Saturday, October 17, 2020

आपका प्रकोप

रिपोर्टर :  आपका प्रकोप दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है ? क्यों ?
मच्छर : सही शब्द इस्तेमाल कीजिये, इसे प्रकोप नहीं फलना-फूलना कहते हैं. पर तुम इंसान लोग तो दूसरों को फलते-फूलते देख ही नहीं सकते न ? आदत से मजबूर जो ठहरे.
रिपोर्टर : हमें आपके फलने-फूलने से कोई ऐतराज़ नहीं है पर आपके काटने से लोग जान गँवा रहे हैं, जनता में भय व्याप्त हो गया है ?
मच्छर : हम  सिर्फ अपना काम कर रहे हैं. श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि ‘कर्म ही पूजा है’. अब विधाता ने तो हमें काटने के लिए ही बनाया है, हल में जोतने के लिए नहीं ! जहाँ तक लोगों के जान गँवाने का प्रश्न है तो आपको मालूम होना चाहिए कि “हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ’ …!
रिपोर्टर : लोगों की जान पर बनी हुई है और आप हमें दार्शनिकता का पाठ पढ़ा रहे हैं ?
मच्छर : आप तस्वीर का सिर्फ एक पहलू देख रहे हैं. हमारी वजह से कई लोगों को लाभ भी होता है, ये शायद आपको पता नहीं ! जाइये इन दिनों किसी डॉक्टर, केमिस्ट या पैथोलॉजी लैब वाले के पास, उसे आपसे बात करने की फ़ुर्सत नहीं होगी. अरे भैया, उनके बीवी-बच्चे हमारा ‘सीजन’ आने की राह देखते हैं, ताकि उनकी साल भर से पेंडिंग पड़ी माँगे पूरी हो सकें. क्या समझे आप ? हम देश की इकॉनोमी बढाने में महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं, ये मत भूलिएगा !
रिपोर्टर : परन्तु मर तो गरीब रहा है न, जो इलाज करवाने में सक्षम ही नहीं है ?
मच्छर : हाँ तो गरीब जी कर भी क्या करेगा ? 
जिस गरीब को आप अपना घर तो छोडो, कॉलोनी तक में घुसने नहीं देना चाहते, उसके साथ किसी तरह का संपर्क नहीं रखना चाहते, उसके मरने पर तकलीफ होने का ढोंग करना बंद कीजिये आप लोग.
रिपोर्टर : आपने दिल्ली में कुछ ज्यादा ही कहर बरपा रखा है ?
मच्छर : देखिये हम पॉलिटिशियन नहीं हैं जो भेदभाव करें … हम सभी जगह अपना काम पूरी मेहनत और लगन से करते हैं. दिल्ली में हमारी अच्छी परफॉरमेंस की वजह सिर्फ इतनी है कि यहाँ हमारे काम करने के लिए अनुकूल  माहौल है. केंद्र और राज्य सरकार की आपसी जंग का भी हमें भरपूर फायदा मिला है.
रिपोर्टर : खैर, अब आखिर में आप ये बताइये कि आपके इस प्रकोप से बचने का उपाय क्या है ?
मच्छर : उपाय तो है अगर कोई कर सके तो … लगातार सात शनिवार तक काले-सफ़ेद धब्बों वाले कुत्ते की पूँछ का बाल लेकर बबूल के पेड़ की जड़ में बकरी के दूध के साथ चढाने से हम प्रसन्न हो जायेंगे और उस व्यक्ति को नहीं काटेंगे !
रिपोर्टर : आप उपाय बता रहे हैं या अंधविश्वास फैला रहे हैं ?
मच्छर : दरअसल आम हिन्दुस्तानी लोग ऐसे ही उपायों के साथ comfortable फील करते हैं ! उन्हें विज्ञानं से ज्यादा किरपा में यकीन होता है…. वैसे सही उपाय तो साफ़-सफाई रखना है, जो रोज ही टीवी चैनलों और अखबारों के जरिये बताया जाता है, पर उसे मानता कौन है ? 
अगर उसे मान लिया होता तो आज आपको मेरा interview लेने नहीं आना पड़ता … !!!

