Sunday, January 31, 2016

कठिन परिस्थितिय


एक युगल  की शादी को बहुत दिन हो चुके थे पर उनका कोई अपना संतान नहीं था. फिर भी वे एक दुसरे को बहुत प्यार करते थे. ईश्वर की कृपा से 11 साल बाद उनको एक लड़का प्राप्त हुआ. वे दोनों उसे बहुत चाहते थे. वो लड़का उस युगल की आँखों का तारा था.
एक सुबह, जब वह लड़का तक़रीबन 2 साल का था, पति (लड़के के पिता) ने देखा कि एक दवाई की बोतल खुली हुई है. उसे काम पर जाने के लिए देरी हो रही थी इसलिए उसने अपनी पत्नी से उस बोतल को ढक्कन लगाने और अलमारी में रखने को कहा. लड़के की मम्मी रसोईघर में काम करने में तल्लिन थी, वो ये बात पूरी तरह से भूल गयी थी.
लड़के ने खेलने के क्रम में उस बोतल को देखा और खेलने के इरादे से उस बोतल की ओर गया, बोतल के कलर ने उसे मोह लिया था इसलिए उसने उसमे रखी पूरी दवाई पि ली. उस दवाई की एक छोटी सी मात्रा भी बच्चे के लिए जहरीली हो सकती थी.
जब वह लड़का निचे गिरा, तब उसकी मम्मी उसे जल्द से जल्द दवाखाने ले गयी जहा उसकी मौत हो गयी. उसकी मम्मी पूरी तरह से हैरान हो गयी थी, वह भयभीत हो गयी थी, कि कैसे वो अब अपने पति का सामना करेंगी?
जब लड़के के परेशान पिता दवाखाने में आये तो उन्होंने अपने बेटे को मृत पाया और अपनी पत्नी और देखते हुए सिर्फ चार शब्द कहे.
आपको क्या लगता है कोनसे होंगे वो चार शब्द?
पति ने सिर्फ इतना ही कहा- “ I Love You Darling”.
उसके पति का अनअपेक्षित व्यवहार आश्चर्यचकित करने वाला था. उसका लड़का मर चूका था. वो उसे कभी वापिस नहीं ला सकते थे. और वो उसकी पत्नी में भी कोई कसूर नहीं ढूंड सकता था. इसके अलावा, अगर वो ही उस बोतल को बंद कर के सही जगह रख देता तो आज ये घटना नहीं होती.
वो किसी पर भी आरोप नहीं लगा सकता था. उसकी पत्नी ने भी अपना एकलौता बेटा खो दिया था. उस समय उसे सिर्फ अपने पति से सहानुभूति और दिलासा चाहिये थी. और यही उसके पति ने उस समय उसे दिया. और सबसे बड़ी बात अब उस चीज के बारे में सोचने या गुस्सा होने से क्या फायदा जिसे हम पा ही नहीं सकते. हमें अपनी जिन्दगी के आगे के बारे में सोचना चाहिए न कि जो बीत गया उसके बारे में.
कभी-कभी हम इसी में समय व्यर्थ कर देते है की परिस्थिती के लिए कौन जिम्मेदार है या कौन आरोपी है, ये सब हमारे आपसी रिश्तो में होता है, जहा जॉब करते है वहां या जिन लोगो को हम जानते है उन सभी के साथ होता है, और परिस्थिती के आवेश में आकर हम अपने रिश्तो को भूल जाते है और एक दुसरे का सहारा बनने के बजाये एक दुसरे पर आरोप लगाते है.

कुछ भी हो जाये, हम उस व्यक्ति को कभी भी नहीं भूल सकते जिसे हम प्रेम करते है, इसीलिए जीवन में जो आसान है उसे प्रेम करो. आपके पास अभी जो है उसे जमा करो. और अपनी तकलीफों को विचार कर-कर के बढ़ाने के बजाये उन्हें भूल जाओ. उन सभी चीजो का सामना करो जो आपको अभी मुश्किल लगती है या जिनसे आपको डर लगता है सामना करने के बाद आप देखोंगे के वो चीजे उतनी मुश्किल नहीं है जितना की आप पहले सोच रहे थे. हमें परिस्थिती को समझकर ही लोगो के साथ व्यवहार करना चाहिये, और लोगो कठिन परिस्थितियों में उनका हमदर्द बनना चाहिये.

Saturday, January 30, 2016

भावनाऔ का जीवन में महत्व

एक गरीब आदमी राह पर चलते भिखारियों को देखकर हमेंशा दु:खी होता और भगवान से प्रार्थना करता कि:
हे भगवान! मुझे इस लायक तो बनाता कि मैं इन बेचारे भिखारियों को कम से कम 1 रूपया दे सकता।
भगवान ने उसकी सुन ली और उसे एक अच्‍छी Multi-National Company में कम्‍पनी में Job मिल गई। अब उसे जब भी कोई भिखारी दिखाई देता, वह उन्‍हें 1 रूपया अवश्‍य देता, लेकिन वह 1 रूपया देकर सन्‍तुष्‍ट नहीं था। इसलिए वह जब भी भिखारियों को 1 रूपए का दान देता, ईश्‍वर से प्रार्थना करता कि:
हे भगवान! 1 रूपए में इन बेचारों का क्‍या होगा? कम से कम मुझे ऐसा तो बनाता कि मैं इन बेचारे भिखारियों को 10 रूपया दे सकता। एक रूपए में आखिर होता भी क्‍या है। 
संयोग से कुछ समय बाद उसी MNC  में उसकी तरक्‍की हो गई और वह उसी कम्‍पनी में Manager बन गया, जिससे उसका Standard High होगा। उसने अच्‍छी सी महंगी Car खरीद ली, बडा घर बनवा लिया। फिर भी उसे जब भी कोई भिखारी दिखाई देता, वह अपनी अपनी कार रोककर उन्‍हें 100 रूपया दे देता, मगर फिर भी उसे खुशी नहीं थी। वह अब भी भगवान से प्रार्थना करता कि:
100 रूपए में इन बेचारों का क्‍या भला होता होगा? काश मैं ऐसा बन पाता कि जो भी भिखारी मेरे सामने से गुजरता, वो भिखारी ही न रह जाता।
संयोग से नियति ने फिर उसका साथ दिया और वो Corporate जगत का Chairman चुन लिया गया। अब उसके पास धन की कोई कमी नहीं थी। मंहगी Car, बंगला, First Class AC Rail Ticket आदि उसके लिए अब पुरानी बातें हो चुकी थीं। अब वह हमेंशा अपने स्‍वयं के Private हवाई जहाज में ही सफर करता था और एक शहर से दूसरे शहर नहीं बल्कि एक देश से दूसरे देश में घूमता था, लेकिन उसकी प्रार्थनाऐं अभी भी वैसी ही थीें, जैसी तब थीं, जब वह एक गरीब व्‍यक्ति था।
  आपकी नियति या आपका भाग्‍य अापकी भावनाओं पर ही निर्भर करता है। आप जैसी भावनाऐं रखते हैं, वैसे ही बनते जाते हैं। इसलिए आप जैसा बनना चाहते हैं, वैसी ही भावनाऐं रखिए।

