Thursday, January 11, 2018

राम नाम की महिमा

क संत महात्मा श्यामदासजी रात्रि के समय में ‘श्रीराम’ नाम का अजपाजाप करते हुए अपनी मस्ती में चले जा रहे थे। जाप करते हुए वे एक गहन जंगल से गुज़र रहे थे।
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विरक्त होने के कारण वे महात्मा बार-बार देशाटन करते रहते थे। वे किसी एक स्थान में अधिक समय नहीं रहते थे। वे इश्वर नाम प्रेमी थे। इस लिये दिन-रात उनके मुख से राम नाम जप चलता रहता था। स्वयं राम नाम का अजपाजाप करते तथा औरों को भी उसी मार्ग पर चलाते।
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श्यामदासजी गहन जंगल में मार्ग भूल गये थे पर अपनी मस्ती में चले जा रहे थे कि जहाँ राम ले चले वहाँ….। दूर अँधेरे के बीच में बहुत सी दीपमालाएँ प्रकाशित थीं। महात्मा जी उसी दिशा की ओर चलने लगे।
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निकट पहुँचते ही देखा कि वटवृक्ष के पास अनेक प्रकार के वाद्ययंत्र बज रहे हैं, नाच -गान और शराब की महफ़िल जमी है। कई स्त्री पुरुष साथ में नाचते-कूदते-हँसते तथा औरों को हँसा रहे हैं। उन्हें महसूस हुआ कि वे मनुष्य नहीं प्रेतात्मा हैं।
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श्यामदासजी को देखकर एक प्रेत ने उनका हाथ पकड़कर कहाः ओ मनुष्य ! हमारे राजा तुझे बुलाते हैं, चल। वे मस्तभाव से राजा के पास गये जो सिंहासन पर बैठा था। वहाँ राजा के इर्द-गिर्द कुछ प्रेत खड़े थे।
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प्रेतराज ने कहाः तुम इस ओर क्यों आये ? हमारी मंडली आज मदमस्त हुई है, इस बात का तुमने विचार नहीं किया ? तुम्हें मौत का डर नहीं है ?
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अट्टहास करते हुए महात्मा श्यामदासजी बोलेः मौत का डर ? और मुझे ? राजन् ! जिसे जीने का मोह हो उसे मौत का डर होता हैं। हम साधु लोग तो मौत को आनंद का विषय मानते हैं। यह तो देहपरिवर्तन हैं जो प्रारब्धकर्म के बिना किसी से हो नहीं सकता।
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प्रेतराजः तुम जानते हो हम कौन हैं ?
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महात्माजीः मैं अनुमान करता हूँ कि आप प्रेतात्मा हो।
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प्रेतराजः तुम जानते हो, लोग समाज हमारे नाम से काँपता हैं।
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महात्माजीः प्रेतराज ! मुझे मनुष्य में गिनने की ग़लती मत करना। हम ज़िन्दा दिखते हुए भी जीने की इच्छा से रहित, मृततुल्य हैं।
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यदि ज़िन्दा मानो तो भी आप हमें मार नहीं सकते। जीवन-मरण कर्माधीन हैं। मैं एक प्रश्न पूछ सकता हूँ ?
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महात्मा की निर्भयता देखकर प्रेतों के राजा को आश्चर्य हुआ कि प्रेत का नाम सुनते ही मर जाने वाले मनुष्यों में एक इतनी निर्भयता से बात कर रहा हैं। सचमुच, ऐसे मनुष्य से बात करने में कोई हरकत नहीं।
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प्रेतराज बोलाः पूछो, क्या प्रश्न है ?
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महात्माजीः प्रेतराज ! आज यहाँ आनंदोत्सव क्यों मनाया जा रहा है ?
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प्रेतराजः मेरी इकलौती कन्या, योग्य पति न मिलने के कारण अब तक कुआँरी हैं। लेकिन अब योग्य जमाई मिलने की संभावना हैं। कल उसकी शादी हैं इसलिए यह उत्सव मनाया जा रहा हैं।
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महात्मा (हँसते हुए): तुम्हारा जमाई कहाँ हैं ? मैं उसे देखना चाहता हूँ।”
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प्रेतराजः जीने की इच्छा के मोह के त्याग करने वाले महात्मा ! अभी तो वह हमारे पद (प्रेतयोनी) को प्राप्त नहीं हुआ हैं। वह इस जंगल के किनारे एक गाँव के श्रीमंत (धनवान) का पुत्र है।
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महादुराचारी होने के कारण वह इसवक्त भयानक रोग से पीड़ित है। कल संध्या के पहले उसकी मौत होगी। फिर उसकी शादी मेरी कन्या से होगी। इस लिये रात भर गीत-नृत्य और मद्यपान करके हम आनंदोत्सव मनायेंगे।
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श्यामदासजी वहाँ से विदा होकर श्रीराम नाम का अजपाजाप करते हुए जंगल के किनारे के गाँव में पहुँचे। उस समय सुबह हो चुकी थी। एक ग्रामीण से महात्मा नें पूछा "इस गाँव में कोई श्रीमान् का बेटा बीमार हैं ?"
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ग्रामीणः हाँ, महाराज ! नवलशा सेठ का बेटा सांकलचंद एक वर्ष से रोगग्रस्त हैं। बहुत उपचार किये पर उसका रोग ठीक नहीं होता।