Wednesday, September 30, 2020

खुबसूरत रिश्ता

एक व्यक्ति एक दिन बिना बताए काम पर नहीं गया.....
मालिक ने,सोचा इस कि तन्खाह बढ़ा दी जाये तो यह
और दिल्चसपी से काम करेगा.....
और उसकी तन्खाह बढ़ा दी....
अगली बार जब उसको तन्खाह से ज़्यादा पैसे दिये
तो वह कुछ नही बोला चुपचाप पैसे रख लिये.....
कुछ महीनों बाद वह फिर ग़ैर हाज़िर हो गया......
मालिक को बहुत ग़ुस्सा आया.....
सोचा इसकी तन्खाह बढ़ाने का क्या फायदा हुआ
यह नहीं सुधरेगाऔर उस ने बढ़ी हुई
तन्खाह कम कर दी और इस बार उसको पहले वाली ही
तन्खाह दी......
वह इस बार भी चुपचाप ही रहा और
ज़बान से कुछ ना बोला....
तब मालिक को बड़ा ताज्जुब हुआ....
उसने उससे पूछा कि जब मैने तुम्हारे ग़ैरहाज़िर होने के बाद तुम्हारी तन्खाह बढा कर दी तुम कुछ नही बोले और आज तुम्हारी ग़ैर हाज़री पर तन्खाह
कम कर के दी फिर भी खामोश ही रहे.....!!
इस की क्या वजह है..? उसने जवाब दिया....
जब मै पहले ग़ैर हाज़िर हुआ था तो मेरे घर
एक बच्चा पैदा हुआ था....!!
आपने मेरी तन्खाह बढ़ा कर दी तो मै समझ गया.....
परमात्मा ने उस बच्चे के पोषण का हिस्सा भेज दिया है..
और जब दोबारा मै ग़ैर हाजिर हुआ तो मेरी माता जी
का निधन हो गया था...
जब आप ने मेरी तन्खाह कम
दी तो मैने यह मान लिया की मेरी माँ अपने हिस्से का
अपने साथ ले गयीं.....
फिर मै इस तनख्वाह की ख़ातिर क्यों परेशान होऊँ
जिस का ज़िम्मा ख़ुद परमात्मा ने ले रखा है......!!
!! एक खूबसूरत सोच !!
अगर कोई पूछे जिंदगी में क्या खोया और क्या पाया,
तो बेशक कहना,
जो कुछ खोया वो मेरी नादानी थी
और जो भी पाया वो प्रभू की मेहेरबानी थी,
खुबसूरत रिश्ता है मेरा और भगवान के बीच में,
ज्यादा मैं मांगता नहीं और कम वो देता नहीं.....!!

