Friday, May 11, 2018

तेरा अहंकार

एक बार एक अजनबी किसी के घर गया। वह अंदर गया और मेहमान कक्ष मे बैठ गया। वह खाली हाथ आया था तो उसने सोचा कि कुछ उपहार देना अच्छा रहेगा। तो उसने वहा टंगी एक पेन्टिंग उतारी और जब घर का मालिक आया, उसने पेन्टिंग देते हुए कहा, यह मै आपके लिए लाया हुँ। घर का मालिक, जिसे पता था कि यह मेरी चीज मुझे ही भेंट दे रहा है, सन्न रह गया !!!!! अब आप ही बताएं कि क्या वह भेंट पा कर, जो कि पहले से ही उसका है, उस आदमी को खुश होना चाहिए ?? मेरे ख्याल से नहीं.... लेकिन यही चीज हम भगवान के साथ भी करते है। हम उन्हे रूपया, पैसा चढाते है और हर चीज जो उनकी ही बनाई है, उन्हें भेंट करते हैं! लेकिन मन मे भाव रखते है की ये चीज मै भगवान को दे रहा हूँ! और सोचते हैं कि ईश्वर खुश हो जाएगें। मूर्ख है हम! हम यह नहीं समझते कि उनको इन सब चीजो कि जरुरत नही। अगर आप सच मे उन्हे कुछ देना चाहते हैं तो अपनी श्रद्धा दीजिए, उन्हे अपने हर एक श्वास मे याद
कीजिये और विश्वास मानिए प्रभु जरुर खुश होगा !! अजब हैरान हूँ भगवन तुझे कैसे रिझाऊं मैं; कोई वस्तु नहीं ऐसी
जिसे तुझ पर चढाऊं मैं । भगवान ने जवाब दिया :" संसार की हर वसतु तुझे मैनें दी है। तेरे पास अपनी चीज सिरफ तेरा अहंकार है, जो मैनें नहीं दिया । उसी को तूं मेरे अरपण कर दे। तेरा जीवन सफल हो

Wednesday, May 9, 2018

मृत्यु से भय कैसा

राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनातें हुए जब शुकदेव जी महाराज को छह दिन बीत गए और तक्षक ( सर्प ) के काटने से मृत्यु होने का एक दिन शेष रह गया, तब भी राजा परीक्षित का शोक और मृत्यु का भय दूर नहीं हुआ। अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर राजा का मन क्षुब्ध हो रहा था। तब शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को एक कथा
सुनानी आरंभ की। राजन ! बहुत समय पहले की बात है, एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया। संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा पहुँचा। उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात्रि पड़ गई और भारी वर्षा पड़ने लगी। जंगल में सिंह व्याघ्र आदि बोलने लगे। वह राजा बहुत डर गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूंढने लगा। रात के समय में अंधेरा होने की वजह से उसे एक दीपक दिखाई दिया। वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बहेलिये की झोंपड़ी देखी । वह बहेलिया ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था। अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था। बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंधयुक्त वह झोंपड़ी थी। उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठका, लेकिन पीछे उसने सिर छिपाने का कोई और आश्रय न देखकर उस बहेलिये से अपनी झोंपड़ी में रात भर ठहर
जाने देने के लिए प्रार्थना की। बहेलिये ने कहा कि आश्रय के लोभी राहगीर कभी- कभी यहाँ आ भटकते हैं। मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूँ, लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं। इस झोंपड़ी की गंध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर वे उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने की कोशिश करते हैं एवं अपना कब्जा जमाते हैं। ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ।। इसलिए मैं अब किसी को भी यहां नहीं ठहरने देता। मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा।
राजा ने प्रतिज्ञा की कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा। उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है, सिर्फ एक रात्रि ही काटनी है। बहेलिये ने राजा को ठहरने की अनुमति दे दी, पर सुबह होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दोहरा दिया। राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा। सोने में झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सुबह उठा तो वही सब परमप्रिय लगने लगा। अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वहीं निवास करने की बात सोचने लगा। वह बहेलिये से और ठहरने की प्रार्थना करने लगा। इस पर बहेलिया भड़क गया और राजा को भला-बुरा कहने लगा। राजा को अब वह जगह छोड़ना झंझट लगने लगा और दोनों के बीच उस स्थान को लेकर बड़ा विवाद खड़ा हो गया। कथा सुनाकर शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित से पूछा," परीक्षित ! बताओ, उस राजा का उस स्थान पर सदा के लिए रहने के लिए झंझट करना उचित था ? परीक्षित ने उत्तर दिया," भगवन् ! वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइये ? वह तो बड़ा भारी मूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता है। उसकी मूर्खता पर तो मुझे आश्चर्य होता है। " श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा," हे राजा परीक्षित ! वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं। इस मल-मूल की गठरी देह ( शरीर ) में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आएं हैं। फिर भी आप झंझट फैला रहे हैं और मरना नहीं चाहते। क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है ?" राजा परीक्षित का ज्ञान जाग पड़ा और वे बंधन मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए। मेरे भाई - बहनों, वास्तव में यही सत्य है। जब एक जीव अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् ! मुझे यहाँ ( इस कोख ) से मुक्त कीजिए, मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा। और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है तो ( उस राजा की तरह हैरान होकर ) सोचने लगता है कि मैं ये कहाँ आ गया (और पैदा होते ही रोने लगता है ) फिर उस गंध से भरी झोंपड़ी की तरह उसे यहाँ कीखुशबू ऐसी भा जाती है कि वह अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता है।यही मेरी भी कथा है और आपकी भी।