Friday, January 29, 2016

क्रोघ एक विष

सिकंदर जब भारत में आया तो कई राज्यों और साम्राज्य के विस्तार से भी खुश नहीं हुआ तो अपने वतन को लौटने को सोचा  इसी बीच उसके मन में आया की भारत तो साधु संतो और ज्ञानियो के देश है इस देश से कोई एक ज्ञानी को अपने साथ ले जाने को सोचा इसकी खोज में लग गया । वह अपने फौज के साथ एक ज्ञानी की खोज में लग गया तभी देखा एक नागा साधु एक पेंड के नीचे ध्यान लगा के बैठा है सिकंदर और उसका फौज उस साधु के ध्यान से बाहर आने के इंतजार करने लगा जब साधु का ध्यान टुटा तो देखा सामने सिकंदर के साथ उसकी फौज सामने खड़ी है ...
सिकंदर ने उस साधु को अपने साथ जाने के लिए कहा लेकिन साधु ने कहा मै आपके साथ नहीं जा सकता ये बात सुनकर सिकंदर ने कहा की मुझे न सुनने की आदत नहीं है और साथ ले जाने के लिए जिद करने लगा लेकिन साधु अपने बात पर अड़ा रहा ये देखकर सिकंदर और उसके साथी बहुत गुस्से में आ गए और तलवार निकालकर उसके गर्दन पर रख कर बोला या तो  मेरे साथ चलो या मरने के लिए तैयार हो जाओ इसपर साधु ने कहा ऐसा कुछ भी नहीं तुम्हारे पास जो तुम मुघे दे सको वो सबकुछ मेरे पास है जो तुम्हारे पास है मै जहां हु मै बहुत खुश हूँ और मै तुम्हारे साथ नहीं जाऊंगा तुझे मारना है तो मर दो लेकिन कभी भी अपने को सिकंदर महान नहीं कहना क्योंकि महान कहलाने की एक भी गुण नहीं है. तुम मेरे गुलाम के गुलाम हो ये बात सुनकर सिकंदर को मन में झटका लगा की जो पूरी दुनिया को जीता उसको एक नंगा साधु कह रहा है तुम महान नहीं हो, सिकंदर ने उस साधु से कहा आखिर तुम कहना क्या चाहते हो वो बात बताओ मै कैसे तुम्हारे गुलाम का गुलाम हू . संत ने जबाब दिया मै जबतक नहीं चाहता तब तक मै गुस्सा नहीं कर सकता गुस्सा मेरा गुलाम है लेकिन गुस्से को जब लगता है तुम्हारे ऊपर हावी हो जाता है तुम अपने गुस्सा के गुलाम हो भले ही तुम दुनिया जीते हो लेकिन रहोगे तुम मेरे दास के दास.

यह सुनकर सिकंदर दंग रह गया और श्रद्धा पूर्वक सर झुकाकर अपने फौज के साथ लौट गया । इस तरह से सिकंदर को भी एक नागा साधु से हारकर लौटना पड़ा.

हमारे अंदर जो गुस्सा रूपी  विष घर बनाकर बैठा है उसे बाहर निकलने की जरूरत है यह हमारे शरीर को नुकसान पहुँचाता ही है हमारे रिश्ते नाते से भी दूर करता है हम इस गुस्से के कारण जाने अनजाने में अपना बहुत नुकसान पहुचाते है भले ही दूसरे के ऊपर गुस्सा करके हमारे मन को तात्कालिक जीत मिलती है लेकिन हकीकत ये है की इसमें हमारी हर बड़ी होती है .

Thursday, January 28, 2016

सादगी

किसी गाँव में किसी कुंए के पास एक सर्प रहता था. वह बहुत ही दुष्ट सर्प था और हर किसी को परेशान करता रहता था. गाँव के लोग उस सर्प के डर से कुंए के पास जाने से भी डरते थे. एक दिन एक महात्मा उस गाँव में आये और गाँव वालों ने महात्मा जी को इस परेशानी के बारे में बताया. महात्मा जी उस सर्प के पास गए और उसे समझाया मगर सर्प ने उनकी बातों को गंभीरता से नहीं समझा. नाराज होकर महात्मा जी ने उस सर्प को श्राप दिया कि आज से तुम्हारे जहर की शक्ति नष्ट हो जायेगी. महात्मा जी के श्राप से उस सर्प की जहर की शक्ति चली गई और तभी से सर्प बहुत शांत रहने लगा.
इस घटना के बाद जब से सर्प शांत रहने लगा और उसने लोगों को डरना और फुसकारना बंद कर दिया तब से ही बच्चे उस सर्प को परेशान करने लगे. हर कोई आकर उस सर्प को छेड़ता.
  सर्प परेशान रहने लगा और वह अधिकांश समय अपने बिल में रहने लगा.
संयोग से कुछ वर्षों बाद वही महात्मा फिर से गाँव में आये जिन्होंने सर्प को श्राप दिया था. सर्प ने महात्मा जी को अपनी दुःख भरी कहानी सुनाई और इसका उपाय पूछा. महात्मा जी ने कहा कि तुम्हारे बुरे कर्मों के कारण तुम्हारी जहर की शक्ति तो चली गई है परन्तु तुम्हारे फुस्कारने की शक्ति अभी भी कायम है. तुम फुसकार कर ही लोगों के मन में अपना डर कायम रख सकते हो ताकि लोग बाग तुम्हे परेशान न कर सकें.
महात्मा जी कि बात मानकर उसी दिन से सर्प ने अपने फन और फुसकार द्वारा लोगों को डराना शुरू कर दिया, इससे लोगों ने उसे परशान करना बंद कर दिया और सर्प सुखी जीवन जीने लगा.
दोस्तों, इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि आज के जमाने में बहुत अधिक सीधे बने रहने का समय नहीं है क्योंकि सीधे आदमी को हर कोई परेशान करता है. जो आदमी लोगों में अपना थोडा बहुत डर या भय बना कर रखता है लोग उससे डरते हैं, उसे परेशान नहीं करते और वो व्यक्ति सुखी रहता है.
 सादगी ऐसी भी ना हो कि लोग आपको उल्लू बना कर लूट लें.

 बहुत अधिक सीधापन या सादगी भी कई बार हमें ले डूबती है. जहाँ जिस तरीके से व्यवहार करने की जरुरत हो वैसे व्यवहार करना चाहिए. कहीं ऐसा न हो कि लोग आपकी सज्जनता और भलमनसाहत को आपकी मुर्खता और बेवकूफी समझ कर आपका नाजायज फायदा उठा रहे हों. अगर ऐसा है तो आप तुरंत सावधान हो जाईये और अपनी सज्जनता और भलमन साहत का दूसरों को गलत उपयोग ना करने दीजिये
ै. प्रथम विश्वयुद्ध (First world war) चल रहा था. चरों ओर मार काट मची थी. लाखों लोगों को मौत अपने चंगुल में फंसा चूका था और अनगिनत लोग अपाहिज होते चले जा रहे थे. इस भीषण माहोल में यह Engineer भी रूस की ओर से इस world war में शामिल हुआ. दुर्भाग्य से युद्ध में उसे अपना एक पैर गंवाना पड़ा. महीनों तक वह Hospital में रहा. जब ठीक हुआ तो Doctors ने सलाह दी कि नकली पैर लगवा लें ताकि चलने फिरने में और अन्य कार्य करने में असुविधा न हो. उसने Doctors की सलाह मान कर नकली पैर लगवा लिया. अब वह easily चल फिर सकता था. एक दिन वह घायल लोगों को देखने गया. उसने पाया कि अंग-भंग हुए लोगों में पूर्णत: निराशा के भाव हैं तो उसने उनकी हौसला अफजाई की और कहा कि देखो मैं ने नकली पैर लगवा लिया है, अब मुझे कोई परिशानी नहीं है और तो और इस नकली पैर का सबसे बड़ा लाभ यह है कि चोट लगने पर उसका बिलकुल भी एहसास नहीं होता. यह कह कर उसने एक आदमी को बेंत देकर उसके पैर पर मारने के लिए कहा.
उस आदमी ने कास कर बेंत मारी.
Engineer मुस्कुरा कर बोला- देखो, मुझे ज़रा भी दर्द नहीं हो रहा.
उसके इस Actions पर उपस्थित Patients के मन से निराशा, Disappointment के भाव जाते रहे.
जब Engineer बहार निकला तो उसके चेहरे पर पीड़ा के भाव उभर आए.
क्यूंकि गलती से आदमी ने उसके असली पैर पर बेंत मर दी थी किन्तु अगले ही पल वह दोबारा मुस्कुरा कर आगे बढ़ गया.
Actually दुर्दशा को प्राप्त लोगों में जीवन के प्रति आशा जगाने के लिए कई बार स्वंय भी कष्ट सहन करना पड़ता है. लेकिन इससे हमेशा सकरात्मक परिणाम, Positive results ही सामने आता है.
याद रखें: वृक्ष तने से काटे जाने के बाद भी पुनः कोंपलों के माध्यम से फुट पड़ता है और एक दिन पहले से भी अधिक घाना होकर सामने आता है.
- See more at: http://www.achibaten.com/weakness-power-hindi-interesting-story/#sthash.Vu5q83iH.dpuf http://anilsahu.blogspot.in/2014/11/sadagi-aisi-bhi-na-ho-ki-short-motivational-story-in-hindi.htmlकिसी गाँव में किसी कुंए के पास एक सर्प रहता था. वह बहुत ही दुष्ट सर्प था और हर किसी को परेशान करता रहता था. गाँव के लोग उस सर्प के डर से कुंए के पास जाने से भी डरते थे. एक दिन एक महात्मा उस गाँव में आये और गाँव वालों ने महात्मा जी को इस परेशानी के बारे में बताया. महात्मा जी उस सर्प के पास गए और उसे समझाया मगर सर्प ने उनकी बातों को गंभीरता से नहीं समझा. नाराज होकर महात्मा जी ने उस सर्प को श्राप दिया कि आज से तुम्हारे जहर की शक्ति नष्ट हो जायेगी. महात्मा जी के श्राप से उस सर्प की जहर की शक्ति चली गई और तभी से सर्प बहुत शांत रहने लगा.

