Monday, August 31, 2015

जब शत्रु मित्र बन गए

बरगद का एक पुराना पेड़ था | उस पेड़ की जडो के पास दो बिल थे | एक बिल में चूहा रहता था और दुसरे बिल में नेवला | पेड़ के बीच खोखली जगह में बिल्ली रहा करती थी | पेड़ की डाल पर उल्लू रहता था | बिल्ली, नेवला, और उल्लू – तीनो चूहे पर निगाह रखते की कब वह पकड़ में आए और वे उसे खाए | उधर बिल्ली चूहे के आलावा नेवला तथा उल्लू पर भी निगाह रखती थी की इनमे से कोई मिल जाए | इस प्रकार बरगद में रहनेवाले ये चारो प्राणी शत्रु बनकर रहते थे |
चूहा और नेवला बिल्ली के डर से दिन में बाहर न निकलते | केवल रात में भोजन की तलाश करते | उल्लू तो रात में ही निकलता था | उधर बिल्ली इन्हें पकड़ने के लिए रात में भी चुपचाप निकल पडती |
एक दिन वहा एक बहेलिया आया | उसने खेत में जाल लगाया और चला गया | रात में चूहे की खोज में बिल्ली खेत की | और गई | उसने जाल को नहीं देखा और बस उसमे वह फँस गई | कुछ देर बाद द्वे पांव चूहा उधर से निकला | उसने बिल्ली को जाल में फंसा देखा तो बहुत खुश हुआ |
तभी न जाने कहा से धूमते हुए नेवला और उल्लू आ गए | चूहे ने सोचा – ये दोनों मुझे नहीं छोड़ेगे | बिल्ली तो मेरी शत्रु हे ही | अब क्या करूँ |
उसने सोचा – इस समय बिल्ली मुसीबत में है | मदद पाने के लालच में शत्रु भी मित्र बन जाता है | इसलिए इस समय बिल्ली की शरण में जाना चाहिए |
चूहा तुरंत बिल्ली के पास गया और बोला = “मुझे तुम्हारी इस हालत पर दया आ रही है | में जाल काटकर तुम्हे मुक्त कर सकता हु | किन्तु में केसे विश्वास करूँ कि तुम मित्रता का व्यवहार करोगी ?”
बिल्ली ने कहा – “तुम्हारे दो शत्रु इधर ही आ रहे है | तुम मेरे पास आकर छिप जाओ | इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है  कि में तुम्हे मित्र बनाकर छिपा लूगी |”
चूहा बिल्ली के पास छिप गया | उधर नेवला और उल्लू भी घूमते धूमते आगे निकल गए | बिल्ली से कहा – “आज से तुम मेरे मित्र हो | अब जल्दी से जाल काट दो | सवेरा होते ही बहेलिया यहाँ आ जाएगा |”
चूहे ने जाल काट दिया और भागकर फिर से बिल में छिप गया | बिल्ली भी मुक्त होकर आ गई | उसने चूहे को आवाज दी – “अरे मित्र | बहार आओ | अब डरने कि क्या बात है |”
चूहा बोला – “में तुम्हे खूब जानता हु | शत्रु केवल मुसीबत में फंसकर कि मित्र बनता है | बाद में वह फिर शत्रु बन जाता है | में तुमपर विश्वास नहीं कर सकता | “

Saturday, August 29, 2015

लालची कबूतर

सरयू नदी के किनारे पीपल का एक बहुत ही पुराना पेड़  था, सदियों पुराना पीपल का पेड़ हर यात्री के लिए तो आकर्षण था ही, किन्तु इसके साथ-साथ हजारों छोटे-बड़े पक्षी इस पीपल के पेड पर रहते थे दिन भर उड़ते हुए वे प्राणी अपने पेट की भूख मिटाते फिरते किन्तु-जेसे ही सूर्यास्त होने लगता तो वे सबके सब इस पेड़ पर बने अपने-अपने घोंसलों में आ जाते I
यंही पर इन पक्षियों का छोटा सा संसार बसा हुआ था, उन को सबसे अधिक डर उन शिकारियों से लगता था जो की उनके बसे हुए संसार को उजाड़ने के लिए आते थे,
कई बार जब भी कोई शिकारी उस और आनिकलता तो बेचारे पक्षी डर के मारे कांपने लगते । उनके दिलों में ऐसा डर उठता कि उन्हें खाना पीना भी न लगता  ।
उन्हें यह शिकारी नहीं, मौत के फरिश्ते नजर आया करते थे । इन पक्षियों के बीच मे ही लघुपतनक नाम का एक बुद्धिमान कौआ अपने परिवार सहित रहता था यह कौआ बहुत तीव्र बुद्धि का था । उस वृक्ष पर रहने वाले सारे पक्षियों का पूरा-पूरा ध्यान रखना उसका कर्तव्य था ।
एक दिन- सुबह-जैसे ही कौए की आँख खुली तो उसने एक शिकारी को अपनी ओर आते देखा थोड़ी देर पश्चात उस शिकारी ने अपनी पोटली में से चावल निकाले और पास के खुले मैदान में बिखेर दिया ।
कोए ने पीपल पर रहने वाले सारे पक्षियों की एक सभा बुलाई और उन सबसे कहा- देखों मित्रों यह दुष्ट शिकारी हमारा शिकार करने आया है ,तुम सब लोग होशियार रहना शिकारी ने धरती पर सफेद चावल बिखेर कर अपना जाल फैलाया है । यह चावल नहीं हमारी मृत्यु के वारंट है, इनसे बचना इस पापी से बचना ये बातें सुनकर सभी पक्षी अपने इस साथी का धन्यवाद करने लगे ।
और साथ ही चौकस होकर उस शिकारी की ओर देखने लगे जो नदिया किनारे बेठ कर बड़े आनन्द से गाने गा रहा था ।
हर बार उस शिकारी की नजर अपने बिछाये हुए जाल की जोर ही जाती है उसे तो सुबहे किसी शिकार की तलाश थी वः सोच रहा था की यदि कोई छोटा मोटा पक्षी भी उसके जाल में फस जाए तो वह उसे भूनकर खालेगा मांसाहारी आदमी की भूख तो मॉस से मिटती हे ।
उस शिकारी को क्या पता था कि कौए ने इस वृक्ष पर रहने वाले सारे जानवरों को पहले से ही होशियार कर दिया है वह तो यही आशा लेकृर आया था कि इस पेड पर सबसे अधिक पक्षी रहते हें, इनमें से कोई ना कोई इन चावलों को देखकर फंस जाएगा ।
मगर कौए ने उसकी सारी उमीदों पर पांनी फेर दिया था कुछ देरके पश्चात आकाश पर उड़ता सफेद कबूतरों (Pigeon) का एक परिवार शिकारी ने देखा उसके मुंह में…पानी भर आया ।
आहा सफेद कबूतर काश यह जालमेँ फस जाएं I”
कबूतरों ने चावलों को धरती पर बिखरे देखा तो उनकी भूख कुछ अधिक ही तेज हो गई उन्होंने अपने राजा मोती सागर से बोला महाराज चावत देखो आज सुबह-सुबह चावल खाने को मिले आज कितना आनन्द आएगा I
कबूतरों का राजा दूर द्रिष्टि का मालिक था उसने अपने कबूतरों को चोकस करते हु कहा सावधान "हो सकता हे" ये किसी शिकारी का जाल हो सोचों इतनी दूर जंगल में ये चावल कंहाँ से आए? लेकिन उसके साथी लालच में आकर बोले की हो सकता हे ये किसी दयालु मनुष्ये ने हमारे लिए यंहा डाले हो "सारे कबूतरों ने अपने राजा से कहा"
में फिर कहता हूँ ये जरुर किसी शिकारी की चाल हे लेकिन लालची कबूतरों  ने राजा की बात नही मानी और वें शिकारी के जाल में फंस गए I
लालच एक बुरी बला हे हमे अपने बुजुर्गों की हर बात सदेव माननी चाहिए 

