Monday, May 14, 2018

सही-गलत

ट्रेन में एक पिता-पुत्र सफर कर रहे थे.
24 वर्षीय पुत्र खिड़की से बाहर देख रहा था, अचानक वो चिल्लाया – पापा देखो पेड़ पीछे की ओर भाग रहे हैं !
पिता कुछ बोला नहीं, बस सुनकर मुस्कुरा दिया. ये देखकर बगल में बैठे एक युवा दम्पति को अजीब लगा और उस लड़के के बचकाने व्यवहार पर दया भी आई.
तब तक वो लड़का फिर से बोला – पापा देखो बादल हमारे साथ दौड़ रहे हैं !
युवा दम्पति से रहा नहीं गया और वो उसके पिता से बोल पड़े – आप अपने लड़के को किसी अच्छे डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाते ?
लड़के का पिता मुस्कुराया और बोला – हमने दिखाया था और हम अभी सीधे हॉस्पिटल से ही आ रहे हैं. मेरा लड़का जन्म से अंधा था और आज वो यह दुनिया पहली बार देख रहा है.

आजकल जीवन कठिन इसीलिए हो गया है क्योंकि हमने लोगो को समझना कम कर दिया और फौरी तौर पर judge करना शुरू कर दिया है. थोड़ी सी समझ और थोड़ी सी मानवता ही आपको सही रास्ता दिखा सकती है. जीवन में निर्णय लेने के कई ऐसे पल आयेंगे, सो अगली बार किसी पर भी अपने पूर्वाग्रह का ठप्पा लगाने से पहले विचार अवश्य करें.

Saturday, May 12, 2018

मुसीबत

उद्धव ने कृष्ण से पूछा,जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी,तब आपने उसे वस्त्र देकर द्रौपदी के शील को बचाने का दावा किया!

लेकिन आप यह यह दावा भी कैसे कर सकते हैं?

उसे एक आदमी घसीटकर भरी सभा में लाता है, और इतने सारे लोगों के सामने निर्वस्त्र करने के  लिए छोड़ देता है! एक महिला का शील क्या बचा? आपने क्या बचाया?

अगर आपने संकट के समय में अपनों की मदद नहीं की तो आपको आपाद-बांधव कैसे कहा जा सकता है?

बताईए, आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो क्या फायदा? क्या यही धर्म है?" इन प्रश्नों को पूछते-पूछते उद्धव का गला रुँध गया और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।

ये अकेले उद्धव के प्रश्न नहीं हैं। महाभारत पढ़ते समय हर एक के मनोमस्तिष्क में ये सवाल उठते हैं!

उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण से उक्त प्रश्न किए।

भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले-
"प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है।

उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं।

यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए।"

उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण आगे बोले- "दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसाऔर धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूतक्रीड़ा के लिए उपयोग किया। यही विवेक है। धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई से पेशकश कर सकते थे कि उनकी तरफ से मैं खेलूँगा।

जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता?

पाँसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?

चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें माफ़ किया जा सकता है। 

लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी गलती की! और वह यह- उन्होंने मुझसे प्रार्थना की कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए!

क्योंकि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे।

वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं!

इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया! मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी!

इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए! बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे! 

अपने भाई के आदेश पर जब दुस्साशन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही!

तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा!
उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुस्साशन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया!

जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर-
'हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम'-
की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला।

जैसे ही मुझे पुकारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया। अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?"

उद्धव बोले-
"कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई! 
क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ?"

कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा-
"इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?"

कृष्ण मुस्कुराए-
"उद्धव इस सृष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है।

न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ।

मैं केवल एक 'साक्षी' हूँ।

मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ।

यही ईश्वर का धर्म है।"

"वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण! तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे?"

हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे?

आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?" उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा!

तब कृष्ण बोले- "उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।"

जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ, तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे?

तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे।

जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो,तब ही तुम मुसीबत में फँसते हो!

Friday, May 11, 2018

तेरा अहंकार

एक बार एक अजनबी किसी के घर गया। वह अंदर गया और मेहमान कक्ष मे बैठ गया। वह खाली हाथ आया था तो उसने सोचा कि कुछ उपहार देना अच्छा रहेगा। तो उसने वहा टंगी एक पेन्टिंग उतारी और जब घर का मालिक आया, उसने पेन्टिंग देते हुए कहा, यह मै आपके लिए लाया हुँ। घर का मालिक, जिसे पता था कि यह मेरी चीज मुझे ही भेंट दे रहा है, सन्न रह गया !!!!! अब आप ही बताएं कि क्या वह भेंट पा कर, जो कि पहले से ही उसका है, उस आदमी को खुश होना चाहिए ?? मेरे ख्याल से नहीं.... लेकिन यही चीज हम भगवान के साथ भी करते है। हम उन्हे रूपया, पैसा चढाते है और हर चीज जो उनकी ही बनाई है, उन्हें भेंट करते हैं! लेकिन मन मे भाव रखते है की ये चीज मै भगवान को दे रहा हूँ! और सोचते हैं कि ईश्वर खुश हो जाएगें। मूर्ख है हम! हम यह नहीं समझते कि उनको इन सब चीजो कि जरुरत नही। अगर आप सच मे उन्हे कुछ देना चाहते हैं तो अपनी श्रद्धा दीजिए, उन्हे अपने हर एक श्वास मे याद
कीजिये और विश्वास मानिए प्रभु जरुर खुश होगा !! अजब हैरान हूँ भगवन तुझे कैसे रिझाऊं मैं; कोई वस्तु नहीं ऐसी
जिसे तुझ पर चढाऊं मैं । भगवान ने जवाब दिया :" संसार की हर वसतु तुझे मैनें दी है। तेरे पास अपनी चीज सिरफ तेरा अहंकार है, जो मैनें नहीं दिया । उसी को तूं मेरे अरपण कर दे। तेरा जीवन सफल हो

