Monday, May 4, 2015

                सबसे हट कर सबसे बड़ी बात

एक दिन सुबह के समय परमहंस देव अपने शिष्यों के साथ टहल रहे थे। तभी उन्होंने देखा कि पास ही कुछ मछुआरे जाल फेंक कर मछलियां पकड़ रहे हैं। वह अचानक एक मछुआरे के पास पहुंचकर खड़े हो गए और अपने शिष्यों से बोले, 'तुम लोग इस जाल में फंसी मछलियों की गतिविधियां गौर से देखो।' शिष्यों ने देखा कि कुछ मछलियां ऐसी हैं जो जाल में निश्चल पड़ी हैं। वे निकलने की कोई कोशिश भी नहीं कर रही हैं, जबकि कुछ मछलियां जाल से निकलने की कोशिश करती रहीं। हालांकि, उनमें कुछ को सफलता नहीं मिली, लेकिन कुछ जाल से मुक्त होकर फिर से जल में खेलने में मगन हैं।

जब परमहंस ने देखा कि शिष्य मछलियों को देखने में मगन होकर दूर निकल गए हैं, तो फिर उन्हें अपने पास बुला लिया। शिष्य आ गए तो कहा, 'जिस प्रकार मछलियां मुख्यत: तीन प्रकार की होती हैं, वैसे ही अधिकतर मनुष्य भी तीन प्रकार के होते हैं। एक श्रेणी उन मनुष्यों की होती है, जिनकी आत्मा ने बंधन स्वीकार कर लिया है। अब वे इस भव-जाल से निकलने की बात ही नहीं सोचते। दूसरी श्रेणी ऐसे व्यक्तियों की है, जो वीरों की तरह प्रयत्न तो करते हैं पर मुक्ति से वंचित रहते हैं। तीसरी श्रेणी उन लोगों की है जो प्रयत्न द्वारा अंततः मुक्ति पा ही लेते हैं। लेकिन दोनों में एक श्रेणी और होती है जो खुद को बचाए रहती है।

' एक शिष्य ने पूछा, 'गुरुदेव, वह श्रेणी कैसी है?' परमहंस देव बोले, 'हां, वह बड़ी महत्वपूर्ण है। इस श्रेणी के मनुष्य उन मछलियों के समान हैं जो जाल के निकट कभी नहीं आतीं। और जब वे निकट ही नहीं आतीं, तो उनके फंसने का प्रश्न ही नहीं उठता।'

                        सबसे बड़ा काम

एक बार बेंजामिन फ्रैंकलिन ने एक धनी व्यक्ति की मेज पर बीस डॉलर की सोने की गिन्नी रखते हुए कहा, 'सर, आपने बुरे वक्त में मेरी सहायता की थी। उसके लिए मैं बहुत आभारी हूं। लेकिन अब मैं अपनी मेहनत के बल पर इतना सक्षम हो गया हूं कि आपका वह कर्ज लौटा सकूं।' यह सुनकर वह व्यक्ति उन्हें गौर से घूरते हुए बोला, 'क्षमा कीजिए, पर मैंने आपको पहचाना नहीं। न ही मुझे याद है कि मैंने किसी को बीस डॉलर उधार दिए थे।'
बेंजामिन बोले, 'मैं उन दिनों एक प्रेस में अखबार छापने का काम करता था। एक दिन अचानक मेरी तबीयत खराब हो गई। तभी मैंने आपसे बीस डॉलर लिए थे।' उस व्यक्ति ने अपने बीते दिनों के बारे में सोचा तो उसे याद हो आया कि काफी पहले एक लड़का प्रेस में काम किया करता था और एक दिन उसने उसकी मदद भी की थी। इस पर वह बोला, 'हां मुझे याद आ गया। लेकिन दोस्त, यह तो मनुष्य का सहज धर्म है कि वह मुसीबत में सहायता करे। इन गिन्नियों को अब अपने पास ही रखें। कभी कोई जरूरतमंद आए तो उसे दे दें।'
उसकी यह बात सुनकर बेंजामिन फ्रैंकलिन बहुत प्रभावित हुए और उन्हें अभिवादन कर वे गिन्नियां अपने साथ लौटा लाए। इसके बाद एक दिन उन्होंने एक जरूरतमंद व्यक्ति को वह गिन्नियां दे दीं। उस व्यक्ति ने बेंजामिन से गिन्नियां लौटाने की बात कही तो वह उससे बोले, 'दोस्त, जब तुम सक्षम हो जाओगे तो अपने जैसे किसी जरूरतमंद को ये गिन्नियां दे देना। मैं समझूंगा कि मेरी गिन्नियां मुझे मिल गईं। किसी जरूरतमंद की वक्त पर मदद करना ही सबसे बड़ा काम है।'