Sunday, September 13, 2020

जन्मांध

एक दादा जी के दो पोते थे। एक का नाम “प्राइवेट” और दूसरे का नाम “सरकारी” था।
एक दिन दादा जी के मोबाइल की ब्राइटनेस कम हो गई। दादा जी “सरकारी” के पास गए और बोले, "बेटा मोबाइल में देखो क्या समस्या है, कुछ दिखाई नहीं दे रहा।"
“सरकारी” बोला :- "दादा जी थोड़ा इंतजार कीजिए, मुझे पिता जी  ने काफी काम दिए हैं, थोड़ा सा फुर्सत मिलते ही आपका काम करता हूं।"
दादा जी में इतना धैर्य कहां था कि इंतजार करते।
दादा जी पहुंचे “प्राइवेट” के पास, “प्राइवेट” बड़े फुर्सत में बैठा था। उसने दादा जी को पानी पिलाया, चाय मंगवाई और पूछा, दादा जी बताइए क्या सेवा करूं?
दादा जी उसके व्यवहार से बहुत खुश हुए और उसको अपनी समस्या बताई।
“प्राइवेट” बोला, दादा जी आप निश्चिंत हो के बैठिए, मैं अभी देखता हूं।
उसने मोबाइल की ब्राइटनेस बढ़ा दी और बोला –
“लीजिए दादा जी, मोबाइल का बल्ब फ्यूज हो गया था, मैंने नया लगा दिया है। बल्ब 500 रूपये का है।”
(हालांकि बल्ब फ्यूज नहीं था, तथापि दादा जी उसकी जी-हुजूरी से इतने गदगद थे, कि उन्हें “प्राइवेट” की इस चालबाजी और अपने ठगे जाने का ख्याल भी नहीं आया)
दादा जी ने खुशी-खुशी 500 रूपये उसको बल्ब के दे दिए।
कुछ देर बाद दादा जी से उनका बड़ा बेटा, जिसका नाम 'निजी_आयोग' था, मिलने आया।
दादा जी ने बातों-बातों में “सरकारी” के निकम्मेपन और “प्राइवेट” की कार्य कुशलता की तारीफ करते हुए आज की पूरी घटना बता दी।
'निजी_आयोग' भोले-भाले दादा जी के साथ हुए अन्याय को समझ गया।
'निजीआयोग' ने “प्राइवेट” से संपर्क किया तो उसने 100 रूपये चाचा के हाथ में रख दिए और बोला-
“दादा जी और पिता जी के सामने मेरी थोड़ी जमकर तारीफ कर देना।”
अगले दिन 'निजी_आयोग' ने दादा जी और पिता जी को “प्राइवेट” के गुणों का बखान कर दिया।
पिताजी एकदम धृतराष्ट्र के माफिक जन्मांध थे, गुस्से में आकर बोले - "इस निकम्मे “सरकारी” को घर से बाहर निकालो, आज से पूरे घर की देखभाल “प्राइवेट” करेगा!"
“सरकारी” अवाक है, निःशब्द है, उसके मुंह से बोल नहीं फूट पा रहा है। वह अपनी सामर्थ्य और उपयोगिता दादा जी एवं पिता जी को समझाना चाहता है, परंतु सामने से बोलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है। डर रहा है कि कहीं घर से निकालने के साथ ही उसे भी राष्ट्र विरोधी और राष्ट्र-द्रोही न घोषित कर दिया जाए।
दरवाजे के पीछे से “प्राइवेट” मुस्कुरा रहा है।

Friday, September 11, 2020

दृष्टिकोण के परिवर्तन

ट्रेन के डिब्बे में दो बच्चे  यहाँ-वहाँ दौड़ रहे थे,  कभी आपस में झगड़ जाते, तो  कभी किसी सीट के ऊपर कूदते. पास ही बैठा पिता ... किन्हीं विचारों में खोया था. बीच-बीच में जब बच्चे ... उसकी ओर देखते तो वह एक  स्नेहिल मुस्कान  बच्चों पर डालता और फिर ...बच्चे उसी प्रकार अपनी शरारतों में  व्यस्त हो जाते, और पिता फिर से उन्हें निहारने लगता. ट्रेन के सहयात्री  बच्चों की चंचलता से  परेशान हो गए थे, और ... पिता के रवैये से नाराज़.  चूँकि रात्रि का समय था, अतः सभी आराम करना चाहते थे. बच्चों की भागदौड़ को देखते हुए  एक यात्री से रहा न गया और  लगभग झल्लाते हुए  बच्चों के     पिता से बोल उठा ~ कैसे पिता हैं आप ? बच्चे इतनी शैतानियाँ कर रहे हैं, और आप उन्हें रोकते-टोकते नहीं,  बल्कि मुस्कुराकर प्रोत्साहन दे रहे हैं. क्या आपका दायित्त्व नहीं कि  आप इन्हें समझाएं ?   उस सज्जन की शिकायत से  अन्य यात्रियों ने  राहत की साँस ली, कि  अब यह व्यक्ति लज्जित होगा, और बच्चों को रोकेगा. परन्तु ..  उस पिता ने कुछ क्षण रुक कर  कहा कि ~ कैसे समझाऊँ ?
  बस यही सोच रहा हूँ भाई साहब ! यात्री बोला ~ मैं कुछ समझा नहीं. व्यक्ति बोला ~  मेरी पत्नी अपने मायके गई थी.  वहाँ एक दुर्घटना मे कल उसकी मौत हो गई.  मैं बच्चों को उसके  अंतिम दर्शनों के लिए  ले जा रहा हूँ, और इसी उलझन में हूँ कि कैसे समझाऊँ इन्हें कि ...अब ये अपनी माँ को ... कभी देख नहीं पाएंगे.  उसकी यह बात सुनकर ... जैसे सभी लोगों को साँप सूँघ गया. बोलना तो दूर .. सभी का  सोचने तक का सामर्थ्य जाता रहा. बच्चे यथावत शैतानियाँ कर रहे थे. अभी भी वे कंपार्टमेंट में  दौड़ लगा रहे थे. वह व्यक्ति फिर मौन हो गया. वातावरण में कोई परिवर्तन न हुआ,  पर वे बच्चे .. अब उन यात्रियों को  शैतान, अशिष्ट नहीं लग रहे थे, बल्क ऐसे नन्हें कोमल पुष्प लग रहे थे,  जिन पर सभी अपनी ममता  उड़ेलना चाह रहे थे.  उनका पिता अब उन लोगों को ...   लापरवाह इंसान नहीं, वरन अपने जीवन साथी के  विछोह से दुखी  दो बच्चों का अकेला पिता  और माता भी दिखाई दे रहा था.
कहने को तो यह एक कहानी है  सत्य या असत्य .. पर  एक मूल बात यह अनुभूत हुई कि .. आखिर ... क्षण भर में ही  इतना परिवर्तन कैसे ....  सभी के व्यवहार में आ गया क्योंकि ... उनकी दृष्टि में         परिवर्तन आ चुका था.
 हम सभी इसलिए उलझनों में हैं,  क्योंकि ... हमने अपनी  धारणाओं रूपी उलझनों का संसार  अपने इर्द-गिर्द स्वयं रच लिया है. मैं यह नहीं कहता कि ... किसी को परेशानी या  तकलीफ नहीं है. पर क्या  निराशा या नकारात्मक विचारों से हम उन परिस्थितियों को बदल सकते हैं  
नहीं ना .आवश्यकता है एक आशा, एक उत्साह से भरी  सकारात्मक सोच की,  फिर परिवर्तन तत्क्षण आपके भीतर आपको अनुभव होगा. उस लहर में हताशा की मरुभूमि भी 
 नंदन वन की भाँति सुरभित हो उठेगी.
दोस्तों,
   बदला जाये दृष्टिकोण तो ...
     इंसान बदल सकता है.
        दृष्टिकोण के परिवर्तन से 
          सारा ज़हान बदल सकता है.