Wednesday, May 9, 2018

मृत्यु से भय कैसा

राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण सुनातें हुए जब शुकदेव जी महाराज को छह दिन बीत गए और तक्षक ( सर्प ) के काटने से मृत्यु होने का एक दिन शेष रह गया, तब भी राजा परीक्षित का शोक और मृत्यु का भय दूर नहीं हुआ। अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर राजा का मन क्षुब्ध हो रहा था। तब शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित को एक कथा
सुनानी आरंभ की। राजन ! बहुत समय पहले की बात है, एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया। संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा पहुँचा। उसे रास्ता ढूंढते-ढूंढते रात्रि पड़ गई और भारी वर्षा पड़ने लगी। जंगल में सिंह व्याघ्र आदि बोलने लगे। वह राजा बहुत डर गया और किसी प्रकार उस भयानक जंगल में रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूंढने लगा। रात के समय में अंधेरा होने की वजह से उसे एक दीपक दिखाई दिया। वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बहेलिये की झोंपड़ी देखी । वह बहेलिया ज्यादा चल-फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल-मूत्र त्यागने का स्थान बना रखा था। अपने खाने के लिए जानवरों का मांस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था। बड़ी गंदी, छोटी, अंधेरी और दुर्गंधयुक्त वह झोंपड़ी थी। उस झोंपड़ी को देखकर पहले तो राजा ठिठका, लेकिन पीछे उसने सिर छिपाने का कोई और आश्रय न देखकर उस बहेलिये से अपनी झोंपड़ी में रात भर ठहर
जाने देने के लिए प्रार्थना की। बहेलिये ने कहा कि आश्रय के लोभी राहगीर कभी- कभी यहाँ आ भटकते हैं। मैं उन्हें ठहरा तो लेता हूँ, लेकिन दूसरे दिन जाते समय वे बहुत झंझट करते हैं। इस झोंपड़ी की गंध उन्हें ऐसी भा जाती है कि फिर वे उसे छोड़ना ही नहीं चाहते और इसी में ही रहने की कोशिश करते हैं एवं अपना कब्जा जमाते हैं। ऐसे झंझट में मैं कई बार पड़ चुका हूँ।। इसलिए मैं अब किसी को भी यहां नहीं ठहरने देता। मैं आपको भी इसमें नहीं ठहरने दूंगा।
राजा ने प्रतिज्ञा की कि वह सुबह होते ही इस झोंपड़ी को अवश्य खाली कर देगा। उसका काम तो बहुत बड़ा है, यहाँ तो वह संयोगवश भटकते हुए आया है, सिर्फ एक रात्रि ही काटनी है। बहेलिये ने राजा को ठहरने की अनुमति दे दी, पर सुबह होते ही बिना कोई झंझट किए झोंपड़ी खाली कर देने की शर्त को फिर दोहरा दिया। राजा रात भर एक कोने में पड़ा सोता रहा। सोने में झोंपड़ी की दुर्गंध उसके मस्तिष्क में ऐसी बस गई कि सुबह उठा तो वही सब परमप्रिय लगने लगा। अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूलकर वहीं निवास करने की बात सोचने लगा। वह बहेलिये से और ठहरने की प्रार्थना करने लगा। इस पर बहेलिया भड़क गया और राजा को भला-बुरा कहने लगा। राजा को अब वह जगह छोड़ना झंझट लगने लगा और दोनों के बीच उस स्थान को लेकर बड़ा विवाद खड़ा हो गया। कथा सुनाकर शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित से पूछा," परीक्षित ! बताओ, उस राजा का उस स्थान पर सदा के लिए रहने के लिए झंझट करना उचित था ? परीक्षित ने उत्तर दिया," भगवन् ! वह कौन राजा था, उसका नाम तो बताइये ? वह तो बड़ा भारी मूर्ख जान पड़ता है, जो ऐसी गंदी झोंपड़ी में, अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर एवं अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर, नियत अवधि से भी अधिक रहना चाहता है। उसकी मूर्खता पर तो मुझे आश्चर्य होता है। " श्री शुकदेव जी महाराज ने कहा," हे राजा परीक्षित ! वह बड़े भारी मूर्ख तो स्वयं आप ही हैं। इस मल-मूल की गठरी देह ( शरीर ) में जितने समय आपकी आत्मा को रहना आवश्यक था, वह अवधि तो कल समाप्त हो रही है। अब आपको उस लोक जाना है, जहाँ से आप आएं हैं। फिर भी आप झंझट फैला रहे हैं और मरना नहीं चाहते। क्या यह आपकी मूर्खता नहीं है ?" राजा परीक्षित का ज्ञान जाग पड़ा और वे बंधन मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए। मेरे भाई - बहनों, वास्तव में यही सत्य है। जब एक जीव अपनी माँ की कोख से जन्म लेता है तो अपनी माँ की कोख के अन्दर भगवान से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् ! मुझे यहाँ ( इस कोख ) से मुक्त कीजिए, मैं आपका भजन-सुमिरन करूँगा। और जब वह जन्म लेकर इस संसार में आता है तो ( उस राजा की तरह हैरान होकर ) सोचने लगता है कि मैं ये कहाँ आ गया (और पैदा होते ही रोने लगता है ) फिर उस गंध से भरी झोंपड़ी की तरह उसे यहाँ कीखुशबू ऐसी भा जाती है कि वह अपना वास्तविक उद्देश्य भूलकर यहाँ से जाना ही नहीं चाहता है।यही मेरी भी कथा है और आपकी भी।

रामनाम सत्य है
यही अटल सत्य है

Tuesday, May 8, 2018

दान की महिमा

एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल दिए, इस अंधविश्वास के कारण कि भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। थैली देखकर दूसरों को भी लगता है कि इसे पहले से ही किसी ने कुछ दे रखा है।
पूर्णिमा का दिन था। भिखारी सोच रहा था कि आज अगर ईश्वर की कृपा होगी तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी। अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती हुई दिखाई दी।
भिखारी खुश हो गया। उसने सोचा कि राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से आज तो उसकी सारी दरिद्रता दूर हो जाएंगी और उसका जीवन संवर जाएगा।
जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई। जैसे ही राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रूकवाया और उतर कर उसके निकट पहुंचे।
भिखारी की तो मानो सांसें ही रूकने लगीं, लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उल्टे अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और उससे भीख की याचना करने लगा। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। अभी वह सोच ही रहा था कि राजा ने पुनः याचना की।
भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला मगर हमेशा दूसरों से लेने वाला मन देने को राजी नहीं हो रहा था।
जैसे-तैसे करके उसने दो दाने जौ के निकाले और राजा की चादर में डाल दिए। उस दिन हालांकि भिखारी को अधिक भीख मिली, लेकिन अपनी झोली में से दो दाने जौ के देने का मलाल उसे सारा दिन रहा। शाम को जब उसने अपनी झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही।
जो जौ वह अपने साथ झोली में ले गया था, उसके दो दाने सोने के हो गए थे। अब उसे समझ में आया कि यह दान की महिमा के कारण ही हुआ। 
वह पछताया कि – काश.! उस समय उसने राजा को और अधिक जौ दिए होते लेकिन दे नहीं सका, क्योंकि उसकी देने की आदत जो नहीं थी।
शिक्षा-
*1. देने से कोई चीज कभी घटती नहीं।*
*2. लेने वाले से देने वाला बड़ा होता है।*
*3. अंधेरे में छाया, बुढ़ापे में काया और अन्त समय में माया किसी का साथ नहीं देती

