Saturday, June 18, 2016

गरमा-गरम कॉफ़ी


एक पुराना ग्रुप कॉलेज छोड़ने के बहुत दिनों बाद मिला।
वे सभी अच्छे केरियर के साथ खूब पैसे कमा रहे थे।

वे अपने सबसे फेवरेट प्रोफेसर के घर जाकर मिले।

प्रोफेसर साहब उनके काम के बारे में पूछने लगे। धीरे-धीरे बात लाइफ में बढ़ती स्ट्रेस और काम के प्रेशर पर आ गयी।

इस मुद्दे पर सभी एक मत थे कि, भले वे अब आर्थिक रूप से बहुत मजबूत हों पर उनकी लाइफ में अब वो मजा नहीं रह गया जो पहले हुआ करता था।

प्रोफेसर साहब बड़े ध्यान से उनकी बातें सुन रहे थे,  वे अचानक ही उठे और थोड़ी देर बाद किचन से लौटे और बोले,

"डीयर स्टूडेंट्स, मैं आपके लिए गरमा-गरम
कॉफ़ी बना कर लाया हूँ ,
लेकिन प्लीज आप सब किचन में जाकर अपने-अपने लिए कप्स लेते आइये।"

लड़के तेजी से अंदर गए, वहाँ कई तरह के कप रखे हुए थे, सभी अपने लिए अच्छा से अच्छा कप उठाने में लग गये,

किसी ने क्रिस्टल का शानदार कप उठाया तो किसी ने पोर्सिलेन का कप सेलेक्ट किया, तो किसी ने शीशे का कप उठाया।

सभी के हाथों में कॉफी आ गयी । तो प्रोफ़ेसर साहब बोले,

"अगर आपने ध्यान दिया हो तो, जो कप दिखने में अच्छे और महंगे थे। आपने उन्हें ही चुना और साधारण दिखने वाले कप्स की तरफ ध्यान नहीं दिया।

जहाँ एक तरफ अपने लिए सबसे अच्छे की चाह रखना एक नॉर्मल बात है। वहीँ दूसरी तरफ ये हमारी लाइफ में प्रोब्लम्स और स्ट्रेस लेकर आता है।

फ्रेंड्स, ये तो पक्का है कि कप, कॉफी की क्वालिटी
में कोई बदलाव नहीं लाता। ये तो बस एक जरिया है जिसके माध्यम से आप कॉफी पीते है। असल में जो आपको चाहिए था। वो बस कॉफ़ी थी, कप नहीं, पर फिर भी आप सब सबसे अच्छे कप के पीछे ही गए और अपना लेने के बाद दूसरों के कप निहारने लगे।"
अब इस बात को ध्यान से सुनिये ...
"ये लाइफ कॉफ़ी की तरह है ;
हमारी नौकरी, पैसा, पोजीशन, कप की तरह हैं।

ये बस लाइफ जीने के साधन हैं, खुद लाइफ नहीं !
और हमारे पास कौन सा कप है।
ये न हमारी लाइफ को डिफाइन करता है और ना ही उसे चेंज करता है।

इसीलिए कॉफी की चिंता करिये कप की नहीं।"

"दुनिया के सबसे खुशहाल लोग वो नहीं होते ,
जिनके पास सबकुछ सबसे बढ़िया होता है,
खुशहाल वे होते हैं, जिनके पास जो होता है ।
बस उसका सबसे अच्छे से यूज़ करते हैं,
एन्जॉय करते हैं और भरपूर जीवन जीते हैं!

सदा हंसते रहो। सादगी से जियो।
सबसे प्रेम करो। सबकी केअर करो।
जीवन का आनन्द लो

Thursday, June 16, 2016

" पुरुष से पिता

पत्नी जब स्वयं माँ बनने का समाचार सुनाये और वो खबर सुन, आँखों में से खुशी के आँशु टप टप गिरने लगे

 तब ... आदमी......

" पुरुष से पिता बनता है"

नर्स द्वारा कपडे में लिपटा कुछ पाउण्ड का दिया जीव, जवाबदारी का प्रचण्ड बोझ का अहसास कराये

 तब .....आदमी.....

" पुरुष से पिता बनता है"

रात - आधी रात, जागकर पत्नी के साथ, बेबी का डायपर बदलता है, और बच्चे को कमर में उठा कर घूमता है, उसे चुप कराता है, पत्नी को कहता है तू सो जा में इसे सुला दूँगा
 तब..........आदमी......
" पुरुष से, पिता बनता हैं "
मित्रों के साथ घूमना, पार्टी करना जब नीरस लगने लगे और पैर घर की तरफ बरबस दौड़ लगाये
 तब ........आदमी......

"पुरुष से पिता बनता हैं"
"हमने कभी लाईन में खड़ा होना नहीं सिखा " कह, हमेशा ब्लैक में टिकट लेने वाला, बच्चे के स्कूल Admission का फॉर्म लेने हेतु पूरी ईमानदारी से सुबह 4 बज लाईन में खड़ा होने लगे

तब .....आदमी....