इस घटना के बाद जब से सर्प शांत रहने लगा और उसने लोगों को डरना और फुसकारना बंद कर दिया तब से ही बच्चे उस सर्प को परेशान करने लगे. हर कोई आकर उस सर्प को छेड़ता.
पूरी कहानी पढ़ें:


सर्प परेशान रहने लगा और वह अधिकांश समय अपने बिल में रहने लगा.

संयोग से कुछ वर्षों बाद वही महात्मा फिर से गाँव में आये जिन्होंने सर्प को श्राप दिया था. सर्प ने महात्मा जी को अपनी दुःख भरी कहानी सुनाई और इसका उपाय पूछा. महात्मा जी ने कहा कि तुम्हारे बुरे कर्मों के कारण तुम्हारी जहर की शक्ति तो चली गई है परन्तु तुम्हारे फुस्कारने की शक्ति अभी भी कायम है. तुम फुसकार कर ही लोगों के मन में अपना डर कायम रख सकते हो ताकि लोग बाग तुम्हे परेशान न कर सकें.
महात्मा जी कि बात मानकर उसी दिन से सर्प ने अपने फन और फुसकार द्वारा लोगों को डराना शुरू कर दिया, इससे लोगों ने उसे परशान करना बंद कर दिया और सर्प सुखी जीवन जीने लगा.

दोस्तों, इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि आज के जमाने में बहुत अधिक सीधे बने रहने का समय नहीं है क्योंकि सीधे आदमी को हर कोई परेशान करता है. जो आदमी लोगों में अपना थोडा बहुत डर या भय बना कर रखता है लोग उससे डरते हैं, उसे परेशान नहीं करते और वो व्यक्ति सुखी रहता है.

सादगी ऐसी भी ना हो कि लोग आपको उल्लू बना कर लूट लें.

Friends, इस Hindi Motivational Story का अभिप्राय ये है कि अति हर चीज की बुरी होती है. बहुत अधिक सीधापन या सादगी भी कई बार हमें ले डूबती है. जहाँ जिस तरीके से व्यवहार करने की जरुरत हो वैसे व्यवहार करना चाहिए. कहीं ऐसा न हो कि लोग आपकी सज्जनता और भलमनसाहत को आपकी मुर्खता और बेवकूफी समझ कर आपका नाजायज फायदा उठा रहे हों. अगर ऐसा है तो आप तुरंत सावधान हो जाईये और अपनी सज्जनता और भलमन साहत का दूसरों को गलत उपयोग ना करने दीजिये
ै. प्रथम विश्वयुद्ध (First world war) चल रहा था. चरों ओर मार काट मची थी. लाखों लोगों को मौत अपने चंगुल में फंसा चूका था और अनगिनत लोग अपाहिज होते चले जा रहे थे. इस भीषण माहोल में यह Engineer भी रूस की ओर से इस world war में शामिल हुआ. दुर्भाग्य से युद्ध में उसे अपना एक पैर गंवाना पड़ा. महीनों तक वह Hospital में रहा. जब ठीक हुआ तो Doctors ने सलाह दी कि नकली पैर लगवा लें ताकि चलने फिरने में और अन्य कार्य करने में असुविधा न हो. उसने Doctors की सलाह मान कर नकली पैर लगवा लिया. अब वह easily चल फिर सकता था. एक दिन वह घायल लोगों को देखने गया. उसने पाया कि अंग-भंग हुए लोगों में पूर्णत: निराशा के भाव हैं तो उसने उनकी हौसला अफजाई की और कहा कि देखो मैं ने नकली पैर लगवा लिया है, अब मुझे कोई परिशानी नहीं है और तो और इस नकली पैर का सबसे बड़ा लाभ यह है कि चोट लगने पर उसका बिलकुल भी एहसास नहीं होता. यह कह कर उसने एक आदमी को बेंत देकर उसके पैर पर मारने के लिए कहा.
उस आदमी ने कास कर बेंत मारी.
Engineer मुस्कुरा कर बोला- देखो, मुझे ज़रा भी दर्द नहीं हो रहा.
उसके इस Actions पर उपस्थित Patients के मन से निराशा, Disappointment के भाव जाते रहे.
जब Engineer बहार निकला तो उसके चेहरे पर पीड़ा के भाव उभर आए.
क्यूंकि गलती से आदमी ने उसके असली पैर पर बेंत मर दी थी किन्तु अगले ही पल वह दोबारा मुस्कुरा कर आगे बढ़ गया.
Actually दुर्दशा को प्राप्त लोगों में जीवन के प्रति आशा जगाने के लिए कई बार स्वंय भी कष्ट सहन करना पड़ता है. लेकिन इससे हमेशा सकरात्मक परिणाम, Positive results ही सामने आता है.
याद रखें: वृक्ष तने से काटे जाने के बाद भी पुनः कोंपलों के माध्यम से फुट पड़ता है और एक दिन पहले से भी अधिक घाना होकर सामने आता है.
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ै. प्रथम विश्वयुद्ध (First world war) चल रहा था. चरों ओर मार काट मची थी. लाखों लोगों को मौत अपने चंगुल में फंसा चूका था और अनगिनत लोग अपाहिज होते चले जा रहे थे. इस भीषण माहोल में यह Engineer भी रूस की ओर से इस world war में शामिल हुआ. दुर्भाग्य से युद्ध में उसे अपना एक पैर गंवाना पड़ा. महीनों तक वह Hospital में रहा. जब ठीक हुआ तो Doctors ने सलाह दी कि नकली पैर लगवा लें ताकि चलने फिरने में और अन्य कार्य करने में असुविधा न हो. उसने Doctors की सलाह मान कर नकली पैर लगवा लिया. अब वह easily चल फिर सकता था. एक दिन वह घायल लोगों को देखने गया. उसने पाया कि अंग-भंग हुए लोगों में पूर्णत: निराशा के भाव हैं तो उसने उनकी हौसला अफजाई की और कहा कि देखो मैं ने नकली पैर लगवा लिया है, अब मुझे कोई परिशानी नहीं है और तो और इस नकली पैर का सबसे बड़ा लाभ यह है कि चोट लगने पर उसका बिलकुल भी एहसास नहीं होता. यह कह कर उसने एक आदमी को बेंत देकर उसके पैर पर मारने के लिए कहा.
उस आदमी ने कास कर बेंत मारी.
Engineer मुस्कुरा कर बोला- देखो, मुझे ज़रा भी दर्द नहीं हो रहा.
उसके इस Actions पर उपस्थित Patients के मन से निराशा, Disappointment के भाव जाते रहे.
जब Engineer बहार निकला तो उसके चेहरे पर पीड़ा के भाव उभर आए.
क्यूंकि गलती से आदमी ने उसके असली पैर पर बेंत मर दी थी किन्तु अगले ही पल वह दोबारा मुस्कुरा कर आगे बढ़ गया.
Actually दुर्दशा को प्राप्त लोगों में जीवन के प्रति आशा जगाने के लिए कई बार स्वंय भी कष्ट सहन करना पड़ता है. लेकिन इससे हमेशा सकरात्मक परिणाम, Positive results ही सामने आता है.
याद रखें: वृक्ष तने से काटे जाने के बाद भी पुनः कोंपलों के माध्यम से फुट पड़ता है और एक दिन पहले से भी अधिक घाना होकर सामने आता है.
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Wednesday, January 27, 2016