रामनाम सत्य है
यही अटल सत्य है

Tuesday, May 8, 2018

दान की महिमा

एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल दिए, इस अंधविश्वास के कारण कि भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। थैली देखकर दूसरों को भी लगता है कि इसे पहले से ही किसी ने कुछ दे रखा है।
पूर्णिमा का दिन था। भिखारी सोच रहा था कि आज अगर ईश्वर की कृपा होगी तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी। अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती हुई दिखाई दी।
भिखारी खुश हो गया। उसने सोचा कि राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से आज तो उसकी सारी दरिद्रता दूर हो जाएंगी और उसका जीवन संवर जाएगा।
जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई। जैसे ही राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रूकवाया और उतर कर उसके निकट पहुंचे।
भिखारी की तो मानो सांसें ही रूकने लगीं, लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उल्टे अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और उससे भीख की याचना करने लगा। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। अभी वह सोच ही रहा था कि राजा ने पुनः याचना की।
भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला मगर हमेशा दूसरों से लेने वाला मन देने को राजी नहीं हो रहा था।
जैसे-तैसे करके उसने दो दाने जौ के निकाले और राजा की चादर में डाल दिए। उस दिन हालांकि भिखारी को अधिक भीख मिली, लेकिन अपनी झोली में से दो दाने जौ के देने का मलाल उसे सारा दिन रहा। शाम को जब उसने अपनी झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही।
जो जौ वह अपने साथ झोली में ले गया था, उसके दो दाने सोने के हो गए थे। अब उसे समझ में आया कि यह दान की महिमा के कारण ही हुआ। 
वह पछताया कि – काश.! उस समय उसने राजा को और अधिक जौ दिए होते लेकिन दे नहीं सका, क्योंकि उसकी देने की आदत जो नहीं थी।
शिक्षा-
*1. देने से कोई चीज कभी घटती नहीं।*
*2. लेने वाले से देने वाला बड़ा होता है।*
*3. अंधेरे में छाया, बुढ़ापे में काया और अन्त समय में माया किसी का साथ नहीं देती