" पुरुष से पिता बनता हैं "


जिसे सुबह उठाते साक्षात कुम्भकरण की याद आती हो और वो जब रात को बार बार उठ कर ये देखने लगे की मेरा हाथ या पैर कही बच्चे के ऊपर तो नहीं आ गया एवम् सोने में  पूरी सावधानी रखने लगे

 तब .....आदमी...

" पुरुष से पिता बनता हैं"


असलियत में एक ही थप्पड़ से सामने वाले को चारो खाने चित करने वाला, जब बच्चे के साथ झूठ मूठ की fighting में बच्चे की नाजुक थप्पड़ से जमीन पर गिरने लगे

 तब...... आदमी......

" पुरुष से पिता बनता हैं"


खुद भले ही कम पढ़ा या अनपढ़ हो, काम से घर आकर बच्चों को " पढ़ाई बराबर करना, होमवर्क पूरा किया या नहीं" बड़ी ही गंभीरता से कहे

 तब ....आदमी......

" पुरुष से पिता बनता हैं  "


खुद ही की कल की मेहनत पर ऐश करने वाला, अचानक बच्चों के आने वाले कल के लिए आज compromise करने लगे

तब ....आदमी.....

" पुरुष से पिता बनता हैं "


ओफ़ीस का बॉस, कईयों को आदेश देने वाला, स्कूल की पेरेंट्स मीटिंग में क्लास टीचर के सामने डरा सहमा सा, कान में तेल डाला हो ऐसे उनकी हर INSTRUCTION ध्यान से सुनने लगे

तब ....आदमी......

" पुरुष से पिता बनता है"


खुद की पदोन्नति से भी ज्यादा बच्चे की स्कूल की सादी यूनिट टेस्ट की ज्यादा चिंता करने लगे

 तब ....आदमी.......

" पुरुष से पिता बनता है "


खुद के जन्मदिन का उत्साह से ज्यादा बच्चों के Birthday पार्टी की तैयारी में मग्न रहे

तब .... आदमी.......

" पुरुष से पिता बनाता है "


हमेशा अच्छी अच्छी गाडियो में घुमाने वाला, जब बच्चे की सायकल की सीट पकड़ कर उसके पीछे भागने में खुश होने लगे

तब ......आदमी....

" पुरुष से पिता बनता है"

खुदने देखी दुनिया, और खुद ने की अगणित भूले बच्चे ना करे, इसलिये उन्हें टोकने की शुरुआत करे

 तब .....आदमी......

" पुरुष से पिता बनता है"


बच्चों को कॉलेज में प्रवेश के लिए, किसी भी तरह पैसे ला कर अथवा वर्चस्व वाले व्यक्ति के सामने दोनों haath  जोड़े

 तब .......आदमी.......

" पुरुष से पिता बनता है "
"आपका समय अलग था,
अब ज़माना बदल गया है,
आपको कुछ मालूम नहीं"
 " This is generation gap "

 ये शब्द खुद ने कभी बोला ये याद आये और मन ही मन बाबूजी को याद कर माफी माँगने लगे

 तब ....आदमी........

" पुरुष से पिता बनता है "


लड़का बाहर चला जाएगा, लड़की ससुराल, ये खबर होने के बावजूद, उनके लिए सतत प्रयत्नशील रहे

 तब ...आदमी......

" पुरुष से पिता बनता है "


बच्चों को बड़ा करते करते कब बुढापा आ गया, इस पर ध्यान ही नहीं जाता, और जब ध्यान आता है तब उसका कोइ अर्थ नहीं रहता

तब ......आदमी.......

" पुरुष से पिता बनता है"

Wednesday, June 15, 2016

मृत्युभोज अभिशाप

महाभारत युद्ध होने को था,
अतः श्री कृष्ण ने दुर्योधन के घर जा कर युद्ध न करने के लिए संधि करने का आग्रह किया ।
दुर्योधन द्वारा आग्रह ठुकराए जाने पर श्री कृष्ण को कष्ट हुआ और वह चल पड़े,
तो दुर्योधन द्वारा श्री कृष्ण से भोजन करने के आग्रह पर कृष्ण ने कहा कि

’’सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः’’

अर्थात्

"जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो,
तभी भोजन करना चाहिए।

लेकिन जब खिलाने वाले एवं खाने वालों के दिल में दर्द हो, वेदना हो,
तो ऐसी स्थिति में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए।"

हिन्दू धर्म में मुख्य 16 संस्कार बनाए गए है,
जिसमें प्रथम संस्कार गर्भाधान एवं अन्तिम तथा 16वाँ संस्कार अन्त्येष्टि है।
इस प्रकार जब सत्रहवाँ संस्कार बनाया ही नहीं गया तो सत्रहवाँ संस्कार 'तेरहवीं संस्कार' कहाँ से आ टपका।

इससे साबित होता है कि तेरहवी संस्कार समाज के चन्द चालाक लोगों के दिमाग की उपज है।