Saturday, September 5, 2020

सन ऑफ सोमचन्द

एक गाय ने अपने सींग एक दीवार की बागड़ में कुछ ऐसे फंसाए कि बहुत कोशिश के बाद भी वह उसे  निकाल नही पा रही थी..  भीड़ इकट्ठी हो गई,लोग गाय को निकालने के लिए तरह तरह के सुझाव देने लगे । सबका ध्यान एक ही और था कि गाय को कोई कष्ट ना हो।  
तभी एक व्यक्ति आया और आते ही बोला कि गाय के सींग काट दो। यह सुनकर भीड़ में सन्नाटा छा गया। 
खैर घर के मालिक ने दीवाल को गिराकर गाय को सुरक्षित निकल लिया।  गौ माता के सुरक्षित निकल आने पर सभी प्रसन्न हुए, किन्तु गौ के सींग काटने की बात महाराजा तक पहुंची।  महाराजा ने उस व्यक्ति को तलब किया।  उससे पूछा गया क्या नाम है तेरा ? 
 उस व्यक्ति ने अपना परिचय देते हुए नाम बताया दुलीचन्द।  पिता का नाम - सोमचंद  जो एक लड़ाई में मारा जा चुका था।  महाराजा ने उसकी अधेड़ माँ को बुलवाकर पूछा तो माँ ने भी यही सब दोहराया, किन्तु महाराजा असंतुष्ट थे। 
 उन्होंने जब उस महिला से सख्ती से पूछताछ करवाई तो पता चला कि  उसके अवैध संबंध उसके पड़ोसी समसुद्दीन से हो गए थे। और ये लड़का   दुलीचंद उसी समसुद्दीन की औलाद है, सोमचन्द की नहीं।  महाराजा का संदेह सही साबित हुआ।   
उन्होंने अपने दरबारियों से कहा कि कोई भी शुद्ध सनातनी हिन्दू रक्त अपनी संस्कृति, अपनी मातृ भूमि, और अपनी गौ माता के अरिष्ट,अपमान और उसके  पराभाव को सहन नही कर सकता जैसे ही मैंने सुना कि दुली चंद ने गाय के सींग काटने की बात की, तभी मुझे यह अहसास हो गया था कि हो ना हो इसके रक्त में अशुद्धता आ गई है।  सोमचन्द की औलाद ऐसा नहीं सोच सकती तभी तो वह समसुद्दीन की औलाद निकला
 आज भी  हमारे समाज में सन ऑफ सोमचन्द की आड़ में बहुत से सन ऑफ समसुद्दीन घुस आए हैं।