Wednesday, May 2, 2018

वो भी क्या दिन थे

वो भी क्या दिन थे 
रूहअफ़ज़ा हुआ करता था हम सबके घरों मैं। .....कांच की खाली बोतलों में मम्मी ताज़े नीबू का रस निचोड़ कर गर्मी के पुख्ता इंतेज़ाम कर लिया करती थी ।
हाँ उन दिनों गर्मी की छुट्टियों मैं नानी के यहाँ जाने का रिवाज हुआ करता था । और वहां मामा ओर मौसी हमारे सारे नखरे उठाने के लिए वचनबद्ध हुआ करते थे ।
भारी दोपहरी वो सत्तू मैं शक्कर घोल कर नानी के घर पर खाने का मज़ा ही कुछ और था ।
ओर वो दस्सी पंजी चवन्नी की बेर मिरचन की पुड़िया दौड़े दौड़े लाया करते थे ।
ओर उसमे निकले छोटे छोटे खिलोनों पर इतराने का भी अपना मज़ा था ।
वो भी क्या दिन थे ।
वो कुल्फी वाला साइकल पर दूध की कुल्फी लिए आता था और कुछ कलदारों के बदले हमारे बचपन को ठंडक दे जाया करता था 
वो भी क्या दिन थे ।
ओर हां मटके हुआ करते थे । जिनपर कपड़ा लगाया होता था चारों तरफ । हमारा काम होता था कि वो कपड़ा सूखने न पाए । गोया ठंडक के सबसे बड़े जिम्मेदार मटके महाशय हुआ करते थे । उनकी एक सहेली भी कुछ घरों में रहा करती थी , सुराही नाम हुआ करता था मोहतरमा का । क्या नज़ाकत - ओर नक्काशी लिए हुए मोहतरमा खटिया के पास इतरा इतरा कर ठंडक बिखेरा करती थी ।
ओर दूर खड़े मटके को भी चिढ़ाया करी थी ।
वो भी क्या दिन हुआ करते थे ।
रातें ठंडक लिए हुए होती थी । और अटारियों पर चटाई के ऊपर दरी चादर बिछा कर बड़े सुकून की नींद आया करती थी ।
हाँ छत पर बड़ी सफाई हुआ करती थी उन दिनों ।
बिस्तर लगाने के पहले पानी छिड़क कर छत को पहले ठंडक पहुंचाई जाती थी ।
वो भी क्या दिन हुआ करते थे ।
कुछ अरसा हुआ कि छत पर एक झगड़े की जड़ आई जिसका नाम टेबल फैन हुआ करता था ।
सिन्नी ओर उषा ये नाम तो सभी को याद होंगे ।
बस उसके आते है वो खींचा तानी शुरू हुई कि कोन उसके सामने सोयेगा ओर को कहां ।
झगड़ा खत्म होता था पापा की घुड़की से ओर अम्मा की समझाइश से ।
वो भी क्या दिन थे ।
हां उनदिनों ठंडक के सारे इंतेज़ाम घर पर ही हुआ करते थे । बस बाहर से सिर्फ एक रुपये की बर्फ आया करती थी जो कभी लस्सी मैं , कभी रूह अफज़ा मैं कभी नीबू शर्बत में घुल मिल जाया करती थी ।
वो भी क्या दिन थे ।
और हाँ याद है ना तुम सबको की जब बर्फ का एक टुकड़ा हम कितनी देर तक अपने मुंह में घमाते थे ।
और फिर हाँ वो कटुूर कुटुर अपने दांतों से चबा कर एक दूसरे को चिढाना याद है ना ।
वो भी क्या दिन थे ।
वो पापा की घुड़की , वो मम्मी की थपकी ।
वो भी क्या दिन थे ।
वो गर्मी अब भी आती है , लेकिन ........
बस आगे कुछ नही कहना है........
बस वो बचपन अब नही आता , वो अटारी अब नही होती , टेबल फैन कब का कबाड़ी वाला रद्दी के साथ ले गया ....वो मटका अब किस्से कहानियों मैं रह गया ...
कभी कभी लगता है कि वो हमारे बचपन को भी रद्दी के साथ तोल कर कुछ कलदार हमारे हाथों मैं थमा गया ।
बस तब से हम कलदारों से रुपए और रुपयों से खुशियां खरीदने की कोशिश करने लगे है हम सब ।
काश की ऐसा हो सकता कि वो रद्दी वाला हमारा बचपन लौटा जाता ओर हम सब रुपये उसको दे देते ।
लेकिन फिर किसी कीमत पर हम वो बचपन कभी किसी को न देते
लोग कहते है हम बड़े हो गए , लोग कहते है हम समझदार हो गए 
लेकिन वो भी क्या दिन हुआ करते थे ।