किसी भी धर्म ग्रन्थ में मृत्युभोज का विधान नहीं है।
बल्कि महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि मृत्युभोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है।
लेकिन जिसने जीवन पर्यन्त मृत्युभोज खाया हो, उसका तो ईश्वर ही मालिक है।

इसी लिए
महर्षि दयानन्द सरस्वती,,
पं0 श्रीराम शर्मा,
स्वामी विवेकानन्द
जैसे महान मनीषियों ने मृत्युभोज का जोरदार ढंग से विरोध किया है।

जिस भोजन बनाने का कृत्य...
जैसे लकड़ी फाड़ी जाती तो रोकर,
आटा गूँथा जाता तो रोकर एवं
पूड़ी बनाई जाती है तो रोकर
...यानि हर कृत्य आँसुओं से भीगा।
ऐसे आँसुओं से भीगे निकृष्ट भोजन एवं तेरहवीं भेाज का पूर्ण रूपेण बहिष्कार कर समाज को एक सही दिशा दें।
जानवरों से सीखें,
जिसका साथी बिछुड़ जाने पर वह उस दिन चारा नहीं खाता है।
 जबकि 84 लाख योनियों में श्रेष्ठ मानव,
जवान आदमी की मृत्यु पर हलुवा पूड़ी खाकर शोक मनाने का ढ़ोंग रचता है।

इससे बढ़कर निन्दनीय कोई दूसरा कृत्य हो नहीं सकता।

           यदि आप इस बात से
सहमत हों,
तो आप आज से संकल्प लें कि आप किसी के मृत्यु भोज को ग्रहण नहीं करेंगे।
  मृत्युभोज समाज में फैली कुरीति है व समाज के लिये अभिशाप है ।

Tuesday, June 14, 2016

मूर्ख ढूंढ कर दिखाओ

अकबर बीरबल सभा मे बैठ कर आपस मे बात कर रहे थे ! अकबर : मुझे इस राज्य से 4 मूर्ख ढूंढ कर दिखाओ.!! बीरबल ने खोज शुरू की.
एक महीने बाद वापस आये सिर्फ 2 लोगों के साथ।
अकबर ने कहा मैने 4 मूर्ख लाने के लिये कहा था !!
बीरबल ने कहां हुजुर लाया हूँ। पेश करने का मौका दिया जाय..
आदेश मिल गया।
बीरबल ने कहा- हुजुर यह पहला मूर्ख है। मैने इसे बैलगाडी पर बैठ कर भी बैग सर पर ढोते हुए देखा और पूछने पर जवाब मिला के कहीं बैल के उपर ज्यादा लोड
ना हो जाए इसलिये बैग सिर पर ढो रहा हुँ!!
इस हिसाब से यह पहला मूर्ख है!!
दूसरा मूर्ख यह आदमी है जो आप के सामने खडा है. मैने देखा इसके घर के ऊपर छत पर घास निकली थी. अपनी भैंस को छत पर ले जाकर घास खिला रहा था. मैने देखा और पूछा तो जवाब मिला कि घास छत पर जम जाती है तो भैंस को ऊपर ले जाकर घास खिला देता हूँ. हुजुर
जो आदमी अपने घर की छत पर जमी घास को काटकर फेंक नहीं सकता और भैंस को उस छत पर ले जाकर घास खिलाता है,  तो उससे बडा मूर्ख और कौन हो सकता है!!!
तीसरा मूर्ख: बीरबल ने आगे कहा. जहाँपनाह अपने राज्य मे इतना काम है. पूरी नीति मुझे सम्हालना है. फिर भी मै मूर्खों को ढूढने में एक महीना बर्बाद कर रहा हूॅ इसलिये तीसरा मूर्ख मै
ही हूँ.
चौथा मूर्ख.. जहाँपनाह. पूरे राज्य की जिम्मेदारी आप के ऊपर है.
दिमाग वालों से ही सारा काम होने वाला है. मूर्खों से कुछ होने वाला नहीं है. फिर भी आप मूर्खों को ढूढ रहे हैं. इस लिये चौथा मूर्ख जहाँपनाह आप हुए।