Wednesday, August 26, 2015

गलती का अहसास


        गिरीश पाण्डेय
      एडवोकेट एटा (उ0प्र0) 
एक गाँव में एक आदमी आया जो कसाई था। उसने गाँव में आकर आवाज लगाना शुरू कर दिया कि किसी आदमी का मवेशी बूढ़ा, फालतू व बीमार हो तो उसे बेच दो। उसे हम ले जाऐंगे तथा उस मालिक को मुनासिब पैसे देंगे। गाँव में सब लोगों ने कहा कि हमारे यहाँइस प्रकार का बूढ़ा, फालतू बीमार मवेशी नहीं है। इतना सुनकर वह कसाई उस गाँव से जाने लगा। कसाई के वापस लौटते ही एक युवक उसके पास आया और बोला कि हमारे पास एक ऐसा फालतू बीमार व बूढ़ा मवेशी है। हमारे साथ चलिए हम उसे हम आपको बेच देंगे।   कसाई उस युवक के साथ उसके दरवाजे पर पहुँचा तो उसने दरवाजे के बाहर लेटे अपने बाप की तरफ इशारा किया कि ये हैं। उनके हम दो हजार रूपया लेंगें।उस युवक द्वारा दो हजार रूपयों में अपने बाप को बेचने की बात सुनकर वह कसाई आश्चर्य चकित रह गया। फिर भी उसने कुछ सोच विचार कर उस युवक ने दो हजार रूपया लेकर अपने बाप का हाथ उस कसाई को पकड़ा दिया। उसके पिता भी कसाई के साथ सहर्ष चल दिये कसाई उस युवक के पिता को अपने साथ लाकर प्रसन्नता से फूला नहीं समा रहा था। उसने घर आकर उस युवक के पिता को अपने पिता जैसा माना। पूरे परिवार सहित उनकी सेवा की। बढिया से बढिया ख्याल रखा। अन्त समय में वह व्यक्ति, अपने हिस्से की सारी सम्पत्ति, धन धान्य उसी कसाई के नाम कर गया और उसे ही अपना बेटा समझकर सदैव हार्दिक आशीषें देता रहा, तथा उसका पुत्र पछतावे में सिर्फ हाथ मलता रह गया।

Monday, August 24, 2015

प्रेम दो भाइयो का

हिमाचल में बहुत छोटा सा गाँव है, वहा पर दो भाई रहते थे | वे दोनों भाई एक दुसरे पर जान छिडकते थे | जो बड़ा भाई था वह शादीशुदा और बच्चे भी थे | छोटा भाई अभी क्वारा ही था उनके पिता ने अपनी मोत से पहले दोनों भाई को बराबर बराबर जमीन तथा पैसे बाँट दिए थे ताकि मरने के बाद दोनों भाइयो में लड़ाई न हो |
पिता के जाने के बाद भी दोनों भाइयो में बहुत प्रेम था और वो साथ साथ ही रहते थे और एक दुसरे के खेतो में काम भी करते थे बिना किसी लोभ के | उस साल दोनों भाइयो के खेतो में बहुत अच्छी फसल हुई और दोनों ने फसल काट कर अपने गोदान में भर लिए | और दोनों भी रोज रात को उसके बाहर सोते थे उसकी रखवाली करने के लिए |
एक दिन, छोटे भाई को सपना आया की वह कितना स्वार्थी है वह अकेला है और उसका भाई शादीशुदा और दो बच्चे भी, फिर भी हम दोनों का हिस्सा बराबर है जो की गलत है | यही सोच कर वह उठा और अपने अपने हिस्से की कुछ बोरिया अपने भाई के हिस्से में रख दिए |
और उसी रात उसके बड़े भाई को भी सपना आया, वह सोचने लगा की उसका भाई उसकी कितनी मदद करता है अपना खेत भी सभालता है और मेरा भी, और यही सोच कर उसने भी अपने हिस्से की कुछ बोरिया अपने भाई के हिस्से में रख दी | दोनों भाई सुबह उठे और अपने अपने हिस्से की बोरिया गिनने लगे और दोनों हेरान हो गए की दोनों की बोरिया बराबर कैसे हो सकती है | दोनों सोचने लगे की बोरिया तो मैंने दी थी फिर बराबर कैसे हो सकती है |
कुछ दिनों तक ऐसा सिलसला चलता रहा जबतक पूरी कटाई नहीं हो जाती, एक रात बोरिया दोनों भाई आपस में टकर गए एक दुसरे में बोरिया रखते हुए | तब दोनों भाइयो को सारा माजरा समझ आ गया और दोनों के आँखों में आसू आ गए | और दोनों स्नेहपूर्वक एक दुसरे के गले लग गए

Sunday, August 23, 2015

कागज के टुकड़े

एक स्वामी जी सत्संग के लिए पधारे। लोगों ने प्रवचन देने का आग्रह किया तो स्वामीजी ने कहा कि मैं क्या बोलूं, आप सब जानते हैं। जो अच्छा है उसे करो और जो बुरा है उसे मत करो, उसे त्याग दो। लोगों में से एक स्वर उभरा, 'स्वामीजी, हम सब बहुत अच्छे बनना चाहते हैं और इसके लिए यथासंभव प्रयास भी करते हैं लेकिन फिर भी हम सबसे अच्छे तो दूर अच्छे भी क्यों नहीं बन पाते?'

स्वामीजी ने कहा कि हम अपने ऊपर जैसी मोहर लगाते हैं वैसा ही तो बनेंगे। लोगों ने प्रार्थना की कि स्वामीजी इसे स्पष्ट करें। उन्होंने जेब से तीन नोट निकाले और पूछा कि ये कितने-कितने के नोट हैं? एक नोट दस रुपये का था, दूसरा सौ रुपये का और तीसरा हज़ार का। इसके बाद स्वामीजी ने पूछा कि इनमें क्या अंतर है? लोग चुप थे। स्वामीजी ने समझाया, 'ये तीनों नोट एक जैसे कागज पर छपे हैं। कागज के पहले टुकड़े से दस रुपये की चीज खरीदी जा सकती है तो दूसरे से सौ रुपये की और तीसरे से हजार की। ये कागज पर लगी मोहर या छाप द्वारा निर्धारित हुआ है।

हमारा जीवन भी एक कोरे कागज की तरह ही है। हम चाहें तो उस पर दस रुपये के बराबर छोटी-मोटी विशेषता या गुण की मोहर लगा सकते हैं और चाहें तो हजार रुपये या उससे भी अधिक की कीमत के गुणों की मोहर लगा सकते हैं। जैसी छाप या सोच वैसा जीवन। इस संसार रूपी छापे खाने में मन रूपी कागज पर केवल सात्विक व जीवनोपयोगी उच्च विचारों की मोहर लगाकर ही जीवन को हर प्रकार की उत्कृष्टता प्रदान की जा सकती है।

Saturday, August 22, 2015

एक सवाल

एक बार की बात है बीरबल दीवान-ए-खास में पहुचे तो वहा बिलकुल सन्नाटा था | जो दरबारी उन्हें घृणा से देखते थे आज वो दरबारी उनकी तरफ विनर्मता से देख रहे थे | यह देखकर बीरबल को बहुत अजीब सा लगा | उन्हें लगा कोई न तो कोई बात है | तभी बीरबल की नजर वहा बेठे एक अजनबी पर पड़ी |
बीरबल को आते देखकर अकबर ने आज दी बीरबल, “काबुल के बादशाह के यहाँ से एक दूत आया है इन्होने हमारे दरबारियों की बहुत तारीफ सुनी है और ये अपने कुछ सवाल ले कर आये है और यह चाहते है की हम उन सवालों का जवाब दे |”
बीरबल ने कहा, बादशाह अकबर यह तो बहुत समान की बात है हमारे लिए |”
बादशाह अकबर ने कहा, आप पूछ सकते है अपने सवाल |
दूत ने कहा, “ठीक है में अपना सवाल दोहराता हु, इस बर्तन में क्या है?”
शायद सूखे मुवे हो, एक दरबारी बोला |
दुसरे ने कहा, “बेशकीमती रत्न, रेशम, सोने, चांदी | हमे क्या पता इसमें क्या होगा”
अब बीरबल की बरी आई, बीरबल ने दूत से पूछा, “क्या में इसे नजदीक स देख सकता हु |”
गुट ने कहा, जरुर आप नजदीक जा कर देख सकते है |”
बाकि दरबारी एक दुसरे को देख रहे थे और बाते कर रहे थे की यह बीरबल क्या कर रहा है | बीरबल बर्तन के पास गए और अचानक उन्होंने उसके मुह पर बंधा कपड़ा हटाकर अंदर झंका |
बर्तन खली है बीरबल ने कहा |
यह देख कर दूत दुस्से में आ गया और बोला, आप को बर्तन का कपड़ा हटाना नहीं चाहिए था |
बीरबल ने कहा, हजूर आपने कपड़ा हटाने के बारे में कुछ नहीं कहा था और आप ने मुझे इसे पास से देखने की इजाजत बी दी थी |”
यह देखकर अकबर खुश हो गए |
दूत ने बादशाह अकबर से पूछे, मुझे और भी सवाल पूछने है |”
मेरा अगला सवाल है, “पहला धरती का केंद्र कहा है और दुसरा की आसमान में कितने तारे है ?”
यह सवाल सुनते ही सभी दरबारी हेरान हो गए | सभी दरबारी अपना अपना मुह छुपाने लगे |
बीरबल ने कहा, जहापना मुझे कुछ वक्त चाहिए इन सवालों के जवाब देने के लिए |
दूत ने कहा, ठीक है में अपनी १० और दिन आप के देश में हु तो आप के पास १० दिन है मेरे सवालों के जवानो देने की लिए |
बीरबल दूत का धन्यवाद किया और कहा, “यह १० दिन आप हमारे मेहमान है हमारे राज्य की खूबसूरती का मजा उठाइए”
९ दिन बीरबल का कुछ नहीं पता था की बीरबल कहा है | कई दरबारी कहे रहे थे की बीरबल सवाल सुनकर भाग गया | परन्तु ठीक १० वे दिन बीरबल ने सभी दरबारियों और दूत को दीवान-ए-खास के बाहर इक्कठा होने को कहा |
बीरबल ने कहा, “हमने बहुत बड़ी खोज की है, और कहते हुए उन्होंने जमीन पर बने एक निशान की और इशारा किया और कहा जहा हम खड़े है वाही धरती का केंद्र है |”
दूत यह सुनकर हक्का बक्का रहा गया | बीरबल मुस्करा कर बोले क्या में सही कहे रहा हु हजूर |
दूत ने कहा, “आप बिलकुल सही कहे रहे है |”