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महात्मा नवलशा सेठ के घर पहुंचे सांकलचंद की हालत गंभीर थी। अन्तिम घड़ियाँ थीं फिर भी महात्मा को देखकर माता-पिता को आशा की किरण दिखी। उन्होंने महात्मा का स्वागत किया।
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सेठपुत्र के पलंग के निकट आकर महात्मा रामनाम की माला जपने लगे। दोपहर होते-होते लोगों का आना-जाना बढ़ने लगा।
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महात्मा: क्यों, सांकलचंद ! अब तो ठीक हो ?
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सांकलचंद ने आँखें खोलते ही अपने सामने एक प्रतापी संत को देखा तो रो पड़ा। बोला "बापजी ! आप मेरा अंत सुधारने के लिए पधारे हो।
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मैंने बहुत पाप किये हैं। भगवान के दरबार में क्या मुँह दिखाऊँगा ? फिर भी आप जैसे संत के दर्शन हुए हैं, यह मेरे लिए शुभ संकेत हैं।" इतना बोलते ही उसकी साँस फूलने लगी, वह खाँसने लगा।
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"बेटा ! निराश न हो भगवान राम पतित पावन है। तेरी यह अन्तिम घड़ी है। अब काल से डरने का कोई कारण नहीं। ख़ूब शांति से चित्तवृत्ति के तमाम वेग को रोककर श्रीराम नाम के जप में मन को लगा दे। अजपाजाप में लग जा। शास्त्र कहते हैं-
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चरितम् रघुनाथस्य शतकोटिम् प्रविस्तरम्।
एकैकम् अक्षरम् पूण्या महापातक नाशनम्।।
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अर्थातः सौ करोड़ शब्दों में भगवान राम के गुण गाये गये हैं। उसका एक-एक अक्षर ब्रह्महत्या आदि महापापों का नाश करने में समर्थ हैं।
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दिन ढलते ही सांकलचंद की बीमारी बढ़ने लगी। वैद्य-हकीम बुलाये गये। हीरा भस्म आदि क़ीमती औषधियाँ दी गयीं। किंतु अंतिम समय आ गया यह जानकर महात्माजी ने थोड़ा नीचे झुककर उसके कान में रामनाम लेने की याद दिलायी।
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राम बोलते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये। लोगों ने रोना शुरु कर दिया। शमशान यात्रा की तैयारियाँ होने लगीं। मौक़ा पाकर महात्माजी वहाँ से चल दिये।
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नदी तट पर आकर स्नान करके नामस्मरण करते हुए वहाँ से रवाना हुए। शाम ढल चुकी थी। फिर वे मध्यरात्रि के समय जंगल में उसी वटवृक्ष के पास पहुँचे। प्रेत समाज उपस्थित था।
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प्रेतराज सिंहासन पर हताश होकर बैठे थे। आज गीत, नृत्य, हास्य कुछ न था। चारों ओर करुण आक्रंद हो रहा था, सब प्रेत रो रहे थे।
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महात्मा ने पूछा "प्रेतराज ! कल तो यहाँ आनंदोत्सव था, आज शोक-समुद्र लहरा रहा हैं। क्या कुछ अहित हुआ हैं ?"
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प्रेतराजः हाँ भाई ! इसीलिए रो रहे हैं। हमारा सत्यानाश हो गया। मेरी बेटी की आज शादी होने वाली थी। अब वह कुँआरी रह जायेगी
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महात्मा: प्रेतराज ! तुम्हारा जमाई तो आज मर गया हैं। फिर तुम्हारी बेटी कुँआरी क्यों रही ?
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प्रेतराज ने चिढ़कर कहाः तेरे पाप से। मैं ही मूर्ख हूँ कि मैंने कल तुझे सब बता दिया। तूने हमारा सत्यानाश कर दिया।
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महात्मा ने नम्रभाव से कहाः मैंने आपका अहित किया यह मुझे समझ में नहीं आता। क्षमा करना, मुझे मेरी भूल बताओगे तो मैं दुबारा नहीं करूँगा।
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प्रेतराज ने जलते हृदय से कहाः यहाँ से जाकर तूने मरने वाले को नाम स्मरण का मार्ग बताया और अंत समय भी राम नाम कहलवाया। इससे उसका उद्धार हो गया और मेरी बेटी कुँआरी रह गयी।
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महात्माजीः क्या ? सिर्फ़ एक बार नाम जप लेने से वह प्रेतयोनि से छूट गया ? आप सच कहते हो ?
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प्रेतराजः हाँ भाई ! जो मनुष्य राम नामजप करता हैं वह राम नामजप के प्रताप से कभी हमारी योनि को प्राप्त नहीं होता। भगवन्नाम जप में नरकोद्धारिणी शक्ति हैं।
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प्रेत के द्वारा रामनाम का यह प्रताप सुनकर महात्माजी प्रेमाश्रु बहाते हुए भाव समाधि में लीन हो गये। उनकी आँखे खुलीं तब वहाँ प्रेत-समाज नहीं था, बाल सूर्य की सुनहरी किरणें वटवृक्ष को शोभायमान कर रही थीं।

