एक समय की बात है। एक शहर में एक धनी आदमी रहता था। उसकी
लंबी-चौड़ी खेती-बाड़ी थी और वह कई तरह के व्यापार करता था।
बड़े विशाल
क्षेत्र में उसके बगीचे फैले हुए थे, जहां पर भांति-भांति के फल लगते
थे। उसके कई बगीचों में अनार के पेड़ बहुतायत में थे, जो दक्ष
मालियों की देख-रेख में दिन दूनी और रात चौगुनी गति से फल-फूल रहे थे।
उस
व्यक्ति के पास अपार संपदा थी, किंतु उसका हृदय संकुचित न होकर
अति विशाल था।
शिशिर ऋतु आते ही वह अनारों को चांदी के थालों में
सजाकर अपने द्वार पर रख दिया करता था।
उन थालों पर लिखा होता था ‘आप कम से
कम एक तो ले ही लें। मैं आपका स्वागत करता हूं।’
लोग
इधर-उधर से देखते हुए निकलते, किंतु कोई भी व्यक्ति फल को हाथ तक
नहीं लगाता था।
तब उस आदमी ने गंभीरतापूर्वक इस पर विचार किया और किसी
निष्कर्ष पर पहुंचा। अगली शिशिर ऋतु में उसने अपने घर के द्वार
पर उन चांदी के थालों में एक भी अनार नहीं रखा, बल्कि उन थालों पर
उसने बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा ‘हमारे पास अन्य सभी स्थानों से कहीं
अच्छे अनार मिलेंगे, किंतु उनका मूल्य भी दूसरे के अनारों की
अपेक्षा अधिक लगेगा।’और तब उसने पाया कि न केवल पास-पड़ोस के,
बल्कि दूरस्थ स्थानों के नागरिक भी उन्हें खरीदने के लिए टूट पड़े।
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