Monday, November 27, 2017

सोंच का अंतर

एक बार श्री कृष्ण और अर्जुन भ्रमण पर निकले तो उन्होंने मार्ग में एक निर्धन ब्राहमण को भिक्षा मागते देखा....
अर्जुन को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस ब्राहमण को स्वर्ण मुद्राओ से भरी एक पोटली दे दी।
जिसे पाकर ब्राहमण प्रसन्नता पूर्वक अपने सुखद भविष्य के सुन्दर स्वप्न देखता हुआ घर लौट चला।
किन्तु उसका दुर्भाग्य उसके साथ चल रहा था, राह में एक लुटेरे ने उससे वो पोटली छीन ली।
ब्राहमण दुखी होकर फिर से भिक्षावृत्ति में लग गया।अगले दिन फिर अर्जुन की दृष्टि जब उस ब्राहमण पर पड़ी तो उन्होंने उससे इसका कारण पूछा।
ब्राहमण ने सारा विवरण अर्जुन को बता दिया, ब्राहमण की व्यथा सुनकर अर्जुन को फिर से उस पर दया आ गयी अर्जुन ने विचार किया और इस बार उन्होंने ब्राहमण को मूल्यवान एक माणिक दिया।
ब्राहमण उसे लेकर घर पंहुचा उसके घर में एक पुराना घड़ा था जो बहुत समय से प्रयोग नहीं किया गया था,ब्राह्मण ने चोरी होने के भय से माणिक उस घड़े में छुपा दिया।
किन्तु उसका दुर्भाग्य, दिन भर का थका मांदा होने के कारण उसे नींद आ गयी... इस बीच
ब्राहमण की स्त्री नदी में जल लेने चली गयी किन्तु मार्ग में
ही उसका घड़ा टूट गया, उसने सोंचा, घर में जो पुराना घड़ा पड़ा है उसे ले आती हूँ, ऐसा विचार कर वह घर लौटी और उस पुराने घड़े को ले कर
चली गई और जैसे ही उसने घड़े
को नदी में डुबोया वह माणिक भी जल की धारा के साथ बह गया।
ब्राहमण को जब यह बात पता चली तो अपने भाग्य को कोसता हुआ वह फिर भिक्षावृत्ति में लग गया।
अर्जुन और श्री कृष्ण ने जब फिर उसे इस दरिद्र अवस्था में देखा तो जाकर उसका कारण पूंछा।
सारा वृतांत सुनकर अर्जुन को बड़ी हताशा हुई और मन ही मन सोचने लगे इस अभागे ब्राहमण के जीवन में कभी सुख नहीं आ सकता।
अब यहाँ से प्रभु की लीला प्रारंभ हुई।उन्होंने उस ब्राहमण को दो पैसे दान में दिए।
तब अर्जुन ने उनसे पुछा “प्रभु
मेरी दी मुद्राए और माणिक
भी इस अभागे की दरिद्रता नहीं मिटा सके तो इन दो पैसो से
इसका क्या होगा” ?
यह सुनकर प्रभु बस मुस्कुरा भर दिए और अर्जुन से उस
ब्राहमण के पीछे जाने को कहा।
रास्ते में ब्राहमण सोचता हुआ जा रहा था कि "दो पैसो से तो एक व्यक्ति के लिए भी भोजन नहीं आएगा प्रभु ने उसे इतना तुच्छ दान क्यों दिया ? प्रभु की यह कैसी लीला है "?
ऐसा विचार करता हुआ वह
चला जा रहा था उसकी दृष्टि एक मछुवारे पर पड़ी, उसने देखा कि मछुवारे के जाल में एक
मछली फँसी है, और वह छूटने के लिए तड़प रही है ।
ब्राहमण को उस मछली पर दया आ गयी। उसने सोचा"इन दो पैसो से पेट की आग तो बुझेगी नहीं।क्यों? न इस मछली के प्राण ही बचा लिए जाये"।
यह सोचकर उसने दो पैसो में उस मछली का सौदा कर लिया और मछली को अपने कमंडल में डाल लिया। कमंडल में जल भरा और मछली को नदी में छोड़ने चल पड़ा।
तभी मछली के मुख से कुछ निकला।उस निर्धन ब्राह्मण ने देखा ,वह वही माणिक था जो उसने घड़े में छुपाया था।
ब्राहमण प्रसन्नता के मारे चिल्लाने लगा “मिल गया, मिल गया ”..!!!
तभी भाग्यवश वह लुटेरा भी वहाँ से गुजर रहा था जिसने ब्राहमण की मुद्राये लूटी थी।
उसने ब्राह्मण को चिल्लाते हुए सुना “ मिल गया मिल गया ” लुटेरा भयभीत हो गया। उसने सोंचा कि ब्राहमण उसे पहचान गया है और इसीलिए चिल्ला रहा है, अब जाकर राजदरबार में उसकी शिकायत करेगा।
इससे डरकर वह ब्राहमण से रोते हुए क्षमा मांगने लगा। और उससे लूटी हुई सारी मुद्राये भी उसे वापस कर दी।
यह देख अर्जुन प्रभु के आगे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सके।
अर्जुन बोले,प्रभु यह कैसी लीला है? जो कार्य थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक नहीं कर सका वह आपके दो पैसो ने कर दिखाया।
श्री कृष्णा ने कहा “अर्जुन यह अपनी सोंच का अंतर है, जब तुमने उस निर्धन को थैली भर स्वर्ण मुद्राएँ और मूल्यवान माणिक दिया तब उसने मात्र अपने सुख के विषय में सोचा। किन्तु जब मैनें उसको दो पैसे दिए। तब उसने दूसरे के दुःख के विषय में सोचा। इसलिए हे अर्जुन-सत्य तो यह है कि, जब आप दूसरो के दुःख के विषय में सोंचते है, जब आप दूसरे का भला कर रहे होते हैं, तब आप ईश्वर का कार्य कर रहे होते हैं, और तब ईश्वर आपके साथ होते हैं।

Friday, November 24, 2017

आम का पेड़

*एक बच्चे को आम का पेड़ बहुत पसंद था।*

*जब भी फुर्सत मिलती वो आम के पेड के पास पहुच जाता।* 

*पेड के उपर चढ़ता,आम खाता,खेलता और थक जाने पर उसी की छाया मे सो जाता।* 

*उस बच्चे और आम के पेड के बीच एक अनोखा रिश्ता बन गया।*

*बच्चा जैसे-जैसे बडा होता गया वैसे-वैसे उसने पेड के पास आना कम कर दिया।* 

*कुछ समय बाद तो बिल्कुल ही बंद हो गया।*

*आम का पेड उस बालक को याद करके अकेला रोता।*

*एक दिन अचानक पेड ने उस बच्चे को अपनी तरफ आते देखा और पास आने पर कहा,*

*"तू कहां चला गया था? मै रोज तुम्हे याद किया करता था। चलो आज फिर से दोनो खेलते है।"*

*बच्चे ने आम के पेड से कहा,*
*"अब मेरी खेलने की उम्र नही है* 

*मुझे पढना है,लेकिन मेरे पास फीस भरने के पैसे नही है।"*

*पेड ने कहा,* 
*"तू मेरे आम लेकर बाजार मे बेच दे,*
*इससे जो पैसे मिले अपनी फीस भर देना।"*

*उस बच्चे ने आम के पेड से सारे आम तोड़ लिए और उन सब आमो को लेकर वहा से चला गया।*

*उसके बाद फिर कभी दिखाई नही दिया।* 

*आम का पेड उसकी राह देखता रहता।*

*एक दिन वो फिर आया और कहने लगा,*
*"अब मुझे नौकरी मिल गई है,* 
*मेरी शादी हो चुकी है,*