Thursday, January 4, 2018

प्रभू का पत्र

मेरे प्रिय...
सुबह तुम जैसे ही सो कर उठे, मैं तुम्हारे बिस्तर के पास ही खड़ा था। मुझे लगा कि तुम मुझसे कुछ बात
करोगे। तुम कल या पिछले हफ्ते हुई किसी बात या घटना के लिये मुझे धन्यवाद कहोगे। लेकिन तुम फटाफट चाय पी कर तैयार होने चले गए और मेरी तरफ देखा भी नहीं!!!

फिर मैंने सोचा कि तुम नहा के मुझे याद करोगे। पर तुम इस उधेड़बुन में लग गये कि तुम्हे आज कौन से कपड़े पहनने है!!!

फिर जब तुम जल्दी से नाश्ता कर रहे थे और अपने ऑफिस के कागज़ इक्कठे करने के लिये घर में इधर से उधर दौड़ रहे थे...तो भी मुझे लगा कि शायद अब तुम्हे मेरा ध्यान आयेगा,लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

फिर जब तुमने आफिस जाने के लिए ट्रेन पकड़ी तो मैं समझा कि इस खाली समय का उपयोग तुम मुझसे बातचीत करने में करोगे पर तुमने थोड़ी देर पेपर पढ़ा और फिर खेलने लग गए अपने मोबाइल में और मैं खड़ा का खड़ा ही रह गया।

मैं तुम्हें बताना चाहता था कि दिन का कुछ हिस्सा मेरे साथ बिता कर तो देखो,तुम्हारे काम और भी अच्छी तरह से होने लगेंगे, लेकिन तुमनें मुझसे बात
ही नहीं की...

एक मौका ऐसा भी आया जब तुम
बिलकुल खाली थे और कुर्सी पर पूरे 15 मिनट यूं ही बैठे रहे,लेकिन तब भी तुम्हें मेरा ध्यान नहीं आया।

दोपहर के खाने के वक्त जब तुम इधर-
उधर देख रहे थे,तो भी मुझे लगा कि खाना खाने से पहले तुम एक पल के लिये मेरे बारे में सोचोंगे,लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

दिन का अब भी काफी समय बचा था। मुझे लगा कि शायद इस बचे समय में हमारी बात हो जायेगी,लेकिन घर पहुँचने के बाद तुम रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त हो गये। जब वे काम निबट गये तो तुमनें टीवी खोल लिया और घंटो टीवी देखते रहे। देर रात थककर तुम बिस्तर पर आ लेटे।
तुमनें अपनी पत्नी, बच्चों को शुभरात्रि कहा और चुपचाप चादर ओढ़कर सो गये।

मेरा बड़ा मन था कि मैं भी तुम्हारी दिनचर्या का हिस्सा बनूं...

तुम्हारे साथ कुछ वक्त बिताऊँ...

तुम्हारी कुछ सुनूं...

तुम्हे कुछ सुनाऊँ।

कुछ मार्गदर्शन करूँ तुम्हारा ताकि तुम्हें समझ आए कि तुम किसलिए इस धरती पर आए हो और किन कामों में उलझ गए हो, लेकिन तुम्हें समय
ही नहीं मिला और मैं मन मार कर ही रह गया।

मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ।

हर रोज़ मैं इस बात का इंतज़ार करता हूँ कि तुम मेरा ध्यान करोगे और
अपनी छोटी छोटी खुशियों के लिए मेरा धन्यवाद करोगे।

पर तुम तब ही आते हो जब तुम्हें कुछ चाहिए होता है। तुम जल्दी में आते हो और अपनी माँगें मेरे आगे रख के चले जाते हो।और मजे की बात तो ये है
कि इस प्रक्रिया में तुम मेरी तरफ देखते
भी नहीं। ध्यान तुम्हारा उस समय भी लोगों की तरफ ही लगा रहता है,और मैं इंतज़ार करता ही रह जाता हूँ।

खैर कोई बात नहीं...हो सकता है कल तुम्हें मेरी याद आ जाये!!!