Tuesday, August 25, 2020

देने का आनन्द

शाम हो चली थी..
लगभग साढ़े छह बजे थे..
वही हॉटेल, वही किनारे वाली टेबल और वही चाय, सिगरेट..
सिगरेट के एक कश के साथ साथ चाय की चुस्की ले रहा था..

उतने में ही सामने वाली टेबल पर एक आदमी अपनी नौ-दस साल की लड़की को लेकर बैठ गया..

उस आदमी का शर्ट फटा हुआ था, ऊपर की दो बटने गायब थी. पैंट भी मैला ही था, रास्ते पर खुदाई का काम करने वाला मजदूर जैसा लग रहा था..

लड़की का फ्रॉक धुला हुआ था और उसने बालों में वेणी भी लगाई हुई थी..

उसके चेहरा अत्यंत आनंदित था और वो बड़े कुतूहल से पूरे हॉटेल को इधर-उधर से देख रही थी.. 
उनके टेबल के ऊपर ही चल रहे पँखे को भी वो बार-बार देख रही थी, जो उनको ठंडी हवा दे रहा था..

बैठने के लिये गद्दी वाली कुर्सी पर बैठकर वो और भी प्रसन्न दिख रही थी..

उसी समय वेटरने दो स्वच्छ गिलासों में ठंडा पानी उनके सामने रखा..

उस आदमी ने अपनी लड़की के लिये एक डोसा लाने का आर्डर दिया. 
यह आर्डर सुनकर लड़की के चेहरे की प्रसन्नता और बढ़ गई..

और तुमको? वेटर ने पूछा..
नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिये: उस आदमी ने कहा.

कुछ ही समय में गर्मागर्म बड़ा वाला, फुला हुआ डोसा आ गया, साथ में चटनी-सांभार भी..

लड़की डोसा खाने में व्यस्त हो गई. और वो उसकी ओर उत्सुकता से देखकर पानी पी रहा था..

इतने में उसका फोन बजा. वही पुराना वाला फोन. उसके मित्र का फोन आया था, वो बता रहा था कि आज उसकी लड़की का जन्मदिन है और वो उसे लेकर हॉटेल में आया है..

वह बता रहा था कि उसने अपनी लड़की को कहा था कि यदि वो अपनी स्कूल में पहले नंबर लेकर आयेगी तो वह उसे उसके जन्मदिन पर डोसा खिलायेगा..

और वो अब डोसा खा रही है..
थोडा पॉज..

नहीं रे, हम दोनों कैसे खा सकते हैं? हमारे पास इतने पैसे कहां है? मेरे लिये घर में बेसन-भात बना हुआ है ना..

उसकी बातों में व्यस्त रहने के कारण मुझे गर्म चाय का चटका लगा और मैं वास्तविकता में लौटा..