Tuesday, May 1, 2018

बंजर पेड

एक बच्चे को आम का पेड़ बहुत पसंद था।जब भी फुर्सत मिलती वो आम के पेड के पास पहुच जाता।पेड के उपर चढ़ता,आम खाता,खेलता और थक जाने पर उसी की छाया मे सो जाता। उस बच्चे और आम के पेड के बीच एक अनोखा रिश्ता बन गया। बच्चा जैसे-जैसे बडा होता गया वैसे-वैसे उसने पेड के पास आना कम कर दिया। कुछ समय बाद तो बिल्कुल ही बंद हो गया। आम का पेड उस बालक को याद करके अकेला रोता। एक दिन अचानक पेड ने उस बच्चे को अपनी तरफ आते देखा और पास आने पर कहा, तू कहां चला गया था? मै रोज तुम्हे याद किया करता था। चलो आज फिर से दोनो खेलते है।" बच्चे ने आम के पेड से कहा, अब मेरी खेलने की उम्र नही है मुझे पढना है,लेकिन मेरे पास फीस भरने के पैसे नही है।" पेड ने कहा,"तू मेरे आम लेकर बाजार मे बेच दे, इससे जो पैसे मिले अपनी फीस भर देना।" उस बच्चे ने आम के पेड से सारे आम तोड़ लिए और उन सब आमो को लेकर वहा से चला गया। उसके बाद फिर कभी दिखाई नही दिया। आम का पेड उसकी राह देखता रहता। एक दिन वो फिर आया और कहने लगा, अब मुझे नौकरी मिल गई है, मेरी शादी हो चुकी है, मुझे मेरा अपना घर बनाना है,इसके लिए मेरे पास अब पैसे नही है।" आम के पेड ने कहा, तू मेरी सभी डाली को काट कर ले जा,उससे अपना घर बना ले।" उस जवान ने पेड की सभी डाली काट ली और ले के चला गया।आम के पेड के पास अब कुछ नहीं था वो अब बिल्कुल बंजर हो गया था। कोई उसे देखता भी नहीं था। पेड ने भी अब वो बालक/जवान उसके पास फिर आयेगा यह उम्मीद छोड दी थी। फिर एक दिन अचानक वहाँ एक बुढा आदमी आया। उसने आम के पेड से कहा,"शायद आपने मुझे नही पहचाना, मैं वही बालक हूं जो बार-बार आपके पास आता और आप हमेशा अपने टुकड़े काटकर भी मेरी मदद करते थे।"आम के पेड ने दु:ख के साथ कहा,पर बेटा मेरे पास अब ऐसा कुछ भी नही जो मै तुम्हे दे सकु।" वृद्ध ने आंखो मे आंसु लिए कहा, आज मै आपसे कुछ लेने नही आया हूं बल्कि आज तो मुझे आपके साथ जी भरके खेलना है, आपकी गोद मे सर रखकर सो जाना है।"
इतना कहकर वो आम के पेड से लिपट गया और आम के पेड की सुखी हुई डाली फिर से अंकुरित हो उठी।वो आम का पेड़ कोई और नही हमारे माता-पिता हैं दोस्तों ।जब छोटे थे उनके साथ खेलना अच्छा लगता था।* जैसे-जैसे बडे होते चले गये उनसे दुर होते गये। पास भी तब आये जब कोई जरूरत पडी, कोई समस्या खडी हुई।आज कई माँ बाप उस बंजर पेड की तरह अपने बच्चों की राह देख रहे है। जाकर उनसे लिपटे, उनके गले लग जाये फिर देखना वृद्धावस्था में उनका जीवन फिर से अंकुरित हो उठेगा।