ऐसा मुझे विश्वास है और मुझे तुम
में आस्था है। आखिरकार मेरा दूसरा नाम...आस्था और विश्वास ही तो है।
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तुम्हारा ईश्वर

Wednesday, December 20, 2017

विश्वास हो तो ईश्वर आपके समक्ष

एक बेटी ने एक संत से आग्रह किया कि वो घर आकर उसके बीमार पिता से मिलें, प्रार्थना करें। 
बेटी ने ये भी बताया कि उसके बुजुर्ग पिता पलंग से उठ भी नहीं सकते! 
जब संत घर आए तो पिता पलंग पर दो तकियों पर सिर रखकर लेटे हुए थे। 
एक खाली कुर्सी पलंग के साथ पड़ी थी। 
संत ने सोचा कि शायद मेरे आने की वजह से ये कुर्सी यहां पहले से ही रख दी गई है। 
संत, "मुझे ये खाली कुर्सी देखकर लगा कि आप को मेरे आने का आभास था।
"पिता... ओह ये बात...। खाली कुर्सी। आप...!
 आपको अगर बुरा न लगे तो कृपया कमरे का दरवाज़ा बंद करेंगे...!
संत को ये सुनकर थोड़ी हैरत हुई, फिर भी दरवाज़ा बंद कर दिया...।
पिता.. "दरअसल इस खाली कुर्सी का राज़ मैंने किसी को नहीं बताया। अपनी बेटी को भी नहीं। पूरी ज़िंदगी, मैं ये जान नहीं सका कि प्रार्थना कैसे की जाती है। मंदिर जाता था, पुजारी जी के श्लोक सुनता। वो सिर के ऊपर से गुज़र जाते। कुछ पल्ले नहीं पड़ता था। मैंने फिर प्रार्थना की कोशिश करना छोड़ दिया...!
लेकिन चार साल पहले मेरा एक दोस्त मिला।
 उसने मुझे बताया कि प्रार्थना कुछ नहीं,भगवान से सीधे संवाद का माध्यम होती है।
 उसी ने सलाह दी कि एक खाली कुर्सी अपने सामने रखो। 
फिर विश्वास करो कि वहां भगवान खुद ही विराजमान हैं।
 अब भगवान से ठीक वैसे ही बात करना शुरू करो,जैसे कि अभी तुम मुझसे कर रहे हो। 
मैंने ऐसा करके देखा। मुझे बहुत अच्छा लगा। 
फिर तो मैं रोज़ दो-दो घंटे ऐसा करके देखने लगा। लेकिन ये ध्यान रखता कि मेरी बेटी कभी मुझे ऐसा करते न देख ले। 
अगर वो देख लेती तो वो फिर मुझे साइकाइट्रिस्ट के पास ले जाती...!"
ये सब सुनकर संत ने बुजुर्ग के लिए प्रार्थना की। सिर पर हाथ रखा और भगवान से बात करने के क्रम को जारी रखने के लिए कहा। 
संत को उसी दिन दो दिन के लिए शहर से बाहर जाना था इसलिए विदा लेकर चले गए |
दो दिन बाद बेटी का संत को फोन आया कि उसके पिता की उसी दिन कुछ घंटे बाद मृत्यु हो गई थी, जिस दिन वो आप से मिले थे |
संत ने पूछा कि उन्हें प्राण छोड़ते वक्त कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई ?
बेटी ने जवाब दिया... नहीं!
 मैं जब घर से काम पर जा रही थी तो उन्होंने मुझे बुलाया...मेरा माथा प्यार से चूमा |
ये सब करते हुए उनके चेहरे पर ऐसी शांति थी, जो मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। 
जब मैं वापस आई तो वो हमेशा के लिए आंखें मूंद चुके थे |
 लेकिन मैंने एक अजीब सी चीज़ भी देखी...वो ऐसी मुद्रा में थे जैसे कि खाली कुर्सी पर किसी की गोद में अपना सिर झुकाया हो।
संत जी, वो क्या था...। 
ये सुनकर संत की आंखों से आंसू बह निकले... बड़ी मुश्किल से बोल पाए... काश, मैं भी जब दुनिया से जाऊं तो ऐसे ही जाऊं।
ईश्वर  कहीं  दूर  नहीं  हैं ,
हमारे  विश्वास  में  कमी  और हमारा  अहंकार  हमें  उनकी  अनूभूति  नहीं  होने  देता |
जिस  पल  हमारा  विश्वास  दृढ  होता  है,  
हम  उसे  अपने  निकट  ही  पाते  हैं !