अब आप का दूसरा सवाल, बीरबल ने वहा खड़े एक द्वारपाल को बुलाया | वह द्वारपाल वहा छ: भेड़े ले कर आ गाय |
बीरबल ने दूत से कहा, हजूर आप का दूसरा सवाल था की असमान में कितने तारे है | इसका जवाब है असमान ने उतने ही तारे है जितने इन छ: भेड़ो के शरीर पर बाल | आप चाहे तो गिन सकते है |
यह सुनते ही दूत की बोलती बंद हो गई, परन्तु धीरे स्वर में बोला, फिर भी असमना में कितने सितारे है | बीरबल ने कहा, “हजूर आप ने संख्या नहीं पूछी थी | आप से सिर्फ यह पूछा था की असमान में किते सितारे है और इसका जवाब हमने दे दिया |
दूत जनता था की वो हार गया था यह देखकर बीरबल और अकबर मन ही मन खुश हो रहे थे |

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Friday, August 21, 2015

भय का नाम ही भूत

एक लड़का भूत से डरा करता था। घर वालों ने डर छुटाने के लिए उसे एक साधू के पास भेजना प्रारम्भ किया; किन्तु लड़का जब साधु के पास जाता तो मार्ग में भी डरता हुआ जाता। एक दिन अंधेरी रात थी, लड़का जब साधुजी के पास पहुंचा तो पसीने से तर हो रहा था, सांस उखड़ रही थ। साधु ने पूछा – “क्यों क्या हाल है?” लड़का बोला – “महाराज! आज तो भूत मेरे सामने आकार खड़ा हो गया, बड़ी कठिनाई से बचकर आया हूँ।” साधु ने कहा- “लो यह पुड़िया ले जावो, कल यदि भूत मिले तो इसे उसके मुख पर मल देना; बस फिर भूत कभी न मिलेगा।” अगले दिन लड़के ने ऐसा ही किया और प्रसन्न होता हुआ बाबाजी की पास पहुँचकर बोला कि महाराज! मैंने भूत के मुंह पर पुड़िया मल दी। बाबाजी बोले बहुत अच्छा किया। अब भूत कभी न मिलेगा। अच्छा जरा दर्पण में अपने मुख को तो देखो। यह कहकर दर्पण हाथ में दे दिया। लड़के ने दर्पण में जो मुख देखा तो स्याही की पुड़िया अपने ही मुख पर लगी पाई। लड़का बड़ा लज्जित हुआ। तब साधु ने कहा – “बच्चा भूत-चुड़ैल कोई पदार्थ नहीं होते है। यह सब मन का वहम है। तू अपने ही में सब कल्पना करके दु:ख उठता है, यह तेरा ही मुख तुझे डराता था। मन से कल्पित भूत-प्रेत के विचार दूर कर निर्भय होकर विचार।”
ऐसे ही वहमों में आज करोड़ों मनुष्य भटक रहे है। मन से गढ़-गढ़ कोई भूत-प्रेत , पारियों को बुलाता है; कोई तीन पाओ की मेज पर जिसके चारों ओर अनेक मनुष्य बैठ जाते है और उन मनुष्यों के शरीर की बिजली से मेज का पाया बार-बार उठने और गिरने लगता है, रूहों (आत्माओं) से उठाया जाना मानते है; यह सब अपने मन के विचार हैं जो शरीर की विद्युत द्वारा मेज के पाए के उठने और गिरने से कल्पित होते है। आत्माएँ आकाश में इस प्रकार उड़ती नहीं फिरती है और न ऐसी-ऐसी तमाशे की बातों का आत्माओं से कोई लेना-देना है।
शिक्षा :- मरने वाले को भूत अर्थात बिता हुआ और शव को प्रेत कहते है। बाकी सब झूठी क्ल्पनाएँ है। भूत-प्रेत को मानने वाला दु:खी रहता है और न मानने वाला सुखी रहता है।

Wednesday, August 19, 2015

परिश्रमी किसान की बुद्धिमता

एक बार एक किसान अपनी पत्नी के साथ रहता था। वह बहुत ही परिश्रम से खेती करता था। उसके खेतों में पानी की सदैव कमी रहती थी अत: उसने अपने खेत में कुआं खोदने की ठानी। उसने खेत के एक कोने में बड़े परिश्रम से कुआं खोद दिया परंतु वहाँ पानी नहीं मिला। वह बहुत दु:खी हुआ। उसकी पत्नी ने कहा कि ब्राह्मण जी को बुलाकर पत्रा आदि सधवा कर पूछ लेते है कि पानी कहाँ है? किसान ने पत्नी को कहा कि मैं किसान हूँ और मुझे ही नहीं पता तो वह ब्राह्मण जिसने न खेती करी और न कुछ खेती के बारे में जानता है वह क्या पानी के बारे में बताएगा। किसान ने खेत के दूसरे कोने में भी एक कुआं खोद दिया परंतु यहाँ भी पानी नहीं मिला। किसान अत्यंत दु:खी हुआ। पत्नी ने फिर समझाया परंतु किसान कहाँ मानने वाला था। उसे पता था कि यह सब ढोंग है और यहाँ पानी था ही नहीं। किसान ने पूरी मेहनत से एक तीसरी जगह पर कुआं खोद दिया परंतु दुर्भाग्यवश यहाँ भी पानी का चोआ नहीं निकला। अब तो हद हो गयी थी। पत्नी ने बहुत ज़ोर देकर फिर कहा देखा यदि ब्राह्मण से पूछ लेते तो पानी निकाल आता परंतु तुम्हारे हठ के कारण यह सब हुआ। मैं ब्राह्मण को बुला लेती हूँ। किसान बुद्धिमान था उसने कह दिया कि बुला लो। अगले दिन ब्राह्मण अपने दो शिष्यों के साथ आया। किसान की पत्नी ने उनके लिए खीर बनाई और किसान को खांड मिलकर खीर देने को कहा। किसान ने ब्राह्मण के दोनों शिष्यों की खीर के ऊपर खांड डालकर खीर दी जबकि ब्राह्मण की खीर के नीचे पहले खांड और ऊपर खीर डालकर भोजन परोसा। दोनों शिष्य मजे से खीर खा रहे थे। ब्राह्मण ने भी खीर खानी प्रारम्भ की। उसने खीर बिना खांड के परोसी हुई लगी। उसने पास खड़े बुद्धिमान किसान से कहा “यजमान, खीर में खांड तो डाल दो।” पास में खड़े किसान ने पाखंडी ब्राह्मण को ज़ोर से एक ज़ोर का तमाचा मारा और कहा “अरे धूर्त, ब्राह्मण ऐसी असंभव बातें नहीं करते बल्कि वे तो सत्य वैदिक धर्म के ईश्वरीय ज्ञान की शिक्षा करते है।” ब्राह्मण कुछ समझ नहीं पाया कि यह उसके साथ क्या हो गया? इतने में किसान ने कहा कि मूर्ख थाली में खीर के नीचे खांड डाल रखी है। तुझे दो अंगुली खीर के नीचे खांड तो दिखी नहीं तू मेरे खेत के 40-50 फुट नीचे पानी क्या देखेगा?
शिक्षा :- जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता बल्कि वेदों के विद्वान को ही ब्राह्मण कहते है। चाहे वह किसी भी कुल में जन्मा हो। राष्ट्र की सभी समस्याओं का, वैदिक धर्म के पतन व आर्यावर्त राष्ट्र की गुलामी का मुख्य कारण यही अंधविश्वास ही है। यदि हमारे देश के सभी धर्मप्रिय सज्जन इसी आर्य किसान की भांति हो जावे तो यह पोपलीला खत्म होकर आर्य एक हो जाएंगे ओर अन्य अधर्मियों को रातों-रात जड़-मूल से नष्ट करने में सक्षम हो जावे।