*मुझे मेरा अपना घर बनाना है,इसके लिए मेरे पास अब पैसे नही है।"*
*आम के पेड ने कहा,* 

*"तू मेरी सभी डाली को काट कर ले जा,उससे अपना घर बना ले।"*
*उस जवान ने पेड की सभी डाली काट ली और ले के चला गया।* 

*आम के पेड के पास अब कुछ नहीं था वो अब बिल्कुल बंजर हो गया था।*

*कोई उसे देखता भी नहीं था।* 
*पेड ने भी अब वो बालक/जवान उसके पास फिर आयेगा यह उम्मीद छोड दी थी।*

*फिर एक दिन अचानक वहाँ एक बुढा आदमी आया। उसने आम के पेड से कहा,*

*"शायद आपने मुझे नही पहचाना,* 
*मैं वही बालक हूं जो बार-बार आपके पास आता और आप हमेशा अपने टुकड़े काटकर भी मेरी मदद करते थे।"*

*आम के पेड ने दु:ख के साथ कहा,*

*"पर बेटा मेरे पास अब ऐसा कुछ भी नही जो मै तुम्हे दे सकु।"*

*वृद्ध ने आंखो मे आंसु लिए कहा,*

*"आज मै आपसे कुछ लेने नही आया हूं बल्कि आज तो मुझे आपके साथ जी भरके खेलना है,*

*आपकी गोद मे सर रखकर सो जाना है।"*

*इतना कहकर वो आम के पेड से लिपट गया और आम के पेड की सुखी हुई डाली फिर से अंकुरित हो उठी।*

*वो आम का पेड़ कोई और नही हमारे माता-पिता हैं दोस्तों ।*

*जब छोटे थे उनके साथ खेलना अच्छा लगता था।* 

*जैसे-जैसे बडे होते चले गये उनसे दुर होते गये।*
*पास भी तब आये जब कोई जरूरत पडी,*
*कोई समस्या खडी हुई।*

*आज कई माँ बाप उस बंजर पेड की तरह अपने बच्चों की राह देख रहे है।*

*जाकर उनसे लिपटे,*
*उनके गले लग जाये*

*फिर देखना वृद्धावस्था में उनका जीवन फिर से अंकुरित हो उठेगा।*

Wednesday, November 22, 2017

पिता का अपनी संपत्ति पर फैसला

सुबह- सुबह लान में टहलते हुए जगन्नाथ महापात्र के मन में द्वंद्व छिड़ा हुआ था. पत्नी के निधन के बाद वो सारा व्यापार बेटे को सौंपकर अपना समय किसी तरह घर के छोटे- छोटे कार्यों व पोते- पोती के साथ खेलने बतियाने में काट रहे थे, लेकिन जब से डॉक्टर ने उसे किसी भयानक रोग से संक्रमित होना बताया है, बेटे-बहू का व्यवहार उसके प्रति बदल गया है.

डॉक्टर के यह कहने के बावजूद कि ~यह बीमारी इलाज ज़रूर है लेकिन छूत की नहीं, आप लोगों को अब इनका विशेष ध्यान रखना चाहिए...,
वे उससे कन्नी काटने लगे हैं. बच्चों को उसके निकट तक नहीं फटकने दिया जाता. भोजन भी नौकर के हाथ कमरे में भिजवाया जाने लगा है. उसे अब अपनी मेहनत के बल पर खड़ा किया गया अपना साम्राज्य –बंगला, गाड़ी, नौकर- चाकर, बैंक बैलेंस आदि सब व्यर्थ लगने लगा है.

टहलते- टहलते वे बेटे-बहू की मोटे परदे लगी हुई लान में खुलने वाली खिड़की के निकट से गुज़रे तो उनकी अस्फुट बातचीत में ‘पिताजी’ शब्द सुनकर वहीँ आड़ में खड़े होकर उनकी बातचीत सुनने लगे. बहू कह रही थी-

“देखो, पिताजी की बीमारी चाहे छूत की न भी हो लेकिन मैं परिवार के स्वास्थ्य के मामले में कोई रिस्क नहीं लेना चाहती, तुम्हें उनको अच्छे से वृद्धाश्रम में भर्ती करवा देना चाहिए, रुपए-पैसे की तो कोई कमी है नहीं ;और हम भी उनसे मिलने जाते रहेंगे.”

“सही कह रही हो, मैं आज ही उनसे बात करूँगा.”

जगन्नाथ महापात्र के कान इसके आगे कुछ सुन नहीं सके, उनके घूमते हुए कदम शिथिल पड़ने लगे और वे कमरे में आकर निढाल होकर बिस्तर पर पड़ गए.

रात को भोजन के बाद बेटे ने जब नीची निगाहों से उनके कमरे में प्रवेश किया, वे एक दृढ़ निश्चय के साथ स्वयं को नई ज़िन्दगी के लिए तैयार कर चुके थे.

बेटे को देखकर चौंकने का अभिनय करते हुए बोले
“आओ विमल, कहो आज इधर कैसे चले आए, कुछ परेशान से दिख रहे हो, क्या बात है”?

“जी, मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ, सर झुकाए हुए ही विमल ने बुझे हुए से स्वर में कहा”.~

“मुझे भी तुमसे कुछ कहना है बेटा, मैं तुम्हें बुलाने ही वाला था, अच्छा हुआ तुम स्वयं आ गए, बेफिक्र होकर अपनी बात कहो...”

“पहले आप अपनी बात कहिये पिताजी...” समीप ही पड़ी हुई कुर्सी पर बैठते हुए विमल बोला.

“बात यह है बेटे, कि डॉक्टर ने जब मेरी बीमारी खतरनाक बताई है तो मैं चाहता हूँ कि मैं अपना
शेष जीवनकाल अपने जैसे असहाय, बेसहारा और अक्षम बुजुर्गों के साथ व्यतीत करूँ.”~ कहते हुए जगन्नाथ महापात्र का गला रुँधने लगा.

सुनते ही विमल मन ही मन ख़ुशी से फूला न समाया, पिताजी ने स्वयं आगे रहकर उसे अपराध-बोध से मुक्त कर दिया था. लेकिन दिखावे के लिए उसने पिता से कहा~

“यह आप क्या कह रहे हैं पिताजी, आपको यहाँ रहने में क्या तकलीफ है?
“नहीं बेटे, मुझे यहाँ रहने में कोई तकलीफ नहीं ;लेकिन यह कहने में तकलीफ हो रही है कि तुम अब अपने रहने की व्यवस्था अन्यत्र कर लो, मैंने इस बँगले को "वृद्धाश्रम " का रूप देने का निर्णय लिया है, ताकि अपनी यादों और जड़ों से जुड़ा रहकर आगे की ज़िन्दगी जी सकूँ...
और हाँ, तुम भी कुछ कहना चाहते थे न!...”