Saturday, June 11, 2016

जीने के लिए संघर्ष

कसाई के पीछे घिसटती जा रही बकरी ने सामने से आ रहे संन्यासी को देखा तो उसकी उम्मीद बढ़ी.मौत आंखों में लिए वह फरियाद करने लगी—
‘महाराज! मेरे छोटे-छोटे मेमने हैं. आप इस कसाई से मेरी प्राण-रक्षा करें.
मैं जब तक जियूंगी,अपने बच्चों के हिस्से का दूध आपको पिलाती रहूंगी.’
बकरी की करुण पुकार का संन्यासी पर कोई असर न पड़ा. वह निर्लिप्त भाव से बोला—‘मूर्ख, बकरी क्या तू नहीं जानती कि मैं एक संन्यासी हूं.
जीवन-मृत्यु, हर्ष-शोक, मोह-माया से परे. हर प्राणी को एक न एक दिन
तो मरना ही है.
समझ ले कि तेरी मौत इस कसाई के हाथों लिखी है.
यदि यह पाप करेगा तो ईश्वर इसे भी दंडित करेगा…’
‘मेरे बिना मेरे मेमने जीते-जी मर जाएंगे…’
बकरी रोने लगी. ‘नादान, रोने से अच्छा है कि तू परमात्मा का नाम ले. याद रख, मृत्यु नए जीवन का द्वार है. सांसारिक रिश्ते-नाते प्राणी के मोह का परिणाम हैं,
मोह माया से उपजता है. माया विकारों की जननी है.विकार आत्मा को भरमाए रखते हैं…’
बकरी निराश हो गई. संन्यासी के पीछे आ रहे कुत्ते से रहा न गया, उसने पूछा—‘महाराज,
क्या आप मोह-माया से पूरी तरह मुक्त हो चुके हैं?’
‘बिलकुल, भरा-पूरा परिवार था मेरा. सुंदर.पत्नी, भाई-बहन, माता-पिता, चाचा-ताऊ, बेटा-बेटी. बेशुमार जमीन-जायदाद…
मैं एक ही झटके में सब कुछ छोड़कर परमात्मा की शरण में चला आ आया.
सांसारिक प्रलोभनों से बहुत ऊपर…
जैसे कीचड़ में कमल…’ संन्यासी डींग मारने लगा.
‘आप चाहें तो बकरी की प्राणरक्षा कर सकते हैं. कसाई आपकी बात नहीं टालेगा.’
‘मौत तो निश्चित ही है, आज नहीं तो कल, हर प्राणी को मरना है.’
तभी सामने एक काला भुजंग नाग फन फैलाए दिखाई पड़ा.
संन्यासी के पसीने छूटने लगे. उसने कुत्ते की ओर मदद के लिए देखा. कुत्ते की हंसी छूट गई.
‘मृत्यु नए जीवन का द्वार है…उसको एक न एक दिन तो आना ही है…’ कुत्ते ने संन्यासी के वचन दोहरा दिए.
‘मुझे बचाओ.’ अपना ही उपदेश भूलकर
संन्यासी गिड़गिड़ाने लगा. मगर कुत्ते ने उसकी ओर ध्यान न दिया.
‘आप अभी यमराज से बातें करें.जीना तो बकरी चाहती है. इससे पहले
कि कसाई उसको लेकर दूर निकल जाए, मुझे अपना कर्तव्य पूरा करना है…’
कहते हुए वह छलांग लगाकर नाग के दूसरी ओर पहुंच गया. फिर दौड़ते
हुए कसाई के पास पहुंचा और उसपर टूट पड़ा.
आकस्मिक हमले से कसाई के औसान बिगड़ गए.
वह इधर-उधर भागने लगा. बकरी की पकड़ ढीली हुई तो वह जंगल में गायब हो गई.
कसाई से निपटने के बाद कुत्ते ने संन्यासी की ओर देखा. वह अभी भी ‘मौत’ के आगे कांप रहा था.
कुत्ते का मन हुआ कि संन्यासी को उसके हाल पर छोड़कर आगे बढ़जाए.
लेकिन मन नहीं माना. वह दौड़कर विषधर के पीछे पहुंचा और पूंछ पकड़कर झाड़ियों की ओर उछाल दिया, बोला—
‘महाराज, जहां तक मैं समझता हूं, मौत से वही ज्यादा डरते हैं, जो केवल अपने लिए जीते हैं.
धार्मिक प्रवचन उन्हें उनके पापबोध से कुछ पल के लिए बचा ले जाते हैं…जीने के लिए संघर्ष अपरिहार्य है,
संघर्ष के लिए विवेक, लेकिन मन में यदि करुणा-ममता न हों तो ये दोनों भी आडंबर बन जातें हैं