अतिथि सत्कार का फल

बहुत पुरानी बात है एक गाँव में एक शिकारी रहता था वह बड़ा क्ररू, असत्यवादी और पाप में सलंग्न रहने वाला प्राणी था | एक बार वह जंगले में शिकार करने गया | वहा उसने बहुत सारे जानवर और पक्षियों को पकड़कर पिंजरे में बंद कर लिया | अनेक म्रगो का वध किया | इस प्रकार सारा दिन बीत गया | श्याम होते ही वह अपने घर जा रहा था की अचानक आकाश में काले काले बादल आ गए और थोड़ी ही देर में मुसलाधार वर्षा सुरु हो गई | तब वह शिकारी एक विशाल व्रक्ष के निचे बेठ गया |
उस व्रक्ष पर कबूतर और कबूतरी का एक जोड़ा रहता था प्रर्तिदीन की भांति उस दिन भी वे दोनों दाना चुगने वन में गए हुए थे, किन्तु अब तक सिर्फ कबूतर ही अपने घोसले में लोटा था| कबूतरी को वहा ना देख कर वह विलाप करने लगा | रोने की अवाज सुन कर, कबूतरी ने जोर से अवाज दी, “में यहाँ पिंजरे में केद हु |”
अवाज सुनकर कबूतर जल्दी से पिंजरे के पास गया और उसको बाहर निकालने का प्रत्यन करने लगा | तब कबूतरी बोली, “स्वामी, इससे तोडना असंभव है, आप चले जाओ यहाँ से | यह सब विधि के विधान के अनुसार है | इसमें किसी का दोष नहीं है | और एक बात, इस समय यह शिकारी हमारे घर पर आया है और अतिथि भगवान का रूप होता है | इस समय यह मुसीबत में है और आप को किसी तरह इसकी मदद करनी है |
यह बात सुन कर कबूतर जल्दी से उड़ कर कही से जलती हुई लकड़ी अपनी चोंच्मे दबाकर ले आया और शिकारी के सामने रखकर उसमे सूखे पत्ते, लकड़ी, और तिनके डालने लगा| देखते – ही – देखते उसमेऔर आग लग गई| यह सब देख कर शिकारी हेरान रह गया |
तभी कबूतर बोला, “हे शिकारी, तुम हमारे अतिथि हो और इस समय भूख से पीड़ित हो | इसलिए में इस अग्नि में प्रवेश कर रहा हु, तुम मेरे मांस खा लेना और अपनी भूख शांत कर लेना | यह कहकर कबूतर अग्नि में कूद गया | यह देखकर शिकारी का ह्रदय करुणा से भर गया | तभी कबूतरी बोली, “हे शिकारी मुझे भी छोड़ दीजिये| मेरे पति मुझसे दूर जा रहे है|” यह सुनकर शिकारी ने कबूतरी को मुक्त कर दिया और खुद भी अग्नि में कूद गई | तभी देखते – देखते आकाश में से एक दिव्य विमान उतरा और वे दोनों दम्पति दिब्य शरीर धारण क्र उसमे विराजमान हो गए |
शिकारी को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने स्वंय के उदार का उपाय पूछा| वे बोले – “हे शिकारी गोतमी गंगा (गोदावरी) के जल में स्नान करने से तुम्हारे सारे पाप ख़तम हो जायेगे और तुम्हे अस्वमेघ यज्ञ जैसा फल प्राप्त होगा|”
उसके परम्शानुसार शिकारी ने गोतमी गंगा में स्नान किया, जिसके उसके समस्त पाप नष्ट हो गए और वह पुण्यवान होकर स्वर्ग चला गया |

Monday, August 17, 2015

आसान रास्ता

एक बार एक डाकू गुरु नानक के पास गया और उनके चरणों में गिरकर बोला-'मैं अपने जीवन से परेशान हो गया हूं। जाने कितनों को मैंने लूटकर दुखी किया है। मुझे कोई रास्ता बताइए ताकि मैं इस बुराई से बच सकूं।'
गुरु नानक ने बड़े प्रेम से कहा- 'यदि तुम बुराई करना छोड़ दो तो बुराई से बच जाओगे।' गुरु नानक की बात सुनकर डाकू बोला-'अच्छी बात है, मैं कोशिश करूंगा।' यह कहकर वह वापस चला गया। कुछ दिन बीतने के बाद वह फिर उनके पास लौट आया और बोला-'मैंने बुराई छोड़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन छोड़ नहीं पाया। अपनी आदत से मैं लाचार हूं। मुझे कोई अन्य उपाय बताइए।'
गुरु जी बोले-'अच्छा, ऐसा करो कि तुम्हारे मन में जो भी बात उठे, उसे कर डालो, लेकिन रोज-रोज दूसरे लोगों से कह दो।' डाकू को बड़ी खुशी हुई कि इतने बड़े संत ने जो मन में आए, सो कर डालने की आज्ञा दे दी। अब मैं बेधड़क डाका डालूंगा और दूसरों से कह दूंगा। यह तो बहुत आसान है। वह खुशी-खुशी उनके चरण छूकर घर लौट गया। कुछ दिनों बाद डाकू फिर उनके पास जा पहुंचा। गुरु नानक ने पूछा-'अब तुम्हारा क्या हाल है?'
डाकू बोला-'गुरुजी, आपने मुझे जो उपाय बताया था, मैंने उसे बहुत आसान समझा था, लेकिन वह तो निकला बड़ा मुश्किल। बुरा काम करना जितना मुश्किल है तो उससे कहीं अधिक मुश्किल है- दूसरों के सामने उसे कह पाना। इस काम में बहुत ज्यादा कष्ट होता है।' इतना कहकर डाकू चुप हो गया और फिर बोला-' गुरुजी इसलिए अब दोनों में से मैंने आसान रास्ता चुन लिया है। मैंने डाका डालना ही छोड़ दिया है।' गुरु नानक मुस्करा दिए।

Friday, August 14, 2015

भीतर बैठा डर

एक दिन एक होटल में कुछ लोग खाना खा रहे थे। अचानक एक बड़ा सा कॉक्रोच आकर एक महिला के कपड़े पर बैठ गया। वह भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगी। यह देख कुछ लोग अपना भोजन बीच में ही छोड़कर उठने लगे। वेटर कॉक्रोच को पकड़ने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन वह एक जगह से उड़ता तो दूसरी जगह जा बैठता। घबराकर कई महिलाएं एक-साथ चीखने लगीं।

यह दृश्य वहां उपस्थित एक व्यक्ति बड़े ध्यान से बिना विचलित हुए देख रहा था। सहसा वह बोला,'भाइयो और बहनो शांत हो जाइए, डरिए नहीं। अभी सब ठीक हो जाएगा।' फिर वह बड़े आत्मविश्वास से आगे बढ़ा, उसने कॉक्रोच को अपनी उंगलियों से पकड़ा और खिड़की के बाहर फेंक दिया। सभी उसे हैरानी से देख रहे थे। उन्हें सहज होने में काफी वक्त लगा। महिलाओं ने उस व्यक्ति को घेर लिया और प्रश्नों की झड़ी लगा दी,'भाई साहब, यह आपने कैसे किया...उसे पकड़ते हुए आपको डर नहीं लगा? हमारी तो जान निकली जा रही थी...'
'बहन जी, इसमें डरने की तो कोई बात थी ही नहीं। यह बहुत सामान्य बात है। आप में से कोई भी ऐसा आसानी से कर सकता था।' उस व्यक्ति ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, 'कॉक्रोच से डरने का कोई कारण नहीं है, डर तो आपके अपने मन में था। वह आपको कोई नुकसान नहीं पहुंचा रहा था। ऐसा होता तो पकड़े जाने पर वह मुझे भी अवश्य हानि पहुंचाता। असल में हमारे भीतर बैठा डर हमें अधिक विचलित करता है। आपने कॉक्रोच से डरकर प्रतिक्रिया व्यक्त की और मैंने उसका समाधान खोजा।' सभी सोचने लगे- किसी समस्या से भयभीत होने के बजाय ठंडे दिमाग से उसका हल खोजना चाहिए।