Monday, April 30, 2018

वसीयत

एक घर मे तीन भाई और एक बहन थी...बड़ा और छोटा पढ़ने मे बहुत तेज थे। उनके मा बाप उन चारो से बेहद प्यार करते थे मगर मझले बेटे से थोड़ा परेशान से थे।

बड़ा बेटा पढ़ लिखकर डाक्टर बन गया।
छोटा भी पढ लिखकर इंजीनियर बन गया। मगर मझला बिलकुल अवारा और गंवार बनके ही रह गया। सबकी शादी हो गई । बहन और मझले को छोड़ दोनों भाईयो ने Love मैरीज की थी।

बहन की शादी भी अच्छे घराने मे हुई थी।
आखीर भाई सब डाक्टर इंजीनियर जो थे।

अब मझले को कोई लड़की नहीं मिल रही थी। बाप भी परेशान मां भी।
बहन जब भी मायके आती सबसे पहले छोटे भाई और बड़े भैया से मिलती। मगर मझले से कम ही मिलती थी। क्योंकि वह न तो कुछ दे सकता था और न ही वह जल्दी घर पे मिलता था।

वैसे वह दिहाडी मजदूरी करता था। पढ़ नहीं सका तो...नौकरी कौन देता। मझले की शादी कीये बिना बाप गुजर गये ।

माँ ने सोचा कहीं अब बँटवारे की बात न निकले इसलिए अपने ही गाँव से एक सीधी साधी लड़की से मझले की शादी करवा दी।
शादी होते ही न जाने क्या हुआ की मझला बड़े लगन से काम करने लगा ।
दोस्तों ने कहा... ए चन्दू आज अड्डे पे आना।

चंदू - आज नहीं फिर कभी
दोस्त - अरे तू शादी के बाद तो जैसे बिबी का गुलाम ही हो गया?
चंदू - अरे ऐसी बात नहीं । कल मैं अकेला एक पेट था तो अपने रोटी के हिस्से कमा लेता था। अब दो पेट है आज
कल और होगा।

घरवाले नालायक कहते थे कहते हैं मेरे लिए चलता है।
मगर मेरी पत्नी मुझे कभी नालायक कहे तो मेरी मर्दानगी पर एक भद्दा गाली है। क्योंकि एक पत्नी के लिए उसका पति उसका घमंड इज्जत और उम्मीद होता है। उसके घरवालो ने भी तो मुझपर भरोसा करके ही तो अपनी बेटी दी होगी...फिर उनका भरोसा कैसे तोड़ सकता हूँ । कालेज मे नौकरी की डिग्री मिलती है और ऐसे संस्कार मा बाप से मिलते हैं ।

इधर घरपे बड़ा और छोटा भाई और उनकी पत्नीया मिलकर आपस मे फैसला करते हैं की...जायदाद का बंटवारा हो जाये क्योंकि हम दोनों लाखों कमाते है मगर मझला ना के बराबर कमाता है। ऐसा नहीं होगा।

मां के लाख मना करने पर भी...बंटवारा की तारीख तय होती है। बहन भी आ जाती है मगर चंदू है की काम पे निकलने के बाहर आता है। उसके दोनों भाई उसको पकड़कर भीतर लाकर बोलते हैं की आज तो रूक जा? बंटवारा कर ही लेते हैं । वकील कहता है ऐसा नहीं होता। साईन करना पड़ता है।

चंदू - तुम लोग बंटवारा करो मेरे हिस्से मे जो देना है दे देना। मैं शाम को आकर अपना बड़ा सा अगूंठा चिपका दूंगा पेपर पर।
बहन- अरे बेवकूफ ...तू गंवार का गंवार ही रहेगा। तेरी किस्मत अच्छी है की तू इतनी अच्छे भाई और भैया मिलें
मां- अरे चंदू आज रूक जा।

बंटवारे में कुल दस विघा जमीन मे दोनों भाई 5- 5 रख लेते हैं ।
और चंदू को पुस्तैनी घर छोड़ देते है
तभी चंदू जोर से चिल्लाता है।

अरे???? फिर हमारी छुटकी का हिस्सा कौन सा है?
दोनों भाई हंसकर बोलते हैं
अरे मूरख...बंटवारा भाईयो मे होता है और बहनों के हिस्से मे सिर्फ उसका मायका ही है।

चंदू - ओह... शायद पढ़ा लिखा न होना भी मूर्खता ही है।
ठीक है आप दोनों ऐसा करो।
मेरे हिस्से की वसीएत मेरी बहन छुटकी के नाम कर दो।
दोनों भाई चकीत होकर बोलते हैं ।
और तू?