गलती हमसे भी होती है

एक बार सरदार पटेल खुली बैलगाड़ी में गांवों की यात्रा पर निकले। उनके साथ रावजीभाई मणिभाई पटेल भी थे। वे गांवों की हालत का निरीक्षण कर रहे थे। उन्हें किसानों से वहां की सुविधा और अभावों की जानकारी लेनी थी। पहले सरदार पटेल अधिकतर पश्चिमी वेशभूषा में रहते थे। उस दिन भी उन्होंने हंगेरियन टोपी, काला कोट और धोती पहनी हुई थी। गाड़ीवान बड़ा बातूनी था। वह बीच-बीच में सरदार पटेल और मणिभाई पटेल से बातें भी कर लेता था। बैलगाड़ी अपनी रफ्तार से चल रही थी।
अचानक गाड़ीवान का ध्यान अपनी बैलगाड़ी पर गया तो यह देखकर उसके होश उड़ गए कि उसमें रफ्तार रोकने वाला लकड़ी का स्टैंड नहीं लगा था। जल्दबाजी में गाड़ीवान स्टैंड लगाना भूल गया था। उसने कई जगह पर अपने तरीके से बैलगाड़ी की रफ्तार धीमी करने की कोशिश की। लेकिन एक स्थान पर बैलगाड़ी की रफ्तार बहुत ज्यादा बढ़ गई। गाड़ीवान ने जब रफ्तार काबू करने की कोशिश की तो गाड़ी उलट गई और सरदार पटेल व मणिभाई पटेल गिर पड़े।

यह देखकर गाड़ीवान बेहद घबरा गया। उसे लगा कि आज तो उसे कड़ी सजा मिलेगी। बहुत जोर लगाकर सरदार पटेल एवं मणिभाई पटेल लकड़ी के नीचे से निकल कर बाहर आए। गाड़ीवान ने उन दोनों से माफी मांगी। सरदार पटेल गाड़ीवान के कंधे पर हाथ रखकर बोले,'अरे इसमें इतना उदास होने की क्या बात है। भूल व गलती हम सब से हो ही जाती है। आगे से ध्यान रखना। चलो अभी तो मिलकर इस गाड़ी को उठाओ।' इसके बाद तीनों ने मिलकर गाड़ी को उठाया। गाड़ीवान सरदार पटेल की उदारता के आगे नतमस्तक हो गया।

अपना कुछ नहीं

पारसी धर्मगुरु रवि मेहर के तीन पुत्र थे। दुर्भाग्य से एक समय ऐसा आया कि वे तीनों एक दिन महामारी की चपेट में आ गए। अच्छी देखरेख व दवा के अभाव में वे जीवित न रह सके। मेहर उस समय किसी काम से बाहर गए हुए थे। शाम के समय जब वे घर लौटकर आए तो उन्हें बच्चे दिखाई नहीं दिए। उन्होंने सोचा, शायद सो गए होंगे। भोजन करते समय उन्होंने पत्नी से पूछा,'क्या बात है, आज बच्चे जल्दी क्यों सो गए?'

पत्नी ने उनकी इस बात का उत्तर दिए बिना उनसे कहा,'स्वामी! कल हमने पड़ोसी से जो बर्तन लिए थे, उन्हें मांगने के लिए पड़ोसी आ गए थे।' मेहर ने कहा,'बर्तन उनके थे, इसीलिए वे लेने को आए थे। पराई वस्तु का मोह हम क्यों करें?' पत्नी कहा,'आप बिलकुल ठीक कहते हैं। मैंने उन्हें वे बर्तन लौटा दिए।'भोजन के बाद संत को फिर अपने बच्चों की याद आ गई। उन्होंने पत्नी से उनके बारे में पूछताछ शुरू कर दी। तब पत्नी उन्हें भीतर के कमरे में लेकर गई।

वहां उसने चारपाई के नीचे रखे तीनों बच्चों के शव दिखा दिए। यह देखते ही संत फूट-फूटकर रोने लगे। तब पत्नी उनसे बोली,'स्वामी! आप अभी-अभी तो मुझसे कह रहे थे कि यदि कोई अपनी वस्तु वापस लेना चाहे, तो हमें वह वस्तु लौटा देनी चाहिए और उसके लिए दुःख भी नहीं करना चाहिए। लेकिन अब आप स्वयं ही यह भूले जा रहे हैं। बच्चे भगवान के यहां से आए थे, सो उन्होंने ले लिए। फिर हम उनके लिए क्यों बेवजह शोक करें?' इन शब्दों से संत का चित्त कुछ हलका हो गया और वे भगवद्-भजन में लीन हो गए।

Thursday, January 21, 2016

प्लेटो की सीख

एक बार विख्यात दार्शनिक और विद्वान प्लेटो से कुछ लोग मिलने आए। उनसे कई विषयों पर चर्चा हुई। प्लेटो उनके प्रश्नों के उत्तर देते, फिर उनसे भी कुछ पूछते। आगंतुक आए तो थे प्लेटो से कुछ सीखने, लेकिन उलटे प्लेटो ही उनसे सीखने लगे। यह देखकर उन्हें बड़ी हैरानी हुई। मन ही मन वे सोचने लगे- शायद प्लेटो के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर कहा जाता है। वे उतने बड़े विद्वान हैं नहीं, जितना बताया जाता है। वह भी हम लोगों की तरह साधारण व्यक्ति हैं।
उनके जाने के बाद प्लेटो का एक शिष्य बोला,'आप दुनिया के जाने-माने विद्वान और दार्शनिक हैं, इसलिए आपके पास लोग आते हैं कुछ जानने-समझने के लिए। लेकिन आप उल्टे उन्हीं से कुछ न कुछ पूछते रहते हैं। ऐसा लगता है कि आपको कुछ आता ही नहीं। आप एक साधारण व्यक्ति जैसा व्यवहार करते हैं। आने वाले लोग क्या सोचते होंगे। यही न कि प्लेटो एक साधारण व्यक्ति है। इससे तो आपके मान-सम्मान और मर्यादा का ह्रास होगा।
प्लेटो ने कहा,'लोग जो कुछ सोचते हैं, वे सही सोचते हैं। मैं तो इतना जानता हूं कि जो व्यक्ति अपने को महान विद्वान और वैज्ञानिक समझने लगता है, वह या तो सबसे बड़ा मूर्ख होता है या वह झूठ बोलता है। हर व्यक्ति में कुछ न कुछ सोचने-समझने की क्षमता मौजूद है, भले ही वह कह नहीं पाता या उसे अवसर नहीं मिलता। प्रत्येक व्यक्ति के प्रत्येक शब्द का महत्व है। ज्ञान अथाह है। उसकी कोई सीमा नहीं है। मेरा ज्ञान समुद्र की एक बूंद के बराबर है। जिस तरह एक-एक बूंद से समुद्र बनता है, उसी तरह एक-एक शब्द से ज्ञान बढ़ता है। इसलिए किसी को छोटा मत समझो।'