कोई कैसा भी हो..
अमीर या गरीब,
दोनों ही अपनी बेटी के चेहरे पर मुस्कान देखने के लिये कुछ भी कर सकते हैं..
मैं उठा और काउंटर पर जाकर अपनी चाय और दो दोसे के पैसे दिये और कहा कि उस आदमी को एक और डोसा दे दो उसने अगर पैसे के बारे में पूछा  तो उसे कहना कि हमनें तुम्हारी बातें सुनी आज तुम्हारी बेटी का जन्मदिन है और वो स्कूल में पहले नंबर पर आई है..
इसलिये हॉटेल की ओर से यह तुम्हारी लड़की के लिये ईनाम उसे आगे चलकर इससे भी अच्छी पढ़ाई करने को बोलना..
परन्तु, परंतु भूलकर भी "मुफ्त" शब्द का उपयोग मत करना, उस पिता के "स्वाभिमान" को चोट पहुचेंगी..
होटल मैनेजर मुस्कुराया और बोला कि यह बिटिया और उसके पिता आज हमारे मेहमान है, आपका बहुत-बहुत आभार कि आपने हमें इस बात से अवगत कराया।
उनकी आवभगत का पूरा जिम्मा आज हमारा है आप यह  पुण्य कार्य और किसी अन्य जरूरतमंद के लिए कीजिएगा।
वेटर ने एक और डोसा उस टेबल पर रख दिया, मैं बाहर से देख रहा था..
उस लड़की का पिता हड़बड़ा गया और बोला कि मैंने एक ही डोसा बोला था..
तब मैनेजर ने कहा कि, अरे तुम्हारी लड़की स्कूल में पहले नंबर पर आई है..
इसलिये ईनाम में आज हॉटेल की ओर से तुम दोनों को डोसा दिया जा रहा है,
उस पिता की आँखे भर आई और उसने अपनी लड़की को कहा, देखा बेटी ऐसी ही पढ़ाई करेंगी तो देख क्या-क्या मिलेगा..
उस पिता ने वेटर को कहा कि क्या मुझे यह डोसा बांधकर मिल सकता है? 
यदि मैं इसे घर ले गया तो मैं और मेरी पत्नी दोनों आधा-आधा मिलकर खा लेंगे, उसे ऐसा खाने को नहीं मिलता...
जी नहीं श्रीमान आप अपना दूसरा यहीं पर थोड़ा खाइए।
आपके घर के लिए मैंने 3 डोसे  और मिठाइयों का एक पैक अलग से बनवाया है।
आज आप घर जाकर अपनी बिटिया का बर्थडे बड़ी धूमधाम से मनाइए गा और मिठाईयां इतनी है कि आप पूरे मोहल्ले को बांट सकते हो।

यह सब सुनकर मेरी आँखे खुशी से भर आई,
मुझे इस बात पर पूरा विश्वास हो गया कि जहां चाहे वहां राह है अच्छे काम के लिए एक कदम आप आगे तो बढ़ाइए,
फिर देखिए आगे आगे होता है क्या!!!

Friday, July 3, 2020

अनोखा रिश्ता

पिता पुत्र का अनोखा रिश्ता
भारतीय पिता पुत्र की जोड़ी भी बड़ी कमाल की जोड़ी होती है ।

दुनिया के किसी भी सम्बन्ध में, 
अगर सबसे कम बोल-चाल है, 
तो वो है पिता-पुत्र की जोड़ी में ।

एक समय तक दोनों अंजान होते हैं
एक दूसरे के बढ़ते शरीरों की उम्र से फिर धीरे से अहसास होता है हमेशा के लिए बिछड़ने का ।

जब लड़का,
अपनी जवानी पार कर अगले पड़ाव पर चढ़ता है तो यहाँ इशारों से बाते होने लगती हैं  या फिर इनके बीच मध्यस्थ का दायित्व निभाने वाली माँ के माध्यम से ।

पिता अक्सर उसकी माँ से कहा करते हैं जा "उससे कह देना"
और
पुत्र अक्सर अपनी माँ से कहा करता है "पापा से पूछ लो ना"

इसी दोनों धूरियों के बीच घूमती रहती है माँ । 

जब एक कहीं होता है तो दूसरा नहीं होने की कोशिश करता है,
शायद पिता-पुत्र नज़दीकी से डरते हैं ।
जबकि 
वो डर नज़दीकी का नहीं है, डर है उसके बाद बिछड़ने का । 

भारतीय पिता ने शायद ही किसी बेटे को कहा हो कि बेटा मैं तुमसे बेइंतहा प्यार करता हूँ ।

पिता की अनंत गालियों का उत्तराधिकारी भी वही होता है,
क्योंकि पिता हर पल ज़िन्दगी में अपने बेटे को अभिमन्यु सा पाता है ।