कमरे में एक सन्नाटा छा गया।

Sunday, November 19, 2017

प्रथम पाठशाला

बेटा तुम्हारा इन्टरव्यू लैटर आया है। मां ने लिफाफा हाथ में देते हुए कहा।
यह मेरा सातवां इन्टरव्यू था। मैं जल्दी से तैयार होकर दिए गए नियत समय 9:00 बजे पहुंच गया। एक घर में ही बनाए गए ऑफिस का गेट खुला ही पड़ा था मैंने बन्द किया भीतर गया।
सामने बने कमरे में जाने से पहले ही मुझे माँ की कही बात याद आ गई बेटा भीतर आने से पहले पांव झाड़ लिया करो।फुट मैट थोड़ा आगे खिसका हुआ था मैंने सही जगह पर रखा पांव पोंछे और भीतर गया।
एक रिसेप्शनिस्ट बैठी हुई थी अपना इंटरव्यू लेटर उसे दिखाया तो उसने सामने सोफे पर बैठकर इंतजार करने के लिए कहा। मैं सोफे पर बैठ गया, उसके तीनों कुशन अस्त व्यस्त पड़े थे आदत के अनुसार उन्हें ठीक किया, कमरे को सुंदर दिखाने के लिए खिड़की में कुछ गमलों में छोटे छोटे पौधे लगे हुए थे उन्हें देखने लगा एक गमला कुछ टेढ़ा रखा था, जो गिर भी सकता था माँ की व्यवस्थित रहने की आदत मुझे यहां भी आ याद आ गई, धीरे से उठा उस गमले को ठीक किया।
तभी रिसेप्शनिस्ट ने सीढ़ियों से ऊपर जाने का इशारा किया और कहा तीन नंबर कमरे में आपका इंटरव्यू है।
मैं सीढ़ियां चढ़ने लगा देखा दिन में भी दोनों लाइट जल रही है ऊपर चढ़कर मैंने दोनों लाइट को बंद कर दिया तीन नंबर कमरे में गया ।
वहां दो लोग बैठे थे उन्होंने मुझे सामने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और पूछा तो आप कब ज्वाइन करेंगे मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ जी मैं कुछ समझा नहीं इंटरव्यू तो आप ने लिया ही नहीं।
इसमें समझने की क्या बात है हम पूछ रहे हैं कि आप कब ज्वाइन करेंगे ? वह तो आप जब कहेंगे मैं ज्वाइन कर लूंगा लेकिन आपने मेरा इंटरव्यू कब लिया वे दोनों सज्जन हंसने लगे।
उन्होंने बताया जब से तुम इस भवन में आए हो तब से तुम्हारा इंटरव्यू चल रहा है, यदि तुम दरवाजा बंद नहीं करते तो तुम्हारे 20 नंबर कम हो जाते हैं यदि तुम फुटमेट ठीक नहीं रखते और बिना पांव पौंछे आ जाते तो फिर 20 नंबर कम हो जाते, इसी तरह जब तुमने सोफे पर बैठकर उस पर रखे कुशन को व्यवस्थित किया उसके भी 20 नम्बर थे और गमले को जो तुमने ठीक किया वह भी तुम्हारे इंटरव्यू का हिस्सा था अंतिम प्रश्न के रूप में सीढ़ियों की दोनों लाइट जलाकर छोड़ी गई थी और तुमने बंद कर दी तब निश्चय हो गया कि तुम हर काम को व्यवस्थित तरीके से करते हो और इस जॉब के लिए सर्वश्रेष्ठ उम्मीदवार हो, बाहर रिसेप्शनिस्ट से अपना नियुक्ति पत्र ले लो और कल से काम पर लग जाओ।
मुझे रह रह कर माँऔर बाबूजी की यह छोटी-छोटी सीखें जो उस समय बहुत बुरी लगती थी याद आ रही थी।
मैं जल्दी से घर गया मां के और बाऊजी के पांव छुए और अपने इस अनूठे इंटरव्यू का पूरा विवरण सुनाया.
इसीलिए कहते हैं कि व्यक्ति की प्रथम पाठशाला घर और प्रथम गुरु माता पिता ही है।

Tuesday, November 14, 2017

दरिद्रता का श्राप

एक ब्राह्मणी थी जो बहुत गरीब निर्धन थी। भिक्षा माँग कर जीवन-यापन करती थी। 
एक समय ऐसा आया कि पाँच दिन तक उसे भिच्छा नहीं मिली।
वह प्रति दिन पानी पीकर भगवान का नाम लेकर सो जाती थी।
छठवें दिन उसे भिक्षा में दो मुट्ठी चना मिले । कुटिया पे पहुँचते-पहुँचते रात हो गयी। ब्राह्मणी ने सोंचा अब ये चने रात मे नही खाऊँगी प्रात:काल वासुदेव को भोग लगाकर तब खाऊँगी ।
यह सोंचकर ब्राह्मणी चनों को कपडे़ में बाँधकर रख दियाऔर वासुदेव का नाम जपते-जपते सो गयी ।

देखिये समय का खेल:::

कहते हैं:::

पुरुष बली नहीं होत है,
समय  होत   बलवान ।

ब्राह्मणी के सोने के बाद कुछ चोर चोरी करने के लिए उसकी कुटिया मे आ गये।
इधर उधर बहुत ढूँढा चोरों को वह चनों की बँधी पुटकी मिल गयी चोरों ने समझा इसमें सोने के सिक्के हैं इतने मे ब्राह्मणी जग गयी और शोर मचाने लगी ।

गाँव के सारे लोग चोरों को पकडने के लिए दौडे़। चोर वह पुटकी लेकर भगे।
पकडे़ जाने के डर से सारे चोर संदीपन मुनि के आश्रम में छिप गये।

(संदीपन मुनि का आश्रम गाँव के निकट था
जहाँ भगवान श्री कृष्ण और सुदामा शिक्षा ग्रहण कर रहे थे)

गुरुमाता को लगा की कोई आश्रम के अन्दर आया है। गुरुमाता देखने के लिए आगे बढीं  तो चोर समझ गये कोई आ रहा है, चोर डर गये और आश्रम से भगे ! भगते समय चोरों से वह पुटकी वहीं छूट गयी।और सारे चोर भाग गये।

इधर भूख से व्याकुल ब्राह्मणी ने जब जाना ! कि उसकी चने की पुटकी  चोर उठा ले गये ।

तो ब्राह्मणी ने श्राप दे दिया की " मुझ दीनहीन असहाय के जो भी चने  खायेगा वह दरिद्र हो जायेगा " ।

उधर प्रात:काल गुरु माता आश्रम मे झाडू़ लगाने लगीं तो झाडू लगाते समय गुरु माता को वही चने की पुटकी मिली गुरु माता ने पुटकी खोल के देखी तो उसमे चने थे।

सुदामा जी और कृष्ण भगवान जंगल से लकडी़ लाने जा रहे थे। (रोज की तरह )
गुरु माता ने वह चने की पुटकी सुदामा जी को दे दी।

और कहा बेटा ! जब वन मे भूख लगे तो दोनो लोग यह चने खा लेना ।

सुदामा जी जन्मजात ब्रह्मज्ञानी थे। ज्यों ही  चने की पुटकी सुदामा जी ने हाथ में लिया त्यों ही उन्हे सारा रहस्य मालुम हो गया ।
सुदामा जी ने सोचा ! गुरु माता ने कहा है यह चने दोनों लोग  बराबर बाँट के खाना।
लेकिन ये चने अगर मैंने त्रिभुवनपति श्री कृष्ण को खिला दिये तो सारी शृष्टी दरिद्र हो जायेगी।
नहीं-नहीं मैं ऐसा नही करुँगा मेरे जीवित रहते मेरे प्रभु दरिद्र हो जायें मै ऐसा कदापि नही करुँगा ।
मैं ये चने स्वयं खा जाऊँगा लेकिन कृष्ण को नहीं खाने दूँगा।
और सुदामा जी ने सारे चने खुद खा लिए।
दरिद्रता का श्राप सुदामा जी ने स्वयं ले लिया। चने खाकर ।
लेकिन अपने मित्र श्री कृष्ण को एक भी दाना चना नही दिया।