Wednesday, May 2, 2018

वो भी क्या दिन थे

वो भी क्या दिन थे 
रूहअफ़ज़ा हुआ करता था हम सबके घरों मैं। .....कांच की खाली बोतलों में मम्मी ताज़े नीबू का रस निचोड़ कर गर्मी के पुख्ता इंतेज़ाम कर लिया करती थी ।
हाँ उन दिनों गर्मी की छुट्टियों मैं नानी के यहाँ जाने का रिवाज हुआ करता था । और वहां मामा ओर मौसी हमारे सारे नखरे उठाने के लिए वचनबद्ध हुआ करते थे ।
भारी दोपहरी वो सत्तू मैं शक्कर घोल कर नानी के घर पर खाने का मज़ा ही कुछ और था ।
ओर वो दस्सी पंजी चवन्नी की बेर मिरचन की पुड़िया दौड़े दौड़े लाया करते थे ।
ओर उसमे निकले छोटे छोटे खिलोनों पर इतराने का भी अपना मज़ा था ।
वो भी क्या दिन थे ।
वो कुल्फी वाला साइकल पर दूध की कुल्फी लिए आता था और कुछ कलदारों के बदले हमारे बचपन को ठंडक दे जाया करता था 
वो भी क्या दिन थे ।
ओर हां मटके हुआ करते थे । जिनपर कपड़ा लगाया होता था चारों तरफ । हमारा काम होता था कि वो कपड़ा सूखने न पाए । गोया ठंडक के सबसे बड़े जिम्मेदार मटके महाशय हुआ करते थे । उनकी एक सहेली भी कुछ घरों में रहा करती थी , सुराही नाम हुआ करता था मोहतरमा का । क्या नज़ाकत - ओर नक्काशी लिए हुए मोहतरमा खटिया के पास इतरा इतरा कर ठंडक बिखेरा करती थी ।
ओर दूर खड़े मटके को भी चिढ़ाया करी थी ।
वो भी क्या दिन हुआ करते थे ।
रातें ठंडक लिए हुए होती थी । और अटारियों पर चटाई के ऊपर दरी चादर बिछा कर बड़े सुकून की नींद आया करती थी ।
हाँ छत पर बड़ी सफाई हुआ करती थी उन दिनों ।
बिस्तर लगाने के पहले पानी छिड़क कर छत को पहले ठंडक पहुंचाई जाती थी ।
वो भी क्या दिन हुआ करते थे ।
कुछ अरसा हुआ कि छत पर एक झगड़े की जड़ आई जिसका नाम टेबल फैन हुआ करता था ।
सिन्नी ओर उषा ये नाम तो सभी को याद होंगे ।
बस उसके आते है वो खींचा तानी शुरू हुई कि कोन उसके सामने सोयेगा ओर को कहां ।
झगड़ा खत्म होता था पापा की घुड़की से ओर अम्मा की समझाइश से ।
वो भी क्या दिन थे ।
हां उनदिनों ठंडक के सारे इंतेज़ाम घर पर ही हुआ करते थे । बस बाहर से सिर्फ एक रुपये की बर्फ आया करती थी जो कभी लस्सी मैं , कभी रूह अफज़ा मैं कभी नीबू शर्बत में घुल मिल जाया करती थी ।
वो भी क्या दिन थे ।
और हाँ याद है ना तुम सबको की जब बर्फ का एक टुकड़ा हम कितनी देर तक अपने मुंह में घमाते थे ।
और फिर हाँ वो कटुूर कुटुर अपने दांतों से चबा कर एक दूसरे को चिढाना याद है ना ।
वो भी क्या दिन थे ।
वो पापा की घुड़की , वो मम्मी की थपकी ।
वो भी क्या दिन थे ।
वो गर्मी अब भी आती है , लेकिन ........
बस आगे कुछ नही कहना है........
बस वो बचपन अब नही आता , वो अटारी अब नही होती , टेबल फैन कब का कबाड़ी वाला रद्दी के साथ ले गया ....वो मटका अब किस्से कहानियों मैं रह गया ...
कभी कभी लगता है कि वो हमारे बचपन को भी रद्दी के साथ तोल कर कुछ कलदार हमारे हाथों मैं थमा गया ।
बस तब से हम कलदारों से रुपए और रुपयों से खुशियां खरीदने की कोशिश करने लगे है हम सब ।
काश की ऐसा हो सकता कि वो रद्दी वाला हमारा बचपन लौटा जाता ओर हम सब रुपये उसको दे देते ।
लेकिन फिर किसी कीमत पर हम वो बचपन कभी किसी को न देते
लोग कहते है हम बड़े हो गए , लोग कहते है हम समझदार हो गए 
लेकिन वो भी क्या दिन हुआ करते थे ।

Tuesday, May 1, 2018

बंजर पेड

एक बच्चे को आम का पेड़ बहुत पसंद था।जब भी फुर्सत मिलती वो आम के पेड के पास पहुच जाता।पेड के उपर चढ़ता,आम खाता,खेलता और थक जाने पर उसी की छाया मे सो जाता। उस बच्चे और आम के पेड के बीच एक अनोखा रिश्ता बन गया। बच्चा जैसे-जैसे बडा होता गया वैसे-वैसे उसने पेड के पास आना कम कर दिया। कुछ समय बाद तो बिल्कुल ही बंद हो गया। आम का पेड उस बालक को याद करके अकेला रोता। एक दिन अचानक पेड ने उस बच्चे को अपनी तरफ आते देखा और पास आने पर कहा, तू कहां चला गया था? मै रोज तुम्हे याद किया करता था। चलो आज फिर से दोनो खेलते है।" बच्चे ने आम के पेड से कहा, अब मेरी खेलने की उम्र नही है मुझे पढना है,लेकिन मेरे पास फीस भरने के पैसे नही है।" पेड ने कहा,"तू मेरे आम लेकर बाजार मे बेच दे, इससे जो पैसे मिले अपनी फीस भर देना।" उस बच्चे ने आम के पेड से सारे आम तोड़ लिए और उन सब आमो को लेकर वहा से चला गया। उसके बाद फिर कभी दिखाई नही दिया। आम का पेड उसकी राह देखता रहता। एक दिन वो फिर आया और कहने लगा, अब मुझे नौकरी मिल गई है, मेरी शादी हो चुकी है, मुझे मेरा अपना घर बनाना है,इसके लिए मेरे पास अब पैसे नही है।" आम के पेड ने कहा, तू मेरी सभी डाली को काट कर ले जा,उससे अपना घर बना ले।" उस जवान ने पेड की सभी डाली काट ली और ले के चला गया।आम के पेड के पास अब कुछ नहीं था वो अब बिल्कुल बंजर हो गया था। कोई उसे देखता भी नहीं था। पेड ने भी अब वो बालक/जवान उसके पास फिर आयेगा यह उम्मीद छोड दी थी। फिर एक दिन अचानक वहाँ एक बुढा आदमी आया। उसने आम के पेड से कहा,"शायद आपने मुझे नही पहचाना, मैं वही बालक हूं जो बार-बार आपके पास आता और आप हमेशा अपने टुकड़े काटकर भी मेरी मदद करते थे।"आम के पेड ने दु:ख के साथ कहा,पर बेटा मेरे पास अब ऐसा कुछ भी नही जो मै तुम्हे दे सकु।" वृद्ध ने आंखो मे आंसु लिए कहा, आज मै आपसे कुछ लेने नही आया हूं बल्कि आज तो मुझे आपके साथ जी भरके खेलना है, आपकी गोद मे सर रखकर सो जाना है।"
इतना कहकर वो आम के पेड से लिपट गया और आम के पेड की सुखी हुई डाली फिर से अंकुरित हो उठी।वो आम का पेड़ कोई और नही हमारे माता-पिता हैं दोस्तों ।जब छोटे थे उनके साथ खेलना अच्छा लगता था।* जैसे-जैसे बडे होते चले गये उनसे दुर होते गये। पास भी तब आये जब कोई जरूरत पडी, कोई समस्या खडी हुई।आज कई माँ बाप उस बंजर पेड की तरह अपने बच्चों की राह देख रहे है। जाकर उनसे लिपटे, उनके गले लग जाये फिर देखना वृद्धावस्था में उनका जीवन फिर से अंकुरित हो उठेगा।

Monday, April 30, 2018

वसीयत

एक घर मे तीन भाई और एक बहन थी...बड़ा और छोटा पढ़ने मे बहुत तेज थे। उनके मा बाप उन चारो से बेहद प्यार करते थे मगर मझले बेटे से थोड़ा परेशान से थे।

बड़ा बेटा पढ़ लिखकर डाक्टर बन गया।
छोटा भी पढ लिखकर इंजीनियर बन गया। मगर मझला बिलकुल अवारा और गंवार बनके ही रह गया। सबकी शादी हो गई । बहन और मझले को छोड़ दोनों भाईयो ने Love मैरीज की थी।

बहन की शादी भी अच्छे घराने मे हुई थी।
आखीर भाई सब डाक्टर इंजीनियर जो थे।

अब मझले को कोई लड़की नहीं मिल रही थी। बाप भी परेशान मां भी।
बहन जब भी मायके आती सबसे पहले छोटे भाई और बड़े भैया से मिलती। मगर मझले से कम ही मिलती थी। क्योंकि वह न तो कुछ दे सकता था और न ही वह जल्दी घर पे मिलता था।

वैसे वह दिहाडी मजदूरी करता था। पढ़ नहीं सका तो...नौकरी कौन देता। मझले की शादी कीये बिना बाप गुजर गये ।

माँ ने सोचा कहीं अब बँटवारे की बात न निकले इसलिए अपने ही गाँव से एक सीधी साधी लड़की से मझले की शादी करवा दी।
शादी होते ही न जाने क्या हुआ की मझला बड़े लगन से काम करने लगा ।
दोस्तों ने कहा... ए चन्दू आज अड्डे पे आना।