Thursday, August 13, 2015

ग्राहक की संतुष्टि

एक किसान का एक ही बेटा था। वह नौ-दस साल का हुआ तो किसान कभी-कभार उसे भी अपने साथ खेत में ले जाने लगा। एक बार वह अपने बेटे को खेत पर लेकर गया तो भुट्टे पक चुके थे। किसान उन्हें तोड़कर बाजार ले जाने की तैयारी करने में जुट गया। तभी उसके बेटे ने पिता से कहा-'पिताजी, क्या मैं भी आपकी कुछ मदद कर सकता हूं?' इस पर किसान ने कहा-'हां-हां। ऐसा करते हैं, मैं खेत से भुट्टे तोड़-तोड़कर निकालता जाऊंगा और तुम एक-एक दर्जन भुट्टों की अलग-अलग ढेरियां बनाते जाना।'
इसके बाद वे दोनों काम पर जुट गए। दोपहर का खाना खाने के बाद किसान ने बेटे द्वारा बनाई ढेरियों पर नजर दौड़ाई और कुछ और भुट्टे तोड़ लाया। उसने हर ढेरी में एक-एक भुट्टा और बढ़ा दिया। यह देख किसान का बेटा बोला-'पिताजी, मुझे गिनती आती है। मैंने हर ढेरी में गिनकर बारह भुट्टे ही रखे हैं। अब तो ये तेरह हो गए।' किसान ने मुस्कराते हुए कहा-'बेटा, तुम ठीक कहते हो, लेकिन जब हम भुट्टे बेचने निकलते हैं तो एक दर्जन में तेरह भुट्टे होते हैं।'
बेटे ने पूछा-'ऐसा क्यों पिताजी?' किसान ने समझाया-'देखो, भुट्टे के ऊपर छिलका होता है। हमारे ढेर में एक भुट्टा खराब भी निकल सकता है। इसलिए हम ग्राहकों को दर्जन पर एक भुट्टा अतिरिक्त देते हैं ताकि हमारे ग्राहक ये न समझें कि हमने उन्हें धोखा दिया। हम चाहते हैं कि हमारा ग्राहक संतुष्ट होकर दूसरों को भी बताए कि भुट्टे कितने अच्छे हैं। इस तरह हमारे भुट्टे और ज्यादा बिकेंगे।' पिता की इन बातों से बेटे को कारोबार का एक अहम सबक मिल गया- ग्राहक की संतुष्टि सर्वोपरि है।

Wednesday, August 12, 2015

मनुष्य की इच्छाएँ

मनुष्य की इच्छाएँ कभी खतम  नही होती | मानव की इछाये कुछ देर के लिये तो सुख देती पर मन की शांती नही दे सकती | मन एक प्रकार का रथ है जिसमे कामन, करोध, लोभ, मोह, अंहकर, ओर घृणा नाम के साथ अश्व जुटे है | कामना इन सब से प्रमुख है |
मन के तीन विकार होते है:- तामसिक, राजसिक व् सात्विक | तामसिक मन हमेशा दुसरो को नुकसान पहुचाने में आनंद प्राप्त करता है और राजसिक मन अहंकार व् शासन की बात सोचता है और सात्विक हमेशा प्रेम और शांति ही चाहता है| विवेक से ही मन को शांत और काबू में किया जा सकता है | मनुष्य के भीतर कामना, मोह, व् अंहकार जेसी जो व्रतिया है उनके सकारात्मक रूप भी है | माता पिता अपने बच्चो को कभी दुख नहीं दे सकते इसलिए कामना करते है की उनके बच्चे हमेशा सुखी रहे | मन का प्रेम ही उन्हें सन्तान के लिए बलिदान करने को भी तत्पर करता है | उनका इसमें कोई स्वार्थ नहीं होता है बस होती है तो कामना और आशीर्वाद | इसी तरह मोह का भी उदारण भी है | जब कोई युवक किसी युवती के प्रति आकर्षित होता है तो वह उसके अवगुण नहीं देखता और उसकी तरह खिंचा चला जाता है | पहले तो येन केन प्रकारेण वह उसे पाना चाहता है और पा लिया तो खोना नहीं चाहता है | उसका अंह जब जगता है तो वह खुद को उसकी नजरो में उठाने के लिए तरह-तरह से हाथ पैर मरता है | इस तरह वह अपने प्यार को पाने में सफल होता है |
नकारात्मक रूप में अंह मानव का दुश्मन भी है क्योकि यह दुसरो से बेमतलब मुकाबला करवाता है | इससे ग्रस्त व्यक्ति तरह-तरह की इच्छाएँ पलता है  और जब उससे नहीं मिलती तो बेमतलब दुखी भी हो जाता है | परन्तु अगर अंह सकारत्मक हो तो मानव का जीवन आनंद मय हो जाता है | मन को किस दिशा में ले जाना है वो इन्सान के हाथो में होता है | चाहे तो अच्छी जगह पर लगा दे या बुरी जगह पर | संतो ने कहा है: कामनाओ का अंत विनाश है | तो सवाल उठता है की क्या इनका त्याग कर देना चाहिए? क्या इन्सान को बड़ा बनने का सपना नहीं देखना चाहिए?
श्री कृष्ण ने गीता में कहा है की काम, क्रोध, व् लोभ  ये तीनो नर्क के द्वार है | इस तीनो का त्याग करे क्योकि इनसे आत्मा तक का हनन होता है | कामुक आचार से व्यक्ति भ्रष्ट हो जाता है और क्रोध बुदी को भ्रष्ट करता है और विवेक में कमी लाता है जबकि लोभ उसे भिखारी बना देता है और कामनाओ के पूरा न होने से उसे निराशा होती है |
कुछ साधू – संत यह भी कहते है की कामनाएँ प्रक्रति की देन है इसलिए मानव कामनाओ का त्याग नहीं कर सकता जब तक वो जीवन जी रहा है | इच्छाओ को दबाना मुस्किल ही नहीं अपितु ना मूनकिन ही है मनुष्य इच्छाओ का पुतला है | बस इस का एक ही उपाय है की अपनी इच्छाओ को सकरात्मक दिशा दी जाये | योगी कामनाओ से विमुख होता है और वह इच्छा मुक्ति के लिए, मोक्ष के लिए तप का सहारा लेता है पर ग्रहस्त तो संसार की बिच जीता है और उसे चाहिए की संसार में रह कर अपनी इच्छाओ को एक रूप देना चाहिए और मन में हमेशा दुसरो के कल्याण के बारे में ही सोचना चाहिए और अपना कर्म करते रहना चाहिए |
श्री कृष्ण ने भी गीता में कहा है की कर्म योग ही स्र्वोप्रिये है उन्होंने कहा है: “कर्म मार्ग ग्रहस्त लोगो के लिए है सन्यास या कर्म से विमुख होने से कोई शिकार तक नहीं पहुचता | जो इंदियो को अपने नियंत्रित करके बिना किसी आसिक्त के कर्म मार्ग पैर अग्रसर होता है वाही श्रेष्ठ है|” आज का मनुष्य मोज-मस्ती व् ऐश्वर्य को होड़ में लगा हुआ है और मानव मूल्य के बारे में नहीं और न ही संसार के बारे में, बस पैसा आते ही अपने सुख में वलीन हो जाता है और सब कुछ भूल जाता है |
यह एक विडबना है की मनुष्य तन की गंदगी मल-मल कर धोता है लेकिन मन को गंदगी बे बारे में तनिक भी नहीं सोचता | मानव अपने स्वार्थ के लिए तो दुसरो का गला भी काटने से नहीं डरता | धन जाने, स्वास्थ गिरने और तरह-तरह की बदनामी के बाद ही मानव हो होश आता है और फिर बाद में भगवान को भी अपने बुरे के लिए खरी-कोठी सुनाता है | वो भूल जाता है की उसने क्या किया था दुसरो के साथ बस उसे अपना ही दुख दिखाई देता है और दूसरो का नहीं | अगर वो पहले से ही संभल जाता तो उसका कभी बुरा नहीं होता और अगर दुःख आता भी तो हसी हसी से काट देता अपने दुःख को |
सीख: वक्त चाहे बुरा और या अच्छा, अपने मकसद को कभी न भूलना न आप को सिर्फ और सिर्फ समाज कल्याण करना है और उसी की राह पर चलना है |