Sunday, November 12, 2017

हमारे कर्म

एक बार एक भक्त धनी व्यक्ति मंदिर जाता है।
   पैरों में महँगे और नये जूते होने पर सोचता है कि क्या करूँ? 
यदि बाहर उतार कर जाता हूँ तो कोई उठा न ले जाये और अंदर पूजा में मन भी नहीं लगेगा; सारा ध्यान् जूतों पर ही रहेगा। 

उसे मंदिर के बाहर एक भिखारी बैठा दिखाई देता है। वह धनी व्यक्ति भिखारी से कहता है " भाई मेरे जूतों का ध्यान रखोगे? जब तक मैं पूजा करके वापस न आ जाऊँ" भिखारी हाँ कर देता है।
 
अंदर पूजा करते समय धनी व्यक्ति सोचता है कि " हे प्रभु आपने यह कैसा असंतुलित संसार बनाया है?
 किसी को इतना धन दिया है कि वह पैरों तक में महँगे जूते पहनता है तो किसी को अपना पेट भरने के लिये भीख तक माँगनी पड़ती है! 
कितना अच्छा हो कि सभी एक समान हो जायें!!
 "वह धनिक निश्चय करता है कि वह बाहर आकर उस भिखारी को 100 का एक नोट देगा।

बाहर आकर वह धनी व्यक्ति देखता है कि वहाँ न तो वह भिखारी है और न ही उसके जूते। 
धनी व्यक्ति ठगा सा रह जाता है। वह कुछ देर भिखारी का इंतजार करता है कि शायद भिखारी किसी काम से कहीं चला गया हो, पर वह नहीं आया। धनी व्यक्ति दुखी मन से नंगे पैर घर के लिये चल देता है। 

रास्ते में थोड़ी दूर फुटपाथ पर देखता है कि एक आदमी जूते चप्पल बेच रहा है। 
धनी व्यक्ति चप्पल खरीदने के उद्देश्य से वहाँ पहुँचता है, पर क्या देखता है कि उसके जूते भी वहाँ बेचने के लिए रखे हैं। 
तो वह अचरज में पड़ जाता है फिर वह उस फुटपाथ वाले पर दबाव डालकर उससे जूतों के बारे में पूछता हो वह आदमी बताता है कि एक भिखारी उन जूतों को 100 रु. में बेच गया है। 

धनी व्यक्ति वहीं खड़े होकर कुछ सोचता है और मुस्कराते हुये नंगे पैर ही घर के लिये चल देता है। उस दिन धनी व्यक्ति को उसके सवालों के जवाब मिल गये थे----

समाज में कभी एकरूपता नहीं आ सकती, 
क्योंकि हमारे कर्म कभी भी एक समान नहीं हो सकते। 
और जिस दिन ऐसा हो गया उस दिन समाज-संसार की सारी विषमतायें समाप्त हो जायेंगी।
 ईश्वर ने हर एक मनुष्य के भाग्य में लिख दिया है कि किसको कब और कितना मिलेगा, पर यह नहीं लिखा कि वह कैसे मिलेगा।
 यह हमारे कर्म तय करते हैं। 
जैसे कि भिखारी के लिये उस दिन तय था कि उसे 100 रु. मिलेंगे, पर कैसे मिलेंगे यह उस भिखारी ने तय किया। 
हमारे कर्म ही हमारा भाग्य, यश, अपयश, लाभ, हानि, जय, पराजय, दुःख, शोक, लोक, परलोक तय करते हैं। 
हम इसके लिये ईश्वर को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं।

Friday, November 10, 2017

दही बड़े

लखनऊ के चौक इलाक़े में दही बड़े की एक दुकान थीं दुकान ख़ूब चलती थी 
दुकानदार का एक दोस्त मुंबई से आया 
उसने दुकानदार से कहा तुम अगर हमारे साथ मुंबई चलो वहाँ हमारे पास दुकान है वहाँ तुम आपने दही बड़े बेचो जो भी मुनाफ़ा होगा हम दोनो आधा आधा बाँट लेंगे 
दुकान हमारी माल तुम्हारा 
दुकानदार राज़ी हो गया और वो मुंबई चला गया कुछ दीनो के बाद पुरे मुंबई की सबसे मशहूर दुकान हो गई 
दोनो दोस्त बहुत अमीर हो गय 
मुंबई वाले दोस्त ने सोचा क्यों ना हम इसकी रेसिपी पता करले फिर तो इसकी कोई ज़रूरत नहीं होगी सारा मुनाफ़ा मेरा हो जाएगा 
उसने देखा की जब वो दही बड़ा बनाने के लिए समान लाता है तो उसमें नीबू भी लाता है 
कुछ दीनो के बाद उसने कहा की अब हम तुम्हारे साथ काम नही करेंगे तुम लखनऊ वापस चले जाओ 
वो बहुत निराश होकर चला गया 
दूसरे दिन मुंबई वाले ने ख़ुद दही बड़े बनाया उसके अपर ख़ूब नीबू निचोड़ा दिया 
जो भी ग्राहक दही बड़ा खाय वो गालियाँ दे ओर पैसे भी ना दे 
दुकान बंद होगई 
फिर एक दिन उसने लखनऊ वाले दोस्त को फ़ोन किया ओर उससे माफ़ी माँगी ओर पूरी बात बताई 
तब लखनऊ वाले ने कहा
"मैं जानता था की तुम मेरे साथ धोखा करोगे 
इस लिये मैं रोज़ नीबू लाता था ओर उसका रस निकाल कर नाली में बहा देता था 
तुमको लगा की मैं नीबू दही बड़े में डालता हूँ".

Monday, November 6, 2017

फर्क नही पड़ता


महाभारत में कर्ण ने श्री कृष्ण से पूछा "मेरी माँ ने मुझे जन्मते ही त्याग दिया, क्या ये मेरा अपराध था कि मेरा जन्म एक अवैध बच्चे के रूप में हुआ?

दोर्णाचार्य ने मुझे शिक्षा देने से मना कर दिया क्योंकि वो मुझे क्षत्रीय नही मानते थे, क्या ये मेरा कसूर था?

परशुराम जी ने मुझे शिक्षा दी साथ ये शाप भी दिया कि मैं अपनी विद्या भूल जाऊंगा क्योंकि वो मुझे क्षत्रीय समझते थे।

भूलवश एक गौ मेरे तीर के रास्ते मे आकर मर गयी और मुझे गौ वध का शाप मिला?

द्रौपदी के स्वयंवर में मुझे अपमानित किया गया, क्योंकि मुझे किसी राजघराने का कुलीन व्यक्ति नही समझा गया।

यहां तक कि मेरी माता कुंती ने भी मुझे अपना पुत्र होने का सच अपने दूसरे पुत्रों की रक्षा के लिए स्वीकारा।

मुझे जो कुछ मिला दुर्योधन की दया स्वरूप मिला!

तो क्या ये गलत है कि मैं दुर्योधन के प्रति अपनी वफादारी रखता हूँ..??

श्री कृष्ण मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले-
"कर्ण, मेरा जन्म जेल में हुआ था। मेरे पैदा होने से पहले मेरी मृत्यु मेरा इंतज़ार कर रही थी। जिस रात मेरा जन्म हुआ उसी रात मुझे मेरे माता-पिता से अलग होना पड़ा। तुम्हारा बचपन रथों की धमक, घोड़ों की हिनहिनाहट और तीर कमानों के साये में गुज़रा।
मैने गायों को चराया और गोबर को उठाया।

जब मैं चल भी नही पाता था तो मेरे ऊपर प्राणघातक हमले हुए।
कोई सेना नही, कोई शिक्षा नही, कोई गुरुकुल नही, कोई महल नही, मेरे मामा ने मुझे अपना सबसे बड़ा शत्रु समझा।
जब तुम सब अपनी वीरता के लिए अपने गुरु व समाज से प्रशंसा पाते थे उस समय मेरे पास शिक्षा भी नही थी। बड़े होने पर मुझे ऋषि सांदीपनि के आश्रम में जाने का अवसर मिला।

तुम्हे अपनी पसंद की लड़की से विवाह का अवसर मिला मुझे तो वो भी नही मिली जो मेरी आत्मा में बसती थी।

मुझे बहुत से विवाह राजनैतिक कारणों से या उन स्त्रियों से करने पड़े जिन्हें मैंने राक्षसों से छुड़ाया था!