                  काम करने का तरीका

क युवक अपने काम के लिए कहीं जा रहा था। रास्ते में उसने देखा कि एक मजदूर दीवार पर सफेदी कर रहा है। वह सड़क पार करने के लिए वहां कुछ देर रुका रहा और इस बीच मजदूर का काम करने का तरीका देखता रहा। कुछ देर में सड़क खाली हो गई तो उसने पाया कि मजदूर जिस ढंग से दीवार पर सफेदी कर रहा था, उससे सामान और समय दोनों की बर्बादी हो रही थी।
कुछ सोचकर वह उस मजदूर के पास गया और उससे बोला, 'दोस्त, इससे बहुत कम समय में और कम सामान में अच्छी तरह से सफेदी हो सकती है। क्या तुम वह तरकीब मुझसे सीखना चाहोगे?' मजदूर यह सुनकर हैरानी से युवक को देखते हुए बोला,'तुम अगर ऐसा कर सकते हो तो बहुत अच्छी बात है। मैं उस तरकीब को अवश्य सीखना चाहूंगा।' बस, इसके बाद वह युवक अपनी कमीज की बांहें ऊपर चढ़ाकर ब्रश और सफेदी लेकर काम में जुट गया।
कुछ ही समय में उसने अपनी बात सही साबित करके दिखा दी। उसके सफेदी करने के तरीके से काफी समय व सामान बच गया और सफेदी भी बहुत बढ़िया हो गई। मजदूर खुश होकर युवक से बोला,'अब मैं भविष्य में ऐसे ही काम करूंगा जैसा आपने सिखाया है। उस जगह का मालिक चुपचाप वहां खड़ा यह सब देख रहा था। युवक नीचे उतर कर आया तो उसने उसके हाथ में इनाम थमाना चाहा।
युवक बोला,'सर, इनाम व मेहनताने पर मेरा नहीं, मजदूर का हक है। काम तो इसी ने किया है, मैंने तो बस इसे काम को सही ढंग से करने का तरीका समझाया है।'आगे चलकर यही युवक महान दार्शनिक बना और कार्ल मार्क्स के नाम से मशहूर हुआ।

                               महात्मा की सीख
एक दिन एक महात्मा भिक्षा मांगने कहीं जा रहे थे। एक जगह उन्हें एक सिक्का पड़ा नजर आया। उसे उठाकर उन्होंने अपनी झोली में रख लिया। उनके साथ जा रहे दोनों शिष्य यह देखकर मायूस रह गए। असल में मन ही मन वे सोच रहे थे कि काश वह सिक्का उन्हें मिल जाता तो वे बाजार से अपने लिए कुछ खरीद लाते। उनके ऐसा सोचते ही महात्मा जी समझ गए। वह बोले- 'यह कोई साधारण सिक्का नहीं है। मैं इसे किसी योग्य व्यक्ति को ही दूंगा।'
देखते-देखते कई दिन बीत गए, लेकिन महात्मा ने वो सिक्का किसी को नहीं दिया। एक दिन महात्मा को समाचार मिला कि सिंहगढ़ के महाराज अपनी विशाल सेना के साथ पास से गुजर रहे हैं। महात्मा ने तुरंत अपने शिष्यों से कहा- यह जगह छोड़ने की घड़ी आ गई है। बस फिर क्या था, शिष्यों के साथ महात्मा जी चल पड़े। तभी उस रास्ते से राजा की सवारी भी आ गई। मंत्री ने राजा को बताया कि ये महात्मा बड़े ज्ञानी हैं।
यह सुन राजा ने हाथी से उतरकर महात्मा को सादर प्रणाम किया और कहा- 'महात्मा जी, आप मुझे विजय का आशीर्वाद दें।' महात्मा ने झोले से सिक्का निकाला और राजा की हथेली पर उसे रखते हुए कहा, 'राजा, तुम्हारा राज्य धन-धान्य से संपन्न है। फिर भी तुम्हारे लालच का अंत नहीं है। तुम और अधिक पाने की लालसा में युद्ध करने के लिए जा रहे हो। मेरे विचार में तुम वास्तव में सबसे बड़े दरिद्र इंसान हो। इसलिए मैंने तुम्हें यह सिक्का दिया है।'
राजा महात्मा की बात का मतलब समझ गया। उसने सेना को तुरंत वापस लौट चलने का आदेश दिया।

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