चंदू - आज नहीं फिर कभी
दोस्त - अरे तू शादी के बाद तो जैसे बिबी का गुलाम ही हो गया?
चंदू - अरे ऐसी बात नहीं । कल मैं अकेला एक पेट था तो अपने रोटी के हिस्से कमा लेता था। अब दो पेट है आज
कल और होगा।

घरवाले नालायक कहते थे कहते हैं मेरे लिए चलता है।
मगर मेरी पत्नी मुझे कभी नालायक कहे तो मेरी मर्दानगी पर एक भद्दा गाली है। क्योंकि एक पत्नी के लिए उसका पति उसका घमंड इज्जत और उम्मीद होता है। उसके घरवालो ने भी तो मुझपर भरोसा करके ही तो अपनी बेटी दी होगी...फिर उनका भरोसा कैसे तोड़ सकता हूँ । कालेज मे नौकरी की डिग्री मिलती है और ऐसे संस्कार मा बाप से मिलते हैं ।

इधर घरपे बड़ा और छोटा भाई और उनकी पत्नीया मिलकर आपस मे फैसला करते हैं की...जायदाद का बंटवारा हो जाये क्योंकि हम दोनों लाखों कमाते है मगर मझला ना के बराबर कमाता है। ऐसा नहीं होगा।

मां के लाख मना करने पर भी...बंटवारा की तारीख तय होती है। बहन भी आ जाती है मगर चंदू है की काम पे निकलने के बाहर आता है। उसके दोनों भाई उसको पकड़कर भीतर लाकर बोलते हैं की आज तो रूक जा? बंटवारा कर ही लेते हैं । वकील कहता है ऐसा नहीं होता। साईन करना पड़ता है।

चंदू - तुम लोग बंटवारा करो मेरे हिस्से मे जो देना है दे देना। मैं शाम को आकर अपना बड़ा सा अगूंठा चिपका दूंगा पेपर पर।
बहन- अरे बेवकूफ ...तू गंवार का गंवार ही रहेगा। तेरी किस्मत अच्छी है की तू इतनी अच्छे भाई और भैया मिलें
मां- अरे चंदू आज रूक जा।

बंटवारे में कुल दस विघा जमीन मे दोनों भाई 5- 5 रख लेते हैं ।
और चंदू को पुस्तैनी घर छोड़ देते है
तभी चंदू जोर से चिल्लाता है।

अरे???? फिर हमारी छुटकी का हिस्सा कौन सा है?
दोनों भाई हंसकर बोलते हैं
अरे मूरख...बंटवारा भाईयो मे होता है और बहनों के हिस्से मे सिर्फ उसका मायका ही है।

चंदू - ओह... शायद पढ़ा लिखा न होना भी मूर्खता ही है।
ठीक है आप दोनों ऐसा करो।
मेरे हिस्से की वसीएत मेरी बहन छुटकी के नाम कर दो।
दोनों भाई चकीत होकर बोलते हैं ।
और तू?

चंदू मां की और देखके मुस्कुराके बोलता है
मेरे हिस्से में माँ है न......
फिर अपनी बिबी की ओर देखकर बोलता है..मुस्कुराके...क्यों चंदूनी जी...क्या मैंने गलत कहा?

चंदूनी अपनी सास से लिपटकर कहती है। इससे बड़ी वसीएत क्या होगी मेरे लिए की मुझे मां जैसी सासु मिली और बाप जैसा ख्याल रखना वाला पति।
बस येही शब्द थे जो बँटवारे को सन्नाटा मे बदल दिया ।
बहन दौड़कर अपने गंवार भैया से गले लगकर रोते हुए कहती है की..मांफ कर दो भैया मुझे क्योंकि मैं समझ न सकी आपको।

चंदू - इस घर मे तेरा भी उतना ही अधिकार है जीतना हम सभी का।
बहुओं को जलाने की हिम्मत कीसी मे नहीं मगर फिर भी जलाई जाती है क्योंकि शादी के बाद हर भाई हर बाप उसे पराया समझने लगते हैं । मगर मेरे लिए तुम सब बहुत अजीज हो चाहे पास रहो या दुर।

माँ का चुनाव इसलिए कीया ताकी तुम सब हमेशा मुझे याद आओ। क्योंकि ये वही कोख है जंहा हमने साथ साथ 9 - 9 महीने गुजारे। मां के साथ तुम्हारी यादों को भी मैं रख रहा हूँ।

दोनों भाई दौड़कर मझले से गले मिलकर रोते रोते कहते हैं
आज तो तू सचमुच का बाबा लग रहा है। सबकी पलको पे पानी ही पानी। सब एक साथ फिर से रहने लगते है।
 पोस्ट अच्छा लगे तो शेयर जरूर करें 

Sunday, April 29, 2018

बेटी के सवाल

मां ने बेटी से पूछा कि बेटी तुझे कैसा वर चाहिये? बेटी ने जबाब दिया मुझे रावण जैसा वर चाहिये। मां ने यह शब्द अपनी बेटी से सुनते ही चिल्लाई ।और डाँटते हुए अपनी बेटी को समझाने लगी? 
बेटी रावण नही राम जैसा पति मांगते है। जो पुरुषोत्तम और जगत के कुल थे ।
बेटी ने शांत मन से कहा कि मां रावण ने अपनी बहन शूर्पणखा की इज्जत की खातिर अपनी  लंका का विनाश करवाया। लेकिन समझौता नही किया।
सीता का हरण किया लेकिन उसकी इच्छा के  विरूद्ध कोई कार्य नही किया ।
जिस इंसान में  औरत के प्रति इतनी इज्जत और #श्रद्धा हो। वह पति जीवन में एक जन्म नही सात जन्म मिलना चाहिये ।
और मां आप राम के पुरुषोत्तम की बात कर रही हो। क्या तुम चाहती हो। कि तुम्हारी बेटी घर घर ठोकरें खाये ।सीता की तरह ?
अगर अपने पति के लिये यह सब कर भी लूँ । और मेरा पति मेरे चरित्र पर उंगली उठाये । तो अग्नि परीक्षा ??
अग्नि परीक्षा अगर दे भी दूँ  तो गर्भावस्था मैं मुझे घर से निकाल दिया जायेगा । तो क्या आप मेरे पति को पुरुषोत्तम कहेंगी ।।
मां जवाब सुनकर सन्न थी ।।और बेटी के सवाल खत्म नही हो रहे थे