जरासंध के प्रकोप के कारण मुझे अपने परिवार को यमुना से ले जाकर सुदूर प्रान्त मे समुद्र के किनारे बसाना पड़ा। दुनिया ने मुझे कायर कहा।

यदि दुर्योधन युद्ध जीत जाता तो विजय का श्रेय तुम्हे भी मिलता, लेकिन धर्मराज के युद्ध जीतने का श्रेय अर्जुन को मिला! मुझे कौरवों ने अपनी हार का उत्तरदायी समझ।

हे कर्ण! किसी का भी जीवन चुनोतियों से रहित नही है। सबके जीवन मे सब कुछ ठीक नही होता। कुछ कमियां अगर दुर्योधन में थी तो कुछ युधिष्टर में भी थीं।
सत्य क्या है और उचित क्या है? ये हम अपनी आत्मा की आवाज़ से स्वयं निर्धारित करते हैं!

इस बात से कोई फर्क नही पड़ता कितनी बार हमारे साथ अन्याय होता है,

इस बात से कोई फर्क नही पड़ता कितनी बार हमारा अपमान होता है,

इस बात से कोई फर्क नही पड़ता कितनी बार हमारे अधिकारों का हनन होता है।

फ़र्क़ सिर्फ इस बात से पड़ता है कि हम उन सबका सामना किस प्रकार करते हैं..!!

Friday, November 3, 2017

जीवन का मूल्य

एक आदमी ने भगवान बुद्ध  से पुछा : जीवन का मूल्य क्या है?
बुद्ध  ने उसे एक पत्थर दिया 
और कहा : जा और इस पत्थर का 
मूल्य पता करके आ , लेकिन ध्यान 
रखना पत्थर को बेचना नही है I
वह आदमी पत्थर को बाजार मे एक संतरे वाले के पास लेकर गया और बोला : इसकी कीमत क्या है?
संतरे वाला चमकीले  पत्थर को देख
कर बोला, "12 संतरे लेजा और इसे 
मुझे दे जा" 
आगे एक सब्जी वाले ने उस चमकीले पत्थर को देखा और कहा 
"एक बोरी आलू ले जा और 
इस पत्थर को मेरे पास छोड़ जा"
आगे एक सोना बेचने वाले के 
पास गया उसे  पत्थर दिखाया सुनार
उस चमकीले पत्थर को देखकर बोला,  "50 लाख मे बेच दे" l 
उसने मना कर दिया तो सुनार बोला "2 करोड़ मे दे दे या बता इसकी कीमत जो माँगेगा वह दूँगा तुझे.. 
उस आदमी ने सुनार से कहा मेरे गुरू
 ने इसे बेचने से मना किया है l
आगे हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास गया उसे पत्थर दिखाया l
जौहरी ने जब उस बेशकीमती रुबी को देखा , तो पहले उसने रुबी के पास एक लाल कपडा बिछाया फिर उस बेशकीमती रुबी की परिक्रमा लगाई माथा टेका l 
फिर जौहरी बोला , "कहा से लाया है ये बेशकीमती रुबी? सारी कायनात , सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नही लगाई जा सकती 
ये तो बेसकीमती है l"
वह आदमी हैरान परेशान होकर सीधे बुद्ध  के पास आया l 
अपनी आप बिती बताई और बोला
"अब बताओ भगवान , 
मानवीय जीवन का मूल्य क्या है?
बुद्ध  बोले :
संतरे वाले को दिखाया उसने इसकी कीमत "12 संतरे" की बताई l
सब्जी वाले के पास गया उसने 
इसकी कीमत "1 बोरी आलू" बताई l
आगे सुनार ने "2 करोड़" बताई l
और 
जौहरी ने इसे "बेशकीमती" बताया l
अब ऐसा ही मानवीय मूल्य का भी है l
तू बेशक हीरा है..!!
लेकिन, 
सामने वाला तेरी कीमत, 
अपनी औकात - अपनी जानकारी -  अपनी हैसियत से लगाएगा। 
घबराओ मत दुनिया में.. 
तुझे पहचानने वाले भी मिल जायेगे।

Tuesday, October 31, 2017

नज़रिये

एक व्यक्ति काफी दिनों से चिंतित चल रहा था जिसके कारण वह काफी चिड़चिड़ा तथा तनाव में रहने लगा था। वह इस बात से परेशान था कि घर के सारे खर्चे उसे ही उठाने पड़ते हैं, पूरे परिवार की जिम्मेदारी उसी के ऊपर है, किसी ना किसी रिश्तेदार का उसके यहाँ आना जाना लगा ही रहता है, उसे बहुत ज्यादा आयकर चुकाना पड़ता है आदि - आदि*।

*इन्ही बातों को सोच सोच कर वह काफी परेशान रहता था तथा बच्चों को अक्सर डांट देता था तथा अपनी पत्नी से भी ज्यादातर उसका किसी न किसी बात पर झगड़ा चलता रहता था*।

*एक दिन उसका बेटा उसके पास आया और बोला पिताजी मेरा स्कूल का होमवर्क करा दीजिये, वह व्यक्ति पहले से ही तनाव में था तो उसने बेटे को डांट कर भगा दिया लेकिन जब थोड़ी देर बाद उसका गुस्सा शांत हुआ तो वह बेटे के पास गया तो देखा कि बेटा सोया हुआ है और उसके हाथ में उसके होमवर्क की कॉपी है। उसने कॉपी लेकर देखी और जैसे ही उसने कॉपी नीचे रखनी चाही, उसकी नजर होमवर्क के टाइटल पर पड़ी*।

*होमवर्क का टाइटल था*
〰〰〰〰〰〰

 *"वे चीजें जो हमें शुरू में अच्छी नहीं लगतीं लेकिन बाद में वे अच्छी ही होती हैं"।*

*इस टाइटल पर बच्चे को एक पैराग्राफ लिखना था जो उसने लिख लिया था। उत्सुकतावश उसने बच्चे का लिखा पढना शुरू किया बच्चे ने लिखा था* •••

● *मैं अपने फाइनल एग्जाम को बहुंत धन्यवाद् देता हूँ क्योंकि शुरू में तो ये बिलकुल अच्छे नहीं लगते लेकिन इनके बाद स्कूल की छुट्टियाँ पड़ जाती हैं*।

● *मैं ख़राब स्वाद वाली कड़वी दवाइयों को बहुत धन्यवाद् देता हूँ क्योंकि शुरू में तो ये कड़वी लगती हैं लेकिन ये मुझे बीमारी से ठीक करती हैं*।

● *मैं सुबह - सुबह जगाने वाली उस अलार्म घड़ी को बहुत धन्यवाद् देता हूँ जो मुझे हर सुबह बताती है कि मैं जीवित हूँ*।