चंदू मां की और देखके मुस्कुराके बोलता है
मेरे हिस्से में माँ है न......
फिर अपनी बिबी की ओर देखकर बोलता है..मुस्कुराके...क्यों चंदूनी जी...क्या मैंने गलत कहा?

चंदूनी अपनी सास से लिपटकर कहती है। इससे बड़ी वसीएत क्या होगी मेरे लिए की मुझे मां जैसी सासु मिली और बाप जैसा ख्याल रखना वाला पति।
बस येही शब्द थे जो बँटवारे को सन्नाटा मे बदल दिया ।
बहन दौड़कर अपने गंवार भैया से गले लगकर रोते हुए कहती है की..मांफ कर दो भैया मुझे क्योंकि मैं समझ न सकी आपको।

चंदू - इस घर मे तेरा भी उतना ही अधिकार है जीतना हम सभी का।
बहुओं को जलाने की हिम्मत कीसी मे नहीं मगर फिर भी जलाई जाती है क्योंकि शादी के बाद हर भाई हर बाप उसे पराया समझने लगते हैं । मगर मेरे लिए तुम सब बहुत अजीज हो चाहे पास रहो या दुर।

माँ का चुनाव इसलिए कीया ताकी तुम सब हमेशा मुझे याद आओ। क्योंकि ये वही कोख है जंहा हमने साथ साथ 9 - 9 महीने गुजारे। मां के साथ तुम्हारी यादों को भी मैं रख रहा हूँ।

दोनों भाई दौड़कर मझले से गले मिलकर रोते रोते कहते हैं
आज तो तू सचमुच का बाबा लग रहा है। सबकी पलको पे पानी ही पानी। सब एक साथ फिर से रहने लगते है।
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Sunday, April 29, 2018

बेटी के सवाल

मां ने बेटी से पूछा कि बेटी तुझे कैसा वर चाहिये? बेटी ने जबाब दिया मुझे रावण जैसा वर चाहिये। मां ने यह शब्द अपनी बेटी से सुनते ही चिल्लाई ।और डाँटते हुए अपनी बेटी को समझाने लगी? 
बेटी रावण नही राम जैसा पति मांगते है। जो पुरुषोत्तम और जगत के कुल थे ।
बेटी ने शांत मन से कहा कि मां रावण ने अपनी बहन शूर्पणखा की इज्जत की खातिर अपनी  लंका का विनाश करवाया। लेकिन समझौता नही किया।
सीता का हरण किया लेकिन उसकी इच्छा के  विरूद्ध कोई कार्य नही किया ।
जिस इंसान में  औरत के प्रति इतनी इज्जत और #श्रद्धा हो। वह पति जीवन में एक जन्म नही सात जन्म मिलना चाहिये ।
और मां आप राम के पुरुषोत्तम की बात कर रही हो। क्या तुम चाहती हो। कि तुम्हारी बेटी घर घर ठोकरें खाये ।सीता की तरह ?
अगर अपने पति के लिये यह सब कर भी लूँ । और मेरा पति मेरे चरित्र पर उंगली उठाये । तो अग्नि परीक्षा ??
अग्नि परीक्षा अगर दे भी दूँ  तो गर्भावस्था मैं मुझे घर से निकाल दिया जायेगा । तो क्या आप मेरे पति को पुरुषोत्तम कहेंगी ।।
मां जवाब सुनकर सन्न थी ।।और बेटी के सवाल खत्म नही हो रहे थे