Tuesday, August 11, 2015

दो भाई

सच और झूठ जुड़वाँ भाई थे | दोनों कि एक सी शकल थी | दोनों एक ही तरह के, एक ही रंग के कपड़े पहनते थे | एक साथ खेलते, एक साथ पढ़ते | दोनों को देखकर लोग यह नहीं समझ पाते थे कि इनमे कोन सच है और कोन झूठ | पर दोनों को सभी पसंद करते थे | दोनों सुंदर थे और हसमुख भी | तब उनके नाम का मतलब वह न था जो आज है | वे तो बस ममतामयी माँ के दो प्य्रारे बेटे थे |
दोनों का बचपन तो खेल खुद में बीत गया | लेकिन किशोर होते ही दोनों अपने अपने मन कि करने लगे | दोनों में झगडा भी हो जाता | जब झूठ कोई शेतानी करके आता तो लोग शिकायत सच कि करते | जब सच कोई अच्छा काम करके आता तो प्रशंसा लुटने में झूठ बाजी मर ले जाता | झूठ भ्रम का फायदा उठाने में कभी न चुकता |
सच ने कई बार यह सोचकर सहन कर लिया कि चलो, मेरा भाई है | शायद सुधर जाएगा | माँ ने भी झूठ को सुधारनेकि बहुत कोशिश की | किन्तु झूठ बुरी आदते नहीं छोड़ सका | आखिर माँ ने उन्हें अलग अलग तरह के कपड़े पहनाने शुरू कर दिए | लोग उन्हें पहचानने लगे | किन्तु इससे भी समस्या हल न हुई | झूठ को जेसे ही मोका मिलता, वह सच जेसे कपड़े पहनकर मनचाहे काम कर आता और दोषी सच को ठहराया जाता |
एक दिन माँ बीमार पड़ी | उसके बचने की कोई आशा न रही | तब उसने दोनों बेटो को बुलाया | उनसे बोली – “मेरे बेटो | में अब मरनेवाली हू | क्या तुम मेरी अंतिम इच्छा पूरी करोगे ?” दोनों बेटे आज्ञा मानने के लिए तेयार हो गए | माँ ने कहा –“तुम दोनों एक दुसरे की तरह पीठ करके खड़े हो जाओ | जब तक में तुमसे आने के लिए न कहू तब तक ऐसे ही रहना |”
इतना कहकर माँ ने अंतिम साँस ले ली | तब से सच और झूठ एक – दुसरे के सामने नहीं आ रहे है | आज तक माँ के आदेश की प्रतिशा कर रहे है } लेकिन झूठ ने जो भ्रम फेलाया था उसका असर आज भी बाकि है | इसी कारण कई बार सच को भी लोग झूठ और झूठ को सच मान बैठते है |

Monday, August 10, 2015

एक बार का झूठा, सो बार का झूठा

एक गाव में एक बच्चा रहता था | वह रोज अपनी भेड़ो को घाटी में ले जाया करता था | हर रोज का वह यही किया करता था | सुबह उठा और अपनी भेड़ो को घाटी में ले जाया करता था चराने के लिए | एक दिन वह बेठे बेठे ऊब गया और उसने सोचा क्यों न आज गाँव का मझक उड़ाया जाए |
और वह एज ऊँची चटान पर चड गया और जोर जोर से चिलाने लगा, शेर आया शेर आया | मेरी और मेरी भेड़ो की जान बचाओ | गाँव वालो ने उसकी अवाज सुन कर अपनी अपनी लाठी उठी और घाटी की तरह भागे उसकी जान बचाने के लिए | परन्तु जब वो लोग घाटी में पहुचे तो देख कर हेरान हो गए, वहा उन्हें कुछ न दिखा और वह बच्चा बोला, “कोई शेर नहीं आया मेने तो एक मजाक किया था “
सभी गाँव वालो को बहुत गुस्सा आया और वहा से चले गए | उस बच्चे ने यह हरकत १-२ बार फिर किया | गाँव वाले बार बार आते गुस्से में आ कर वहा से चले जाते | अब की बार सभी गाँव वालो ने निर्णय कीया की अब से इस बच्चे की बात नहीं माने गे चाहे कुछ भी हो जाए |
एक दिन बच्चा रोजाना की तरह अपनी भेड़ो को घाटी में गया | परन्तु उस दिन वहा उसका और भी कोई इंतजार कर रहा था | भेड़ो के आते ही शेर ने उन भेड़ो पर हमला कर दिया | अब वह बच्चा सुच मुच जोर जोर से चिलाया शेर आ गया शेर आ गया | पर अब की बार किसी ने भी उसकी बात नहीं सुनी | अत: शेर ने उसकी बहुत सारी भेड़ो को मार दिया और खा गया |

गलती का अहसास

उन दिनों ईश्वरचंद्र विद्यासागर एक संस्कृत कॉलेज के आचार्य थे। एक बार उन्हें किसी काम से प्रेसीडेंसी कॉलेज के अंग्रेज आचार्य कैर से मिलने जाना पड़ा। कैर भारतीयों से घृणा करते थे। जिस समय ईश्वरचंद्र उनके पास पहुंचे, वह मेज पर जूते रख पैर फैलाकर बैठे हुए थे। ईश्वरचंद्र को देखकर भी न तो वह उनके सम्मान में खड़े हुए और न ही उनके अभिवादन का जवाब दिया।
ईश्वरचंद्र ने उस समय तो कुछ नहीं कहा। लेकिन तय कर लिया कि वक्त आने पर कैर को उसकी गलती का अहसास अवश्य कराएंगे। संयोगवश कुछ ही समय बाद कैर को ईश्वरचंद्र से एक काम पड़ गया। वह उनसे चर्चा करने उनके पास पहुंचे। जैसे ही कैर को उन्होंने अपने पास आते देखा, उन्होंने चप्पलें पहनीं और मेज पर पैर फैलाकर बैठ गए।
कैर एकदम सामने आ खड़े हुए, फिर भी ईश्वरचंद्र ने उन्हें बैठने के लिए नहीं कहा। यह देखकर कैर गुस्से से तिलमिला गए और उन्होंने इस दुर्व्यवहार की शिकायत लिखित में शिक्षा परिषद के सचिव डॉ. मुआट से कर दी। मुआट, ईश्वरचंद्र विद्यासागर को भली-भांति जानते थे। फिर भी उन्होंने इस सिलसिले में उन्हें पूछताछ के लिए बुलाया और कैर की शिकायत का जिक्र किया। कैर वहीं सामने गर्व से सीना तान कर खड़े थे।
डॉ. मुआट की बात सुनकर ईश्वरचंद्र बोले,'हम भारतीय लोग तो अंग्रेजों से ही शिष्टाचार सीखते हैं। जब मैं कैर से मिलने गया तो ये जूते पहनकर आराम से मेज पर पैर फैलाकर बैठे थे और इन्होंने इसी अंदाज में मेरा स्वागत किया था। मुझे लगा कि शायद यूरोपीय शिष्टाचार ऐसा ही होता है।' यह सुनकर कैर बहुत शर्मिंदा हो गए और उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया।

Sunday, August 9, 2015

नये संबंध बनाते वक्त पुराने से जुड़े रहें

एक समय था जब जीवन आज की सी तेज रफ्तार में फंसा नहीं था। एकल परिवार के दायित्वों के बावजूद हमारे पास बिटिया के साथ खेलने, उसे कहानी सुनाने, पार्क ले जाने का समय निकल जाता था। बड़े होने पर उसका अपनी चीजों से लगाव इतना बढ़ने लगा कि टूटने पर रोती थी। नई ला देने का वादा भी उसे खुश नहीं कर पाता था, क्योंकि उसे अपनी चीज ही चाहिए होती थी। नतीजतन घर में टूटे को जोड़ने का सामान भी आ गया। गुड़िया की टांग हो या उसकी रसोई के बर्तन, सब जोड़ने का काम उसके पापा करते थे।
समझदार होती बेटी ने उन जुड़ी हुई चीजों को सजाने का काम शुरू कर दिया था। सहज ही कुछ फेंकना नहीं चाहती थी। उसने अपनी ननसाल में मेरे बाबाजी के समय की एक कश्मीरी नक्काशी की आड़ देखी, जो अंगीठी के सामने रखी जाती थी। दीमक उसके कुछ पल्ले खा चुकी थी। उसने मेरी मां से कहा- इसे फेंको नहीं मुझे दे दो। फिर उसके खराब पल्ले निकलवाकर एक तिपाई बनवा ली। वह आज भी हमारे घर में है। पर आज लोगों की सोच बदल गई है। बिगड़ी या टूटी चीज को फेंकना, उस पर पैसा लगाने से बेहतर समझा जाता है।
जापान में सौंदर्य शास्त्री चीजों के प्रयोग से पड़ने वाले निशानों की कद्र करते हैं। टूटी चीजों को अनुपयोगी नहीं समझते बल्कि कांच तक में पड़ी दरार को जोड़ देते हैं। इससे टूटी चीज पहले से भी सुंदर लगने लगती है। इस प्रक्रिया को 'किंसुगी' कहते हैं जिसका अर्थ है स्वर्णिम सुधार। टूटे को जोड़ना मामूली बात नहीं है। यह एक गहरे पक्ष की ओर संकेत करता है। चीजों का टूटना, रिश्तों का टूटना, इंसान का टूटना एक न होते हुए भी कुछ जुड़ाव रखता है। टूटना दर्द देता है।
जैसे टूटी हुई चीज को सुघड़ता से जोड़ने पर वह मूल रूप जैसी भले न बने, पर फिर भी सुंदर दिखने लगती है, वैसे ही हमारे रिश्ते या हम खुद टूटने की कगार पर पहुंच जाते हैं। चीजें कीमती हों तो भी दुबारा ली जा सकती हैं, पर रिश्तों को और खुद को सोच-समझकर संभालना जरूरी होता है। नये रिश्ते जोड़े जा सकते हैं, पर हर रिश्ते की अपनी जगह होती है।
आज की व्यावहारिक पीढ़ी भावुक नहीं है। वह यहां तक सोच लेती है कि मैत्री संबंध अपने संबंधों से बेहतर होते हैं। जरा सी बात पर रिश्ता टूटने की परवाह नहीं करते। अहम, गुस्सा, लालच और धन उसे ऐसे बांध देते हैं कि वह खुद को छुड़ाकर सही सोच नहीं रख पाता। आज के मानसिक तनाव, उन्माद स्थिति, हिंसा की प्रवृत्ति के पीछे टूटना ही है। नए संबंध बनाना अच्छा है, पर पुराने से जुड़े रहना और भी अच्छा है