Monday, December 18, 2017

असली संपत्ति तो आशा

कोई दो सौ वर्ष पहले, जापान में दो राज्यों में युद्ध छिड़ गया था। छोटा जो राज्य था, भयभीत था; हार जाना उसका निश्चित था। उसके पास सैनिकों की संख्या कम थी। थोड़ी कम नहीं थी, बहुत कम थी। दुश्मन के पास दस सैनिक थे, तो उसके पास एक सैनिक था। उस राज्य के सेनापतियों ने युद्ध पर जाने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह तो सीधी मूढ़ता होगी; हम अपने आदमियों को व्यर्थ ही कटवाने ले जाएं। हार तो निश्चित है। और जब सेनापतियों ने इनकार कर दिया युद्ध पर जाने से...उन्होंने कहा कि यह हार निश्चित है, तो हम अपना मुंह पराजय की कालिख से पोतने जाने को तैयार नहीं; और अपने सैनिकों को भी व्यर्थ कटवाने के लिए हमारी मर्जी नहीं। मरने की बजाय हार जाना उचित है। मर कर भी हारना है, जीत की तो कोई संभावना मानी नहीं जा सकती।
सम्राट भी कुछ नहीं कह सकता था, बात सत्य थी, आंकड़े सही थे। तब उसने गांव में बसे एक फकीर से जाकर प्रार्थना की कि क्या आप मेरी फौजों के सेनापति बन कर जा सकते हैं? यह उसके सेनापतियों को समझ में ही नहीं आई बात। सेनापति जब इनकार करते हों, तो एक फकीर को--जिसे युद्ध का कोई अनुभव नहीं, जो कभी युद्ध पर गया नहीं, जिसने कभी कोई युद्ध किया नहीं, जिसने कभी युद्ध की कोई बात नहीं की--यह बिलकुल अव्यावहारिक आदमी को आगे करने का क्या प्रयोजन है?
लेकिन वह फकीर राजी हो गया। जहां बहुत-से व्यावहारिक लोग राजी नहीं होते वहां अव्यावहारिक लोग राजी हो जाते हैं। जहां समझदार पीछे हट जाते हैं, वहां जिन्हें कोई अनुभव नहीं है, वे आगे खड़े हो जाते हैं। वह फकीर राजी हो गया। सम्राट भी डरा मन में, लेकिन फिर भी ठीक था। हारना भी था तो मर कर हारना ही ठीक था। फकीर के साथ सैनिकों को जाने में बड़ी घबड़ाहट हुई: यह आदमी कुछ जानता नहीं! लेकिन फकीर इतने जोश से भरा था, सैनिकों को जाना पड़ा। सेनापति भी सैनिकों के पीछे हो लिए कि देखें, होता क्या है?
जहां दुश्मन के पड़ाव पड़े थे उससे थोड़ी ही दूर उस फकीर ने एक छोटे-से मंदिर में सारे सैनिकों को रोका, और उसने कहा कि इसके पहले कि हम चलें, कम से कम भगवान को कह दें कि हम लड़ने जाते हैं और उनसे पूछ भी लें कि तुम्हारी मर्जी क्या है। अगर हराना ही हो तो हम वापस लौट जाएं और अगर जिताना हो तो ठीक।
सैनिक बड़ी आशा से मंदिर के बाहर खड़े हो गए। उस आदमी ने हाथ जोड़ कर आंख बंद करके भगवान से प्रार्थना की, फिर खीसे से एक रुपया निकाला और भगवान से कहा कि मैं इस रुपए को फेंकता हूं, अगर यह सीधा गिरा तो हम समझ लेंगे कि जीत हमारी होनी है और हम बढ़ जाएंगे आगे, और अगर यह उलटा गिरा तो हम मान लेंगे कि हम हार गए, हम वापस लौट जाएंगे, राजा से कह देंगे, व्यर्थ मरने की व्यवस्था मत करो; हमारी हार निश्चित है, भगवान की भी मर्जी यही है।
सैनिकों ने गौर से देखा, उसने रुपया फेंका। चमकती धूप में रुपया चमका और नीचे गिरा। वह सिर के बल गिरा था; वह सीधा गिरा था। उसने सैनिकों से कहा, अब फिक्र छोड़ दो। अब खयाल ही छोड़ दो कि तुम हार सकते हो। अब इस जमीन पर कोई तुम्हें हरा नहीं सकता। रुपया सीधा गिरा था। भगवान साथ थे। वे सैनिक जाकर जूझ गए। सात दिन में उन्होंने दुश्मन को परास्त कर दिया। वे जीते हुए वापस लौटे। उस मंदिर के पास उस फकीर ने कहा, अब लौट कर हम धन्यवाद तो दे दें!
वे सारे सैनिक रुके, उन सबने हाथ जोड़ कर भगवान से प्रार्थना की और कहा, तेरा बहुत धन्यवाद कि तू अगर हमें इशारा न करता जीतने का, तो हम तो हार ही चुके थे। तेरी कृपा और तेरे इशारे से हम जीते हैं।
उस फकीर ने कहा, इसके पहले कि भगवान को धन्यवाद दो, मेरे खीसे में जो सिक्का पड़ा है, उसे गौर से देख लो। उसने सिक्का निकाल कर बताया, वह सिक्का दोनों तरफ सीधा था, उसमें कोई उलटा हिस्सा था ही नहीं। वह सिक्का बनावटी था, वह दोनों तरफ सीधा था, वह उलटा गिर ही नहीं सकता था!
उसने कहा, भगवान को धन्यवाद मत दो। तुम आशा से भर गए जीत की, इसलिए जीत गए। तुम हार भी सकते थे, क्योंकि तुम निराश थे और हारने की कामना से भरे थे। तुम जानते थे कि हारना ही है।
जीवन में सारे कामों की सफलताएं इस बात पर निर्भर करती हैं कि हम उनकी जीत की आशा से भरे हुए हैं या हार के खयाल से डरे हुए हैं। और बहुत आशा से भरे हुए लोग थोड़ी-सी सामर्थ्य से इतना कर पाते हैं, जितना कि बहुत सामर्थ्य के रहते हुए भी निराशा से भरे हुए लोग नहीं कर पाते हैं। सामर्थ्य मूल्यवान नहीं है। सामर्थ्य असली संपत्ति नहीं है। असली संपत्ति तो आशा है--और यह खयाल है कि कोई काम है जो होना चाहिए; जो होगा; और जिसे करने में हम कुछ भी नहीं छोड़ रखेंगे।

