट्रेन पकड़ी तो मैं समझा कि इस खाली समय का उपयोग तुम मुझसे बातचीत करने में करोगे पर तुमने थोड़ी देर पेपर पढ़ा और 
फिर खेलने लग गए अपने मोबाइल में और मैं खड़ा का खड़ा ही रह गया। मैं तुम्हें बताना चाहता था कि दिन का कुछ हिस्सा मेरे साथ बिता कर तो देखो तुम्हारे काम और भी अच्छी तरह से होने लगेंगे, लेकिन तुमनें मुझसे बात ही नहीं की...एक मौका ऐसा भी आया जब तुम बिलकुल खाली थे  और कुर्सी पर पूरे 15 मिनट यूं ही बैठे रहे,लेकिन तब भी तुम्हें मेरा ध्यान नहीं आया।दोपहर के खाने के  वक्त जब  तुम इधर- उधर देख रहे थे,तो भी मुझे लगा कि 
खाना खाने से पहले तुम  एक पल के लिये  मेरे बारे में सोचोंगे,
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दिन का अब भी काफी समय बचा था। 
मुझे लगा कि  शायद इस बचे समय में हमारी बात  हो जायेगी,
लेकिन घर पहुँचने के बाद तुम  रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त हो गये। 
जब वे काम निबट गये तो तुमनें टीवी खोल लिया और घंटो टीवी देखते रहे। देर रात थककर तुम बिस्तर पर आ लेटे।तुमनें अपनी पत्नी, बच्चों को  शुभरात्रि कहा  और चुपचाप चादर  ओढ़कर सो गये। मेरा बड़ा मन था कि मैं भी  तुम्हारी  दिनचर्या का हिस्सा बनूं...तुम्हारे साथ कुछ वक्त बिताऊँ...तुम्हारी कुछ सुनूं...तुम्हे कुछ सुनाऊँ। कुछ मार्गदर्शन करूँ  तुम्हारा ताकि तुम्हें समझ आए 
कि तुम किसलिए इस धरती पर आए हो और किन कामों में उलझ गए हो, लेकिन तुम्हें समयही नहीं मिला और मैं मन मार कर ही रह गया।मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ। हर रोज़ मैं इस बात का इंतज़ार करता हूँ  कि तुम मेरा ध्यान करोगे और अपनी छोटी छोटी खुशियों के लिए मेरा धन्यवाद करोगे। पर तुम तब ही आते हो * जब तुम्हें कुछ चाहिए होता है। तुम जल्दी में आते हो और अपनी माँगें मेरे आगे रख के चले जाते हो। और  मजे की बात तो  ये है कि इस प्रक्रिया में तुम मेरी तरफ देखते भी नहीं। ध्यान तुम्हारा उस समय भी  लोगों की तरफ ही  लगा रहता है, और मैं इंतज़ार  करता ही रह जाता हूँ।खैर कोई बात नहीं...हो सकता है  कल तुम्हें मेरी याद आ जाये!!!ऐसा मुझे विश्वास है  और मुझे तुम में आस्था है आखिरकार मेरा दूसरा नाम...आस्था और विश्वास ही तो है।
तुम्हारा ईश्वर...

Monday, April 23, 2018

सबसे प्यारा रिश्ता

रामलाल तुम अपनी बीबी से इतना क्यों डरते हो?"मैने अपने घरेलू नौकर से पुछा।।
"मै डरता नही मैडम उसकी कद्र करता हूँ उसका सम्मान करता हूँ।"उसने जबाव दिया।
मैं हंसी और बोली-" ऐसा कया है उसमें।ना सुरत ना पढी लिखी।"
जबाव मिला-" कोई फरक नही पडता मैडम कि वो कैसी है पर मुझे सबसे प्यारा रिश्ता उसी का लगता है।"
"जोरू का गुलाम।"मेरे मुँह से निकला।"और सारे रिश्ते कोई मायने नही रखते तेरे लिये।"मैने पुछा।
उसने बहुत इत्मिनान से जबाव दिया-
"मैडम जी माँ बाप रिश्तेदार नही होते।वो भगवान होते हैं।उनसे रिश्ता नही निभाते उनकी पूजा करते हैं।
भाई बहन के रिश्ते जन्मजात होते हैं , दोस्ती का रिश्ता भी मतलब का ही होता है।
आपका मेरा रिश्ता भी दजरूरत और पैसे का है पर,
पत्नी बिना किसी करीबी रिश्ते के होते हुए भी हमेशा के लिये हमारी हो जाती है अपने सारे रिश्ते को पीछे छोडकर।और हमारे हर सुख दुख की सहभागी बन जाती है आखिरी साँसो तक।"
मै अचरज से उसकी बातें सुन रही थी।
वह आगे बोला-"मैडम जी, पत्नी अकेला रिश्ता नही है, बल्कि वो पुरा रिश्तों की भण्डार है।
जब वो हमारी सेवा करती है हमारी देख भाल करती है , हमसे दुलार करती है तो एक माँ जैसी होती है।
जब वो हमे जमाने के उतार चढाव से आगाह करती है,और मैं अपनी सारी कमाई उसके हाथ पर रख देता हूँ क्योकि जानता हूँ वह हर हाल मे मेरे घर का भला करेगी तब पिता जैसी होती है।
जब हमारा ख्याल रखती है हमसे लाड़ करती है, हमारी गलती पर डाँटती है, हमारे लिये खरीदारी करती है तब बहन जैसी होती है।
जब हमसे नयी नयी फरमाईश करती है, नखरे करती है, रूठती है , अपनी बात मनवाने की जिद करती है तब बेटी जैसी होती है।
जब हमसे सलाह करती है मशवरा देती है ,परिवार चलाने के लिये नसीहतें देती है, झगडे करती है तब एक दोस्त जैसी होती है।
 जब वह सारे घर का लेन देन , खरीददारी , घर चलाने की जिम्मेदारी उठाती है तो एक मालकिन जैसी होती है।
और जब वही सारी दुनिमा को यहाँ तक कि अपने बच्चो को भी छोडकर हमारे बाहों मे आती है 
तब वह पत्नी, प्रेमिका, प्रेयसी, अर्धांगिनी , हमारी प्राण और आत्मा होती है जो अपना सब कुछ सिर्फ हमपर न्योछावर करती है।"
मैं उसकी इज्जत करता हूँ तो क्या गलत करता हूँ मैडम।"

मैं उसकी बात सुकर अवाक रह गयी।।
एक अनपढ़ और सीमित साधनो मे जीवन निर्वाह करनेवाले से जीवन का यह फलसफा सुकर मुझे एक नया अनुभव हुआ ।
और मैं अपने पति को आजतक दब्बू समझ रही थी।धिक्कार है मेरी सोच को।