Friday, August 7, 2015

बदला हुआ आदमी

स्कॉटलैंड के एक राजा को शत्रुओं ने पराजित कर दिया। उसे धन-जन की बड़ी हानि हुई और संगी-साथी भी छूट गए। अब बस उसका जीवन बचा था, पर शत्रु उसकी टोह में थे। प्राण बचाने के लिए वह भागा-भागा फिर रहा था। स्थिति यह थी कि राजा अब मरा कि तब मरा। राजा एक खोह में छिपा अपनी मौत की प्रतीक्षा करते हुए सोच रहा था- शत्रु की तलवार पल भर में मेरा काम तमाम कर देगी।

तभी राजा ने देखा- एक मकड़ी खोह के दरवाजे पर जाला बनाने में व्यस्त थी। वह कई बार कोशिश करती, नाकाम रहती, लेकिन फिर से उठकर जाला बनाने लगती। राजा ने सोचा- यह व्यर्थ प्रयत्न कर रही है। बिना आधार के जाला भला कैसे बना पाएगी। किंतु आश्चर्य, मकड़ी का एक झीना-सा सूत्र खोह के मुंह पर अटक ही गया। बस फिर एक के बाद एक सूत्र अटकते चले गए और देखते-देखते जाला तेजी से बुना जाने लगा। थोड़ी देर में पूरी खोह के मुंह पर जाला तैयार था।

तभी शत्रु के सिपाही वहां आ पहुंचे। लेकिन खोह के मुंह पर मकड़ी का जाला बना देख वापस लौट गए। करीब आई हुई मौत तो वापस चली गई पर राजा को एक गहरे विचार में छोड़ गई। उसने सोचा- मकड़ी बार-बार गिरकर भी निराश और परास्त नहीं हुई तो मैं इंसान होकर भी क्यों डर रहा हूं? मैं भी अवश्य अपने शत्रुओं को परास्त करूंगा। इस मकड़ी ने मेरा संकल्प मजबूत कर दिया है। यह सोचते ही वह खोह से बाहर निकल गया। अब वह एक बदला हुआ आदमी था। उसने अपने साथियों को एकत्र किया और अंत में शत्रु पर विजय हासिल की।

Tuesday, August 4, 2015

चालक पंडित

कशी पुर एक पंडित रहता था और वो बहुत गरीब था वह अपने परिवार के लिए बहुत मुश्किल से दो वक्त की रोटी का बंदोवस्त कर पाता था इसलिए उसकी पत्नी ने उसे सुझाव दिया की वह एक बार राजा से मिले और उनसे कुछ मदद मांगे | उसका सुझाव मानकर पंडित उसी दिन राजा के दरबार के लिए चल दिया | वह राजा से मिला और राजा ने उसके आने का कारण पूछा तो पंडित जी बोले, हे महाराज में सीधा केलाश पर्वत से आ रहा हु | वहा में भगवान शिव से मिला था | उन्होंने मेरे आप के लिए के संदेश भेजा है की उन्हें एक गाये की आवश्यकता है |
राजा बहुत चतुर था उसको शंका हुई | वह तुरंत समझ गया की गाय भगवान को नहीं उसे चाहिए किंतु वो सीधा मांगने से डर रहा है | राजा ने अपने मंत्री को कहा की पंडित जी के लिए गाय का बंदोवस्त किया जाए और राजा ने अपने मंत्री को कहा की पंडित जी को एक हजार स्वर्ण मुद्रए दे दे | मंर्त्री ने उसे गाय और एक हजार स्वर्ण मुद्रए दे दी | पंडित ने एक नजर में ही भांप लिया की गाये बहुत बड़ी थी | उसे देखा कर उसने नाटक किया और उसके चारो तरह घुमा और सिर झुका कर और अचानक वह अपने कान को गाये के पास ले गया | कुछ देर बाद वह सीधा खड़ा होकर राजा से बोला, महाराज, इस गाय ने मुझे अभी अभी बताया है की यह बहुत ही बूढी गाय है और यह भी कहा की इस आयु में अब वह दूध भी नहीं दे सकती और बछड़े को भी पैदा नहीं कर सकती है |
यह सुनकर राजा पंडित की बुदिमानी से बहुत प्रसन्न हुआ और उसने अपने मंत्री की एक जवान गाय लाने को कहा और राजा ने साथ ही साथ पंडित को राजे पंडित को घोषण कर दी |

जीवन में खुशी

एक बार एक लड़का किसी जंगल में लकड़ी लेने गया। घूमते-घूमते वह चिल्लाया तो उसे लगा कि वहां कहीं कोई दूसरा लड़का भी है और वह भी चिल्ला रहा है। उसने उससे कहा, 'इधर तो आओ।' उधर से भी आवाज आई-'इधर तो आओ।' लड़के ने फिर कहा,'कौन हो तुम?' आवाज ने कहा-'कौन हो तुम?' लड़के ने उसे डांटा,'तुम बड़े खराब हो, मुझे डरा रहे हो।' सामने से भी यही बात दोहराई गई। यह सुनकर लड़का घबरा गया और डरकर अपने घर लौट आया।

उसने अपनी मां को पूरी घटना सुनाई और बताया, 'मां, जंगल में वह लड़का हू-ब-हू मेरी नकल करता है। मेरी तरह चिल्लाता है। जो मैं कहता हूं, वही कहने लगता है। मैं अब जंगल में नहीं जाउंगा।' उसकी मां समझ गई कि माजरा क्या है? उसने बेटे से कहा,'आज तुम वहीं जाकर उससे नम्रतापूर्वक बोलो। तुम ऐसा करोगे तो वह भी तुम्हारे साथ नम्रतापूर्वक व्यवहार करेगा।'

मां के समझाने पर वह लड़का फिर उसी जंगल में गया। वहां जाकर उसने जोर से कहा,'तुम बहुत अच्छे लड़के हो।' उधर से भी आवाज आई-'तुम बहुत अच्छे लड़के हो।' फिर लड़के ने कहा,'मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं।' उधर से भी यही आवाज आई-'मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं।' यह सुनकर वह लड़का प्रसन्न हो गया। वह लड़का प्रतिध्वनि के संबंध में कुछ नहीं जानता था। शायद हम भी कम ही जानते हैं।
मनुष्य का जीवन भी एक प्रतिध्वनि की तरह है। आप चाहते हैं कि लोग आपसे प्रेम करें तो आप भी दूसरों से प्रेम करें। जिससे भी मिलें, मुस्कुराकर प्रेम से मिलें। प्रेमभरी मुस्कराहट का जवाब प्रेमभरी मुस्कराहट से ही मिलेगा। इस तरह जीवन में हर ओर खुशी ही नजर आएगी।