● *मैं ईश्वर को भी बहुत धन्यवाद देता हूँ जिसने मुझे इतने अच्छे पिता दिए क्योंकि उनकी डांट मुझे शुरू में तो बहुत बुरी लगती है लेकिन वो मेरे लिए खिलौने लाते हैं, मुझे घुमाने ले जाते हैं और मुझे अच्छी अच्छी चीजें खिलाते हैं और मुझे इस बात की ख़ुशी है कि मेरे पास पिता हैं क्योंकि मेरे दोस्त सोहन के तो पिता ही नहीं हैं*।

*बच्चे का होमवर्क पढने के बाद वह व्यक्ति जैसे अचानक नींद से जाग गया हो। उसकी सोच बदल सी गयी। बच्चे की लिखी बातें उसके दिमाग में बार बार घूम रही थी। खासकर वह अन्तिम पंक्ति। उसकी नींद उड़ गयी थी। फिर वह व्यक्ति थोडा शांत होकर बैठा और उसने अपनी परेशानियों के बारे में सोचना शुरू किया*।

●● *मुझे घर के सारे खर्चे उठाने पड़ते हैं, इसका मतलब है कि मेरे पास घर है और ईश्वर की कृपा से मैं उन लोगों से बेहतर स्थिति में हूँ जिनके पास घर नहीं है*।

●● *मुझे पूरे परिवार की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है, इसका मतलब है कि मेरा परिवार है, बीवी बच्चे हैं और ईश्वर की कृपा से मैं उन लोगों से ज्यादा खुशनसीब हूँ जिनके पास परिवार नहीं हैं और वो दुनियाँ में बिल्कुल अकेले हैं*।

●● *मेरे यहाँ कोई ना कोई मित्र या रिश्तेदार आता जाता रहता है, इसका मतलब है कि मेरी एक सामाजिक हैसियत है और मेरे पास मेरे सुख दुःख में साथ देने वाले लोग हैं*।

●● *मैं बहुत ज्यादा आयकर चुकाता हूँ, इसका मतलब है कि मेरे पास अच्छी नौकरी/व्यापार है और मैं उन लोगों से बेहतर हूँ जो बेरोजगार हैं या पैसों की वजह से बहुत सी चीजों और सुविधाओं से वंचित हैं*।

*हे ! मेरे भगवान् ! तेरा बहुंत बहुंत शुक्रिया ••• मुझे माफ़ करना, मैं तेरी कृपा को पहचान नहीं पाया।*

_*इसके बाद उसकी सोच एकदम से बदल गयी, उसकी सारी परेशानी, सारी चिंता एक दम से जैसे ख़त्म हो गयी। वह एकदम से बदल सा गया। वह भागकर अपने बेटे के पास गया और सोते हुए बेटे को गोद में उठाकर उसके माथे को चूमने लगा और अपने बेटे को तथा ईश्वर को धन्यवाद देने लगा*।_

*हमारे सामने जो भी परेशानियाँ हैं, हम जब तक उनको नकारात्मक नज़रिये से देखते रहेंगे तब तक हम परेशानियों से घिरे रहेंगे लेकिन जैसे ही हम उन्हीं चीजों को, उन्ही परिस्थितियों को सकारात्मक नज़रिये से देखेंगे, हमारी सोच एकदम से बदल जाएगी, हमारी सारी चिंताएं, सारी परेशानियाँ, सारे तनाव एक दम से ख़त्म हो जायेंगे और हमें मुश्किलों से निकलने के नए - नए रास्ते दिखाई देने लगेंगे।*

Saturday, October 28, 2017

रात को ढाई बजे

रात के एक बजा था, एक सेठ को नींद नहीं आ रही थी,
वह घर में चक्कर पर चक्कर लगाये जा रहा था।
पर चैन नहीं पड़ रहा था ।
आखिर मैं थक कर नीचे उतर आया और कार निकाली
 शहर की सड़कों पर निकल गया। रास्ते में एक मंदिर दिखा सोचा थोड़ी देर इस मंदिर में जाकर भगवान के पास बैठता हूँ। 
प्रार्थना करता हूं तो शायद शांति मिल जाये।
वह सेठ मंदिर के अंदर गया तो देखा, एक दूसरा आदमी पहले से ही भगवान की मूर्ति के सामने बैठा था, मगर उसका उदास चेहरा, आंखों में करूणा दर्श रही थी।
सेठ ने पूछा " क्यों भाई इतनी रात को मन्दिर में क्या कर रहे हो ?"
आदमी ने कहा " मेरी पत्नी अस्पताल में है, सुबह यदि उसका आपरेशन नहीं हुआ तो वह मर जायेगी और मेरे पास आपरेशन के लिए पैसा नहीं है "
उसकी बात सुनकर सेठ ने जेब में जितने रूपए थे  वह उस आदमी को दे दिए। अब गरीब आदमी के चहरे पर चमक आ गईं थीं ।
सेठ ने अपना कार्ड दिया और कहा इसमें फोन नम्बर और पता भी है और जरूरत हो तो निसंकोच बताना।
उस गरीब आदमी ने कार्ड वापिस दे दिया और कहा
"मेरे पास उसका पता है " इस पते की जरूरत नहीं है सेठजी
आश्चर्य से सेठ ने कहा "किसका पता है भाई
"उस गरीब आदमी ने कहा
"जिसने रात को ढाई बजे आपको यहां भेजा उसका"

Friday, October 27, 2017

कजूंस सेठ

एक दिन एक बहुत बड़े कजूंस सेठ के घर में कोई मेहमान आया
कजूंस ने अपने बेटे से कहा,
आधा किलो बेहतरीन मीट ले आओ। बेटा बाहर गया और कई घंटों बाद वापस आया।
कंजूस ने पूछा मीट कहाँ है।
बेटे ने कहना शुरू किया-" अरे पिताजी, मैं मीट की दुकान पर गया और कसाई से बोला कि सबसे अच्छा मीट दे दो। कसाई ने कहा कि ऐसा मीट दूंगा बिल्कुल मक्खन जैसा।
फिर मैंने सोचा कि क्यों न मक्खन ही ले लूं। मैं मक्खन लेने दुकान गया और बोला कि सबसे बढ़िया मक्खन दो। दुकान वाला बोला कि ऐसा मक्खन दूंगा बिल्कुल शहद जैसा।
मैने सोचा क्यों न शहद ही ले लूं। मै फिर गया शहद वाले के पास और उससे कहा कि सबसे मस्त वाला शहद चाहिए। वो बोला ऐसा शहद दूंगा बिल्कुल पानी जैसा साफ।
तो पिताजी फिर मैंने सोचा कि पानी तो अपने घर पर ही है और मैं चला आया खाली हाथ।
कंजूस बहुत खुश हुआ और अपने बेटे को शाबासी दी। लेकिन तभी उसके मन में कुछ शंका उतपन्न हुई।

"लेकिन बेटे तू इतनी देर घूम कर आया। चप्पल तो घिस गयी होंगी।"
"पिताजी ये तो उस मेहमान की चप्पल हैं जो घर पर आया है।"