Friday, June 10, 2016

शक्कर अपनी जगह बना लेती है



एक बहुत बड़ा सरोवर था। उसके तट पर मोर रहता था, और वहीं पास एक मोरनी भी रहती थी। एक दिन मोर ने मोरनी से प्रस्ताव रखा कि- "हम तुम विवाह कर लें,  तो कैसा अच्छा रहे?"   मोरनी ने पूछा- "तुम्हारे मित्र  कितने   है ?"   मोर ने कहा उसका कोई मित्र नहीं है। तो मोरनी ने विवाह से इनकार कर दिया। मोर सोचने लगा सुखपूर्वक  रहने के लिए मित्र बनाना भी आवश्यक है। उसने एक सिंह से.., एक कछुए से.., और सिंह के लिए शिकार का पता लगाने वाली टिटहरी से.., दोस्ती कर लीं। जब उसने यह समाचार मोरनी को सुनाया, तो वह तुरंत विवाह के लिए तैयार हो गई। पेड़ पर घोंसला बनाया और उसमें अंडे दिए, और भी कितने ही पक्षी उस पेड़ पर रहते थे। एक दिन शिकारी आए। दिन भर कहीं शिकार मिला तो वे उसी पेड़ की छाया में ठहर गए और सोचने लगे, पेड़ पर चढ़कर  डे- बच्चों से भूख बुझाई जाए।  मोर दंपत्ति को भारी चिंता हुई, मोर मित्रों के पास सहायता के लिए दौड़ा। बस फिर  क्या था. टिटहरी ने जोर- जोर से  चिल्लाना शुरू किया। सिंह समझ गया,  कोई शिकार है। वह उसी पेड़ के नीचे चला.., जहाँ शिकारी बैठे थे। इतने में कछुआ भी पानी से निकलकर बाहर आ गया। सिंह से डरकर भागते हुए शिकारियों ने कछुए को ले चलने की बात सोची। जैसे ही हाथ बढ़ाया कछुआ पानी में खिसक गया। शिकारियों के पैर दलदल में फँस गए। इतने में सिंह पहुँचा और उन्हें ठिकाने लगा दिया।मोरनी ने कहा- "मैंने विवाह से पूर्व मित्रों की संख्या पूछी थी, सो बात  काम की निकली , यदि मित्र न होते, तो आज हम सबकी खैर थी।मित्रता सभी  रिश्तों में अनोखा और आदर्श रिश्ता होता है। और मित्र किसी भी व्यक्ति की अनमोल पूँजी होते है। अगर गिलास दुध से भरा हुआ है तो आप उसमे और दुध नहीं डाल सकते लेकिन आप उसमे शक्कर डाले शक्कर अपनी जगह
बना लेती है और अपना होने का अहसास दिलाती है उसी प्रकार अच्छे लोग हर किसी के दिल में अपनी जगह बना लेते हैं

Friday, April 22, 2016

समझ का फेर

अकबर-बीरबल की नोकझोंक चलती ही रहती थी। बादशाह को हंसी-मजाक से  बड़ा प्रेम था। इसी कारण बात-बात में उनमें और बीरबल में हंसी के प्रसंग छिड़ जाया करते थे।

हंसी-मजाक में अकबर बादशाह क्रोधित भी हो जाते थे, किंतु बीरबल कभी क्रोधित नहीं होते थे। इस बात को मन में विचारकर बादशाह ने बीरबल को क्रोधित करने की नई युक्ति निकाली और बोले- 'बीरबल गाय रांधत।'

उत्तर में बीरबल ने कहा- 'बादशाह शुकर खाए।'

बादशाह की बात से बीरबल तो क्रोधित न हुए, पर बीरबल की बात से बादशाह क्रोधित अवश्य हो गए। वह भड़कर बोले - 'तुम मुझे मजाक के बहाने शुकर खिलाते हो?'

'हुजूर आप भी तो मुझे गाय खिलाते हो।'

बादशाह अपने वाक्य का अर्थ बदलकर बोले- 'हमने तुम्हें रांधते वक्त गाने को कहा था।'

तत्काल बीरबल ने भी प्रत्युत्तर मे कहा - 'आलमपनाह! मैंने भला शूकर खाने को कब कहा?'

'तो फिर.....।'

'मैं तो कह रहा था, बादशाह शुक रखाए अर्थात आपने तोता रखा हुआ है। सिर्फ समझ का ही हेर-फेर है। आप बिना अर्थ समझे अकारण क्रोधित होते हैं।' बादशाह निरूत्तर हो गए।

Thursday, April 7, 2016

कर्त्तव्य के प्रति निष्ठा

संधि का प्रस्ताव असफल होने पर जब क्षीकृष्ण हस्तिनापुर लौट चले, तब, महारथी कर्ण उन्हें सीमा तक विदा करने आए। मार्ग में कर्ण को समझाते हुए क्षीकृष्ण ने कहा - 'कर्ण, तुम सूतपुत्र नहीं हो। तुम तो महाराजा पांडु और देवी कुंती के सबसे बड़े पुत्र हो। यदि दुर्योधन का साथ छोड़कर पांडवों के पक्ष में आ जाओं तो तत्काल तम्हारा राज्याभिषेक कर दिया जाएगा।'
यह सुनकर कर्ण ने उत्तर दिया- 'वासुदेव, मैं जानता हूँ कि मैं माता कुंती का पुत्र हूँ, किन्तु जब सभी लोग सूतपुत्र कहकर मेरा तिरस्कार कर रहे थे, तब केवल दुर्योधन ने मुझे सम्मान दिया। मेरे भरोसे ही उसने पांडवों को चुनौती दी है। क्या अब उसके उपकारों को भूलकर मैं उसके साथ विश्वघात करूं? ऐसा करके क्या मैं अधर्म का भागी नहीं बनूंगा? मैं यह जानता हूँ कि युद्ध में विजय पांडवों की होगी, लेकिन आप मुझे अपने कर्त्तव्य से क्यों विमुख करना चाहते हैं?' कर्त्तव्य के प्रति कर्ण की निष्ठा ने क्षीकृष्ण को निरूत्तर कर दिया।
इस प्रसंग में कर्त्तव्य के प्रति निष्ठा व्यक्ति के चरित्र को दृढ़ता प्रदान करती है और उस दृढ़ता को बड़े-से-बड़ा प्रलोभन भी शिथील नहीं कर पाता, यानि वह चरित्रवान व्यक्ति 'सेलेबिल'  नहीं बन पाता। इसके अतिरिक्त इसमें धर्म के प्रति आस्था और निर्भीकता तथा आत्म सम्मान का परिचय मिलता है, जो चरित्र की विशेषताएं मानी जाती हैं।