Wednesday, January 20, 2016

खुली आंखों के सपने

कहीं किसी शहर में एक छोटा लड़का रहता था. उसके पिता एक अस्तबल में काम करते थे. लड़का रोजाना देखता था कि उसके पिता दिन-रात घोड़ों की सेवा में खटते रहते हैं जबकि घोड़ों के रैंच का मालिक आलीशान तरीके से ज़िंदगी बिताता है और खूब मान-सम्मान पाता है. यह सब देखकर लड़के ने यह सपना देखना शुरू कर दिया कि एक दिन उसका भी एक बहुत बड़ा रैंच होगा जिसमें सैंकड़ों बेहतरीन घोड़े पाले और प्रशिक्षित किये जायेंगे.
एक दिन लड़के के स्कूल में सभी विद्यार्थियों से यह निबंध लिखने के लिए कहा गया कि ‘वे बड़े होकर क्या बनना और करना चाहते हैं’. लड़के ने रात में जागकर बड़ी मेहनत करके खूब लंबा निबंध लिखा जिसमें उसने बताया कि वह बड़ा होकर घोड़ों के रैंच का मालिक बनेगा. उसने अपने सपने को पूरे विस्तार से लिखा और 200 एकड़ के रैंच की एक तस्वीर भी खींची जिसमें उसने सभी इमारतों, अस्तबलों, और रेसिंग ट्रैक की तस्वीर बनाई. उसने अपने लिए एक बहुत बड़े घर का खाका भी खींचा जिसे वह अपने रैंच में बनाना चाहता था.
लड़के ने उस निबंध में अपना दिल खोलकर रख दिया और अगले दिन शिक्षक को वह निबंध थमा दिया. तीन दिन बाद सभी विद्यार्थियों को अपनी कापियां वापस मिल गयीं. लड़के के निबंध का परिणाम बड़े से लाल शब्द से ‘फेल’ लिखा हुआ था. लड़का अपनी कॉपी लेकर शिक्षक से मिलने गया. उसने पूछा – “आपने मुझे फेल क्यो किया?” – शिक्षक ने कहा – “तुम्हारा सपना मनगढ़ंत है और इसके साकार होने की कोई संभावना नहीं है. घोड़ों के रैंच का मालिक बनने के लिए बहुत पैसों की जरुरत होती है. तुम्हारे पिता तो खुद एक साईस हैं और तुम लोगों के पास कुछ भी नहीं है. बेहतर होता यदि तुम कोई छोटा-मोटा काम करने के बारे में लिखते. मैं तुम्हें एक मौका और दे सकता हूँ. तुम इस निबंध को दोबारा लिख दो और कोई वास्तविक लक्ष्य बना लो तो मैं तुम्हारे ग्रेड पर दोबारा विचार कर सकता हूँ”.
वह लड़का घर चला गया और पूरी रात वह यह सब सोचकर सो न सका. बहुत विचार करने के बाद उसने शिक्षक को वही निबंध ज्यों-का-त्यों दे दिया और कहा – “आप अपने ‘फेल’ को कायम रखें और मैं अपने सपने को कायम रखूंगा”.
बीस साल बाद शिक्षक को एक घुड़दौड़ का एक अंतर्राष्ट्रीय मुकाबला देखने का अवसर मिला. दौड़ ख़त्म हुई तो एक वयक्ति ने आकर शिक्षक को आदरपूर्वक अपना परिचय दिया. घुड़दौड़ की दुनिया में एक बड़ा नाम बनचुका यह वयक्ति वही छोटा लड़का था जिसने अपना सपना पूरा कर लिया था.
कहते हैं यह एक सच्ची कहानी है. होगी. न भी हो तो क्या! असल बात तो यह है कि हमें किसी को अपना सपना चुराने नहीं देना है और न ही किसी के सपने की अवहेलना करनी है. हमेशा अपने दिल की सुनना है, कहनेवाले कुछ भी कहते रहें. खुली आंखों से जो सपने देखा करते हैं उनके सपने पूरे होते हैं

Tuesday, January 19, 2016

व्यर्थ प्रयास

एक सूफी रहस्यवादी ने मुल्ला नसरुद्दीन और उसके एक शागिर्द का रास्ता रोक लिया. यह जांचने के लिए कि मुल्ला के भीतर आत्मिक जागृति हो चुकी है या नहीं, सूफी ने अपनी उंगली उठाकर आसमान की ओर इशारा किया.
इस इशारे से सूफी यह प्रदर्शित करना चाहता था कि ‘एक ही सत्य ने सम्पूर्ण जगत को आवृत कर रखा है’.
मुल्ला का शागिर्द आम आदमी था. वह सूफी के इस संकेत को समझ नहीं सका. उसने सोचा – “यह आदमी पागल है. मुल्ला को होशियार रहना चाहिए”.
सूफी का यह इशारा देखकर मुल्ला ने अपने झोले से रस्सी का एक गुच्छा निकाला और शागिर्द को दे दिया.
शागिर्द ने सोचा – “मुल्ला वाकई समझदार है. अगर पागल सूफी हमपर हमला करेगा तो हम उसे इस रस्सी से बाँध देंगे”.
सूफी ने जब मुल्ला को रस्सी निकालते देखा तो वह समझ गया कि मुल्ला कहना चाहता है कि ‘मनुष्य की क्षुद्र बुद्धि सत्य को बाँध कर रखने का प्रयास करती है जो आकाश पर रस्सी लगाकर चढ़ने के समान ही व्यर्थ और असंभव है’.

Monday, January 18, 2016

सीखने की भूख

एक नाई किसी के बाल बना रहा था. उसी समय फकीर जुन्नैद वहां आ गये और उन्होंने कहा : ”खुदा की खातिर मेरी भी हजामत कर दें.” उस नाई ने खुदा का नाम सुनते ही अपने गृहस्थ ग्राहक से कहा, ‘मित्र, अब थोड़ी मैं आपकी हजामत नहीं बना सकूंगा. खुदा की खातिर उस फकीर की सेवा मुझे पहले करनी चाहिये. खुदा का काम सबसे पहले है.’ इसके बाद फकीर की हजामत उसने बड़े ही प्रेम और भक्ति से बनाई और उसे नमस्कार कर विदा किया. कुछ दिनों बाद जब जुन्नैद को किसी ने कुछ पैसे भेंट किये, तो वे उन्हें नाई को देने गये. लेकिन उस नाई ने पैसे न लिये और कहा : ”आपको शर्म नहीं आती? आपने तो खुदा की खातिर हजामत बनाने को कहा था, रुपयों की खातिर नहीं!” फिर तो जीवन भर फकीर जुन्नैद अपनी मंडली में कहा करते थे, ”निष्काम ईश्वर-भक्ति मैंने हज्जाम से सीखी है.”
क्षुद्रतम् में भी विराट संदेश छुपे हैं. जो उन्हें उघाड़ना जानता है, वह ज्ञान को उपलब्ध होता है. जीवन में सजग होकर चलने से प्रत्येक अनुभव प्रज्ञा बन जाता है. और, जो मूर्छित बने रहते हें, वे द्वार आये आलोक को भी वापस लौटा देते हैं.

आंखें खुली हों, तो पूरा जीवन ही विद्यालय है. और जिसे सीखने की भूख है, वह प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक घटना से सीख लेता है.  जो इस भांति नहीं सीखता है, वह जीवन में कुछ भी नहीं सीख पाता

Sunday, January 17, 2016

ईश्वर को पाने की इच्छा

एक सन्यासी नदी के किनारे ध्यानमग्न था। एक युवक ने उससे कहा – “गुरुदेव, मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ”।
सन्यासी ने पूछा – “क्यों?”
युवक ने एक पल के लिए सोचा, फ़िर वह बोला – “क्योंकि मैं ईश्वर को पाना चाहता हूँ”।
सन्यासी ने उछलकर उसे गिरेबान से पकड़ लिया और उसका सर नदी में डुबो दिया। युवक स्वयं को बचाने के लिए छटपटाता रहा पर सन्यासी की पकड़ बहुत मज़बूत थी। कुछ देर उसका सर पानी में डुबाये रखने के बाद सन्यासी ने उसे छोड़ दिया। युवक ने पानी से सर बाहर निकाल लिया। वह खांसते-खांसते किसी तरह अपनी साँस पर काबू पा सका। जब वह कुछ सामान्य हुआ तो सन्यासी ने उससे पूछा – “मुझे बताओ कि जब तुम्हारा सर पानी के भीतर था तब तुम्हें किस चीज़ की सबसे ज्यादा ज़रूरत महसूस हो रही थी?”
युवक ने कहा – “हवा”।
“अच्छा” – सन्यासी ने कहा – “अब तुम अपने घर जाओ और तभी वापस आना जब तुम्हें ईश्वर की भी उतनी ही ज़रूरत महसूस हो”।