Wednesday, April 25, 2018

प्रभू का पत्र

मेरे प्रिय सुबह तुम जैसे ही सो कर उठे,  मैं तुम्हारे बिस्तर के पास ही खड़ा था मुझे लगा कि तुम मुझसे कुछ बात करोगे। तुम कल या पिछले हफ्ते हुई किसी बात या घटना के लिये मुझे धन्यवाद कहोगे। लेकिन तुम फटाफट चाय पी कर तैयार होने चले गए  और मेरी तरफ देखा भी नहींफिर मैंने सोचा कि तुम नहा के मुझे याद करोगे। पर तुम इस उधेड़बुन में लग गये कि तुम्हे आज कौन से कपड़े पहनने है!!!फिर जब तुम जल्दी से नाश्ता कर रहे थे और अपने ऑफिस के कागज़ इक्कठे करने के लिये घर में इधर से उधर दौड़ रहे थे...तो भी मुझे लगा कि शायद अब तुम्हे मेरा ध्यान आयेगा,लेकिन ऐसा नहीं हुआ।फिर जब तुमने आफिस जाने के 
लिए ट्रेन पकड़ी तो मैं समझा कि इस खाली समय का उपयोग तुम मुझसे बातचीत करने में करोगे पर तुमने थोड़ी देर पेपर पढ़ा और 
फिर खेलने लग गए अपने मोबाइल में और मैं खड़ा का खड़ा ही रह गया। मैं तुम्हें बताना चाहता था कि दिन का कुछ हिस्सा मेरे साथ बिता कर तो देखो तुम्हारे काम और भी अच्छी तरह से होने लगेंगे, लेकिन तुमनें मुझसे बात ही नहीं की...एक मौका ऐसा भी आया जब तुम बिलकुल खाली थे  और कुर्सी पर पूरे 15 मिनट यूं ही बैठे रहे,लेकिन तब भी तुम्हें मेरा ध्यान नहीं आया।दोपहर के खाने के  वक्त जब  तुम इधर- उधर देख रहे थे,तो भी मुझे लगा कि 
खाना खाने से पहले तुम  एक पल के लिये  मेरे बारे में सोचोंगे,
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दिन का अब भी काफी समय बचा था। 
मुझे लगा कि  शायद इस बचे समय में हमारी बात  हो जायेगी,
लेकिन घर पहुँचने के बाद तुम  रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त हो गये। 
जब वे काम निबट गये तो तुमनें टीवी खोल लिया और घंटो टीवी देखते रहे। देर रात थककर तुम बिस्तर पर आ लेटे।तुमनें अपनी पत्नी, बच्चों को  शुभरात्रि कहा  और चुपचाप चादर  ओढ़कर सो गये। मेरा बड़ा मन था कि मैं भी  तुम्हारी  दिनचर्या का हिस्सा बनूं...तुम्हारे साथ कुछ वक्त बिताऊँ...तुम्हारी कुछ सुनूं...तुम्हे कुछ सुनाऊँ। कुछ मार्गदर्शन करूँ  तुम्हारा ताकि तुम्हें समझ आए 
कि तुम किसलिए इस धरती पर आए हो और किन कामों में उलझ गए हो, लेकिन तुम्हें समयही नहीं मिला और मैं मन मार कर ही रह गया।मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ। हर रोज़ मैं इस बात का इंतज़ार करता हूँ  कि तुम मेरा ध्यान करोगे और अपनी छोटी छोटी खुशियों के लिए मेरा धन्यवाद करोगे। पर तुम तब ही आते हो * जब तुम्हें कुछ चाहिए होता है। तुम जल्दी में आते हो और अपनी माँगें मेरे आगे रख के चले जाते हो। और  मजे की बात तो  ये है कि इस प्रक्रिया में तुम मेरी तरफ देखते भी नहीं। ध्यान तुम्हारा उस समय भी  लोगों की तरफ ही  लगा रहता है, और मैं इंतज़ार  करता ही रह जाता हूँ।खैर कोई बात नहीं...हो सकता है  कल तुम्हें मेरी याद आ जाये!!!ऐसा मुझे विश्वास है  और मुझे तुम में आस्था है आखिरकार मेरा दूसरा नाम...आस्था और विश्वास ही तो है।
तुम्हारा ईश्वर...

Monday, April 23, 2018

सबसे प्यारा रिश्ता

रामलाल तुम अपनी बीबी से इतना क्यों डरते हो?"मैने अपने घरेलू नौकर से पुछा।।
"मै डरता नही मैडम उसकी कद्र करता हूँ उसका सम्मान करता हूँ।"उसने जबाव दिया।
मैं हंसी और बोली-" ऐसा कया है उसमें।ना सुरत ना पढी लिखी।"
जबाव मिला-" कोई फरक नही पडता मैडम कि वो कैसी है पर मुझे सबसे प्यारा रिश्ता उसी का लगता है।"
"जोरू का गुलाम।"मेरे मुँह से निकला।"और सारे रिश्ते कोई मायने नही रखते तेरे लिये।"मैने पुछा।
उसने बहुत इत्मिनान से जबाव दिया-
"मैडम जी माँ बाप रिश्तेदार नही होते।वो भगवान होते हैं।उनसे रिश्ता नही निभाते उनकी पूजा करते हैं।
भाई बहन के रिश्ते जन्मजात होते हैं , दोस्ती का रिश्ता भी मतलब का ही होता है।
आपका मेरा रिश्ता भी दजरूरत और पैसे का है पर,
पत्नी बिना किसी करीबी रिश्ते के होते हुए भी हमेशा के लिये हमारी हो जाती है अपने सारे रिश्ते को पीछे छोडकर।और हमारे हर सुख दुख की सहभागी बन जाती है आखिरी साँसो तक।"
मै अचरज से उसकी बातें सुन रही थी।
वह आगे बोला-"मैडम जी, पत्नी अकेला रिश्ता नही है, बल्कि वो पुरा रिश्तों की भण्डार है।
जब वो हमारी सेवा करती है हमारी देख भाल करती है , हमसे दुलार करती है तो एक माँ जैसी होती है।
जब वो हमे जमाने के उतार चढाव से आगाह करती है,और मैं अपनी सारी कमाई उसके हाथ पर रख देता हूँ क्योकि जानता हूँ वह हर हाल मे मेरे घर का भला करेगी तब पिता जैसी होती है।
जब हमारा ख्याल रखती है हमसे लाड़ करती है, हमारी गलती पर डाँटती है, हमारे लिये खरीदारी करती है तब बहन जैसी होती है।
जब हमसे नयी नयी फरमाईश करती है, नखरे करती है, रूठती है , अपनी बात मनवाने की जिद करती है तब बेटी जैसी होती है।
जब हमसे सलाह करती है मशवरा देती है ,परिवार चलाने के लिये नसीहतें देती है, झगडे करती है तब एक दोस्त जैसी होती है।
 जब वह सारे घर का लेन देन , खरीददारी , घर चलाने की जिम्मेदारी उठाती है तो एक मालकिन जैसी होती है।
और जब वही सारी दुनिमा को यहाँ तक कि अपने बच्चो को भी छोडकर हमारे बाहों मे आती है 
तब वह पत्नी, प्रेमिका, प्रेयसी, अर्धांगिनी , हमारी प्राण और आत्मा होती है जो अपना सब कुछ सिर्फ हमपर न्योछावर करती है।"
मैं उसकी इज्जत करता हूँ तो क्या गलत करता हूँ मैडम।"

मैं उसकी बात सुकर अवाक रह गयी।।
एक अनपढ़ और सीमित साधनो मे जीवन निर्वाह करनेवाले से जीवन का यह फलसफा सुकर मुझे एक नया अनुभव हुआ ।
और मैं अपने पति को आजतक दब्बू समझ रही थी।धिक्कार है मेरी सोच को।