Wednesday, April 6, 2016

आरक्षण का परिणाम

एक समय की बात है एक चींटी और एक टिड्डा था .
गर्मियों के दिन थे, चींटी दिन भर मेहनत करती और अपने रहने के लिए घर को बनाती, खाने के लिए भोजन भी इकठ्ठा करती जिस से की सर्दियों में उसे खाने पीने की दिक्कत न हो और वो आराम से अपने घर में रह सके !!
जबकि  टिड्डा दिन भर मस्ती करता गाना गाता और  चींटी को बेवकूफ समझता !!
मौसम बदला और सर्दियां आ गयीं !!
 चींटी अपने बनाए मकान में आराम से रहने लगी उसे खाने पीने की कोई दिक्कत नहीं थी परन्तु
 टिड्डे के पास रहने के लिए न घर था और न खाने के लिए खाना !!
वो बहुत परेशान रहने लगा .
दिन तो उसका जैसे तैसे कट जाता परन्तु ठण्ड में रात काटे नहीं कटती !!

एक दिन टिड्डे को उपाय सूझा और उसने एक प्रेस कांफ्रेंस बुलाई.
सभी  न्यूज़ चैनल वहां पहुँच गए !

 टिड्डे ने कहा कि ये कहाँ का इन्साफ है की एक देश में एक समाज में रहते हुए  चींटियाँ तो आराम से रहें और भर पेट खाना खाएं और और हम टिड्डे ठण्ड में भूखे पेट ठिठुरते रहें ..........?

मिडिया ने मुद्दे को जोर - शोर से उछाला, और जिस से पूरी विश्व बिरादरी के कान खड़े हो गए.... !
बेचारा  टिड्डा सिर्फ इसलिए अच्छे खाने और घर से महरूम रहे की वो गरीब है और जनसँख्या में कम है बल्कि  चीटियाँ बहुसंख्या में हैं और अमीर हैं तो क्या आराम से जीवन जीने का अधिकार उन्हें मिल गया !
बिलकुल नहीं !!
ये  टिड्डे के साथ अन्याय है !
 इस बात पर कुछ समाजसेवी,  चींटी के घर के सामने धरने पर बैठ गए तो कुछ भूख हड़ताल पर,
कुछ ने  टिड्डे के लिए घर की मांग की.
कुछ राजनीतिज्ञों ने इसे पिछड़ों के प्रति अन्याय बताया.

एमनेस्टी इंटरनेशनल ने  टिड्डे के वैधानिक अधिकारों को याद दिलाते हुए भारत सरकार की निंदा की !

सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर
  टिड्डे के समर्थन में बाड़ सी आ गयी, विपक्ष के नेताओं ने भारत बंद का एलान कर दिया. कमुनिस्ट पार्टियों ने समानता के अधिकार के तहत  चींटी पर "कर" लगाने और  टिड्डे को अनुदान की मांग की,

एक नया क़ानून लाया गया "पोटागा" (प्रेवेंशन ऑफ़ टेरेरिज़म अगेंस्ट ग्रासहोपर एक्ट).
  टिड्डे के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर दी गयी.

अंत में पोटागा के अंतर्गत🐜 चींटी पर फाइन लगाया गया उसका घर सरकार ने अधिग्रहीत कर टिड्डे को दे दिया ....!
इस प्रकरण को मीडिया ने पूरा कवर किया और   टिड्डे को इन्साफ दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की  !!
समाजसेवकों ने इसे समाजवाद की स्थापना कहा तो किसी ने न्याय की जीत, कुछ राजनीतिज्ञों ने उक्त शहर का नाम बदलकर  "टिड्डा नगर" कर दिया !
रेल मंत्री ने  "टिड्डा रथ" के नाम से नयी रेल चलवा दी और कुछ नेताओं ने इसे समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन की संज्ञा दी ।।
 चींटी भारत छोड़कर अमेरिका चली गयी और वहां उसने फिर से मेहनत की और एक कंपनी की स्थापना की जिसकी दिन रात
 तरक्की होने लगी तथा अमेरिका के विकास में सहायक सिद्ध हुई !!
चींटियाँ मेहनत करतीं रहीं और टिड्डे खाते रहे ........!
फलस्वरूप धीरे धीरे  चींटियाँ भारत छोड़कर जाने लगीं और  टिड्डे झगड़ते रहे ........!
 एक दिन खबर आई की अतिरिक्त आरक्षण की मांग को लेकर सैंकड़ों  टिड्डे मारे गए.........!