Wednesday, December 13, 2017

स्त्री" क्यों पूजनीय

एक बार सत्यभामा ने श्री कृष्ण से पूछा, "मैं आप को कैसी लगती हूँ ?" 
श्री कृष्ण ने कहा, "तुम मुझे नमक जैसी लगती हो।"  
  सत्यभामा इस तुलना को सुन कर क्रुद्ध हो गयी, तुलना भी की तो किस से, आपको इस संपूर्ण विश्व में मेरी तुलना करने के लिए और कोई पदार्थ नहीं मिला। श्री कृष्ण ने उस वक़्त तो किसी तरह सत्यभामा को मना लिया और उनका गुस्सा शांत कर दिया।
कुछ दिन पश्चात श्री कृष्ण ने अपने महल में एक भोज का आयोजन किया छप्पन भोग की व्यवस्था हुई।
सर्वप्रथम सत्यभामा से भोजन प्रारम्भ करने का आग्रह किया श्री कृष्ण ने। सत्यभामा ने पहला कौर मुँह में डाला मगर यह क्या.. सब्जी में नमक ही नहीं था। कौर को मुँह से निकाल दिया। फिर दूसरा कौर मावा-मिश्री का मुँह में डाला और फिर उसे चबाते-चबाते बुरा सा मुँह बनाया और फिर पानी की सहायता से किसी तरह मुँह से उतारा। अब तीसरा कौर फिर कचौरी का मुँह में डाला और फिर.. आक्..थू !
तब तक सत्यभामा का पारा सातवें आसमान पर पहुँच चुका था। जोर से चीखीं.. किसने बनाई है यह रसोइ ? सत्यभामा की आवाज सुन कर श्री कृष्ण दौड़ते हुए सत्यभामा के पास आये और पूछा क्या हुआ देवी ? 
कुछ गड़बड़ हो गयी क्या ? 
इतनी क्रोधित क्यों हो ? 
तुम्हारा चेहरा इतना तमतमा क्यूँ रहा है ? 
क्या हो गया ?
सत्यभामा ने कहा किसने कहा था आपको भोज का आयोजन करने को ? 
इस तरह बिना नमक की कोई रसोई बनती है ? 
किसी वस्तु में नमक नहीं है। मीठे में शक्कर नहीं है। एक कौर नहीं खाया गया। श्रीकृष्ण ने बड़े भोलेपन से पूछा, तो क्या हुआ बिना नमक के ही खा लेती।सत्यभामा फिर क्रुद्ध कर बोली लगता है दिमाग फिर गया है आपका ? बिना शक्कर के मिठाई तो फिर भी खायी जा सकती है मगर बिना नमक के कोई भी नमकीन वस्तु नहीं खायी जा सकती है।
 तब श्री कृष्ण ने कहा तब फिर उस दिन क्यों गुस्सा हो गयी थी जब मैंने तुम्हे यह कहा कि तुम मुझे नमक जितनी प्रिय हो।
अब सत्यभामा को सारी बात समझ में आ गयी की यह सारा वाकया उसे सबक सिखाने के लिए था और उनकी गर्दन झुक गयी 
तात्पर्य :....
स्त्री जल की तरह होती है, जिसके साथ मिलती है उसका ही गुण अपना लेती है। स्त्री नमक की तरह होती है, जो अपना अस्तित्व मिटा कर भी अपने प्रेम-प्यार तथा आदर-सत्कार से परिवार को ऐसा बना देती है।
माला तो आप सबने देखी होगी। तरह-तरह के फूल पिरोये हुए... पर शायद ही कभी किसी ने अच्छी से अच्छी माला में अदृश्य उस "सूत" को देखा होगा जिसने उन सुन्दर सुन्दर फूलों को एक साथ बाँध कर रखा है।
लोग तारीफ़ तो उस माला की करते हैं जो दिखाई देती है मगर तब उन्हें उस सूत की याद नहीं आती जो अगर टूट जाये तो सारे फूल इधर-उधर बिखर जाते है।
स्त्री उस सूत की तरह होती है, जो बिना किसी चाह के, बिना किसी कामना के, बिना किसी पहचान के, अपना सर्वस्व खो कर भी किसी के जान-पहचान की मोहताज नहीं होती है...
और शायद इसीलिए दुनिया राम के पहले सीता को और श्याम के पहले राधे को याद करती है। 
अपने को *विलीन कर के पुरुषों को सम्पूर्ण करने की शक्ति भगवान् ने स्त्रियों को ही दी है।