Sunday, April 22, 2018

शर्त

शहर के सबसे बड़े बैंक में एक बार एक बुढ़िया आई ।
 उसने मैनेजर से कहा :- “मुझे इस बैंक में कुछ रुपये जमा करने हैं”
मैनेजर ने पूछा :- कितने हैं ?
वृद्धा बोली :- होंगे कोई दस लाख ।
मैनेजर बोला :- वाह क्या बात है, आपके पास तो काफ़ी पैसा है, आप करती क्या हैं ?
वृद्धा बोली :- कुछ खास नहीं, बस शर्तें लगाती हूँ ।
मैनेजर बोला :- शर्त लगा-लगा कर आपने इतना सारा पैसा कमाया है ? कमाल है…
वृद्धा बोली :- कमाल कुछ नहीं है, बेटा, मैं अभी एक लाख रुपये की शर्त लगा सकती हूँ कि तुमने अपने सिर पर विग लगा रखा है ।
मैनेजर हँसते हुए बोला :- नहीं माताजी, मैं तो अभी जवान हूँ और विग नहीं लगाता ।
तो शर्त क्यों नहीं लगाते ? वृद्धा बोली ।
मैनेजर ने सोचा यह पागल बुढ़िया खामख्वाह ही एक लाख रुपये गँवाने पर तुली है, तो क्यों न मैं इसका फ़ायदा उठाऊँ… मुझे तो मालूम ही है कि मैं विग नहीं लगाता ।
मैनेजर एक लाख की शर्त लगाने को तैयार हो गया ।
वृद्धा बोली :- चूँकि मामला एक लाख रुपये का है, इसलिये मैं कल सुबह ठीक दस बजे अपने वकील के साथ आऊँगी और उसी के सामने शर्त का फ़ैसला होगा ।
मैनेजर ने कहा :- ठीक है, बात पक्की…
मैनेजर को रात भर नींद नहीं आई.. वह एक लाख रुपये और बुढ़िया के बारे में सोचता रहा ।
अगली सुबह ठीक दस बजे वह बुढ़िया अपने वकील के साथ मैनेजर के केबिन में पहुच और कहा :- क्या आप तैयार हैं ?
मैनेजर ने कहा :- बिलकुल, क्यों नहीं ?
वृद्धा बोली :- लेकिन चूँकि वकील साहब भी यहाँ मौजूद हैं और बात एक लाख की है, अतः मैं तसल्ली करना चाहती हूँ कि सचमुच आप विग नहीं लगाते, इसलिये मैं अपने हाथों से आपके बाल नोचकर देखूँगी । 
मैनेजर ने पल भर सोचा और हाँ कर दी, आखिर मामला एक लाख का था ।
 वृद्धा मैनेजर के नजदीक आई और धीर-धीरे आराम से मैनेजर के बाल नोचने लगी । उसी वक्त अचानक पता नहीं क्या हुआ, वकील साहब अपना माथा दीवार पर ठोंकने लगे ।
मैनेजर ने कहा :- अरे.. अरे.. वकील साहब को क्या हुआ ?
वृद्धा बोली :- कुछ नहीं, इन्हें सदमा लगा है, मैंने इनसे पाँच लाख रुपये की शर्त लगाई थी कि आज सुबह दस बजे मैं शहर के सबसे बड़े बैंक के मैनेजर के बाल नोचकर दिखा दूँगी ।

Thursday, April 19, 2018

रिश्ते

पिताजी जोऱ से चिल्लाते हैं ।
प्रिंस दौड़कर आता है, और
पूछता है...
क्या बात है पिताजी? 
पिताजी- तूझे पता नहीं है, आज तेरी बहन रश्मि आ रही है?  
वह इस बार हम सभी के साथ अपना जन्मदिन मनायेगी..
अब जल्दी से जा और अपनी बहन को लेके आ, 
हाँ और सुन...तू अपनी नई गाड़ी लेकर जा जो तूने कल खरीदी है...
उसे अच्छा लगेगा,
प्रिंस - लेकिन मेरी गाड़ी तो मेरा दोस्त ले गया है सुबह ही...
और आपकी गाड़ी भी ड्राइवर ये कहकर ले गया कि गाड़ी की ब्रेक चेक करवानी है।
पिताजी - ठीक है तो तू स्टेशन तो जा किसी की गाड़ी लेकर
या किराया की करके? 
उसे बहुत खुशी मिलेगी ।
प्रिंस - अरे वह बच्ची है क्या जो आ नहीं सकेगी? 
आ जायेगी आप चिंता क्यों करते हो कोई टैक्सी या आटो लेकर-----
पिताजी - तूझे शर्म नहीं आती ऐसा बोलते हुए?  घर मे गाड़ियाँ होते हुए भी घर की बेटी किसी टैक्सी या आटो से आयेगी?
प्रिंस - ठीक है आप जाओ मुझे बहुत काम है मैं जा नहीं सकता ।
पिताजी - तूझे अपनी बहन की थोड़ी भी फिकर नहीं? शादी हो गई तो क्या बहन पराई हो गई ?
क्या उसे हम सबका प्यार पाने का हक नहीं?
 तेरा जितना अधिकार है इस घर में,
उतना ही तेरी बहन का भी है। कोई भी बेटी या बहन मायके छोड़ने के बाद पराई नहीं होती।
प्रिंस - मगर मेरे लिए वह पराई हो चुकी है और इस घर पर सिर्फ मेरा अधिकार है।
तडाक ...!
अचानक पिताजी का हाथ उठ जाता है प्रिंस पर,
 और तभी माँ आ जाती है ।
मम्मी - आप कुछ शरम तो कीजिए ऐसे जवान बेटे पर हाँथ बिलकुल नहीं उठाते।
पिताजी - तुमने सुना नहीं इसने क्या कहा, ?
अपनी बहन को पराया कहता है ये वही बहन है जो इससे एक पल भी जुदा नहीं होती थी--
हर पल इसका ख्याल रखती थी। पाकेट मनी से भी बचाकर इसके लिए कुछ न कुछ खरीद देती थी। बिदाई के वक्त भी हमसे ज्यादा अपने भाई से गले लगकर रोई थी।
और ये आज उसी बहन को पराया कहता है।
प्रिंस -(मुस्कुराकर)  बुआ का भी तो आज ही जन्मदिन है पापा...वह कई बार इस घर मे आई है मगर हर बार अॉटो से आई है..आपने कभी भी अपनी गाड़ी लेकर उन्हें लेने नहीं गये...
माना वह आज वह तंगी मे है मगर कल वह भी बहुत अमीर थी । आपको मुझको इस घर को उन्होंने दिल खोलकर सहायता और सहयोग किया है। बुआ भी इसी घर से बिदा हुई थी फिर रश्मि दी और बुआ मे फर्क कैसा। रश्मि मेरी बहन है तो बुआ भी तो आपकी बहन है।
पापा... आप मेरे मार्गदर्शक हो आप मेरे हीरो हो मगर बस इसी बात से मैं हरपल अकेले में रोता हूँ। की तभी बाहर गाड़ी रूकने की आवाज आती है....
तब तक पापा भी प्रिंस की बातों से पश्चाताप की 
आग मे जलकर रोने लगे और इधर प्रिंस भी~~
कि रश्मि दौड़कर पापा मम्मी से गले मिलती है..
लेकिन उनकी हालत देखकर पूछती है कि क्या हुआ पापा? 
पापा - तेरा भाई आज मेरा भी पापा बन गया है ।
रश्मि - ए पागल...!!
नई गाड़ी न? 
बहुत ही अच्छी है मैंने ड्राइवर को पीछे बिठाकर खुद चलाके आई हूँ और कलर भी मेरी पसंद का है।
प्रिंस - happy birthday to you दी...वह गाड़ी आपकी है और हमारे तरफ से आपको birthday gift..!!
बहन सुनते ही खुशी से उछल पड़ती है कि तभी बुआ भी अंदर आती है ।
बुआ - क्या भैया आप भी न, ??? 
न फोन न कोई खबर,
अचानक भेज दी गाड़ी आपने, भागकर आई हूँ खुशी से~~~
ऐसा लगा कि पापा आज भी जिंदा हैं ..
इधर पिताजी अपनी पलकों मे आँसू लिये प्रिंस की ओर देखते हैं ~~~
और प्रिंस पापा को चुप रहने का इशारा करता है।
इधर बुआ कहती जाती है कि मैं कितनी भाग्यशाली हूँ~~
 कि मुझे बाप जैसा भैया मिला, 
ईश्वर करे मुझे हर जन्म मे आप ही भैया मिले...
पापा 
मम्मी को पता चल गया था कि..
ये सब प्रिंस की करतूत है,
मगर आज फिर एक बार रिश्तों को मजबूती से जुड़ते देखकर वह अंदर से खुशी से टूटकर रोने लगे। उन्हें अब पूरा यकीन था कि...मेरे जाने के बाद भी मेरा प्रिंस रिश्तों को सदा हिफाजत से रखेगा~
बेटी और बहन 
   ये दो बेहद अनमोल शब्द हैं 
जिनकी उम्र बहुत कम होती है । क्योंकि शादी के बाद बेटी और बहन किसी की पत्नी तो किसी की भाभी और किसी की बहू बनकर रह जाती है।
शायद लड़कियाँ इसी लिए मायके आती होंगी कि...
उन्हें फिर से बेटी और बहन शब्द सुनने को बहुत मन करता होगा~~