Monday, August 3, 2015

माता – पिता के प्यार का कोई मूल्य नहीं

पांच वर्ष की गोरिका की एक सेहली जिसका नाम रिंकी था उसके पास बहुत सारे खिलोने थे | रिकी के साथ खेलते खेलते उसका मन एक गुडिया पर आ गया और उसने सोचा की उसके पास भी बिलकुल वेसी गुडिया होनी चाहिए यही सोच कर उसने अपनी में बोला, “माँ मुझे भी वेसी ही गुडिया चाहिए, परन्तु माँ में उसे डाट कर मना कर दिया और कहा नहीं बेटा अब तुम्हारी उर्म नहीं है गुडियों के साथ खेलने की | गोरिका के बार – बार निवेदन करने पर भी माँ टस से मस नहीं हुई |
गोरिका को बहुत क्रोध आया उसने उस वक्त का खाना भी नहीं खाया | उसने रात का भी खाना नहीं खाया उसकी माँ ने उसे मनाने की बहुत कोशिश की परन्तु वह नहीं मानी | उसकी माँ भी हार मान के वहा से चली गई | गोरिका अपने कमरे में अकेली लेटी हुई थी तभी उसको याद आया की उसकी माँ ने कहा था की उसके पिता का बहुत अच्छा वेतन है | तो इसका मतलब उसकी माँ के पास बहुत पैसे होगे फिर भी मुझे माँ मेरी मन पसंद की किताब खरीदने नहीं दे रही है | वह पूरी रात भर सोचती रही की कैसे वह गिडिया ले, क्या करे वो | बहुत सोचने के बाद उसने अपनी माँ के पर्स में से पैसे लेने की ठान ली और खुद ही गुडिया लेने का निश्चय कर लिया | उसने अगले दिन सुबह ही अपनी माँ के कमरे में चले गई, उसे पता था की उस वक्त माँ पापा के लिए खाना बना रही होगी | बस मोका देख कर वह कमरे में प्रवेश कर गई और उसने पर्स उठा ही लिया था की अचानक उसे अपनी माँ की अवाज सुनाई दी, “काश मेरे पास इतने पैसे होते की में अपनी बेटी को वो गिडिया दिला सकती | में हमेशा अपने बच्चो को कहती थी की उसके पिता का बहुत अच्छा वेतन है परन्तु मुझे हमेशा कोई न कोई बहाना बनाना पड़ता है उन्हें मना करने के लिए | मुझे बहुत दुःख होता है अपने बच्चो का मुरझाया चहरा देख कर |
अपनी माँ को रोते और बड बडा ते देखा कर उसे बहुत श्रम आई उसने पर्स को वाही पर रख दिया जहा से उसने उठाया था | वह कमरे से बाहर आ गई और देखा उसके माता – पिता बहुत गंभीर बात कर रहे थे उसे बहुत दुःख हुआ अपनी हरकत पर और वह महसूस कर रही थी उसके माता – पिता उनसे किता प्रेम करते है

Saturday, August 1, 2015

तीन मूर्तिया का राज

बीरबल बहुत दिनों से दरबार नहीं गए थे और इसी मोके को देख कर बाकि दरबारियों ने बादशाह अकबर के कान भरना शुरू कर दिया जैसे बीरबल ने बादशाह के साथ बगावद की है, बीरबल गद्दार है, और बहुत कुछ कहा |
जब बीरबल वापिस दरबार आए तो बादशाह अकबर ने बीरबल से इस आरोपों के बारे में कोई बात नहीं की | लेकिन बीरबल ने महसूस कर लिया था की कोई न कोई बात तो है क्योकि बादशाह अकबर उनसे सही से बात नहीं कर रहे थे और उनके दिमाग में उसके प्रति अविश्वास और संदेह पैदा हो रहा था और इसी के चलते वब दरबार भी काम आने लगा था |
समय बीतता गया | अकबर को अपने चतुर और समझदार सलाहकार की याद आने लगी | एक दिन की बात है एक कारीगर बादशाह के लिए बहुत ही खास सोने से बनी तीन एक जैसी मूर्तिया लाया |
बादशाह अबकर को बहुत पसंद आई तीनो मूर्तिया परन्तु तभी कारीगर बोला, बादशाह, ये पूरी तरह एक जैसी नहीं है | इनमे से एक बाकि दोनों से बहतर है | लेकिन इनमे फर्क्र जानने के लिए बहुत तेज और पेनी नजर और दिमाग जाहिए |
तीनो मूर्तिया सभी दरबारियों को दिखाई गई | लेकिन न तो कोई दरबारी और न ही बादशाह अकबर उनमे कोई फर्क बता न सके |
बादशाह अकबर बोले, “अब सिर्फ्र एक ही आदमी इसमें फर्क बता सकता है जाओ जा कर बबीरबल को बुलाओ |”
कुछ देर बाद बरिबल दरबार में आए और बादशाह को सलाम किया | अकबर ने मन ही मन सोचा, “यह आदमी धोखेबाज कैसे हो सकता है क्योकि इसे देखते ही हमारा मन खुश हो जाता है |”
अकबर ने बीरबल से कहा, “बीरबल इन मूर्तियों को देखो और बताओ की इन तीनो मूर्तियों में क्या फर्क है या है भी नहीं |”
बीरबल थोड़ी देर तक उन मूर्तियों को देखता रहा और फिर उन्होंने धातु का एक पतला तार मंगवाया और फिर हर मूर्ति के बाँए कान में एक छोटे से छेद में उसे डाला | मूर्तिया जांचते समय उन्हें इस छेद का पता लगा था |
बीरबल ने तीनो मूर्तियों में ऐसा किया तब उन्हें पता चला की पहली और दूसरी मूर्तियों में से तार डालने से दूसरी तरफ से तार निकल रही है परन्तु तीसरी में से ऐसा नहीं हुआ |
“जहापनाह, दरबार में आने के बाद बीरबल ने पहली बार सीधे अकबर की तरफ देखते हुए कहा, “ये तीनो मूर्तिया भले ही देखने में एक सी लगे, लेकिन ये एक दुसरे से बिलकुल अलग है | इसको हम इस तरह से समझ सकते है |”
पहला दरबारी जो विश्वास के साथ कही गई अपने राजा की बात सुनता हो परन्तु अपने दिमाग ने नहीं रख पाता हो | जो एक कान से सुनता हो और दुसरे से बहार निकाल देता हो |
दूसरा दरबारी, जो राजा की बात तो सुनता हो परन्तु मोका देखते ही राजा की कही बात किसी के साथ भी बोल देता हो |
और तीसरी दरबारी वो, जो अपने राजा की हर बात सुनता हो और अपने तक ही रखता हो और राजा का भी विश्वास न तोड़ता हो |
बादशाह मेरी राय में तीसरा दरबारी ही सबसे अच्छा है इसलिए एक छेद वाली तीसरी मूर्ति ही सबसे अच्छी है |
अकबर ने कारीगर की तरफ देखा और उसने भी तीसरी मूर्ति को ही सबसे अच्छा कहा |
यह देखकर अकबर बहुत कुछ हुए और कहा, बीरबल तुम्ह्रारे पास न सिर्फ तेज दिमाग और तेज नजर है बल्कि एक वफादार दिल भी है | यह तीनो मूर्तिया तुम्हारी हुई |

कथनी और करनी

एक गरीब बुढा था | उसके कोई सन्तान नहीं थी | बुढ़ापे में उसकी देखभाल करती | अत: उसे स्वंय मेहनत – मजदूरी करके अपना पेट पालना पड़ता था |इसलिए वह रोज जंगल से लकडिया काटकर लाता तथा उन्हें शहर में बेचता था |
अक्सर परेशानी में वह बुढा एक ही बात कहता, “इससे तो अच्छा है की यमराज मुझे उठा ले |” एक दिन बुढा बीमार पड़ गया | परन्तु लकडिया काटने के किए जैसे-तेसे लकडिया काटकर उनका गट्ठर बनाया और उसे उठाकर गाँव की तरफ चल दिया और जल्दी ही वह थक गया | उसने लकडियो का गट्ठर जमीन पर पटकते हुए कहा, “ इससे तो अच्छा हो यमराज उठा ही ले मुझे |”
ठीक उसी समय यमराज वंहा से गुजरे | बूढ़े के दर्द भरे शब्द सुनकर उन्हें दया आ गई | उन्होंने सोचा क्यों न इस बूढ़े को अपने साथ ले ही जाऊ | इसे इसके दर्दो से भी मुक्ति मिल जायगी | यमराज बूढ़े के समक्ष प्रकट हुए और साथ चलने को कहा | बुढा अपनी बात से तुरंत मुकर गया और कहने लगा  “मेने तो गट्ठर उठाने के लिए मदद मांगी थी |”

यमराज ने लकडियो का गट्ठर बूढ़े के सर पर रखा और हंसते हुए वहा से चले गए |