एक समय की बात है, एक छोटे से गाँव में एक साधू बाबा निवास करते थे। उनका नाम था बाबा हरिदास। बाबा का मानना था कि भगवान केवल मूर्तियों में नहीं, बल्कि हमारी भावनाओं और आत्मा में भी विद्यमान हैं। गाँव के लोग उन्हें बहुत मानते थे और उनकी बातों को ध्यान से सुनते थे।
गाँव में एक युवक था जिसका नाम था कृष्णा। कृष्णा बहुत धार्मिक था और हमेशा मंदिर जाकर पूजा करता था। वह मानता था कि भगवान केवल मूर्तियों में ही हैं और पूजा करने से ही उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है। उसने कभी भी बाबा हरिदास की बातों पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उसे लगा कि साधू लोग बस ज्ञान की बातें करते हैं, लेकिन असलियत में पूजा ही सब कुछ है।
एक दिन, गाँव में एक बड़ा उत्सव आयोजित हुआ। सभी लोग तैयार हो रहे थे, और मंदिर में विशेष पूजा का आयोजन किया गया। कृष्णा ने भी इस अवसर का लाभ उठाने का निर्णय लिया। उसने सुंदर फूल, फल और मिठाई खरीदकर मंदिर की ओर चल पड़ा। मंदिर पहुँचकर उसने भगवान की मूर्ति के सामने घुटने टेक दिए और पूजा करने लगा।
लेकिन उस दिन कुछ खास था। जैसे ही कृष्णा ने आँखें बंद कीं, उसे अचानक एक आवाज सुनाई दी। "कृष्णा, तुम मेरी मूर्ति के सामने बैठकर क्यों रो रहे हो? क्या तुम जानते हो कि मैं तुम्हारी भावनाओं में हूँ, न कि इस पत्थर की मूर्ति में?"
कृष्णा ने आँखें खोलीं और चारों ओर देखा। उसे कोई दिखाई नहीं दिया। लेकिन उसकी आत्मा में एक अनकही सी हलचल महसूस हो रही थी। वह सोच में पड़ गया। "क्या भगवान सच में मूर्तियों में नहीं हैं?"
उसी समय, बाबा हरिदास वहाँ पहुंचे। उन्होंने कृष्णा की स्थिति देखी और कहा, "बेटा, तुम भगवान को इस मूर्ति में ढूँढ रहे हो, लेकिन असली भगवान तो तुम्हारी भावनाओं में हैं। आत्मा तुम्हारा मंदिर है, और यही तुम्हारी असली पूजा है।"
कृष्णा ने हैरानी से पूछा, "बाबा, आप क्या कहना चाहते हैं?"
बाबा ने मुस्कराते हुए कहा, "तुम्हारे मन में जो प्रेम, करुणा और समर्पण हैं, वही तुम्हारा असली भगवान है। तुम यदि सच्चे मन से किसी की मदद करते हो, तो वह भी पूजा है। यह मूर्ति सिर्फ एक प्रतीक है। भगवान तुमसे तुम्हारी भावनाओं के जरिए जुड़े हैं।"
कृष्णा ने बाबा की बातों पर ध्यान दिया और सोचा। "तो क्या मैं बिना मूर्ति की पूजा किए भी भगवान को पा सकता हूँ?" उसने प्रश्न किया।
बाबा ने कहा, "बिल्कुल। जब तुम अपनी भावनाओं को समझोगे और दूसरों के प्रति प्रेम और करुणा दिखाओगे, तो तुम भगवान के नज़दीक पहुँचोगे।"
इससे प्रभावित होकर कृष्णा ने उस दिन तय किया कि वह केवल मूर्तियों की पूजा नहीं करेगा, बल्कि अपने कार्यों से भी भगवान की आराधना करेगा। उत्सव के बाद, उसने गाँव के लोगों की मदद करने का निश्चय किया।
कृष्णा ने देखा कि गाँव में कई लोग हैं जो आर्थिक तंगी में हैं। उसने अपनी थोड़ी-सी बचत से गाँव के गरीबों के लिए भोजन और कपड़े खरीदने का निर्णय लिया। उसने अपने दोस्तों को भी इस कार्य में शामिल किया, और सब मिलकर गाँव के गरीबों की मदद करने लगे।
धीरे-धीरे, गाँव में सबकी जिंदगी में बदलाव आने लगा। लोग एक-दूसरे की मदद करने लगे, और गाँव में भाईचारे का माहौल बनने लगा। कृष्णा ने महसूस किया कि उसकी आत्मा में जो खुशी थी, वही असली पूजा थी। अब वह भगवान की मूर्तियों की पूजा करने के बजाय, अपने कार्यों और भावनाओं के जरिए भगवान को महसूस कर रहा था।
एक दिन, गाँव के एक व्यक्ति ने कृष्णा से कहा, "कृष्णा, तुमने हमारे लिए जो किया है, उसके लिए हम तुम्हारे आभारी हैं। तुम सच में भगवान के दूत हो।"
कृष्णा ने मुस्कराते हुए कहा, "नहीं, मैं कोई दूत नहीं हूँ। मैं केवल अपनी भावनाओं का पालन कर रहा हूँ। हमारी आत्मा ही हमारा मंदिर है, और प्रेम और करुणा ही हमारी असली पूजा है।"
कृष्णा की बातें गाँव के लोगों के दिलों में गहरी उतर गईं। उन्होंने भी यह समझ लिया कि भगवान मूर्तियों में नहीं, बल्कि हमारी भावनाओं में हैं।
इस प्रकार, कृष्णा ने अपने गाँव में एक नई सोच और परिवर्तन लाया। उसने सिखाया कि सच्ची भक्ति केवल पूजा के रिवाजों में नहीं, बल्कि अपने कार्यों और भावनाओं में होती है। भगवान की सच्ची उपासना वही है, जब हम अपने भीतर की अच्छाई को बाहर लाते हैं और दूसरों की सहायता करते हैं।