Sunday, December 10, 2017

एक बेटा ऐसा भी


  • माँ, मुझे कुछ महीने के लिये विदेश जाना पड़ रहा है। तेरे रहने का इन्तजाम मैंने करा दिया है।"*

तक़रीबन  32  साल के , अविवाहित डॉक्टर सुदीप ने देर रात घर में घुसते ही कहा।
         " बेटा, तेरा विदेश जाना ज़रूरी है क्या ?" माँ की आवाज़ में चिन्ता और घबराहट झलक रही थी।
         " माँ, मुझे इंग्लैंड जाकर कुछ रिसर्च करनी है। वैसे भी कुछ ही महीनों की तो बात है।" सुदीप ने कहा।
     " जैसी तेरी इच्छा।" मरी से आवाज़  में माँ बोली।
     और छोड़ आया सुदीप अपनी माँ  'प्रभा देवी'  को पड़ोस वाले शहर में स्थित एक  वृद्धा-आश्रम में।
               वृद्धा-आश्रम में आने पर शुरू-शुरू में हर बुजुर्ग के चेहरे पर जिन्दगी के प्रति हताशा और निराशा साफ झलकती थी। पर प्रभा देवी के चेहरे पर वृद्धा-आश्रम में आने के बावजूद कोई शिकन तक न थी।
               एक दिन आश्रम में बैठे कुछ बुजुर्ग आपस में बात कर रहे थे। उनमें दो-तीन महिलायें भी थीं। उनमें से एक ने कहा, " *डॉक्टर का कोई सगा-सम्बन्धी नहीं था जो अपनी माँ को यहाँ छोड़ गया।"*
तो वहाँ बैठी एक महिला बोली, " प्रभा देवी के पति की मौत जवानी में ही हो गयी थी। तब सुदीप कुल चार साल का था।पति की मौत के बाद, प्रभा देवी और उसके बेटे को रहने और खाने के लाले पड़ गये। तब किसी भी रिश्तेदार ने उनकी मदद नहीं की। प्रभा देवी ने लोगों के कपड़े सिल-सिल कर अपने बेटे को पढ़ाया। बेटा भी पढ़ने में बहुत तेज था, तभी तो वो डॉक्टर बन सका।"
            वृद्धा-आश्रम में करीब  6  महीने गुज़र जाने के बाद एक दिन प्रभा देवी ने आश्रम  के संचालक राम किशन शर्मा जी के ऑफिस के फोन से अपने बेटे के मोबाईल नम्बर पर फोन किया, और कहा, " सुदीप तुम हिंदुस्तान आ गये हो या अभी इंग्लैंड में ही हो ?"
" माँ, अभी तो मैं इंग्लैंड में ही हूँ।" सुदीप का जवाब था।
             
      तीन-तीन, चार-चार महीने के अंतराल पर प्रभा देवी सुदीप को फ़ोन करती उसका एक ही जवाब होता, " मैं अभी वहीं हूँ, जैसे ही अपने देश आऊँगा तुझे बता दूँगा।"
            इस तरह तक़रीबन दो साल गुजर गये। अब तो वृद्धा-आश्रम के लोग भी कहने लगे कि देखो कैसा चालाक बेटा निकला, कितने धोखे से अपनी माँ को यहाँ छोड़ गया। आश्रम के ही किसी बुजुर्ग ने कहा, *" मुझे तो लगता नहीं कि डॉक्टर विदेश-पिदेश गया होगा, वो तो बुढ़िया से छुटकारा पाना चाह रहा था।"*
तभी किसी और बुजुर्ग ने कहा, " मगर वो तो शादी-शुदा भी नहीं था।"
     *" अरे होगी उसकी कोई 'गर्ल-फ्रेण्ड' , जिसने कहा होगा पहले माँ के रहने का अलग इंतजाम करो, तभी मैं तुमसे शादी करुँगी।"*
                दो साल आश्रम में रहने के बाद अब प्रभा देवी को भी अपनी नियति का पता चल गया। बेटे का गम उसे अंदर ही अंदर खाने लगा। वो बुरी तरह टूट गयी।
             दो साल आश्रम में और रहने के बाद एक दिन प्रभा देवी की मौत हो गयी। उसकी मौत पर आश्रम के लोगों ने आश्रम के संचालक शर्मा जी से कहा, " इसकी मौत की खबर इसके बेटे को तो दे दो। हमें तो लगता नहीं कि वो विदेश में होगा, वो होगा यहीं कहीं अपने देश में।"
                              *" इसके बेटे को मैं कैसे खबर करूँ । उसे मरे तो तीन साल हो गये।"* 
       शर्मा जी की यह बात सुन वहाँ पर उपस्थित लोग सनाका खा गये। 
             उनमें से एक बोला, " अगर उसे मरे तीन साल हो गये तो प्रभा देवी से मोबाईल पर कौन बात करता था।"
         " वो मोबाईल तो मेरे पास है, जिसमें उसके बेटे की  रिकॉर्डेड आवाज़ है।"  शर्मा जी बोले।
              "पर ऐसा क्यों ?" किसी ने पूछा।
         तब शर्मा जी बोले कि करीब चार साल पहले जब सुदीप अपनी माँ को यहाँ छोड़ने आया तो उसने मुझसे कहा, " शर्मा जी मुझे  'ब्लड कैंसर'  हो गया है। और डॉक्टर होने के नाते मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ कि इसकी आखिरी स्टेज में मुझे बहुत तकलीफ होगी। मेरे मुँह से और मसूड़ों आदि से खून भी आयेगा। मेरी यह तकलीफ़ माँ से देखी न जा सकेगी। वो तो जीते जी ही मर जायेगी। *मुझे तो मरना ही है पर मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण मेरे से पहले मेरी माँ मरे।* मेरे मरने के बाद दो कमरे का हमारा छोटा सा 'फ्लेट' और जो भी घर का सामान आदि है वो मैं आश्रम को दान कर दूँगा।"
              यह दास्ताँ सुन वहाँ पर उपस्थित लोगों की आँखें झलझला आयीं।
           प्रभा देवी का अन्तिम संस्कार आश्रम के ही एक हिस्से में कर दिया गया। उनके अन्तिम संस्कार में शर्मा जी ने आश्रम में रहने वाले बुजुर्गों के परिवार वालों को भी बुलाया। 
             *माँ-बेटे की अनमोल और अटूट प्यार की दास्ताँ का ही असर था कि कुछ बेटे अपने बूढ़े माँ/बाप को वापस अपने घर ले गये।*