पिता समझता है,
कि इसे सम्भलना होगा, 
इसे मजबूत बनना होगा, ताकि ज़िम्मेदारियो का बोझ इसका वध नहीं कर सके । 
पिता सोंचता है,
जब मैं चला जाऊँगा, 
इसकी माँ भी चली जाएगी, 
बेटियाँ अपने घर चली जायँगी,
रह जाएगा सिर्फ ये, 
इसे हर-दम हर-कदम परिवार के लिए,
आजीविका के लिए,
बहु के लिए,
अपने बच्चों के लिए चुनौतियों से,
सामाजिक जटिलताओं से लड़ना होगा ।

पिता जानता है
हर बात घर पर नहीं बताई जा सकती,
इसलिए इसे खामोशी में ग़म छुपाने सीखने होंगे ।

परिवार के विरुद्ध खड़ी हर विशालकाय मुसीबत को अपने हौंसले से छोटा करना होगा।
ना भी कर सके तो ख़ुद का वध करना होगा । 

इसलिए वो कभी पुत्र-प्रेम प्रदर्शित नहीं करता,
पिता जानता है
प्रेम कमज़ोर बनाता है ।
फिर कई दफ़ा उसका प्रेम झल्लाहट या गुस्सा बनकर निकलता है । 

वो अपने बेटे की
कमियों मात्र के लिए नहीं है,
वो झल्लाहट है जल्द निकलते समय के लिए, 
वो जानता है उसकी मौजूदगी की अनिश्चितताओ को । 

पिता चाहता है कहीं ऐसा ना हो इस अभिमन्यु का वध मेरे द्वारा दी गई कम शिक्षा के कारण हो जाये,

पिता चाहता है कि 
पुत्र जल्द से जल्द सीख ले, 
वो गलतियाँ करना बंद करे,
क्योंकि गलतियां सभी की माफ़ हैं पर मुखिया की गलतियां माफ़ नहीं होती, 

यहाँ मुखिया का वध सबसे पहले होता है । 

फिर
एक समय आता है जबकि
पिता और बेटे दोनों को अपनी बढ़ती उम्र का एहसास होने लगता है, बेटा अब केवल बेटा नहीं, पिता भी बन चुका होता है, 
कड़ी कमज़ोर होने लगती है ।

पिता का सीखा देने की लालसा और बेटे की उस भावना को नहीं समझ पाने के कारण, 
वो सौम्यता भी खो देते हैं
यही वो समय होता है जब
बेटे को लगता है कि उसका पिता ग़लत है, 
बस इसी समय को समझदारी से निकालना होता है, 
वरना होता कुछ नहीं है,
बस बढ़ती झुर्रियां और बूढ़ा होता शरीर जल्द बीमारियों को घेर लेता है । 
फिर
सभी को बेटे का इंतज़ार करते हुए माँ तो दिखी पर पीछे, रात भर से जागा पिता नहीं दिखा, 
पिता की उम्र और झुर्रियां बढ़ती जाती है ।

ये समय चक्र है , 
जो बूढ़ा होता शरीर है बाप के रूप में उसे एक और बूढ़ा शरीर झांक रहा है आसमान से, 
जो इस बूढ़े होते शरीर का बाप है, 
कब समझेंगे बेटे, 
कब समझेंगे बाप, 
कब समझेगी दुनिया,
ये इतने भी मजबूत नहीं, 
पता है क्या होता है उस आख़िरी मुलाकात में, 
जब, 
जिन हाथों की उंगलियां पकड़ पिता ने चलना सिखाया था वही हाथ, 
लकड़ी के ढेर पर पढ़े नग्न पिता को लकड़ियों से ढकते हैं,
उसे तेल से भिगोते हैं, उसे जलाते हैं, 

ये कोई पुरुषवादी समाज की चाल नहीं थी, 
ये सौभाग्य नहीं है, 
यही बेटा होने का सबसे बड़ा अभिशाप भी है ।

ये होता है,
हो रहा है, 
होता चला जाएगा ।

जो नहीं हो रहा,
और जो हो सकता है,
वो ये की हम जल्द से जल्द कह दें,
हम आपस में कितनी प्यार करते हैं.

हे मेरे महान पिता.!
मेरे गौरव
मेरे आदर्श
मेरा संस्कार मेरा स्वाभिमान
मेरा अस्तित्व...

मैं न तो इस क्रूर समय की गति को समझ पाया

और न ही आपको अपने दिल की बात आपको कह पाया.........