Wednesday, April 18, 2018

हम और हमारे कर्म

एक व्यक्ति था उसके तीन मित्र थे।

एक मित्र ऐसा था जो सदैव साथ देता था। एक पल, एक क्षण भी बिछुड़ता नहीं था।

दूसरा मित्र ऐसा था जो सुबह शाम मिलता।

और तीसरा मित्र ऐसा था जो बहुत दिनों में जब तब मिलता।

एक दिन कुछ ऐसा हुआ की उस व्यक्ति को अदालत में जाना था किसी कार्यवश और किसी को गवाह बनाकर साथ ले जाना था।

अब वह व्यक्ति अपने सब से पहले अपने उस मित्र के पास गया जो सदैव उसका साथ देता था और बोला :- "मित्र क्या तुम मेरे साथ अदालत में गवाह बनकर चल सकते हो ?

वह मित्र बोला :- माफ़ करो दोस्त, मुझे तो आज फुर्सत ही नहीं।

उस व्यक्ति ने सोचा कि यह मित्र मेरा हमेशा साथ देता था। आज मुसीबत के समय पर इसने मुझे इंकार कर दिया।

अब दूसरे मित्र की मुझे क्या आशा है।

फिर भी हिम्मत रखकर दूसरे मित्र के पास गया जो सुबह शाम मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।

दूसरे मित्र ने कहा कि :- मेरी एक शर्त है कि में सिर्फ अदालत के दरवाजे तक जाऊँगा, अन्दर तक नहीं।

वह बोला कि :- बाहर के लिये तो मै ही बहुत हूँ मुझे तो अन्दर के लिये गवाह चाहिए।

फिर वह थक हारकर अपने तीसरे मित्र के पास गया जो बहुत दिनों में मिलता था, और अपनी समस्या सुनाई।

तीसरा मित्र उसकी समस्या सुनकर तुरन्त उसके साथ चल दिया।

अब आप सोच रहे होँगे कि वो तीन मित्र कौन है...?

तो चलिये हम आपको बताते है इस कथा का सार।

जैसे हमने तीन मित्रों की बात सुनी वैसे हर व्यक्ति के तीन मित्र होते है।

सब से पहला मित्र है हमारा अपना 'शरीर' हम जहा भी जायेंगे, शरीर रुपी पहला मित्र हमारे साथ चलता है। एक पल, एक क्षण भी हमसे दूर नहीं होता।

दूसरा मित्र है शरीर के 'सम्बन्धी' जैसे :- माता - पिता, भाई - बहन, मामा -चाचा इत्यादि जिनके साथ रहते हैं, जो सुबह - दोपहर शाम मिलते है।

और तीसरा मित्र है :- हमारे 'कर्म' जो सदा ही साथ जाते है।

अब आप सोचिये कि आत्मा जब शरीर छोड़कर धर्मराज की अदालत में जाती है, उस समय शरीर रूपी पहला मित्र एक कदम भी आगे चलकर साथ नहीं देता। जैसे कि उस पहले मित्र ने साथ नहीं दिया।

दूसरा मित्र - सम्बन्धी श्मशान घाट तक यानी अदालत के दरवाजे तक राम नाम सत्य है कहते हुए जाते है। तथा वहाँ से फिर वापिस लौट जाते है।

और तीसरा मित्र आपके कर्म है।

कर्म जो सदा ही साथ जाते है चाहे अच्छे हो या बुरे।

अगर हमारे कर्म सदा हमारे साथ चलते है तो हमको अपने कर्म पर ध्यान देना होगा अगर हम अच्छे कर्म करेंगे तो किसी भी अदालत में जाने की जरुरत नहीं होगी

Monday, April 16, 2018

दरिद्रता का श्राप

एक ब्राह्मणी थी जो बहुत गरीब निर्धन थी। भिक्षा माँग कर जीवन-यापन करती थी। 
एक समय ऐसा आया कि पाँच दिन तक उसे भिच्छा नहीं मिली।
वह प्रति दिन पानी पीकर भगवान का नाम लेकर सो जाती थी।
छठवें दिन उसे भिक्षा में दो मुट्ठी चना मिले । कुटिया पे पहुँचते-पहुँचते रात हो गयी। ब्राह्मणी ने सोंचा अब ये चने रात मे नही खाऊँगी प्रात:काल वासुदेव को भोग लगाकर तब खाऊँगी ।
यह सोंचकर ब्राह्मणी चनों को कपडे़ में बाँधकर रख दियाऔर वासुदेव का नाम जपते-जपते सो गयी ।

देखिये समय का खेल:::

कहते हैं:::

पुरुष बली नहीं होत है,
समय  होत   बलवान ।

ब्राह्मणी के सोने के बाद कुछ चोर चोरी करने के लिए उसकी कुटिया मे आ गये।
इधर उधर बहुत ढूँढा चोरों को वह चनों की बँधी पुटकी मिल गयी चोरों ने समझा इसमें सोने के सिक्के हैं इतने मे ब्राह्मणी जग गयी और शोर मचाने लगी ।

गाँव के सारे लोग चोरों को पकडने के लिए दौडे़। चोर वह पुटकी लेकर भगे।
पकडे़ जाने के डर से सारे चोर संदीपन मुनि के आश्रम में छिप गये।

(संदीपन मुनि का आश्रम गाँव के निकट था
जहाँ भगवान श्री कृष्ण और सुदामा शिक्षा ग्रहण कर रहे थे)

गुरुमाता को लगा की कोई आश्रम के अन्दर आया है। गुरुमाता देखने के लिए आगे बढीं  तो चोर समझ गये कोई आ रहा है, चोर डर गये और आश्रम से भगे ! भगते समय चोरों से वह पुटकी वहीं छूट गयी।और सारे चोर भाग गये।

इधर भूख से व्याकुल ब्राह्मणी ने जब जाना ! कि उसकी चने की पुटकी  चोर उठा ले गये ।

तो ब्राह्मणी ने श्राप दे दिया की " मुझ दीनहीन असहाय के जो भी चने  खायेगा वह दरिद्र हो जायेगा " ।

उधर प्रात:काल गुरु माता आश्रम मे झाडू़ लगाने लगीं तो झाडू लगाते समय गुरु माता को वही चने की पुटकी मिली गुरु माता ने पुटकी खोल के देखी तो उसमे चने थे।

सुदामा जी और कृष्ण भगवान जंगल से लकडी़ लाने जा रहे थे। (रोज की तरह )
गुरु माता ने वह चने की पुटकी सुदामा जी को दे दी।

और कहा बेटा ! जब वन मे भूख लगे तो दोनो लोग यह चने खा लेना ।

सुदामा जी जन्मजात ब्रह्मज्ञानी थे। ज्यों ही  चने की पुटकी सुदामा जी ने हाथ में लिया त्यों ही उन्हे सारा रहस्य मालुम हो गया ।

सुदामा जी ने सोचा ! गुरु माता ने कहा है यह चने दोनों लोग  बराबर बाँट के खाना।
लेकिन ये चने अगर मैंने त्रिभुवनपति श्री कृष्ण को खिला दिये तो सारी शृष्टी दरिद्र हो जायेगी।
नहीं-नहीं मैं ऐसा नही करुँगा मेरे जीवित रहते मेरे प्रभु दरिद्र हो जायें मै ऐसा कदापि नही करुँगा ।
मैं ये चने स्वयं खा जाऊँगा लेकिन कृष्ण को नहीं खाने दूँगा।