Friday, January 15, 2016

जीवन में कोयला या चंदन

हकीम लुकमान का पूरा जीवन जरूरतमंदों की सहायता के लिए समर्पित हुआ था। जब उनका अंतिम समय नजदीक आया तो उन्होंने अपने बेटे को पास बुलाया। बेटा पास आ गया तो उन्होंने उससे कहा, 'देखो बेटा, मैंने अपना सारा जीवन दुनिया को शिक्षा देने में गुजार दिया। अब अपने अंतिम समय में मैं तुम्हें कुछ जरूरी बातें बताना चाहता हूं। लेकिन इससे पहले जरा तुम एक कोयला और चंदन का एक टुकड़ा उठा कर ले लाओ।
बेटे को पहले तो यह बड़ा अटपटा लगा, लेकिन उसने सोचा कि अब पिता का हुक्म है तो यह सब लाना ही होगा। उसने रसोई घर से कोयले का एक टुकड़ा उठाया। संयोग से घर में चंदन की एक छोटी लकड़ी भी मिल गई। वह दोनों को लेकर अपने पिता के पास पहुंच गया। उसे आया देख लुकमान बोले, 'बेटा, अब इन दोनों चीजों को नीचे फेंक दो।' बेटे ने दोनों चीजें नीचे फेंक दीं और हाथ धोने जाने लगा तो लुकमान बोले, 'जरा ठहरो बेटा। मुझे अपने हाथ तो दिखाओ।'
बेटे ने हाथ दिखाए तो वह उसका कोयले वाला हाथ पकड़ कर बोले, 'देखा तुमने। कोयला पकड़ते ही हाथ काला हो गया। लेकिन उसे फेंक देने के बाद भी तुम्हारे हाथ में कालिख लगी रह गई। गलत लोगों की संगति ऐसी ही होती है। उनके साथ रहने पर भी दुख होता है और उनके न रहने पर भी जीवन भर के लिए बदनामी साथ लग जाती है। दूसरी ओर सज्जनों का संग इस चंदन की लड़की की तरह है जो साथ रहते हैं तो दुनिया भर का ज्ञान मिलता है और उनका साथ छूटने पर भी उनके विचारों की महक जीवन भर बनी रहती है। इसलिए हमेशा अच्छे लोगों की संगति में ही रहना।

Thursday, January 14, 2016

जीत का सूत्र संकल्प

महर्षि रमण बहुत कुशल धनुर्धर भी थे. एक सुबह उन्होंने अपने एक शिष्य को अपनी धनुर्विद्या देखने के लिए बुलाया. शिष्य यह सब पहले ही दसियों बार देख चुका था पर वह गुरु की आज्ञा की अवहेलना नहीं कर सकता था. वे समीप ही जंगल में एक विशाल वृक्ष के पास गए. महर्षि रमण के पास एक फूल था जिसे उन्होंने पेड़ की एक शाखा पर रख दिया.
फिर उन्होंने अपने बस्ते से अपना नायाब धनुष, तीर, और एक कढ़ाई किया हुआ सुंदर रूमाल निकाला.
वह फूल से सौ कदम दूर आकर खड़े हो गए और उन्होंने शिष्य से कहा कि वह रूमाल से उनकी आँखें ढंककर भली-भांति बंद कर दे. शिष्य ने ऐसा ही किया
“तुमने मुझे धनुर्विद्या की महान कला का अभ्यास करते कितने बार देखा है?” – महर्षि रमण ने शिष्य से पूछा.
“मैं तो यह सब रोज़ ही देखता हूँ!” – शिष्य ने कहा – “आप तो तीन सौ कदम दूर से ही फूल पर निशाना लगा सकते हैं.”
रूमाल से अपनी आँखें ढंके हुए महर्षि रमण ने अपने पैरों को धरती पर जमाया. उन्होंने पूरी शक्ति से धनुष की प्रत्यंचा को खींचा और तीर छोड़ दिया.
हवा को चीरता हुआ तीर फूल से बहुत दूर, यहाँ तक कि पेड़ से भी नहीं टकराया और लक्ष्य से बहुत दूर जा गिरा.
“तीर लक्ष्य पर लग गया न?” – अपनी आँखें खोलते हुए महर्षि रमण ने पूछा.
“नहीं. वह तो लक्ष्य के पास भी नहीं लगा” – शिष्य ने कहा – “मुझे लगा कि आप इसके द्वारा संकल्प की शक्ति या अपनी पराशक्तियों का प्रदर्शन करनेवाले थे.”
“मैंने तुम्हें संकल्प शक्ति का सबसे महत्वपूर्ण पाठ ही तो पढाया है.” – महर्षि ने कहा – “तुम जिस भी वस्तु की इच्छा करो, अपना पूरा ध्यान उसी पर लगाओ. कोई भी उस लक्ष्य को नहीं वेध सकता जो दिखाई ही न देता हो.

Tuesday, January 12, 2016

लालच का फल

एक धनी व्यक्ति दिन-रात अपने व्यापारिक कामों में लगा रहता था। उसे अपने स्त्री-बच्चों से बात करने तक की फुरसत नहीं मिलती थी। पड़ोस में ही एक मजदूर रहता था जो एक रुपया रोज कमाकर लाता और उसी से चैन की वंशी बजाता। रात को वह तथा उसके स्त्री-बच्चे खूब प्रेमपूर्वक हँसते बोलते। सेठ की स्त्री यह देखकर मन ही मन बहुत दुःखी होती कि हमसे तो यह मजदूर ही अच्छा है, जो अपना गृहस्थ जीवन आनंद के साथ तो बिताता है। उसने अपना महा दुःख एक दिन सेठ जी से कहा कि इतनी धन-दौलत से क्या फायदा जिसमें फँसे रहकर जीवन के और सब आनंद छूट जाएँ।सेठ जी ने कहा-तुम कहती तो ठीक हो, पर लोभ का फंदा ऐसा ही है कि इसके फेर में जो फँसा जाता है उसे दिन-रात पैसे की ही हाय लगी रहती है। यह लोभ का फंदा जिसके गले में एक बार पड़ा वह मुश्किल से ही निकल पाता है। यह मजदूर भी यदि पैसे के फेर में पड़ जाए तो इसकी जिंदगी भी मेरी ही जैसी नीरस हो जावेगी।’’
सेठानी ने कहा-इसकी परीक्षा करनी चाहिए।’’ सेठ जी ने कहा, अच्छा-उसने एक पोटली में निन्यानवे रुपए बाँधकर मजदूर के घर में रात के समय फेंक दिए। सवेरे मजदूर उठा और पोटली आँगन में देखी तो खोला, देखा तो रुपए। बहुत प्रसन्न हुआ। स्त्री को बुलाया, रुपए गिने। निन्यानवे निकले, अब उनने विचार किया कि एक रुपया कमाता था उसमें से आठ आने खाए गए, आठ आने जमा किए। दूसरे दिन फिर आठ आने बचाए। अब उन रुपयों को और अधिक बढ़ाने को चस्का लगा। वे कम खाते, राते को भी अधिक काम करते ताकि जल्दी-जल्दी अधिक पैसे बचें और वह रकम बढ़ती चली जाए।
सेठानी अपने छत पर से उस नीची छत वाले मजदूर का सब हाल देखा करती। थोड़े दिनों में वह परिवार जो पहले कुछ भी न होने पर भी बहुत आनंद का जीवन बिताता था अब धन जोड़ने के चक्कर में, निन्यानवे के फेर में पड़कर अपनी सारी प्रसन्नता खो बैठा और दिन-रात हाय-हाय में बिताने लगा। तब सेठानी ने समझा कि जोड़ने और जमा करने की आकांक्षा ही ऐसी पिशाचिनी है जो मजदूर से लेकर सेठ तक की जिंदगी को व्यर्थ और भार रूप बना देती है।

Monday, January 11, 2016

मुट्ठी मत बांधो

किसी नगर में एक लालची आदमी रहता था। ज्यों-ज्यों उसके पास पैसा आता गया त्यों-त्यों उसका लोभ बढ़ता गया। उसे सभी प्रकार की सुख-सुविधाएं उपलब्ध थीं। धन के बल पर वह प्रत्येक वस्तु प्राप्त कर सकता था। लेकिन उसके जीवन में एक चीज का अभाव था- उसका कोई पुत्र नहीं था। उसकी युवावस्था बीतने लगी, परंतु धन-संपत्ति के प्रति उसकी चाहत में कोई अंतर नहीं आया।
एक रात बिस्तर पर लेटे-लेटे उसने देखा कि सामने कोई अस्पष्ट आकृति खड़ी है। उसने घबराकर पूछा,'कौन?' उत्तर मिला,'मृत्यु।' फिर वह आकृति गायब हो गई। उस दिन से जब भी वह एकांत में होता, आकृति उसके सामने आ जाती। उसका सारा सुख मिट्टी हो गया। कुछ ही दिनों में वह बीमार पड़ गया। वह वैद्य के पास गया, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। दवा की, पर रोग घटने के बजाय बढ़ता गया। लोगों ने उसकी दशा देखकर कहा, 'नगर के उत्तरी छोर पर एक महात्मा रहते हैं। वह सभी प्रकार की व्याधियों को दूर कर देते हैं।'