ये सब देखकर अमेरिका में बैठी  चींटी ने कहा " इसीलिए शायद भारत आज भी विकासशील देश है"

चिंता का विषय:

जिस देश में लोगो में "पिछड़ा" बनने की होड़ लगी हो वो "देश" आगे कैसे बढेगा...

Saturday, November 7, 2015

सच्चा चिकित्सक कौन

एक बार रसायन शास्त्री आचार्य नागार्जुन को एक महत्वपूर्ण रसायन तैयार करने के लिए एक सहायक की आवश्यकता थी। उन्होंने अपने परिचितों और कुछ पुराने शिष्यों को इसके बारे में बताया। उन्होंने कई युवकों को उनके पास भेजा। आचार्य ने सबकी थोड़ी-बहुत परीक्षा लेने के बाद उनमें से दो युवकों को इस कार्य के लिए चुना। दोनों को एक-एक रसायन बनाकर लाने का आदेश दिया।
पहला युवक दो दिनों के बाद ही रसायन तैयार कर लाया। नागार्जुन ने उससे पूछा- तुमने बहुत जल्दी रसायन तैयार कर लिया। कुछ परेशानी तो नहीं आई? युवक बोला-आचार्य! परेशानी तो आई। मेरे माता-पिता बीमार थे। पर मैंने आपके आदेश को महत्व देते हुए मन को एकाग्र किया और रसायन तैयार कर लिया। आचार्य ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। कुछ ही देर बाद दूसरा युवक बिना रसायन लिए खाली हाथ लौटा।
वह आते ही बोला-आचार्य क्षमा करें। मैं रसायन नहीं बना पाया। क्योंकि जैसे ही मैं यहां से गया तो रास्ते में एक बूढ़ा आदमी मिल गया जो पेट-पीड़ा से कराह रहा था। मुझसे उसकी पीड़ा देखी नहीं गई। मैं उसे अपने घर ले गया और उसका इलाज करने लगा। अब वह पूरी तरह स्वस्थ है। अब आप आज्ञा दें तो मैं रसायन तैयार करके शीघ्र ले आऊं।
नागार्जुन ने मुस्कुराते हुए कहा-वत्स। तुम्हें अब रसायन बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। कल से तुम मेरे साथ रहकर काम कर सकते हो। फिर वह पहले युवक से बोले-बेटा! अभी तुम्हें अपने अंदर सुधार करने की आवश्यकता है। तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया, इससे मुझे प्रसन्नता हुई। यह अच्छी बात तो है पर यह मत भूलो कि सच्चा चिकित्सक वह है जिसके भीतर मानवीयता भरी हो। अगर किसी को तत्काल सेवा और उपचार चाहिए तो चिकित्सक को सभी आवश्यक कार्य छोड़कर उसकी सेवा में लग जाना चाहिए।

Friday, November 6, 2015

एकाग्रता से काम नहीं करेंगे तो कठिन ही लगेगा

एक बार राजा टॉलमी ने गणित सीखने का फैसला किया। उन्हें पता चला कि यूक्लिड महान गणितज्ञ हैं। उन्होंने उनसे ही गणित की शिक्षा लेने की सोची। यूक्लिड से तुरंत संपर्क किया गया। वह रोज आकर राजा को गणित के सूत्र सिखाने लगे। लेकिन टॉलमी को गणित सीखने में आनंद ही नहीं आता था। उनका ध्यान हरदम इधर-उधर भटकता रहता था। उन्होंने सोचा कि लोग तो कहते हैं कि यूक्लिड महान गणितज्ञ हैं और उनके जैसे विद्वान कम ही होते हैं, फिर वह मुझे सरलता से गणित क्यों नहीं सिखा पा रहे। मैं उनसे यह प्रश्न अवश्य पूछूंगा।
अगले दिन जब यूक्लिड राजा को गणित के कुछ सूत्र समझा रहे थे तो राजा खीझकर बोले,'आप तो बड़े भारी विद्वान कहे जाते हैं। मुझे ऐसे सरल सूत्र सिखाइए न, जो आसानी से समझ में आ जाएं। अभी तक मुझे तो गणित का एक सूत्र भी सही ढंग से समझ में नहीं आया है। ऐसे में मैं भला गणित का विद्वान कैसे बन सकता हूं।' राजा की बात सुनकर यूक्लिड मुस्कराते हुए बोले,'राजन, मैं तो आपको सहज और सरल सूत्र ही सिखा रहा हूं। कठिनाई मेरे सिखाने में नहीं बल्कि आपके सीखने में है।
आपने गणित सीखने का फैसला तो कर लिया पर उसके लिए अपने मन को तैयार नहीं कर पाए। गणित हो या फिर राजकाज, किसी भी विषय में यदि आप रुचि नहीं लेंगे और एकाग्रता से काम नहीं करेंगे तो वह कठिन ही लगेगा। जिस सहजता से आप राजकाज संभालते हैं उसी सहजता से आप गणित सीखें, अवश्य सफल होंगे।' यूक्लिड की बातें राजा टॉलमी को समझ में आ गईं। उन्होंने एकाग्र होकर गणित सीखना आरंभ कर दिया।