Monday, October 23, 2017

सही रास्ते

एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से कहा की प्रभु मैंने पृथ्वी पर देखा है कि जो व्यक्ति पहले से ही अपने प्रारब्ध से दुःखी है आप उसे और ज्यादा दुःख प्रदान करते हैं और जो सुख में है आप उसे दुःख नहीं देते है। भगवान ने इस बात को समझाने के लिए माता पार्वती को धरती पर चलने के लिए कहा और दोनों ने इंसानी रूप में पति-पत्नी का रूप लिया और एक गावं के पास डेरा जमाया । शाम के समय भगवान ने माता पार्वती से कहा की हम मनुष्य रूप में यहां आए है इसलिए यहां के नियमों का पालन करते हुए हमें यहां भोजन करना होगा। इसलिए मैं भोजन कि सामग्री की व्यवस्था करता हूं, तब तक तुम भोजन बनाओ।
जब भगवान के जाते ही माता पार्वती रसोई में चूल्हे को बनाने के लिए बाहर से ईंटें लेने गईं और गांव में कुछ जर्जर हो चुके मकानों से ईंटें लाकर चूल्हा तैयार कर दिया। चूल्हा तैयार होते ही भगवान वहां पर बिना कुछ लाए ही प्रकट हो गए। माता पार्वती ने उनसे कहा आप तो कुछ लेकर नहीं आए, भोजन कैसे बनेगा। भगवान बोले - पार्वती अब तुम्हें इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी। भगवान ने माता पार्वती से पूछा की तुम चूल्हा बनाने के लिए इन ईटों को कहा से लेकर आई तो माता पार्वती ने कहा - प्रभु इस गावं में बहुत से ऐसे घर भी हैं जिनका रख रखाव सही ढंग से नहीं हो रहा है। उनकी जर्जर हो चुकी दीवारों से मैं ईंटें निकाल कर ले आई। भगवान ने फिर कहा - जो घर पहले से ख़राब थे तुमने उन्हें और खराब कर दिया। तुम ईंटें उन सही घरों की दीवार से भी तो ला सकती थीं।माता पार्वती बोली - प्रभु उन घरों में रहने वाले लोगों ने उनका रख रखाव बहुत सही तरीके से किया है और वो घर सुंदर भी लग रहे हैं
ऐसे में उनकी सुंदरता को बिगाड़ना उचित नहीं होता।भगवान बोले - पार्वती यही तुम्हारे द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर है। जिन लोगो ने अपने घर का रख रखाव अच्छी तरह से किया है यानि सही कर्मों से अपने जीवन को सुंदर बना रखा है उन लोगों को दुःख कैसे हो सकता है।मनुष्य के जीवन में जो भी सुखी है वो अपने कर्मों के द्वारा सुखी है, और जो दुखी है वो अपने कर्मों के द्वारा दुखी है । इसलिए हर एक मनुष्य को अपने जीवन में ऐसे ही कर्म करने चाहिए की, जिससे इतनी मजबूत व खूबसूरत इमारत खड़ी हो कि कभी भी कोई भी उसकी एक ईंट भी निकालने न पाए। प्रिय बंधुओ व मित्रो, यह काम जरा भी मुश्किल नहीं है। केवल सकरात्मक सोच और निः स्वार्थ भावना की आवश्यकता है । इसलिए जीवन में हमेशा सही रास्ते का ही चयन करें और उसी पर चलें।
सीख: 1.हमेशा अच्छे कर्म करें।
2. जीवन में हमेशा सही रास्ते का चयन करें

Friday, October 20, 2017

भ्रम


एक बार हनुमान जी ने प्रभु श्रीराम से कहा कि अशोक वाटिका में जिस समय रावण क्रोध में भरकर तलवार लेकर सीता माँ को मारने के लिए दौड़ा, तब मुझे लगा कि इसकी तलवार छीन कर इसका सिर काट लेना चाहिये, किन्तु अगले ही क्षण मैंने देखा कि मंदोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया, यह देखकर मैं गदगद् हो गया...

ओह प्रभू आपने कैसी शिक्षा दी, यदि मैं कूद पड़ता तो मुझे भ्रम हो जाता कि यदि मैं न होता तो क्या होता ?

बहुधा हमको ऐसा ही भ्रम हो जाता है, मुझे भी लगता कि यदि मैं न होता तो माँ सीता को कौन बचाता ? पर आपने उन्हें बचाया ही नही, बल्कि बचाने का काम रावण की पत्नी को ही सौंप दिया, तब मैं समझ गया कि आप जिससे जो कार्य लेना चाहते हैं, वह उसी से लेते हैं...

आगे चलकर जब त्रिजटा ने कहा कि लंका में बंदर आया हुआ है और वह लंका जलायेगा... तो मैं बड़ी चिंता मे पड़ गया कि प्रभु ने तो लंका जलाने के लिए कहा ही नहीं है और त्रिजटा कह रही है...तो मैं क्या करुँ ?

पर जब रावण के सैनिक तलवार लेकर मुझे मारने के लिये दौड़े तो मैंने अपने को बचाने की तनिक भी चेष्टा नहीं की, और जब विभीषण ने आकर कहा कि दूत को मारना अनीति है, तो मैं समझ गया कि मुझे बचाने के लिये प्रभु ने यह उपाय भी कर दिया है...

आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब रावण ने कहा कि बंदर को मारा नहीं जायेगा पर पूंछ में  कपड़ा लपेट कर घी डालकर आग लगाई जाये... तो मैं गदगद् हो गया कि उस लंका वाली संत त्रिजटा की बात सच होने जा रही है...वरना लंका को जलाने के लिए मैं कहाँ से घी, तेल, कपड़ा लाता और कहाँ आग ढूँढ़ता ?
पर वह प्रबन्ध भी आपने रावण से करा दिया...

जब आप रावण से भी अपना काम करा लेते हैं तो मुझसे करा लेने में आश्चर्य की क्या बात है ?

इसलिये संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह सब ईश्वरीय विधान है, हम और आप तो केवल निमित्त मात्र हैं...

इसलिये ऐसा भ्रम पालना उचित नहीं है कि मैं न होता तो यह कार्य कैसे होता और वह कार्य कैसे होता ?

Tuesday, October 17, 2017

प्रणाम का महत्व

महाभारत का युद्ध चल रहा था -
एक दिन दुर्योधन के व्यंग्य से आहत होकर "भीष्म पितामह" घोषणा कर देते हैं कि -

"मैं कल पांडवों का वध कर दूँगा"

उनकी घोषणा का पता चलते ही पांडवों के शिविर में बेचैनी बढ़ गई -

भीष्म की क्षमताओं के बारे में सभी को पता था इसलिए सभी किसी अनिष्ट की आशंका से परेशान हो गए|

तब -

श्री कृष्ण ने द्रौपदी से कहा अभी मेरे साथ चलो -

श्री कृष्ण द्रौपदी को लेकर सीधे भीष्म पितामह के शिविर में पहुँच गए -

शिविर के बाहर खड़े होकर उन्होंने द्रोपदी से कहा कि - अन्दर जाकर पितामह को प्रणाम करो -

द्रौपदी ने अन्दर जाकर पितामह भीष्म को प्रणाम किया तो उन्होंने - 
"अखंड सौभाग्यवती भव" का आशीर्वाद दे दिया , फिर उन्होंने द्रोपदी से पूछा कि !!

"वत्स, तुम इतनी रात में अकेली यहाँ कैसे आई हो, क्या तुमको श्री कृष्ण यहाँ लेकर आये है" ?

तब द्रोपदी ने कहा कि -

"हां और वे कक्ष के बाहर खड़े हैं" तब भीष्म भी कक्ष के बाहर आ गए और दोनों ने एक दूसरे से प्रणाम किया -

भीष्म ने कहा -

"मेरे एक वचन को मेरे ही दूसरे वचन से काट देने का काम श्री कृष्ण ही कर सकते है"

शिविर से वापस लौटते समय श्री कृष्ण ने द्रौपदी से कहा कि -

*"तुम्हारे एक बार जाकर पितामह को प्रणाम करने से तुम्हारे पतियों को जीवनदान मिल गया है "* -

*" अगर तुम प्रतिदिन भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रोणाचार्य, आदि को प्रणाम करती होती और दुर्योधन- दुःशासन, आदि की पत्नियां भी पांडवों को प्रणाम करती होंती, तो शायद इस युद्ध की नौबत ही न आती "* -
......तात्पर्य्......