Thursday, December 7, 2017

वक़्त बदलते देर नहीं लगती

बाहर बारिश हो रही थी, और अन्दर क्लास चल रही थी.. तभी टीचर ने बच्चों से पूछा कि  अगर तुम सभी को
100-100 रुपये दिए जाए तो तुम सब क्या क्या खरीदोगे?? किसी ने कहा कि  मैं वीडियो गेम खरीदुंगा.. किसी ने कहा  मैं क्रिकेट का बेट खरीदुंगा.. किसी ने कहा कि मैं अपने लिए प्यारी सी गुड़िया खरीदुंगी.. तो, किसी ने कहा
मैं बहुत सी चॉकलेट्स खरीदुंगी.. एक बच्चा कुछ सोचने में डुबा हुआ था   टीचर ने उससे पुछा कि "तुम क्या सोच रहे हो, तुम क्या खरीदोगे??" बच्चा बोला कि, टीचर जी मेरी माँ को थोड़ा कम दिखाई देता है तो मैं अपनी माँ के लिए एक चश्मा खरीदूंगा.! टीचर ने पूछाः तुम्हारी माँ के लिए  चश्मा तो तुम्हारे पापा भी खरीद सकते है, तुम्हें अपने लिए कुछ नहीं खरीदना?? बच्चे ने जो जवाब दिया उससे टीचर का भी गला भर आया...  बच्चे ने कहा कि  मेरे पापा अब इस दुनिया में नहीं है मेरी माँ लोगों के कपड़े सिलकर  मुझे पढ़ाती है, और कम दिखाई देने की  वजह से वो ठीक से कपड़े नहीं सिल पाती है.. इसीलिए मैं मेरी माँ को चश्मा देना चाहता हुँ, ताकि मैं अच्छे से पढ़ सकूँ बड़ा आदमी बन सकूँ, और
माँ को सारे सुख दे सकूँ.! टीचर:- बेटा तेरी सोच ही तेरी कमाई है। ये 100 रूपये मेरे वादे के अनुसार  और, ये 100 रूपये और उधार दे रहा हूँ। जब कभी कमाओ तो लौटा देना। और, मेरी इच्छा है, तू इतना बड़ा आदमी बने कि तेरे सर पे हाथ फेरते वक्त मैं धन्य हो जाऊं.!

15 वर्ष बाद..........
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बाहर बारिश हो रही है, और अंदर क्लास चल रही है। अचानक स्कूल के आगे जिला कलेक्टर की बत्ती वाली गाड़ी आकर रूकती है। स्कूल स्टाफ चौकन्ना हो जाता हैं। स्कूल में सन्नाटा छा जाता हैं.! मगर ये क्या ? जिला कलेक्टर एक वृद्ध टीचर के पैरों में गिर जाते हैं, और कहते हैं:- "सर मैं दामोदर दास उर्फ़ झंडू, आपके उधार के 100 रूपये लौटाने आया हूँ" पूरा स्कूल स्टॉफ स्तब्ध.!!! वृद्ध टीचर झुके हुए नौजवान कलेक्टर को उठाकर भुजाओं में कस लेता है, और रो पड़ता हैं.! 
"दोस्तों..
मशहूर हो, मगरूर मत बनना
साधारण हो, कमज़ोर मत बनना
वक़्त बदलते देर नहीं लगती..
शहंशाह को फ़कीर, और फ़क़ीर को 
शहंशाह बनते, देर नही लगती....

एक बीज की कहानी