दृढ़ संकल्प

पंजाब के एक छोटे से गांव में एक सीधा-सादा लड़का था गंगाराम। जब उसने मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण कर ली तो उसे नौकरी करने के लिये परिवार वालों ने उसे उसके चाचा के पास शहर भेज दिया। वह शहर में इंजीनियर के कार्यालय में काम कर रहे अपने चाचा के पास उनसे नौकरी के लिये कहने गया। जब वह उनके कार्यालय में पहुंचा तो वहां उसका चाचा नहीं मिला क्योंकि वह इंजीनियर के साथ दौरे पर गया था।

वह गांव का लड़का था। ऑफिस में उसे जो कुर्सी सबसे बढि़या दिखाई दी, वह उसी पर बैठ गया। कुछ देर बाद चपरासी अंदर आया और उसने एक गंवार लड़के को इंजीनियर सर की कुसी पर बैठे देखा तो वह क्रोध से तमतमा कर बोला- ' ओए लड़के! तुझे पता भी है यह किसकी कुर्सी है ? चल उठ यहां से ! इस पर बैठने का साहस भी तूने कैसे किया? यह तो साहब की कुर्सी है।' इतना अपमान होने के बाद गंगाराम क्या करता, उसे उठना पड़ा। परन्तु उसे इस अपमान से बेहद पीड़ा हुई और उसने उसी क्षण, मन ही मन प्रतिज्ञा की कि वह इंजीनियर बन कर ही रहेगा। जब तक इंजीनियर नहीं बन जाता, नौकरी नहीं करेगा।

जब उसकी अपने चाचा जी से मुलाकात हुई और उन्होंने उसके आने का कारण पूछा तो गंगाराम बोला, ''चाचाजी, मैं आया तो नौकरी की तलाश में था पर अब तो आपके पास रहकर पढ़ूंगा।'' सारी बात सुनकर चाचा बहुत खुश हुआ। उन्होंने भी गंगाराम का साहस बढ़ाया और गंगाराम ने भी मन लगाकर पढ़ाई की। अपनी लगन और बेहद मेहनत के बल पर उसने प्रथम श्रेणी में इंजीनियरिंग की परीक्षा उत्तीर्ण की। वह इंजीनियर ही नहीं बना बल्कि 'सर' की उपाधि भी प्राप्त की और सारे देश भर में नाम कमाया। दिल्ली में उनके नाम से ही 'सर गंगाराम' अस्पताल भी चल रहा है।

Wednesday, November 4, 2015

अच्छे काम की शुरुआत

फिलाडेल्फिया में फ्रैंकलिन नाम का एक गरीब लड़का रहता था। उसकी कॉलोनी में हमेशा अंधेरा रहता था। वह रोज देखता कि अंधेरे में आने-जाने में लोगों को बहुत दिक्कत होती है। एक दिन उसने अपने घर के सामने एक बांस गाढ़ दिया और शाम को उस पर एक लालटेन जला कर टांग दिया। लालटेन से उसके घर के सामने उजाला हो गया लेकिन पड़ोसियों ने इसके लिए उसका खूब मजाक उड़ाया। एक व्यक्ति बोला, 'फ्रैंकलिन, तुम्हारे एक लालटेन जला देने से कुछ नहीं होगा। पूरी कालोनी में तो अंधेरा ही रहेगा।'
फ्रैंकलिन के घर वालों ने भी उसके इस कदम का विरोध किया और कहा,'तुम्हारे इस काम से फालतू में पैसा खर्च होगा।' फ्रैंकलिन ने कहा,'मानता हूं कि एक लालटेन जलाने से ज्यादा लोगों को फायदा नहीं होगा, मगर कुछ लोगों को तो इसका लाभ मिलेगा ही।' कुछ ही दिनों में इसकी चर्चा हर तरफ शुरू हो गई और फ्रैंकलिन के प्रयास की सराहना भी की जाने लगी। उसकी देखादेखी कुछ और लोग अपने-अपने घरों के सामने लालटेन जला कर टांगने लगे। एक दिन पूरी कॉलोनी में उजाला हो गया।
यह बात शहर भर में फैल गई और नगरपालिका पर चारों तरफ से दबाव पड़ने लगा कि वह कॉलोनी में रोशनी का इंतजाम अपने हाथ में ले। कमेटी ने ऐसा ही किया। धीरे-धीरे फ्रैंकलिन की शोहरत चारों तरफ फैल गई। एक दिन नगरपालिका ने फ्रैंकलिन का सम्मान किया। इस अवसर पर फ्रैंकलिन ने कहा कि हर अच्छे काम के लिए पहल तो किसी एक को करनी ही पड़ती है। अगर हर कोई दूसरों के भरोसे बैठा रहे तो कभी अच्छे काम की शुरुआत होगी ही नहीं।