वर्तमान में हमारे घरों में जो इतनी समस्याए हैं उनका भी मूल कारण यही है कि -

*"जाने अनजाने अक्सर घर के बड़ों की उपेक्षा हो जाती है "*

*" यदि घर के बच्चे और बहुएँ प्रतिदिन घर के सभी बड़ों को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लें तो, शायद किसी भी घर में कभी कोई क्लेश न हो "*

बड़ों के दिए आशीर्वाद कवच की तरह काम करते हैं उनको कोई "अस्त्र-शस्त्र" नहीं भेद सकता -

"निवेदन 🙏 सभी इस संस्कृति को सुनिश्चित कर नियमबद्ध करें तो घर स्वर्ग बन जाय।"

*क्योंकि*:-

*प्रणाम प्रेम है।*
*प्रणाम अनुशासन है।*
प्रणाम शीतलता है।              
प्रणाम आदर सिखाता है।
*प्रणाम से सुविचार आते है।*
प्रणाम झुकना सिखाता है।
प्रणाम क्रोध मिटाता है।
प्रणाम आँसू धो देता है।
*प्रणाम अहंकार मिटाता है।*
*प्रणाम हमारी संस्कृति है।*

Saturday, October 14, 2017

Women Empowerment Story

ये कहानी है, 62 वर्षीय कुमकुम भान्ति की, जो बेसिक शिक्षा विभाग के अन्तर्गत एक प्राइमरी स्कूल में 44+ साल से कार्यरत हैं। ये एक मिसाल हैं अपने साथ की और आने वाली पीढ़ियों की बेटियों के लिए। अपनी मेहनत और लगन से इन्होंने साबित किया है कि एक बेटी किसी भी वक़्त में, किसी भी मुश्किल में खुद को हारने नहीं देती।
कुमकुम भान्ती का महज़ 17 साल की थीं जब उनके पिता जी की मृत्यु हो गई थी। पिता सरकारी सेवा में थे इसलिए उनकी नौकरी अनुकम्पा के तौर पर कुमकुम को मिलीथी। लेकिन उम्र 18 वर्ष से कम थी। 4 महीने के इंतज़ार के बाद 18 साल का होते ही इन्हें बेसिक शिक्षा विद्यालय में बतौर अध्यापिका नियुक्त किया गया।
महज़ 18 साल की उम्र में नौकरी और घर दोनों की ज़िम्मेदारियां उठाना कम चुनौतीपूर्ण नहीं था। घर में मां के साथ छोटी बहन को संभालने का दारोमरदार उनके ऊपर ही था।
एक शिक्षिका की ज़िम्मेदारियों से न्याय करने के लिए आगे पढ़ाई की भी ज़रूरत थी। कुमकुम ने...फिर घर और नौकरी के साथ पढ़ाई की भी जिम्मेदारी उठाई। डा.भीमराव अम्बेडकर युनिवर्सिटी से उन्होंने प्राइवेट स्नातक और स्नातकोत्तर  किया। लगन और मेहनत देखकर सरकार ने बीटीसी करवाने में उनकी मदद की।
एक बेटी के तौर पर कुमकुम ने खुद को साबित किया...लेकिन एक बहू के तौर पर भी चुनौतियां कम नहीं थीं। ससुराल की कमज़ोर आर्थिक स्थिति उनके सामने एक चुनौती बनकर सामने आई। एक पत्नी के तौर पर, एक मां के तौर पर हर ज़िम्मेदारी इस बेटी ने पूरी तरह से उठाई।
बच्चों की परवरिश, उनकी पढ़ाई....उनका भविष्य। शायद ही ज़िंदगी का कोई पड़ाव होगा जहां उन्हें चुनौतियां ना मिली हों, जहां उन्हें खुद को साबित ना करना पड़ा हो।

Tuesday, October 10, 2017

पहनावा

इतना तो समझा देना तेरी बहु को की कोई घर आये तो अदब से रहे ...
कितने दिन के लिए आते है मेंहमान इससे तेरी ही इज़्ज़त की फजीती होगी,, 
तेरी बहु का तो क्या जाएगा....
ओर सच कहे तो आजकल की बहुओ में संस्कार नाम की चीज़ ही नही होती...

ये सुनके पहले तो कविता थोड़ी सकपकाई समझ नही पा रहती थी कि जीजी किस बात की चर्चा कर रही है..

तो उसने पूछा ऐसा क्या हुआ जीजी मेरी बहु से कोई गलती हो गई क्या...
कुछ कह दिया क्या उसने ओर ये कब हुआ क्या मैं उस वक्त नही थी घर पे....

तू नही थी तभी तो, 
तू तेरे दूसरे बेटे के गई हुई थी..
कहा कुछ नही उसने, 
हम गए तो 
हमारे पैर छुए 
चाय नास्ता भी कराया...
आदर सत्कार भी किया 
बहुत प्यार से बोली भी ...
खाना भी बहुत स्वादिष्ट बनाया था,,...
हम अच्छे से सोये भी...

तो क्या कमी रह गई जीजी 
फिर आप ऐसा क्यों बोली...

अरे कविता हम गए 
जब वो पैजामे टीशर्ट में थी 
हमे तो देखकर बहुत बुरा लगा, 
तेरे जीजाजी को ये पसंद नही है....
कमसे कम साड़ी ही पहन लेती हमे दिखाने को मन खुश हो जाता ..
बस यही बात खटक  गई....
हमारी बहुओ को देखो कोई भी घर आता है 
तो अदब से रहती है साडी में...
तूने कुछ सिखाया नही तेरी बहु को ।

सही कहा जीजी आपने 
आपकी बहु बहुत अदब में रहती है 
पिछली बार मेरा जाना हुआ था आपके बेटे के यहाँ।
बहुत ही सुशील लग रही थी साड़ी में ..
आई मेरे पास 
मेरे कंधे पे हाथ रख कर बोली आओ मौसीजी बताओ ओर कैसे आना हुआ...

मैंने कहा बहुत दिन हो गये थे, तो मिलने आ गई...

तो कहने लगी क्या करे मौसीजी वक़्त ही नही मिलता मिलने का 
व्यस्त रहते है...
ओर बात तो फोन पे भी हो जाती है....

बहुत देर बात करने के बाद मुझे याद आया गला सुख रहा है...
तो मैंने पानी मांग लिया पीने को...

बहु ने कहा मौसीजी चाय बनालू क्या... 

मैने कहा रहने दे क्यों परेशान होती है ,
मैं घर से चाय पीकर आई हूं.. 

अच्छा ठीक है 
फिर मौसीजी आप रुको 
में मार्केट जा रही हु 
आपके साथ ही निकल लूंगी... 

समझ आ गया था की बहू के पास समय नही है 
मैने बेग उठाया और घर की ओर रवानगी कर ली।

अगर संस्कार 
ऐसे साड़ी पहन कर निभाये जाते है तो 
अच्छा है मैने अपनी बहू को नही दिए...

क्या करूँ 
वो बस दुसरो की इज़्ज़त करे 
प्यार करे और उनकी भावनाओं की कद्र करे,
मैं उसमे ही खुश हूं...

ये कहकर दोनो बहनो में कभी न मिटने वाली एक खटक हो गई....

पता नही क्यों लोग संस्कार प्यार इज़्ज़त को वेषभूषा से आंकते है...
इज़्ज़त देने से मिलती है 
और प्यार को पाने के लिए प्यार देना पड़ता है..