उस आदमी ने महात्मा के पास पहुंचकर रोते हुए प्रार्थना की,'आप मेरा कष्ट दूर करें। मौत मेरा पीछा नहीं छोड़ रही है।' महात्मा ने कहा,'भले आदमी, मोह और मृत्यु परम मित्र हैं। जब तक तुम्हारे पास मोह है तब तक मृत्यु आती रहेगी। मृत्यु से तभी छुटकारा मिलेगा जब तुम मोह रहित हो जाओगे।' आदमी ने कहा-'महाराज मैं क्या करूं, मोह छूटता ही नहीं।' महात्मा बोले-'कल से तुम एक हाथ से लो और दूसरे हाथ से दो। मुट्ठी मत बांधो, हाथ को खुला रखो। तुम्हारा रोग दूर हो जाएगा।' महात्मा की बात मानकर उस आदमी ने नए जीवन का आरंभ किया। रोग तो दूर हुआ ही, उसे अच्छा भी लगने लगा।

Sunday, January 10, 2016

कबूतर और इंसान

एक प्राचीन मंदिर की छत पर कुछ कबूतर राजीखुशी रहते थे।जब वार्षिकोत्सव की तैयारी के लिये मंदिर का जीर्णोद्धार होने लगा तब कबूतरों को मंदिर छोड़कर पास के चर्च में जाना पड़ा।
चर्च के ऊपर रहने वाले कबूतर भी नये कबूतरों के साथ राजीखुशी रहने लगे।
क्रिसमस नज़दीक था तो चर्च का भी रंगरोगन शुरू हो गया।अत: सभी कबूतरों को जाना पड़ा नये ठिकाने की तलाश में।
किस्मत से पास के एक मस्जिद में उन्हे जगह मिल गयी और मस्जिद में रहने वाले कबूतरों ने उनका खुशी-खुशी स्वागत किया।
रमज़ान का समय था मस्जिद की साफसफाई भी शुरू हो गयी तो सभी कबूतर वापस उसी प्राचीन मंदिर की छत पर आ गये।
एक दिन मंदिर की छत पर बैठे कबूतरों ने देखा कि नीचे चौक में धार्मिक उन्माद एवं दंगे हो गये।
छोटे से कबूतर ने अपनी माँ से पूछा " माँ ये कौन लोग हैं ?"
माँ ने कहा " ये मनुष्य हैं"।
छोटे कबूतर ने कहा " माँ ये लोग आपस में लड़ क्यों रहे हैं ?"
माँ ने कहा " जो मनुष्य मंदिर जाते हैं वो हिन्दू कहलाते हैं, चर्च जाने वाले ईसाई और मस्जिद जाने वाले मनुष्य मुस्लिम कहलाते हैं।"
छोटा कबूतर बोला " माँ एसा क्यों ? जब हम मंदिर में थे तब हम कबूतर कहलाते थे, चर्च में गये तब भी कबूतर कहलाते थे और जब मस्जिद में गये तब भी कबूतर कहलाते थे, इसी तरह यह लोग भी मनुष्य कहलाने चाहिये चाहे कहीं भी जायें।"
माँ बोली " मेनें, तुमने और हमारे साथी कबूतरों ने उस एक ईश्वरीय सत्ता का अनुभव किया है इसलिये हम इतनी ऊंचाई पर शांतिपूर्वक रहते हैं।
इन लोगों को उस एक ईश्वरीय सत्ता का अनुभव होना बाकी है , इसलिये यह लोग हमसे नीचे रहते हैं और आपस में दंगे फसाद करते हैं।"

Saturday, January 9, 2016

जीवन के दुःख

एक बार एक परेशान और निराश व्यक्ति अपने गुरु के पास पहुंचा और बोला – “गुरूजी मैं जिंदगी से बहुत परेशान हूँ| मेरी जिंदगी में परेशानियों और तनाव के सिवाय कुछ भी नहीं है| कृपया मुझे सही राह दिखाइये|”
गुरु ने एक गिलास में पानी भरा और उसमें मुट्ठी भर नमक डाल दिया| फिर गुरु ने उस व्यक्ति से पानी पीने को कहा|
उस व्यक्ति ने ऐसा ही किया|
गुरु :- इस पानी का स्वाद कैसा है ??
“बहुत ही ख़राब है” उस ब्यक्ति ने कहा|
फिर गुरु उस व्यक्ति को पास के तालाब के पास ले गए| गुरु ने उस तालाब में भी  मुठ्ठी भर नमक डाल दिया फिर उस व्यक्ति से कहा – इस तालाब का पानी पीकर  बताओ की कैसा है|
उस व्यक्ति ने तालाब का पानी पिया और बोला – गुरूजी यह तो बहुत ही मीठा है|
गुरु ने कहा – “बेटा जीवन के दुःख भी इस मुठ्ठी भर नमक के समान ही है| जीवन में दुखों की मात्रा वही रहती है – न ज्यादा न कम| लेकिन यह हम पर निर्भर करता है कि हम दुखों का कितना स्वाद लेते है| यह हम पर निर्भर करता है कि हम अपनी सोच एंव ज्ञान को गिलास की तरह सीमित रखकर रोज खारा पानी पीते है या फिर तालाब की तरह बनकर मीठा पानी पीते है

Thursday, January 7, 2016

जोखिम और होसला

नेपोलियन अक्सर जोखिम  भरे काम किया करते थे। एक बार उन्होने आलपास पर्वत को पार करने का ऐलान किया और अपनी सेना के साथ चल पढे। सामने एक विशाल और गगनचुम्बी पहाड़ खड़ा था जिसपर चढ़ाई करने असंभव था। उसकी सेना मे अचानक हलचल की स्थिति पैदा हो गई। फिर भी उसने अपनी सेना को चढ़ाई का आदेश दिया। पास मे ही एक बुजुर्ग औरत खड़ी थी। उसने जैसे ही यह सुना वो उसके पास आकर बोले की क्यो मरना चाहते हो। यहा जितने भी लोग आये है वो मुह की खाकर यही रहे गये। अगर अपनी ज़िंदगी से प्यार है तो वापिस चले जाओ। उस औरत की यह बात सुनकर नेपोलियन नाराज़ होने की बजाये प्रेरित हो गया और झट से हीरो का हार उतारकर उस बुजुर्ग महिला को पहना दिया और फिर बोले; आपने मेरा उत्साह दोगुना कर दिया और मुझे प्रेरित किया है। लेकिन अगर मै जिंदा बचा तो आप मेरी जय-जयकार करना। उस औरत ने नेपोलियन की बात सुनकर कहा- तुम पहले इंसान हो जो मेरी बात सुनकर हताश और निराश नहीं हुए। ‘ जो करने या मरने ‘ और मुसीबतों का सामना करने का इरादा रखते है, वह लोग कभी नही हारते।
भगवान राम के सामने भी मुसीबते आयी है। विवाह के बाद, वनवास की मुसीबत। उन्होने सभी मुसीबतों का सामना आदर्श तरीके से किया। तभी वो मर्यादा पुरषोतम कहलाये जाते है। मुसीबते ही हमें आदर्श बनाती है।
 अंत मे एक बात हमेशा याद रखिये;
जिंदगी में मुसीबते चाय के कप में जमी मलाई की तरह है,
और कामयाब वो लोग हैं जिन्हेप फूँक मार के मलाई को साइड कर चाय पीना आता है