और सुदामा जी ने सारे चने खुद खा लिए।

दरिद्रता का श्राप सुदामा जी ने स्वयं ले लिया। चने खाकर ।
लेकिन अपने मित्र श्री कृष्ण को एक भी दाना चना नही दिया।

Sunday, April 15, 2018

समझो तो देव

एक राजा ने भगवान कृष्ण का एक मंदिर बनवाया
और पूजा के लिए एक पुजारी को लगा दिया. पुजारी बड़े भाव से
बिहारीजी की सेवा करने लगे. भगवान की पूजा-अर्चना और
सेवा-टहल करते पुजारी की उम्र बीत गई. राजा रोज एक फूलों की
माला सेवक के हाथ से भेजा करता था.पुजारी वह माला बिहारीजी
को पहना देते थे. जब राजा दर्शन करने आता तो पुजारी वह माला बिहारीजी के गले से उतारकर राजा को पहना देते थे. यह रोज का
नियम था. एक दिन राजा किसी वजह से मंदिर नहीं जा सका.
उसने एक सेवक से कहा- माला लेकर मंदिर जाओ. पुजारी से कहना
आज मैं नहीं आ पाउंगा. सेवक ने जाकर माला पुजारी को दे दी और
बता दिया कि आज महाराज का इंतजार न करें. सेवक वापस आ
गया. पुजारी ने माला बिहारीजी को पहना दी. फिर उन्हें विचार आया कि आज तक मैं अपने बिहारीजी की चढ़ी माला
राजा को ही पहनाता रहा. कभी ये सौभाग्य मुझे नहीं
मिला.जीवन का कोई भरोसा नहीं कब रूठ जाए. आज मेरे प्रभु ने
मुझ पर बड़ी कृपा की है. राजा आज आएंगे नहीं, तो क्यों न माला
मैं पहन लूं. यह सोचकर पुजारी ने बिहारीजी के गले से माला
उतारकर स्वयं पहन ली. इतने में सेवक आया और उसने बताया कि राजा की सवारी बस मंदिर में पहुंचने ही वाली है.यह सुनकर
पुजारी कांप गए. उन्होंने सोचा अगर राजा ने माला मेरे गले में देख
ली तो मुझ पर क्रोधित होंगे. इस भय से उन्होंने अपने गले से
माला उतारकर बिहारीजी को फिर से पहना दी. जैसे ही राजा
दर्शन को आया तो पुजारी ने नियम अुसार फिर से वह माला
उतार कर राजा के गले में पहना दी. माला पहना रहे थे तभी राजा को माला में एक सफ़ेद बाल दिखा.राजा को सारा माजरा समझ गया
कि पुजारी ने माला स्वयं पहन ली थी और फिर निकालकर
वापस डाल दी होगी. पुजारी ऐसाछल करता है, यह सोचकर राजा
को बहुत गुस्सा आया. उसने पुजारी जी से पूछा- पुजारीजी यह
सफ़ेद बाल किसका है.? पुजारी को लगा कि अगर सच बोलता हूं
तो राजा दंड दे देंगे इसलिए जान छुड़ाने के लिए पुजारी ने कहा- महाराज यहसफ़ेद बाल तो बिहारीजी का है. अब तो राजा गुस्से
से आग- बबूला हो गया कि ये पुजारी झूठ पर झूठ बोले जा रहा
है.भला बिहारीजी के बाल भी कहीं सफ़ेद होते हैं. राजा ने कहा-
पुजारी अगर यह सफेद बाल बिहारीजी का है तो सुबह शृंगार के
समय मैं आउंगा और देखूंगा कि बिहारीजी के बाल सफ़ेद है या
काले. अगर बिहारीजी के बाल काले निकले तो आपको फांसी हो जाएगी. राजा हुक्म सुनाकर चला गया.अब पुजारी रोकर
बिहारीजी से विनती करने लगे- प्रभु मैं जानता हूं आपके
सम्मुख मैंने झूठ बोलने का अपराध किया. अपने गले में डाली
माला पुनः आपको पहना दी. आपकी सेवा करते-करते वृद्ध हो
गया. यह लालसा ही रही कि कभी आपको चढ़ी माला पहनने का
सौभाग्य मिले. इसी लोभ में यह सब अपराध हुआ. मेरे ठाकुरजी पहली बार यह लोभ हुआ और ऐसी विपत्ति आ पड़ी है. मेरे
नाथ अब नहींहोगा ऐसा अपराध. अब आप ही बचाइए नहीं तो
कल सुबह मुझे फाँसी पर चढा दिया जाएगा. पुजारी सारी रात रोते
रहे. सुबह होते ही राजा मंदिर में आ गया. उसने कहा कि आज
प्रभु का शृंगार वह स्वयं करेगा. इतना कहकर राजा ने जैसे ही मुकुट
हटाया तो हैरान रह गया. बिहारीजी के सारे बाल सफ़ेद थे. राजा को लगा, पुजारी ने जान बचाने के लिए बिहारीजी के बाल रंग
दिए होंगे. गुस्से से तमतमाते हुए उसने बाल की जांच करनी
चाही. बाल असली हैं या नकली यब समझने के लिए उसने जैसे
ही बिहारी जी के बाल तोडे, बिहारीजी के सिर से खून
कीधार बहने लगी. राजा ने प्रभु के चरण पकड़ लिए और क्षमा
मांगने लगा. बिहारीजी की मूर्ति से आवाज आई- राजा तुमने आज तक मुझे केवल मूर्ति ही समझा इसलिए आज से मैं तुम्हारे
लिए मूर्ति ही हूँ. पुजारीजी मुझे साक्षात भगवान् समझते हैं.
उनकी श्रद्धा की लाज रखने के लिए आज मुझे अपने बाल सफेद
करने पड़े व रक्त की धार भी बहानी पड़ी तुझे समझाने के लिए.

 कहते हैं- समझो तो देव नहीं तो पत्थर.श्रद्धा हो तो उन्हीं पत्थरों में भगवान सप्राण
होकर भक्त से मिलने आ जाएंगे ।।

Friday, April 13, 2018

बीवी का ख़ौफ़

गाँव मैं रात को भजन का प्रोग्राम था,

शर्मा जी की बहुत इच्छा थी जाने की पर पत्नी ने मना कर दिया,

"तुम रात को बहुत देर से आओगे, मैं कब तक जागूँगी?",

ग्यारह बजे वापस आने का बोल के शर्मा जी चले गये,

भजन संध्या मैं ऐसे डूब गये के समय का ध्यान ना रहा,

घड़ी मैं एक बजे का समय देख शर्मा जी की हालत ख़राब हो गयी,

चप्पल हाथ मैं लिए दौड़ने लगे और हर हर महादेव बोलने लगे,

भजन संध्या मैं अलौकिक माहौल था तो शिवजी भी वहीं थे,

वो शर्मा जी की सहायता के लिये आये, "बोल भक्त क्या परेशानी है?"

शर्मा जी- आप मेरे साथ मेरे घर तक चलो, मैं दरवाज़ा खटखटाऊँ तो आप आगे आके सम्भाल लेना, मेरी बीवी आज मुझे छोड़ेगी नही।

शिवजी- वत्स तेरी पत्नी तुझे क्यों मारेगी?

शर्मा जी- प्रभु मैं बीवी को ग्यारह बजे आने का कह के आया था,

शिवजी- तो अभी कितने बजे है?,

शर्मा जी- प्रभु डेढ़ बजे है,

डेढ़ सुनते ही शिवजी भी भागने लगे,

शर्मा जी - प्रभु क्या हुआ?,

शिवजी दौड़ते दौड़ते बोले, "मैं ख़ुद साढ़े बारह बजे का बोल के आया था"!!!!