Wednesday, January 6, 2016

ईर्ष्या और लालच का फल

एक दिन एक राजा ने अपने मंत्री से कहा-'महामंत्री, बहुत दिनों से सोच रहा हूं कि क्यों न राज्य के कुछ योग्य प्रजाजनों को सम्मानित करके उन्हें बड़े उपहार दूं। आप मुझे सुझाइए कि ऐसे व्यक्ति कैसे ढ़ूंढे जाएं?' मंत्री ने तनिक सोचकर कहा-'महाराज सत्पात्रों की तो आपके राज्य में कोई कमी नहीं है, वे परस्पर सहयोग करने की अपेक्षा एक दूसरे की टांग खिंचाई में लगे रहते हैं। दूसरों की प्रगति में रोड़ा अटकाते हैं। ऐसी दशा में मुझे तो लगता नहीं कि आपको कोई सही व्यक्ति मिलेगा।'
 राजा को मंत्री की बात अटपटी-सी लगी। वे बोले-'तुम्हारी यह बात सही हो सकती है, पर इसे बिना प्रमाण के मैं कैसे मान लूं। इस विषय में यदि तुम्हारे पास कोई ठोस प्रमाण हो तो बताओ।' महामंत्री ने राजा को कथन को प्रत्यक्ष कर दिखाने की एक योजना बनाई। राजा की स्वीकृति मिलते ही एक आठ फुट गहरा गड्ढा इतनी चौड़ाई के साथ खुदवाया कि उसमें एक साथ कम से कम 20 व्यक्ति खड़े हो सकें। ऐसे बीस पात्रों को चुनकर जो सम्मान योग्य समझे गए, उन्हें गड्ढे में छोड़ दिया गया।
 साथ ही घोषणा भी कर दी कि जो इस गड्ढे से बाहर आ जाएगा उसे महाराज अपने राज्य का एक चौथाई हिस्सा पुरस्कार में देंगे। सभी जी-जान से ऊपर चढ़ने की कोशिश करने लगे। जो भी सफल होने को होता दूसरा पुरस्कार खोने के डर से उसे गड्ढे में खींच लेता। प्रतियोगिता बिना परिणाम के समाप्त हो गई। राजा को यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ। यह देखकर मंत्री ने कहा,'महाराज, यदि इनमें एकता होती तो सहारा देकर एक-दूसरे को ऊपर चढ़ा सकते थे। परंतु वे ईर्ष्या और लालचवश ऐसा न कर सके।'

Tuesday, January 5, 2016

सोच का फर्क

एक आदमी समुद्रतट पर चल रहा था। उसने देखा कि कुछ दूरी पर एक युवक ने रेत पर झुककर कुछ उठाया और आहिस्ता से उसे पानी में फेंक दिया। उसके नज़दीकपहुँचने पर आदमी ने उससे पूछा – “और भाई, क्या कर रहे हो?”
युवक ने जवाब दिया – “मैं इन मछलियों को समुद्र में फेंक रहा हूँ।
लेकिन इन्हें पानी में फेंकने की क्या ज़रूरत है?”- आदमी बोला।
युवक ने कहा – “ज्वार का पानी उतर रहा है और सूरज की गर्मी बढ़ रही है।अगर मैं इन्हें वापस पानी में नहीं फेंकूंगा तो ये मर जाएँगी
आदमी ने देखा कि समुद्रतट पर दूर-दूर तक मछलियाँ बिखरी पड़ी थीं। वह बोला – “इस मीलों लंबे समुद्रतट पर न जाने कितनी मछलियाँ पड़ी हुई हैं। इसतरह कुछेक को पानी में वापस डाल देने से तुम्हें क्या मिल जाएगा? इससे क्या फर्क पड़ जायेगा?
युवक ने शान्ति से आदमी की बात सुनी, फ़िर उसने रेत पर झुककर एक और मछली उठाई और उसे आहिस्ता से पानी में फेंककर वह बोला :
आपको इससे कुछ मिले न मिले
मुझे इससे कुछ मिले न मिले
दुनिया को इससे कुछ मिले न मिले
लेकिन इस मछली को सब कुछ मिल जाएगा
सकारात्मक सोच  वाले व्यक्ति को लगता है कि उसके छोटे छोटे प्रयासों से किसी को बहुत कुछ मिल जायेगा लेकिन नकारात्मक सोच   के व्यक्ति को यही लगेगा कि, यह समय की बर्बादी है?

Monday, January 4, 2016

लक्ष्य प्राप्ति का रास्ता

शस्त्र विद्या का एक विद्यार्थी अपने गुरु के पास गया। उसने अपने गुरु से विनम्रतापूर्वक पूछा – “मैं आपसे शस्त्र विद्या सीखना चाहता हूँ। इसमें मुझे पूरी तरह निपुण होने में कितना समय लगेगा?” गुरु ने कहा – “10वर्ष।” विद्यार्थी ने फ़िर पूछा – “लेकिन मैं इससे भी पहले इसमें निपुण होना चाहता हूँ। मैं कठोर परिश्रम करूँगा। मैं प्रतिदिन अभ्यास करूँगा भले ही मुझे 15 घंटे या इससे भी अधिक समय लग जाए। तब मुझे कितना समय लगेगा?” गुरु ने कुछ क्षण सोचा, फ़िर बोले – “20 वर्ष।”   गुरु का यह कथन हमारी जिंदगी में भी लागू होता है| यह मनुष्य की स्वभाविक प्रकृति है कि अगर वह जैसा सोचता है वैसा नहीं होता तो वह दुःखी हो जाता है| जब हम अपने द्वारा बनाये हुए लक्ष्य (TARGET) को ही पूरा नहीं कर पाते तो हमारा आत्मविश्वास डगमगाने लगता है| जब हमारे लक्ष्य पूरे होते दिखाई नहीं देते तो हमारे पास दो उपाय होता है – या तो लक्ष्य को बदल दो और या फिर समय सीमा को बढ़ा दो| ये दोनों ही उपाय हमारे आत्मविश्वास को कम कर देते है इसलिए बेहतर यही होता है लक्ष्य व्यावहारिक होने चाहिए|  हमेशा धैर्य से काम लेना चाहिए| अगर माली एक दिन में सौ घड़े भी सींच लेगा तो भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेंगे|   इसलिए बेहतर यही है कि धैर्य से काम लिया जाए और व्यावहारिक लक्ष्य रखें जाएँ क्योंकि जब आप अपने छोटे से छोटे लक्ष्य को भी हासिल कर लेते है तो यह आपका आत्मविश्वास कई गुना बढ़ा देता है जिससे हमारी कार्यक्षमता बढ़ जाती है और हम तय लक्ष्य से ज्यादा हासिल कर पाते है|

Sunday, January 3, 2016

बड़ा मूर्ख

एक साधु रोज नगरवासियों के बीच जाकर भिक्षा मांगता और जो कुछ मिलता उसी से गुजारा चलाता। एक रोज उसके मन में तीर्थयात्रा का विचार आया। लेकिन वह सोच में पड़ गया कि रास्ते के खर्च के लिए धन का इंतजाम कैसे हो? उसी नगर में एक कंजूस सेठ रहता था। साधु ने उसके पास जाकर कुछ सहयोग की विनती की। सेठ बोला, 'साधु महाराज, अभी धंधे में मंदी चल रही है और फिर मुझे कारोबार में कुछ दिन पूर्व घाटा भी हुआ है। अभी तो आप मुझे माफ करें।'
साधु समझ गया कि सेठ झूठी कहानी गढ़ रहा है। वह वहां से लौटने लगा। तभी सेठ बोला, 'रुकिए, आप मेरे यहां आए हैं तो मैं आपको एक चीज देता हूं।' उसने एक दर्पण निकाला और साधु से कहा, 'आपको अपने प्रवास के दौरान जो सबसे बड़ा मूर्ख मिले, उसे यह दर्पण दे दीजिए।' साधु सेठ को आशीष देते हुए वहां से निकल गया। कई दिनों के बाद जब साधु तीर्थयात्रा से लौटकर आया तो उसे पता चला कि सेठ बेहद बीमार और मरणासन्न अवस्था में है। साधु उससे मिलने पहुंचा।
अपनी कंजूस वृत्ति के कारण सेठ न तो अपना इलाज ढंग से करा पाया था और न धन को किसी सत्कर्म में लगा पाया। अब सेठ मरणासन्न स्थिति में था और उसके कुटुंबीजन उसका पैसा और सामान ले जा रहे थे। साधु ने यह देखकर अपने झोले में से दर्पण निकाला और सेठ को लौटाते हुए कहा, 'मुझे आपसे बड़ा मूर्ख और कोई नहीं मिला जिसने कमाया तो बहुत, लेकिन जिसके मन में धन का सदुपयोग करने का विचार तक नहीं आया। यदि अपने धन का सदुपयोग किया होता तो आपको अंतिम समय में इस तरह कष्ट नहीं भोगना पड़ता।'